Book Title: Oswal Porwal Aur Shreemal Jatiyo Ka Sachitra Prachin Itihas
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpamala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला पुष्प नं. ८६ = श्रीमद् रत्नविनय सद्गुरुभ्यो नमः ओसवाल पोरवाल और श्रीमाल जातियाँका सचित्र प्राचीन इतिहास. = = = लेखक, मुनिश्री ज्ञानसुंदरजी. = - - द्रव्य सहायक, श्रीसंघ सादडी (मारवाड) झानखाता का चंदासे. = = e प्रकाशक, श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला. फलोदी-( मारवाड) वीर सं० २४५४ ओसवाल सं० २३८५ वी० सं० १९८५ प्रति १००० TRA =-= = = की. ०-४-० = = e = Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तव्य. हालमें " जैन जाति महोदय" नामक ऐतिहासिक पुस्तक छपवाई जा रही है जिसके २५ प्रकरणों के अंदरसे यह तीसरा प्रकरण आपके करकमलोंमें उपस्थित है। इस प्रकरण के अंदर जैन महाजन संघ और उनकी शाखाँए ओसवाल-पोरवाड और श्रीमाल जातियोंका प्राचीन और प्रमाणिक इतिहास बडी ही शोधखोलके साथ संग्रह किया गया है । साधारण जनताके विशेष लाभार्थ इस प्रकरणकी १००० कोपी अलग बंधवाई गई है । अपनी जातिकी महत्वता और प्राचीनता जानने के लिए प्रत्येक जैन भाईयों को एक कोपी अपने पास अवश्य रखना चाहिए. अगर कोई सज्जन अपने भाइओं को प्रभावना देनी चाहे वह ऐसी ऐतिहासिक किताबों की प्रभावना दे कि जिनसे अपने पूर्वजोंका गौरव, आचार, विचार, श्रापस का प्रेम, ऐक्यता, संगठनादि उच्च आदर्श का समाज में संचार हो सकें. प्रुफ संशोधन आदि कारण कोई स्खलना रह गई हो तो पाठकगण क्षमा करें. इति । प्रकाशक. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला पुष्प नं. ८६ भी रत्नप्रभसूरीश्वरपादपत्रेभ्यो नमः अथ श्री जैन जाति महोदय. तीसरा प्रकरण. नत्वा इन्द्र नरेन्द्र फणीन्द्र, पूनित पाद सदा सुखदाई। कैवल्यज्ञान दर्शन गुणधारक, तीर्थकर जग जोति नगाई ॥ करणात पाके सागर, नलता नागको दीया बचाई। वामानंदन पावजिनेश्वर, वन्दत 'शान' सदा चितलाई पालित पश्चाचार अखण्डित, नौविध ब्रह्मव्रतके धारी। .करी निकन्दन चार कषायको, कब्जे कर पंच इन्द्रियप्यारी॥ • पश्च महाव्रत मेरु समाधर, सुमति पंच बडे उपकारी। गुप्ति तीन गोपि जिस गुरुको, प्रतिदिन वन्दित 'ज्ञान' आभारी। संस्कृत दिव पाणि प्राकृत, रची पट्टावलि पूर्वधारी। तांको यह भाषान्तर हिन्दी, वाल जीवोंको है सुखकारी ॥ सरल भाषाकों चाहत दुनियो, परिश्रम मेरा है ।हतचारी। ओसवंस उपकेश गच्छते, प्रगव्यो पुण्य 'मान' जयकारी ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) जैन जाति महोदय. तेवीसवा तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ का पवित्र जीवन के विषयमें ॥ पार्श्वनाथ चरित्र नाम का एक स्वतंत्र ग्रन्थ प्रसिद्ध हो चुका है पार्श्वनाथ भगवान के दश भवों सहित वर्णन कल्प सूत्र में छप चुका है पार्श्वनाथ प्रभु का संक्षिप्त जीवनी इसी किताब का दूसरा प्रकरण में हम लिख आये है भगवान पार्श्वनाथ मोक्ष पधारने के बाद आपके शासन की शेष हिस्ट्री रह जाती है वह ही इस तीसरा प्रकरण में लिखी नाति है। (१) भगवान पार्श्वनाथ के पहले पाट पर आचार्य शुभदत्त हुए-भगवान पार्श्वनाथ के मोक्ष पधार जानेपर चार प्रकारके देवों और चौसट इन्द्रोंने भगवान् का शोकयुक्त निर्वाण महोत्सव कीया तत्पश्चात् जैसे सूर्य के अस्त हो जाने से लोक में अन्धकार फेल जाता है इसी प्रकार धर्मनायक तीर्थकर भगवान् के मोक्ष पधार जाने पर लोकमें अज्ञान अन्धकार छा गया सकल संघ निरुत्साही हो गये. तदन्तर चतुर्विध संघने पार्श्वनाथ भगवान के पद पर श्री शुभदत्त नामक गणधर' नो आठ गणधरों में सबसे बड़े थे, को निर्वाचित किया, सूर्य के अस्त हो जाने पर भी चन्द्रका प्रकाश लोगों को हितकारी हुषा करता है उसी भांति भगवान् के मोक्ष पधार जाने पर आचार्य शुभदत्त सूरिजी चन्द्रवत् लौक में प्रकाश करने लगे, आचार्य श्री द्वादशांगी के पार. गामि श्रुत केवली निन नहीं पर जिन तूल्य पदार्थों को प्रकाश करते हुवे और तप संयमादि आत्मबलसे कर्म शत्रुओं को पराजय कर आपने कैवल्य ज्ञानदर्शन प्राप्त किया. फिर भूमण्डल पर विहार कर अनेक भव्य जीवों का उद्धार किया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य शुभदत्त. (३) मापभी के पवित्र जीवन के विषय में किसी पट्टावलिकारने विशेष वर्णन न करते हुए यह ही लिखा है कि आप अपनी अन्तिमवस्था में शासन का भार आचार्य हरिदत्त सूरि के सिर पर रख आपश्री सिद्धाचलजी तीर्थपर एक मास का अनसन पूर्वक्र चरम श्वासोश्वास और नाशमानं शरीर का त्याग कर अनंत सुखमय मोक्ष मन्दिरमे पधार गये इति पार्श्वनाथ प्रभुके प्रथम पट पर हुवे आचार्य शुभदत्तसूरि । ( २ ) आचार्य शुभदत्त सूरि मोक्ष पधार जाने पर सूर्य और चन्द्र इन दोनों का प्रकाश अस्त हो जानेसे श्री संघ बहुत रंज हुवा तत्पश्चात् आचार्य हरिदत्तसूरि को संघ नायक नियुक्त कर सकल संघ उन सूरिजी की आज्ञा को सिरोद्धारण करते हुवे आत्म कल्याण करने में तत्पर हुवे आचार्य श्री श्रुत समुद्र के पारगामी, वचन लब्धि, देशनामृत तुल्य, उपशान्त जीतेन्द्रिय यशस्वी परोपकार परायणादि अनेक गुण संयुक्त सूर्य चन्द्र के अभाव दीपक को परे उद्योत करते हुवे भूम. ण्डल में विहार करने लगे। दूसरी तरफ यज्ञहोम करनेवालों का भी पग पसारा विशेष रूप में होने लगा हजारो लाखो निरापराधी पशुओं का बलीदान से स्वर्ग बतलानेवालों को संख्या में वृद्धि होने लगी परिव्राजक प्रव्रजित सन्यासी लोगोंने इसके विरूद्ध में खडे हो यज्ञ में हजारो लाखों पशुओंका बलिदान करना धर्म बिरूद्ध निष्ठूर कर्म बतला रहे थे आचार्य हरिदत्तसूरि के भी हजारो मुनि भूमण्डल पर अ. हिंसापरमो धर्म का झंडा फरका रहे