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( २ )
निवृत्ति ही चारित्र है । हमको द्रव्यत्याग में पुण्य बंध की ओर दृष्टि न देना चाहिये, किन्तु इस द्रव्यसे ममत्वनिवृत्तिद्वारा शुद्धोपयोगका वर्धक दान समझना चाहिये | वास्तविक तत्व ही निवृत्तिरूप है। जहां उभयपदार्थ का बंध है वही संसार है। और जहां दोनों वस्तु स्वकीय २ गुणपर्यायों में परिणमन करते हैं वही निवृत्ति है यही सिद्धांत है । कहा भी है- श्लोक - सिद्धांतोऽयमुदात्त चित्तचरितैर्मोक्षार्थिभिः सेव्यतां । शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमज्योतिस्सदैवास्म्यहम् ॥ एते मे तु समुल्लसति विविधा भावाः पृथग्लक्षणाः । स्तेऽहं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि ॥
अर्थ-यह सिद्धांत उदार चित्त और उदारचरित्रवाले मोक्षार्थियों को सेवन करना चाहिये कि मैं एक ही शुद्ध (कर्मरहित) चैतन्य स्वरूप परम ज्योतिबाला सदैव हूं । तथा ये मेरे भिन्नलक्षणवाले नाना भाव प्रगट होते हैं । वे मैं नहीं हूं क्योंकि वे संपूर्ण मेरे भाव परद्रव्य हैं ।
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