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पत्र नं. ७
श्रीयुत महाशय दीपचंद जी वर्णी साहब-योग्य इच्छाकार । पत्र से आपके शारीरिक समाचार जानेअब यह जो शरीर पर है शायद इससे अल्प ही काल में आपकी पवित्र भावनापूर्ण आत्मा का सम्बन्ध छूटकर वैक्रियक शरीर से संबंध हो जावे । मुझे यह दृढ़ श्रद्धान है कि आपकी असावधानी शरीर में होगी-न कि आत्मचिंतन में । असातोदय में यद्यपि मोह के सद्भाव से विकलता की सम्भावना है। तथापि अांशिक भी प्रबल मोह के अभाव में वह
आत्मचिंतन का बाधक नहीं हो सकती। मेरी तो दृढ़ श्रद्धा है कि आप अवश्य इसी पथ पर होंगे । और अन्त तक दृढ़तम परिणामों द्वारा इन क्षुद्र बाधाओं की ओर ध्यान भी न देंगे। यही अवसर संसार लतिका के घात का है।
देखिये जिस असातादि कर्मों की उदीरणा के अर्थ महर्षि लोग उग्रोग्रतप धारण करते २ शरीर को इतना कृश बना देते हैं। जो पूर्व लावण्य का अनुमान भी नहीं होता। परन्तु प्रास्म दिव्य शक्ति से भूषित
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