थे एक समय विहार करते हुवे आचार्य श्री अपने ५०० मुनियों के परिवार से स्वस्तिनगरी के उद्यान में पधारे यहां का राजा अदीनशत्रु व नागरिक बडे ही आडम्बरसे सूरिजी को वन्दन करने को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय. आये आचार्यश्रीने बडेही उच्चस्वर ओर मधुरध्वनि से धर्मदेशमा दी. श्रोताजनों पर धर्म का अच्छा असर हुवा। यथाशक्ति व्रत नियम किये तत्पश्चात् परिषदा विसर्जन हुई । मिस समय आचार्य हरिदत्तसूरि स्वस्ति नगरी के उद्यान में विराजमान थे उसी समय परिव्रजक लोहिताचार्य भी अपने शिष्य समुदायकैसाथ स्वस्ति नगरीके बहार ठेरे हुवे थे दोनोंके उपासकोके आपुसमें धर्मबाद होने लगा. वहांतक कि वह चर्चा राजा अदिनश,की रानसभामें भी होने लगी. पहले जमाना के राजाओं कों इन बातों का अच्छा शौख था. राना जैनधम्र्मोंपासक होनेपरभी किसी प्रकारका पक्षपात न करता हुवा न्यायपूर्वक एक सभा मुकरर कर ठीक टैमपर दोनों आचार्यों को आमन्त्रण किया. इसपर अपने अपने शिष्य समुदाय के परिवारसे दोनों आचार्य सभामें उपस्थित हुये राजाने दोनो आचार्यों को वडा ही आदर सत्कार के साथ आसन पर वि. राजने की विनंति करी. आचार्य हरिदत्तसूरि के शिष्योंने भूमि प्रमार्जन कर एक कामलीका आसन बीचा दीया राजाकी आज्ञा ले सूरिजी विराजमान हो गये इधर लोहित्यार्य भी मृगछाला बीछा के बैठ गये तदन्तर राजाको मध्यस्थ स्थानपर रख दोनों आचार्यों के आपुस में धर्मचर्चा होने लगी विशेषता यह थी की सभाका होल चकारबद्ध भरजाने परभी शास्त्रार्थ सुनने के प्यासे लोग बडे ही शान्तचित्तसे श्रवणकर रहे थे. लोहीताचार्य ने अपने धर्म की प्राचीनता के बारामे वेदोंका के प्रमाण दिआ और जैनधर्म के विषय में यह कहा कि जैनधर्म पार्श्वनाथजीसे चला है ईश्वरको मानने में इन्कार करते है। इसपर हरिदत्ताचार्य ने फरमाया कि जैनधर्म नूतन नहीं पर वेदोंसे भी प्राचीन है वेदोंमे भी जैनों के प्रथम तीर्थकर भग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हरिदत्तसूरि. (५) बान् ऋषभदेव ध नेमिनाथ पार्श्वनाथ के नामोंका उल्लेख है (देखो घेदोंकी श्रुतियों पहला प्रकरण में) वेदान्तियोंने भी जैनतीर्थकरोंको नमस्कार किया है राजा भरत-सागर दशरथ रामचंद्र श्रीकृष्ण कौरवपाण्डु यह सब महा पुरुष जैन ही थे जैन लोग ईश्वरको नहीं मानते यह कहना भी मिथ्या है जैसे ईश्वरका उच्चपद और श्रेष्ठता जैनोंने मानी है वैसी किसीने भी नहीं मानी है । अन्य लोगों में कितनेक तो ईश्वर कों जगतका कर्ता मान ईश्वरपर अज्ञानता निर्दयताका कलंक लगाया है कितनकोंने सृष्टिको संहार और कितनेकोंने पुत्रीगमनादिके कलंक लगाया है जैन ईश्वरको कर्ता हर्ता नहीं मानते है पर सर्वज्ञ शुद्धात्मा अनंतज्ञान दर्शनमय मानते है निरंजन निराकार निर्विकार ज्योती स्वरूप सकल कर्म रहित ईश्वर पुनः पुनः अवतार धारण न करे इत्यादि वादविवाद प्रश्नोत्तर होता रहा अन्तमे लोहिताचार्थ को सदज्ञान प्राप्त होनेसे अपने १००० साधुओं के साथ आप आचार्य हरिदत्तसूरि के पास जैन दीक्षा धारण करली इस्के साथ सेकडों हजारों लोग जो पहलेसे यज्ञकर्मसे त्रासित हुवे सुरिजीका सदज्ञानसे प्रतिबोध पाके जैनधर्मको स्वीकार कर लीया । क्रमशः लोहितादि मुनि आचार्य हरिदत्तसूरि के चरणकमलों में रहते हुवे जैन सिद्धान्त के पारगामी हो गये तत्पश्चात् लोहित मुनिको गणिपदसे विभूषीत कर १००० मुनियोंको साथ दे दक्षिण की तरफ विहार करवा दीया; कारण यहां भी पशुवधका बहुत प्रचार था आपभी अहिंसा परमो धर्मका प्रचार में बड़े ही विद्वान और समर्थ भी थे. आचार्य हरिदत्तसूरि चिरकाल पृथ्वीमण्डल पर विहार कर अनेक आत्माओं का उद्धार कीया आपश्री अपना अन्तिम अवस्थाका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय. समय नजदीक जान अपने पदपर आर्य समुद्रसूरिको स्थापन कर आप २१ दिनका अनशन पूर्वक वैभारगिरके उपर समाधिसे नाशमान शरीरका त्याग कर स्वर्ग सिधारे । इति दूसरापाट्ट ३ आचार्य हरिदत्तसूरिके पट आर्य समुद्रसूरि महा प्रभाविक विधाओं और श्रुतज्ञानके समुद्रही थे आपके शासन कालमें भी यज्ञवादियों का प्रचार था हजारो लाखों निरापराधि पशुओंके कोमल कण्ठ पर निर्दय देत्य छरा चलाने में और धर्मका नामसे मांस मदिराकी आचरणामें ही दुनियोंकों जालमे फसा रहे थे आचार्यश्री के विशाल संख्यामें मुनि समुदाय पूर्व बंगाळ ऊडीसा पंजाब मुल्तानादि जिस २ देशमें बिहार करते थे उस २ देशमे अहिंसाका खुब प्रचार कर रहे थे इधर लोहितगणि दक्षिण करणाट तैलंग महाराष्ट्रियादि देशोंमे विहार कर अनेक राजा महाराजाओं कि राजसमामें उन पशुहिंसकोंका पराजय कर जैनधर्म का झंड़ा फरका रहेथे आपके उपासक मुनिगणकि संख्या करीवन् ५००० तक हो गइ यो. दक्षिण में अन्योन्य मत्तके आचार्यों को देख दक्षिण जनसंघ लोहित गणिको इसपद के योग्य समज आचार्य आर्यममुद्रसूरि कि सम्मति मंगवाके अच्छा दिन शुभ मुहूर्त में लोहितगणि को आचार्य पहिसे भूषित किये, जिससे दक्षिण विहारी मुनियोंकी लोहित साखा और उत्तर भरतमे विहार करनेवाले मुनियोंकी निर्ग्रन्थ समुदाय के नामसे ओलखाने लगी. दोनों भ्रमण समुदायोंने हाथमें धर्मदंड लेकर उत्तरसे दक्षिणतक जैनधर्मका इस कदर प्रचार कर दिया कि वेदान्तियों का सूर्य अस्ताचल पर चलेजानेसे नाममात्र के रह गये थे. आर्यसमुद्रसूरि का एक विदेशी नामका महा प्रमाधिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्यसमुद्रसूरि. (७) अतिशय ज्ञानेंद्र मुनि ५०० मुनियों के साथ विहार करता अवंति ( उजैन ) नगरी के उद्यानमें पधारे यहांका राजा नयसेन था अनंगसुन्दरी राणि तथा उसका करीबन १० वर्षका पुत्र केशीकुमारादि और नागरिक मुनिश्रीको चन्दन करने को आये. मुनिनीने संसार तारक दुःख निवारक और परम वैराग्यमय