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( ४ )
अचेतन द्रव्य हैं । इनका एकरूप परिणमना न्याय प्रतिकूल है । पुल के निमित्त को प्राप्त होकर आत्मा रागादिकरूप परिणम जाता है । फिरभी रागादिक भाव औदयिक हैं अतः बंधजनक हैं आत्मा को दुःख जनक हैं अतः हेय हैं परंतु शरीर का परिणमन आत्मा से भिन्न हैं । अतः न वह हेय है और न वह उपादेय है । इसही को समयसार में श्री महर्षि कुंदकुंदाचार्य ने निर्जराधिकार में लिखा है ।
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गाथा
विज्जदु भिज्जदु वा णिज्जदु वा अहव जादु विप्पलयं ॥ जम्हा तम्हा गच्छदु तहवि गहु परिग्गहो मज्झ ॥
( अर्थ - यह शरीर छिद जावो अथवा भिदजावो अथवा निर्जरा को प्राप्त हो जावो अथवा नाश हो जावो जैसे तैसे हो जावो तो भी यह मेरा परिग्रह नहीं है । )
इसीसे सम्यग्दृष्टी के परद्रव्य के नानाप्रकार के परिणमन होते हुवे भी हर्ष विषाद नहीं होता । अतः आपको भी इस समय शरीर की क्षीण अवस्था होते हुवे कोई भी विकल्प न कर तटस्थ ही रहना हितकर है
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