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( ४८ ) आहारादिक का ग्रहण करूंगा।" क्योंकि "शरीरमाधं खलु धर्मसाधनं” इस वाक्य के अनुसार शरीर की रक्षा करना परम कर्तव्य है। धर्म का साधन शरीर से ही होता है। इसलिये रोगादिक होने पर यथाशक्ति प्रासुक औषधि सेवन करना चाहिये परन्तु जब असाध्य रोग हो जावे और किसी प्रकार के उपचार से लाभ न होवे तब यह शरीर दुष्ट संग के समान सर्वथा त्याग करते हुये इच्छित फलका देनेवाला धर्म विशेषता से पालने योग्य कहा है। शरीर मृत्यु के पश्चात् फिर भी प्राप्त होता है परन्तु धर्म धारण करने की योग्यता पाना अत्यंत दुर्लभ है । इस प्रकार विधिवत् देहोत्सर्ग में दु:ग्वी न होकर संयमपूर्वक मन, वचन और काय के व्यापार आत्मा में एकत्रित करता हुआ और "जन्म जरा और मृत्यु शरीर संबंधी है मेरे नहीं है" ऐसा चितवन कर, निर्ममत्व होकर विधिपूर्वक आहार घटा, शरीर कृशकर तथा शास्त्रामृत के पान से कषायों को कृश करते हुये चार प्रकार के संघ को साक्षी करके समाधिमरण में उद्यमवान् होकर अंतरंग ज्ञान ज्योति जागृत कर बहिरंग क्रिया करना चाहिये।।
स्नेह, वैर, सङ्ग (परिग्रह) आदि को छोड़कर शुद्धमन होकर अपने स्वजन परिजनों को क्षमा करता हुअा उनसे अपने दोषों की क्षमा करावे । कृत कारित
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