देशना दी देशना श्रवणकर यथाशक्ति व्रत नियम कर परिषदा मुनिको वन्दन कर विसर्जन हुई पर राजकुमर केशीकुमर पुन: पुन: मुनिश्री के सन्मुख देखता वहांही बैठा रहा फीर प्रश्न किया कि हे करूणासिन्धु ! में जैसे जैसे आपके सामने देखता हूँ वैसे वैसे मेरेको अत्यन्त हर्ष-रोमांचित्त हो रहा है वैसा पूर्वमें कबी किप्ती कार्य में न हुवा था इतना ही नहीं पर आप पर मेरा इतना धम्म प्रेम हो गया है कि जिस्कों में जबानसे कहने में भी असमर्थ हु । ... मुनिश्रीने अपना दिव्यज्ञान द्वारा कुमर का पूर्व भव देखके कहा कि है राजकुमर । तुमने पूर्वभवमें इस जिनेन्द्र दीक्षा का पालन कीया है वास्ते तुमको मुनिवेष पर राग हो रहा है। कुमरने कहा क्या भगवान् ! सञ्चही मेरा जीवने पूर्षभव में जैन दीक्षा का सेवन कीया है ? इसपर मुनिने कहा कि हे रानकुमार । सुन इस भारत वर्ष के धनपुर नगरका पृथ्वीधर राजा की सौभाग्यदेविके सात पुत्रियों पर देवदत्त नामका कुमार हुवा था. वह बाल्यावस्थामें ही गुणभूषणाचार्य पास दीक्षा ले चिरकाल दीक्षापाल अन्तमें सामाधिपूर्वक कालकर पंचवा ब्रह्मस्वर्गमे देव हुवा वहांसे धध कर तुं राजा का पुत्र केशी कुमार हुवा है यह सुन कुमर को उहापोह करतों ही नातिस्मरण ज्ञानोत्पन्न हुषा जिससे मुनिने कहा था वह आप प्रत्यक्ष ज्ञान के जरिये सब आबेहुब देखने लग गया बस फिर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) जैन जाति महोदय. क्या था ! ज्ञानियों के लिये सांसारिक राजसंम्पदा सब काराघर सदृश ही है कुमर तो परम वैराग्य भाषको प्राप्त हो मुनिको वन्दन कर अपने मकानपर आया मातापितासे दीक्षा की रजा मांगी पर १० वर्षका बालक दीक्षामें क्या समजे एसा समज मातापिताने एक किस्म की हांसी समजलो पर नब कुमरका मुखसे ज्ञानमय बैराग्य रस रंगमे रंगित शब्द सुना तब मातापिता खुद हो संसारको अतार जान वडा पुत्र के राज दे आप अपने प्यारा पुत्र केशीकुमार को साथ ले विदेशी मुनिके पास बडे आडम्बर के साथ जैन दीक्षा धारण कर ली. जयसेन राजर्षि और अनंगसुन्दरी आर्यिका ज्ञान ध्यान तप संयमसे आत्म कलशन कार्यमें प्रवृतमान हुए। केशीकुमर श्रमण जातिस्मरण ज्ञानसे पूर्व पढा हुषा ज्ञानका अध्ययन करते हो तथा विशेष ज्ञानाभ्यास करता हुधा स्वल्प समयमे श्रुत समुद्र का पारगामी हो गया। आचार्य आर्यसमुद्रसूरि अपने जीवन काल में शासन की अच्छी सेवा करी थी धर्म प्रचार और शिष्य समुदाय में भो वृद्धि करी थी अपनि अन्तिमाघस्या जान कैशीश्रमण को अपने पद पर नियुक्तकर आपश्री सिद्धक्षेत्रपर सलेखनां करता हुवा १५ दिनोंका अनसन पूर्वक स्वर्गगमन कोया. इति तीसरा पाट. (४) आचार्य आर्यत मुद्रपूरि के पट पर आर्यके शो प्रमणाचार्य बालब्रह्मचारी अनेक विद्याओं के ज्ञाता देव देवियों से पूजित जपने निर्मल ज्ञानरूपी सूर्य प्रकाश से भकों के मिथ्यास्वरुप अंधकार को नाश करते हुवे भूमण्डलपर विहार करने लगे इधर दक्षिणविहारी लोहिताचार्य के स्वर्गवास हो जाने के बाद मुनि वर्गमें शिथिलता वा आपसमे कूट पड जानेसे अन्य लोंगोंका जौर बढ जाना स्वाभाविक बात है मतमतान्तरों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशीश्रमणाचार्य. ( ९ ) के वादविवादमें आत्मशक्तियोंका दुरुपयोग होने लगा. यज्ञ कर्म और पशु हिंसकों का फिर जौर बढने लगा धार्मिक और सामाजिक श्रृंखलनायें में भी परावर्तन होने जगा. यह सब हाल उत्तर भरतमें रहे हुवे केशी श्रमणाचार्यने सुना तब दक्षिण भरतमें विहारकरनेवाले मुनियोंको अपने पास बुलवा लिया अद्यपि कितनेक मुनि रह भी गये थे. दक्षिणविहारी मुनि उत्तरमें आने पर कुच्छ अरसा के बाद वहां भी वह ही हालत हुई कि जो दक्षिणमे थी । इधर आचाfat घर की बिगडी सुधारने में लग रहे थे उधर पशुहिंसक यज्ञवादीयोंने अपना जोर को बढाने में प्रयत्नशील बन यज्ञका प्रचार करने लगे. घरकी फूटका यह परिणाम हुवा कि एक पिहित मुनिका शिष्य जिस्का नाम बुद्धकीर्ति था उसने समुदायसे अपमानीत हों जैन धर्मसे पतित हो अपना बौद्ध नामसे बोद्ध धर्म का प्रचार करना शरु किया । बुद्ध कीर्तिने अपने धर्म के नियम एसे सिधे और सरल रखे कि हरेक साधारण मनुष्य भी उसे पाल सके बन्धन तो वह किसी प्रकारका १ जैन श्वेताम्बर आम्नाय के आचारांग सूत्र कि टीकामें बुद्ध धर्म्म का प्रवर्तक मुल पुरुष बुद्धकीर्ति पार्श्वनाथ तीर्थ में एक साधु था जिसने बोद्ध धर्म्म चलाया. २ दिगम्बर आम्नायका दर्शनसार नामका ग्रन्थमें लिखा हैं कि पार्श्वनाथ के तीर्थ में पिहित मुनिका शिष्य बुद्धकीर्ति साधु जैन धर्म से पतित हो मांस मट्टि आचारण करता हुवा अपना नाम से बोद्ध धर्म्म चलाया है. ३ बोद्ध ग्रन्थोंमें लिखा है कि बुद्ध एक राजा शुद्धोदीत का तापसों के पास दीक्षा लीथी बोधि होनेके बाद अहिंसा धर्म का कया था इसका समय भगवान् महावीर के समकालिन माना जाता है हो. बुद्धने जैनोंसे अहिंसा धर्म की शिक्षा जरुर पाई थी. