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चालकलाकार
पत्र नं.६
श्रीयुत महाशय पं. दीपचंद जी वर्णी-योग्य इच्छाकार!
__बन्धुवर ! आपका पत्र पढ़कर मेरी आत्मा में अपार हर्ष होता है कि आप इस रुग्णावस्था में हदश्रद्धालु हो गये हैं। यही संसार से उद्धार का प्रथम प्रयत्न है। कायकी क्षीणता कुछ अात्मतत्व की क्षीणता में निमित्त नहीं। इसको आप समीचीनतया जानते हैं। वास्तव में आत्मा के शत्रु तो राग द्वेष
और मोह हैं। जो उसे निरंतर इस दुःस्त्रमय संसार में भ्रमण करा रहे हैं । अतः आवश्यकता इसकी है कि जो रागद्वेष के आधीन न होकर स्वात्मेत्थ परमानंद की ओर ही हमारा प्रयत्न सतत रहना ही श्रेयस्कर है।
औदयिक रागादि होवें इसका कुछ भी रंज नहीं करना चाहिये । रागादिकों का होना रुचिकर नहीं होना चाहिये। बड़े बड़े ज्ञानी जनों के राग होता है। परन्तु उस राग में रंज के अभाव से अग्रे उसकी परिपाटी रोधका आत्मा को अनायास अवसर मिल जाता है। इस प्रकार औदयिक रागादिकों की संतान का अपचय होते होते एक दिन समूलतल से
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