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( ४० ) कथंचित रूपी है केवलभाव अवधिज्ञान का विषय नहीं क्योंकि उसमें रूपी द्रव्य का सम्बन्ध नहीं। अतएव यह सिद्ध हुआ औदयिक भाववत् क्षायोपशमिक भाव भी कथंचित् पुद्गल सम्बन्धेन जायमान होने से मूर्तिमत् है न कि रूप रसादि मत्ता इनमें है। तद्वत् अशुद्धता के सम्बन्ध से जायमान होने से यह भौतिक जात भी कथंचित् ब्रह्म का विकार है। कथंचित् का यह अर्थ है
जीव के रागादिक भावों के ही निमित्त को पाकर पुद्गल द्रव्य एकेन्द्रियादि रूप परिणमन को प्राप्त है। अतः यह जो मनुष्यादि पर्याय हैं। असमान जातीय द्रव्य के संबंध से निष्पन्न हैं। न केवल जीव की है और न केवल पद्गल की है। किन्तु जीव और पुद्गल के संबंध से जायमान हैं। तथा यह जो रागादि परिणाम हैं सो न तो केवल जीव के ही हैं और न केवल पुद्गल के हैं किन्तु उपादान की अपेक्षा तो जीव के हैं और निमित्त कारण की अपेक्षा पुद्गल के हैं। और द्रव्य दृष्टि कर देखें तो न पुद्गल के है और न जीव के हैं । शुद्ध द्रव्य के कथन में पर्याय की मुख्यता नहीं रहती। अतः यह गौण हो जाते हैं। जैसे पुत्र पर्याय स्त्री पुरुष दोनों के द्वारा सम्पन्न होती है। अस्तु इससे यह निष्कर्ष निकला यह जो पर्याय है।
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