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat पुत्र था वह खूब प्रचार कुच्छ भी www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) जैन जाति महोदय. था ही नहीं यहां तक कि मरे हुवे जीवोंका मांस व मदिरा खाना पीना भी निषेध नहीं था. बुद्धने सबसे पहला यज्ञ कर्मके विरुद्ध में खड़ा हो उपदेश करना शरू कीया निस्का फल यह हुवा की पहलेसे ही इस निष्ठुर कार्य से लोगों में त्राहि त्राहि मच रही थी जैन धर्म के नियम एसे सख्त थे कि वह संसार लुब्ध जीवोंको पालन करना मुश्किल था रुची होने पर भी वह नियम पालन करनेमे असमर्थ जनता एकदम बुद्ध के झंडे के निचे आ गई यहां तक की केइ राजा महाराजा भी यज्ञादि कर्मसे विरक्त हो बोद्ध धर्म को स्वीकार कर लीया. इधर बौद्धोंका जौर बढ़ता देख आचार्य केशीश्रमणने अपना श्रमण संघकी एक विराट् सभा भर उनकों सचोट उपदेश कर भापुसकी फूट को देशनिकाल कर जो शिथिलता फैली हुई थी उसे दूर कर अन्यान्य देशमें विहार करने की आज्ञा दी मुनिवर्ग में भी आचार्यश्रीके उपदेशका एसा प्रभाव हुवा कि वह अपने कर्तव्य पर कम्मर कस तैयार हो गये । आचार्यश्रीने निम्न लिखित आशाएं फरमाई। ५०० मुनियों के साथ वैकुटाचार्य करणाटक तैलंगादिकी तरफ ५०० मुनियोंके साथ कालिकापुत्राचार्य दक्षिण महाराष्ट्रिय देशकी तरफ ५०० मुनियों के साथ गर्गाचार्य सिन्धु-सौवीर देशकी तरफ ५०० मुनियों के साथ जवाचार्य काशी कौशल देशके तरफ ५०० मुनियोंके साथ अन्नाचार्य अंगबंग देशकी तरफ ५०० मुनियोंके साथ काश्यपाचार्य संयुक्त प्रान्तकी तरफ ५०० शिवाचार्य अवंति देशकी तरफ इनके सिवाय थोडा थोडी संख्या भी अन्योअन्य प्रान्तोंमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशीश्रमणाचार्य. . (११) मुनियोका विहार करवा के आप एक हजार मुनियों के साथ मागध देशमें विहार कर पशुबलि करनेवाले यज्ञ और मांसभक्षण करने वाले बोद्धों के सामने खडे हो गये. आपश्री के परम पुरुषार्थ का यह फल हुवा कि राजा चेटक-सतानिक दधिवाहन सिद्धार्थ-विजयसेन चन्द्रपाल अदिनशत्रु प्रसन्नजीत और राना प्रदेशी आदि अनेक राजा महाराजाओं और लाखो मनुष्यों को पतित दशासे उद्वार कर पवित्र जैनधर्म के उपासक बना दीये थे. आजकल इतिहास शोधखोल से पता मिलता है कि वह जमाना बडा हि विकट था आपुस के धर्म पाद के लिये स्थान स्थानपर मोरचा बन्धी हो रही थी। आत्मकल्यान करने कि जो आत्म शक्तियोथी उनका दुरुपयोग वाद-विवाद में होता था अज्ञानताका का साम्राज्य था जनता में बड़ा भारी कोलाहल मच रहा था इत्यादि कुदरत एक एसा महा पुरुष की प्रतीक्षा कर रही थी कि जिसकी परमावश्यक्ता थी इसी समय में जगदुद्धारक त्रीलोकी नाथ शान्तिका समुद्र चरमतीर्थकर भगवान महावीर प्रभुने अवतार धारण कीया संक्षिप्त में-क्षत्रीकुण्ड नगर का राजा सिद्धार्थ कि त्रिशलादे राणि की पवित्र रत्न कुक्षी में भगवान् महावीरने अवतार लीया। जन्म समय छप्पन दिगकुमारीकाओंने सूतिका कर्म किया सौधर्मादि चौसठ इन्द्रोंने सुमेरूगिरिपर भगवान का नन्म महोत्सव किया. भगवान् ३० वर्ष गृहवास में रहे एक पुत्री हुई वह नमालि क्षत्री कुमारको व्याही थी अन्तमें गृहा वस्थामें एक वर्ष तक वर्षीदान दोया तत्पश्चात् इन्द्रनेरेन्द्रों के महोत्सवपूर्वक आपने दीक्षा धारण करी १२॥ वर्ष घोर तप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) जैन जातिमहोदय. एक चर्या करते हुवे देव मनुष्य तीर्यचादिके अनेकानेक उपसर्ग परिसहों को सहन कर पूर्व संचित दुष्ट कर्मोंका क्षय कर कैवल्यज्ञान दर्शन को प्राप्त कर लीया आप सर्वज्ञ वीतराग ईश्वर परमब्रह्म लोकालोक के चराचर पदार्थों का भाव एक ही समय मे देखने जानने लगे पूर्व तीर्थकरों के शासन के संघ कि शिथलता को दूर कर पहले के नियमोसे आप एसे सख्ताई के नियम रखे कि फिरसे भ्रमणसंघ में शिथिलता का संचार होने न पावे भगवान् महावीरने बडे ही बुलंद अवाज से 'अहिंसा परमोधर्मः ' का प्रचार करना प्रारंभ कीया शान्ति रूपीं एसा जल बरसाया कि दग्ध भूमिरूप जनता में दम शान्ति पसर गई । धार्मिक सामाजिक नैतिक त्रुटि हुई श्रृंखला फिर अपने स्थानपर पहुंच गई आजके ऐतिहासिक विद्वानोंका मत है कि भगवान् महावीर के झंडा निचे राजा महाराजा और चालीश क्रोड जनता शान्तिरसका अस्त्रादन कर रही थी केशी श्रमणादि पार्श्वनाथ संतानियें भी प्रायः सब भग वान् महावीरके शासन को स्वीकार कर अपना कल्यान करने लगे पर पार्श्वनाथ के संतानिये थे वह पार्श्वनाथके नामसे हो विख्यात रहे । आजपर्यन्त भी पार्श्वनाथ भगवान् की संतान परम्परासे अविच्छन चलीं आ रही है । भगवान् महावीरका पवित्र जीवन के लिये पूर्वीय और पाश्चात्य विज्ञान सब एक ही अवाज से स्वीकार करते है कि महावीर भगवान् एक जगत् उद्धा रक ऐतिहासिक महापुरुष हो गये है जगत्मे अहिंसा का झंडा महावीरने दी फरकाया है वेदान्तियों कि यज्ञप्रवृति पशुहिंसाने रोकी है तो एक महावीरने हो रोकी है जनताका कल्याण के लिये महावीरप्रभुका जीवन एक धेयरूप है इत्यादि महावीर भगवान् के जीवन विस्तार मुद्रित हो गया है बास्ते में मेरे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य स्वयंप्रभसूरि. उद्देश्यानुसार यहाँ महावीर भगवान् का संबन्ध यहीं समा. सकर आगे जैनजाति के बारामे ही मेरा लेख प्रारंभ करता हुँ ____ भगवान् कैशीश्रमणाचार्यने जैनधर्म को अच्छी तरक्की दी अन्तिमावस्थ में आप अपने पाट पर स्वयंप्रभ नामके मुनिकों स्थापनकर एक मासका अनशन पूर्वक सम्मेतशिखर गिरिपर स्वर्ग को प्रस्थान कीया इति पार्श्वनाथ भगवान् का चतुर्थ पाट हुवा । (५ ) केशीश्रमणाचार्य के पट्ट उदयाचल पर सूर्य के समान प्रकाश करनेवाले आचार्य स्वयंप्रभसूरि हुए आपका जन्म विषाधर कुलमें हुवाथा. आप अनेक विद्याओं के पारगामी थे स्वपरमत्त के शास्त्रों में निपुण थे आपके आज्ञावत्तिं हजारों मुनि भूमण्डल पर विहार कर धर्म प्रचार के साथ ननताका उद्धार कर रहेथे इधर भगवान् वीरप्रभुकी सन्तान भी कम संख्या नहीं थी भगवान महावीर का झंडेली उपदेशसे ब्राह्मजोका जोर और यज्ञकर्म प्रायः नष्ट हो गया था तथापि मरूस्थल जैसे रेतीले देशमें न तो जैन पहुँच सके थे और न बौद्ध भी यहां आस के थे वास्ते यहां बाममागियो का बड़ा भारी मोरशोर था. यज्ञ होम और भी वडे वडे अत्याचार हो रहे थे धर्म के नामपर दुराचार व्यभिचार का भी पोषण हो रहा था कुण्डापन्थ का चलीयापंथ यह वाममागियों की शाखाएं थी देवीशक्ता के वह उपासक थे इस देशके राजा प्रजा प्रायः सब इसी पन्थ के उपासक थे उस समय मारवाड मे श्रीमालनामक नगर उन वाममागियोका केन्द्रस्थान गीना