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४७ )
* उपसंहार *
लकवृन्द,
श्रापको इन ज्ञानसुधामय पत्रों को पढ़ने से जो वचनातीत आनंद प्राप्त हुआ है। उससे अवश्य आत्मलाभ लेना। यही ज्ञान समाधि की भावना जीवको परम हितकारिणी है।।
सल्लेखना धर्म गृहस्थ और मुनि दोनों का है । तथा सल्लेखना व समाधिमरण का अर्थ भी एक है । इसलिये जब शरीर किसी असाध्य रोग से अथवा वृद्धावस्था से असमर्थ हो जावे, देव मनुष्यादि कृत कोई दुर्निवार उपसर्ग उपस्थित हुवा होवे या महा दुर्भिक्ष से धान्यादि भोज्य पदार्थ दुष्प्राप्य होगये होवें अथवा धर्म के विनाश करने वाले कोई विशेष कारण आ मिले होवें तब अपने शरीर को पके हुवे पान के समान तथा तैल रहित दीपक के समान स्वयमेव विनाश के सन्मुख जान सन्यास मरण करे । यदि मरण में किसी प्रकार का संदेह हो तो मर्यादा पूर्वक ऐसी प्रतिज्ञा करे कि “जो इस उपसर्ग से मेरी प्रत्यु हो जावेगी तो मेरे आहारादिक का सर्वथा सग है और कदाचित् जीवन अवशेष रहेगा तो
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