नाता था. आचार्य स्वयंप्रभसूरि के उपासक जैसे खेचर भूचर मनुष्य विद्याधर थे वैसे ही देवि देवता भी थे वह भी समय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) जैन जाति महोदय. पाकर व्याख्यान श्रवण करने को आये करते थे-एक समय आचार्य श्री संघ के साथ सिद्धाचलजी की यात्राकर अर्बुदा ' चलकी यात्रा करनेको आये थे वहांपर व्यापार निमित्त आये हुधे श्रीमालनगर के कितनेक शेठ शाहुकार सुरिजी की अहिंसामय दशना श्रवण कर विनंति करी कि हे भगवान् । हमारे वहाँ तो प्रत्येक वर्ष में हनारो लाखो पशुओंका यज्ञमें बलिदान हो रहा है और उसमेही जनता की शान्ति और धम्म माना जाता है आज आपका उपदेश श्रवण करनेसे तो यह ज्ञात हुवा है कि यह एक नरकका ही द्वार है अगर आप जैसे परोपकारी महात्माओंका पधारना हमारे जैसे क्षेत्रमें हो तो वहां की भद्रिक जनता आप के उपदेशका अवश्य लाभ उठावे इत्यादि विनंति करनेपर सूरिजीने उसे सहर्ष स्वीकार कर ली जैसे चितसारथी की विनंति को कैशीश्रमणने स्वीकार करी थी। समय पाके सूरिजी क्रमशः विहार कर श्रीमालनगर के उधानमे पधार गये जिन्होंने अर्बुदाचल पर विनंति करी थी वह सजन अपने मित्रोंके साथ सूरिजी की सेवा उपासना करनेमे तत्पर हो सब तरहकी अनुकूलता करदी उसी दिनों में श्रीमालनगरमें एक अश्वमेघ नामका यज्ञ की तैयारी हो रही थी देश विदेश के हजारों ब्राह्मणाभास एकत्र हुवे इधर हजारों लाखो निरापराधि पशुओं को एकत्र कीये है एक बड़ा भारी यज्ञ मण्डप रचा गया था घर घरमें बकारा भैंसा बन्धा हुवा है कि उनका यज्ञमें बलिदान कर शान्ति मनायेंगे इत्यादि। इधर सूरिजी के शिष्य नगरमें भिक्षा को गये नगरका हाल देख वापिस आ गये। सूरिजी को अर्ज करी कि हे भगवान् ! यह नगर साधुओं को भिक्षा लेने लायक नहीं है सब हाल सुनाया सूरिजी अपने कितनेक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमाल - नगरसूरिजी .. ( १५ ) विज्ञान शिष्यों को साथ ले सिधे ही राज सभामें गये जहां पर -यज्ञ सम्बंधि सब तैयारीयां और सलावों हो रही और वडे वडे झटाधारी सिरपर त्रिपुंड्र भस्म लगाये हुवे गलेमें जीनौउके तागे पडे हुवे मांस लुब्धक ब्राह्मणाभास बेठे थे आचार्यश्रीका अतिशय तप तेज इतना तो प्रभावशाली था कि सूरिनीका आते हुवे देखतें ही राजा जयसेन आसन से उठ खडा हुषा कुच्छ सामने आके नमस्कार किया सूरिजीने " धर्म लाभ दीया उसपर वहां बैठे हुवे ब्राह्मण लोग हंसने लगे. राजाने पहिले कभी धर्मलाभ शब्द कॉनोंसे सुनाही नहीं था वास्ते सूरिजी से पूच्छा कि हे प्रभो ! यह धर्मलाभ क्या वस्तु है - क्या आप आशीर्वाद नहीं देते हो जैसे हमारे गुरु ब्राह्मण -लोग दीया करते है । इसपर सूरिजीने कहा: , हे राजन् कितनेक लोग दीर्घायुष्य ( चिरंजीवो) का आशीर्वाद देते है पर दीर्घायुष्य नरकमें भी होते है कितनेक बहु पुत्र का आशीर्वाद देते है वह कुकर कुर्कटादिके भी बहु पुत्र होते है परं जैन मुनियोंका धर्मलाभ तुमारा सर्व सुख अर्थात् इस परलोकमें तुमारा कल्याण के लिये है यह विद्वत्तामय शब्द सुन राजाको अतिशय आनंद हुवा राजाने सूरीजीका आदर सत्कार कर आसनपर विराजने कि अर्ज करी सूरिजी अपनी काम्बली विचाके घिराज गये. उस समय के राजा लोगों को धर्म श्रवण करने का प्रेम था. राजाने नम्रता पूर्वक सूरिजी से अर्ज करो कि हे भगवान् ! धर्मका क्या लक्षण है किस धर्म से जीव जन्म मरण के दुःखोसे निवृति पाता है ? सूरिजीने समय पाके कहा कि: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) जैन जाति महोदय. अहिंसा सर्य जीवेषु, तत्वज्ञः परिभाषितम् ।। इदं हि मूल धर्मस्य, शेषस्तस्यैष विस्तरम् ॥१॥ हे नरेश ! इस आरापार संसार के अन्दर जीतने. तत्ववेत्ता अवतारिक पुरुष हो गये है उन सबोंने धर्मका लक्षण " अहिंसा परमो धर्मः " बतलाया है शेष सत्य अचौर्य ब्रह्मचर्य निस्पृहीता आदि उस मूलकी शाखा प्रतिशाखारुप विस्तार है फिर भी महाभारतमें श्री कृष्णचन्द्र ने भी युधिष्ठर से कहा है कि: यो दद्यात् कांचनं मेरुः कृत्स्नां चैव वसुंधराः । एकस्य जीवितं दधात् न च तुल्य युधिष्ठिर ॥ हे धराधिप ! एक जीषके निषित दान के तुल्य कांचनका मेरु और संपूर्ण पृथ्वीका दान भी नहीं आसता है। हे राजन् ! जैसा अपना निवित अपने को प्रीय है वैसे ही सब नीव अपने जिषित को प्रीय समजते है पर मांस लोलुप कितने ही अज्ञानी पापात्माओंने बिचारे निरपराधि पशुओंका बलिदान देनेमे भी धम्ममान दुनियाको नरक के रहस्ते पर पहुंचा देने का पाखण्ड मचा रखा है यद्यपि कितनेक देशमे तो सत्य वक्ताओंके प्रभावशालि उपदेशसे दुनियोंमें ज्ञानका प्रकाश होनेसे वह निष्ठूर कम्म नष्ट हो गया है पर केइ केह देशमें अज्ञात लोग इस कुप्रथाके कीचडमे फैसे पडे है, यह सुनते ही वह निर्दय दैत्य मांस लुपी यज्ञाध्यक्षक बोल उठे कि महाराज ! यह जैन लोग नास्तिक है वेद और ईश्वर को नहीं मानते है दया दया पुकार के सनातन यज्ञ धर्मका निषेध करते फोरते है इनको क्या खबर है कि वेदोमें यज्ञ करना महान् धर्म और दुनियोंकी शान्ति बतलाइ है । देखिये शाखोमें क्या कहा है ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य स्वयंप्रभमूरि. ( १७ ) यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयं भुषाः ।। यज्ञोस्य भुत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽबधः ॥ भावार्थ-ईश्वरने यज्ञ के लिये ही सृष्टिमे पशुओ को पैदा कीया है जो यज्ञ के अन्दर पशुओ कि बलि दी जाति है वह सब पशु योनिका दुःखोसे मुक्त हो सिधे ही स्वर्गमे चले माते है और यज्ञ करनेसे राना प्रनामे शान्ति रहती है. सूरिजीने कहा अरे मिथ्यावादीयों तुम स्वल्पसा स्वार्थ (मांस भक्षण) के लिये दुनियों को मिथ्या उपदेश दे दुर्गति के पात्र क्यों बनते हो अगर यज्ञमे बलिदान करनेसे ही स्वर्ग नाते है तो .. “निहतस्य पशोर्यज्ञे । स्वर्ग प्राप्तिर्यदीष्य ते। - स्वपिता यजमानेन । किन्तु तस्मान्न हन्यते ॥" भावार्थ-अगर स्वर्गमे पहुंचाने के हेतु हि पशुओंको यज्ञमें मारते हो तो तुमारे पिता बन्धु पुत्र स्त्रिको स्वर्ग क्यो नहीं पहुंचाते हों अथवा यजमान को बलि के नरिये स्वर्ग क्यों नहीं भेजते हो अरे पाखण्डियों अगर एसे ही स्वर्ग मीलती है तो फीर क्या तुमको स्वर्ग के सुख प्रीय नहीं है देखिये शान क्या कहता है. " यूपं कत्वा पशुन् हत्वा । कृत्वा रूधिर कर्दमम् । यद्येव गम्यते स्वर्गे । नरके केन गम्यते ॥" *बिचारा पशु उन निर्दय दैत्यों प्रति पुकार करते है कि " नाहं स्वर्ग फलोपभोग तुष्टितो नाभ्यार्थि तस्त्वंकाया, । संतुष्ठ स्तृण भक्षणेन सततं साधो न युक्त तव ॥ स्वर्ग यान्ति यदत्वया विनिहिता यज्ञे ध्रवं प्राणिनो। यज्ञं किं न करोषि मातृपितृभिः पुत्रैस्तथा बान्धवै ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) जैन जातिमहोदय. प्र-तीसरा. अगर पशुओं के मारने से रुधिरका कर्दम करने से ही स्वर्ग को चला जावेगा तब फिर नरक कौन जावेगा । हे राजन् पसा मिथ्या उपदेश देनेवाले गुरु और दयाहिना धर्म्म को दूरसे ही त्याग देना चाहिये कहा है की: : " त्यजद्धर्म दयाहीनं क्रियाहीनं गुरु स्त्यजेत् हे राजन् ! आप पवित्र क्षत्री कुलमें उत्पन्न हुवे है पर क्षत्रि धर्म से अभी अज्ञात है देखिये क्षत्रीयोंका क्या धर्म है (( " वैरिणोsपि हि मुच्यन्ते, प्राणान्ते तृण भक्षणम् । तृणाहारा सदैवैते हन्यन्ते पशवाकथम् ॥ "" भावार्थ कट्टर शत्रुं प्राणान्त समय मुहमे तृण लेनेपर क्षत्री उसको छोड देते है तो सदैव तृण भक्षण करनेवाले निरपराधि पशुओको मारना क्या आप जेसोको उचित है आपको पृथ्वीपर जनता न्यायाधिश मानते है तो एसे अबोले जानवारो पर आप के राजत्व कालमे एसा अन्याय होना क्या उचित है अर्थात् एसा हिंसामय मिथ्या पंथका त्यागकर इन पशुओंको जीवितदान दे इन गरीब अनाथ जीवोंकी आशीर्वाद लो और अनंत पुन्योपार्जन करो यह धर्म आप के इस लोक परलोकमे हित सुख और कल्याण का कारण होगा । हिंसा धर्मि उन यज्ञ कर्म करनेवालोने हिंसाकी पुष्टिमे बहुत दलिलों करी परंतु सूरिजीने शास्त्र या युक्तियो द्वारा उन क्रुतर्कों का एसा प्रतिकार किया कि जिस्क श्रवणकर राजा और राजसभा तथा नागरिक लोगोंको उन निष्ठुर यज्ञपर घृणा आने लगी और आचार्यश्री के फरमाये हुवे सत्य धर्म की रुची बढ गई राजा जयसेनने एकदम हुकम दे दीया कि सब पशुओंको छोडदो यज्ञ मण्डप को तोड फोड डालों और मेरा राजमें यह हुकम जाहिर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जासन मा करके उजाहादशा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com श्रीमाल नगरकि राजसमाम, श्रीस्वयंप्रभसूरिजीने, महाराजा जयसेनको फरमायाकि "हे राजन! यह घोर हिंसामय धर्मको छोड कर 'अहिंसा परमो धर्मः समझकर उसको स्वीकार करो? इसपर राजाने असंख्य मनुष्योंके साथ जैन धर्म अगीकार किया। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरिजी और श्रीमाल. (१९) करदों कि कोई भी शक्स कीसी प्राणिको मारेगा उसे प्राणि के बदले अपना प्राण देना पडेगा. राजा अहिंसा भगवती का परमोपासक बन गया । फिर आचार्य पीने जैनधर्म का स्वरुप मुनि या श्रावक धर्म का वर्णन कर विस्तारपूर्वक सुनाया फल यह हवा की वहांपर ९०००० घरो वालोने जैन धर्म को स्वीकार कर आचार्य श्री के चरणोपासक बन गये. आगे चलकर इस श्रीमालनगर के जैन लोग अन्योन्य नगरमें निघास कीया तब नगर का नामसे इन जैनो की श्रीमाल जाति प्रसिद्ध हुई* ___ श्रीमालनगर के लोगोंने सूरिजीसे अर्ज करी कि हे करुणासिन्धु | आप के यहाँ पधारने से हजारो लाखो पशुओं को अभयदान मोला और क्रूर कर्मरूपि मिथ्यामत्त सेवन कर नरकमे जाने वाले जीवो को सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति हुई स्वर्ग मोक्ष का रहस्ता मीला अर्हन्त धर्म की बड़ी भारी प्रभावना हुई आप का परमोपकार का बदला इस भवमे तो क्या पर भवो भवमें देना हमारे लिये अशक्य है आपकी सेवा उपासना क्षणभर भी छोडनी नहीं चाहते है तद्यपि एक अरज करना हम बहुत जरूरी समजते है वह यह है की आयु के पास पद्मावती नामकी नगरी है वहां का राजा पदमसेन ने भी देवी के उपद्रव को शान्ति करने के हेतु अश्वमेघ यज्ञ का प्रारंभ कीया है कल पूर्णिमा का वह यज्ञ है अगर यहां पर आप श्रीमानों के पधारना हो जाय तो जैसा यहां लाभ हुपा है वैसा ही वहां भी उपकार है । सूरिनीने इस बात को सहर्ष स्वीकार करलि और संघ को कह दीया की हम कलशुभे ही पद्मावती पहुंच जावेंगे. गृहस्थ लोगोंने * देखो नोट नम्बर १. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) जैन जाति महोदय. प्र- तीसरा. शीघ्रगामनी शांडणी की सवारी कर पद्मावती की तरफ रवाना हो गये सूरिजी महाराज सवेरे अपनि मुनि क्रिया से निवृति पाते ही विचाबल से एक मुहुर्तमात्र में पद्मावती पहुंच गये सिधे. ही राजसभा में गये इतने में श्रीमाल नगर के श्राद्धवर्ग भी वहां पहुंच गये श्रीमाल की बात सब नगर में फेल गई-रान सभा चिकारबद्ध भरा गई सूरिजीने तो यह ही ' अहिंसा परमो धर्म:' पर विवेचन कर व्याख्यान दीया इस पर ब्राह्मणभासोने कहा महात्माजी यहाँ श्रीमाल नगर नहीं है कि आप का उपदेश अषण कर स्वर्ग-मोक्ष की प्राप्ति वाला यज्ञ करना छोड दे ? सूरिनीने कहा महानुभावों न तो में श्रीमाल नगरसे पोट बन्ध लाया हुं न मेरे को यहांसे कुच्छ ले नाना है मे तो रहस्ता भुला हुवा को सद् रहस्ता बतला रहा हुँ और सदुपदेशद्वारा जनताका कल्याण करना मेरा कर्तव्य समझता हुं जैसे की " तुष्यन्ति भौजनैविप्राः मयूर धन गजितः । साधवः पर कल्याणैः खल पर विपत्ति भिः ॥" सूरिजीने भाव यज्ञ का व्याख्यान करते हुवे कहा कि" सत्य यूपं तपो ह्यग्नि: कर्माणा. समिधोमम् । __ अहिंसामहुति दद्या. देव यज्ञ सतांमतः ॥" सत्य का यूप तप की अग्नि कर्मों की समाधी (लकडीयों) और अहिंसा रूपी आहुति से आत्मा कि साथ चिरकाल से कम लगा हुवा है उन को होम कर आत्मा को पवित्र बनाना विनों का धर्म बितलाया है इस यज्ञ से जीव स्वर्ग मोक्ष को प्राप्त हो सक्ता है। हे विमों तुम पशु हिंसा रूप मिथ्या यज्ञ कर खुद रौद्र नरक में जाने का प्रबन्ध करते हो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान जाति महोदय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com अद्यावती नगरी के महाराजा पदासनको असंख्य कुटुंबांके साथ आचार्य श्रीस्वयंप्रभसूरिजीने उपदेश दे जैन बनाये। ELakshmi Art, Bombay,8. (३०) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरिजी और पद्मावती. (२१) और तुमारे आश्रित रहे हुवे बिचारे भद्रिक नीवो को भी साथ ले जाने की कोशीस करते हो अगर तुम अपना भला चाहाते हो तो तत्वज्ञ पुरुषों के फरमाये हुवे शुद्ध पवित्र धर्म का सरण लो कि जिस से तुमारा कल्याण हो! इस पर ब्राह्मणोने पुच्छा की आपके तत्वज्ञ पुरुषोंने कोनसा रहस्ता बतलाया है ? सूरिजीने कहा देवत्व धीजिनेष्वषा मुमुक्षुषु गुरुत्वधी __ धर्म धीराहता धर्मः तत्स्यात्सम्यक्त्वदर्शनम् " इत्यादि उपदेश के अन्त में राजादि ४५००० घरों को जैन धर्म का स्वीकार कर हजारों लाखो पशुओ को अभयदान दीलाया. राजा के पूर्वावस्था में गुरु प्रग्बट ब्राह्मण थे उसने कहा की हमारा भी कुच्छ नाम तो रखना चाहिए कि हम आप के उपदेश से जैन धर्म को स्वीकार कीया है इस पर सूरिजीने उन सब की प्रग्वट जाति स्थापन करी आगे चलकर उसी जाति का नाम “ पोरवार" हुवा है श्रीमाल नगर और पद्मावती नगरी के आसपास फिर हजारो घरों को प्रतिबोध दे जैन बना के उन पूर्व जातियों में मीलवाते गये वास्ते यह नातियों बहुत विस्तृत्व संख्या में हो गई । आपत्री के उपदेश से श्रीमाल नगर में श्री ऋषभदेव का मन्दिर पद्मावती नगरी में श्री शान्तिनाथ भगवान का मन्दिर तथा उस प्रान्त में और भी बहुत से मन्दिरों की प्रतिष्टा आपके कर कमलो से हुई श्रीमाल नगर से यों कहो तो उस प्रान्त से एक सिद्धाचलजी का बड़ा भारी संघ निकाला था आबू के जीर्ण मन्दिरो का जीर्णोद्धार भी इसी संघने करवाया इत्यादि आपश्री के उपदेश से अनेक धर्म कार्य हुवे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२) जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. - आचार्य स्वयंप्रभसूरि के पास अनेक देव देवियों व्याख्यान श्रवण करने को आये करते थे एक समय कि जिक्र है कि श्री चक्रेश्वरी आंबिका पद्मावति और सिद्धायिका देषियों सूरिनी का व्याख्यान सुन रही थी उस समय आकाश मागै रत्न चुड विद्याधर अपने सकुंटरब नदिश्वर द्विपकी यात्रा कर सिद्धाचलजी की यात्रा करने को जाते हुवे का वैमान आचार्य स्वयंप्रभसूरि से उपर हो के जा रहा था वह सूरिजी के सिर पर आता ही रूक गया रत्नचूड विद्याधर नायकने सोचा की मेरा विमान को रोकनेवाला कोन है उपयोग लगाने से ज्ञात हुवा कि में जंगम तीर्थ की आशातना करी यह बुरा किया झट वैमान से उत्तर निचे आ सूरिजी को वन्दन नमस्कार कर अपना अपराध की माफी मागी सूरिजीने धर्मलाभ दीया और अज्ञातपणे हुवा अपराध की माफी दी तत्पश्चात् रत्नचूड सपरिवार सूरिजीका व्याख्यान श्रवण करने को बेठ गया आचार्यश्रीने वैराग्यमय देशना दि संसारकी असारता मनुष्य जन्मादि उत्तम सामग्री प्राप्ती की दुर्लभता बतलाई इत्यादि विद्याधर नायक के कोमल हृदय पर उपदेश का असर इस कदर का हुवा कि वह संसार त्याग सूरिजी महाराज के पास दीक्षा लेने को तय्यार हो गया परंतु एक प्रश्न दीलमें उत्पन्न हुवा वह झट खडा हो सूरिजीसे कहने लगा कि __ " सुगुरु मम विज्ञापयति मम परम्परागत श्रीपार्श्वनाथजिनस्य प्रतिमास्ति, तस्यवन्दनो मम नियमोऽस्ति, सारावणलंकेश्वरस्य चैत्यालय अभवत्. यावत् रामेण लंका विध्वंस्मिता तावद् मदीया पूर्वजेन चन्द्रचुड़ नरनाथेन वैताढ्य प्रानीता साप्रतिमा मम पाास्ति तया सह अहं चारित्रं ग्रहीष्यामि". Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नचुड विद्याधर. (२३) - भावार्थ-जिस समय रामचंद्रजी लंकाका विध्वंस किया था उस समय हमारे पूर्वज चन्द्रचुड विद्याधरोका नायक भी साथमें था अन्योन्य पदार्थों के साथ रावणके चैत्यालयसे लीलापनाकी पार्श्वनाथ प्रतिमा वैतादयगिरिपर ले आये थे वह क्रमशः आज मेरे पास है और मुझे एसा अटल नियम है कि में उस प्रतिमाका दर्शन सेवा कीयों वगर अन्न जल नहीं लेता हुँ मेरी इच्छा है कि भगवान की प्रतिमा साथमे रख दीक्षा ले भावपूजा करता हुवा मेरा पूर्व नियमको अखण्डितपने रखुं । आचार्यश्रीने अपना श्रुतज्ञानद्वारा भविष्यका लाभालाभपर विचार कर फरमाया कि जहां सुखम् " इसपर रत्नचुड विद्याधरोका राजा बडा भारोहर्ष मनाता हुँधा अपने बैमानवासी पांचसो विद्याधरो के साथ दीक्षा लेने को तय्यार हो गये. " गुरुणा लामं ज्ञात्वा तसै दीक्षा दत्त्वा" शेष विद्याधर दीक्षाका अनुमोदन करते हुवे श्री शनयादि तीर्थों की यात्रा कर वैताव्य गिरिपर जाके सब समाचार कहा तत्पश्चात् रत्तचुडराजा के पुत्र कनकचुड को रान गादी बेठाया और वह सहकुटम्ब आचार्यश्री को वन्दन कर. नेको आये रत्नचुड मुनिका दर्शनकर पहला तो उपालंभ दीये बाद चारित्र का अनुमोदन कर देशना सुन चन्दन नमस्कार कर विसर्जन हुवे । रत्नचुड मुनि क्रमशः गुरू महाराज का विनय सेवाभक्ति करते हुवे "क्रमेण द्वादशांगी चतुर्दश पूर्वी बभूवः " कहने कि आवश्यक्ता नहीं है पहला तो आपका मम्म ही विद्याधर वंशमे दूसरा आप विद्याधरो के राजा तीसरा विधानिधि गुरुके चरणार्षिद की सेवा कि फिर कभी कीस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. वात की आपश्री स्वल्प समयमे द्वादशांगी चौदापूर्वदि सर्वागम और अनेक विद्या के पारगामि हो गये वैसे ही धैर्य गांभिर्य शौर्य तर्कषितर्क स्याद्वादादि अनेक गुणोमें निपुण होगये. इधर आचार्य स्वयंप्रभसूरि शासनानति शासन सेवा कर अनेक भव्योंका उद्धार करते हुवे अपनि अन्तिमावस्था नान. रत्नचुडमुनिको योग्य जान. " गुरुणा स्वपदे स्थापितः श्रीमद्वारजिनेश्वरात् द्वपंचाशत वर्षे (५२) आचार्यपद स्थापिताः पंचशत साधुसह धरां विचरन्ति" __ भगवान् वीरप्रभुके निर्वाणात् ५२ वर्षे रत्नचुडमुनिको आचार्यपदपर स्थापनकर ५०० मुनियोंके साथ भूमण्डलपर विहार करने की आचार्य स्वयंप्रभसूरिने आज्ञा दी. अन्य हजारों मुनि आचार्य रत्नप्रभरि की आज्ञासे अन्योन्य प्रान्तोंमे विहार करने लगे. आप सलेखना करते हुवे अन्तमे श्री सिद्ध गिरिपर एक मासका अनसन कर स्वर्गमे अषतीर्ण हुवे इति प्रार्श्वनाथ भगावन् का पंचवापट्ट स्वयंप्रभसूरि हुवे। आपश्रीका शासनमें भगवान महावीर-गौतम-सौधम्म और जम्बुस्वामिका मोक्ष श्रीमाल पोरवाड जातियों कि स्था. पना और अनेक राजा महाराजाओ को धर्मबोध लाखो पशुओको जीवतदान और यज्ञमें हजारों पशुओका बलिदानरूप मिथ्यारूढियो का नडामूलसे नष्ट करदेना इत्यादि बहुत धर्म प देशोन्नति हुईथी. (६) आचार्य स्वयंप्रभसूरि के पट्ट प्रभाकर मिथ्यात्वाम्धकार को नाश करने मे सूर्यसदृश आचार्य रत्नप्रभसूरि (रत्नचुड) हुथे इधर नम्बुस्वामिके पट्टपर प्रभवस्थामि भी महा प्रभाविक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य रत्नप्रभसूरि.. ( २५) हुवे दोनों आचार्यों की आज्ञावृति हजारो मुनियों पृथ्वीमण्डल पर विहारकर जैनधर्मका खुब प्रचार कर रहेथे यज्ञवादियो का नौर बहुत हट गया था पर बोंद्धोका प्रचार आगे बढ़ रहाथा के राजाओने भी बौधधर्म स्वीकार कर लीया था तथपि जैन ननताकी संख्या सबसे विशाल थी. इसका कारण : जैनमुनियो कि विशाल संख्या और प्रायः सब देशोमे उनका विहार था. दसरा जैनोका तत्वज्ञान और आचार व्यवहार सबसे उच्च कोटीका था जैन और बौद्धोका यज्ञनिषेध के विषय उपदेश मीलता जुलताही था वेदान्तिक प्रायः लुप्तसा हो गये थे. जैन और बौद्धोके वाद विवाद भी हुवा करता था. आचार्य रत्नप्रभसूरि एकदा सिद्ध गिरि की यात्रा कर संघ के साथ आर्बुदाचल की बात्रा करी वहांपर रात्रिमें चकेश्वरी देवीने सूरिजीको विनंति करीकी हे दयानिधि ? आपके पूर्वजोने मरूभूमि मे विहार कर अनेक भव्योका कल्याण कर असंख्यात पशुओंकी बलिरूपी 'यज्ञ' जैसे मिथ्यात्व को समूलसे नष्ट कर दीया पर भवितव्यता वसात् वह श्रीमालनगरसे आगे नहीं बड सके वास्ते अर्ज है कि आप जैसे समर्थ महात्मा उधर पधारे तो बहुत लाभ होगा १ सूरिमीने देषिकी विनंति को स्वीकार कर कहा की ठीक है मुनियों को तो जहां लाभ हो वहांहो विहार करना चाहिये इत्यादि सन्मानित वचनोसे देवीको संतुष्ट कर आप अपने ५०० मुनियों के साथ मसमूमिकी तरफ विहार किया । . उपदेशपट्टन (हालमे जिसे ओशीया कहते है) की स्थापना-इधर श्रीमालनगरका राजा जयसेन जैनधर्मका पालन करता हुवा अनेक पुन्य कार्य कीया पट्टावलि नम्बर ३ मे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. लिखा है कि नयसेनराजाने अपने जीवनमे ३०० नयामन्दिर ६४ वार तीर्थोंका संघ निकाला और कुँवे तलाव वावडीयों वगरह कराई विशेष आपका लक्ष स्वाधर्मियों की तरफ था जयसेनराजा के दो राणियों थी बडी का मीमसेन छोटी का चन्द्रसेन जिस्मे भीमसेन तो अपनि मातके गुरु ब्राह्मणों के परिचय से शिवलिंगोपासकथा और चन्द्रसेन परम जैनोपासक था. दोनो भाइयों में कभी कभी धर्मवाद हुवा करता था. कभी कभी तो वह धर्म्मवाद इतना जोर पकड लेता था की एक दूसरा का अपमान करने में भी पीच्छा नहीं हटते. थे ? यह हाल राजा जयसेन तक पहुंचनेपर राजाको बडा भारी रंज हुवा भविष्य के लिये राजा विचार में पड गया कि भीमसेन बडा है पर इसको राज देदीया जावे तो यह धम्मन्धिता के मारा और ब्राह्मणोको पक्षपात मे पड जैन धर्म ओर जैनोपासकोका अवश्य अपमान करेंगा ? अगर चंद्रसेनकों राज देदीया जायतो राजमे अवश्य विग्रह पैदा होगा इस विचारसागरमें गोताखाता हुवा राजाको एक भी रहस्ता नहीं मीला पर काल तो अपना कार्य कीया ही करता है राजाकी चित्तवृतिको देख एक दिन चन्द्रसेनने पुच्छाकि पिताजी आपका दोलमें क्या है इसपर राजाने सब हाल कहा चन्द्रसेनने नम्रतापूर्वक मधुर वचनोसे कहा पिताजी आपतो ज्ञानी है आप जानते है की सर्व जीव कम्र्माधिन है जो जो ज्ञानियोने देखा है अर्थात् भविव्यता होगा सोही होगा आप तो अपने दिलमें शान्ति रखो जैन धर्म का यह ही सार है मेरी तरफ से आप खातरी रखिये कि मेरी नशोमें आपका खुन रहेगा वहां तक तो में तन मन धनसे जैन धर्म की सेवा करूगा । इससे राजा जयसेन को परम संतोष हुबा तद्यपि अपनि अन्तिमा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकेशपट्टन की स्थापना. (२७) वस्था में मंत्रियो उमरावो को खानगीमे यह सूचन करदीथी की मेरे पीच्छे राजगादी चन्द्रसेन को देना कारण वह. राज के सर्व कायों में योग्य है फिर राजातो अरिहंतादि पंचपरमेष्टि का स्मरण पूर्वक मृत्युलोग और नाशमान शरीर का त्याग कर स्वर्गकी तरफ प्रस्थान कर दीया. यह सुनते ही नगरमे शोक के बादल छा गये. हाहाकार मचगया, सबलोगोने मिलके राजाकी मृत्युक्रिया वडाही समारोह के साथ करी बाद राजगादी बेठाने के विषयमे दो मत हो गया एकमत का कहनाथा कि भीमसेन बडा है वास्ते राजका अधिकार भीमसेनको है दूसरा मत था की महाराज जयसेनका अन्तिम कहना है कि राज चन्द्रसेन को देना और चन्द्रसेन राजगुण धैर्य गांभिर्य वीरता. प्राक्रमी और राज तंत्र चलाने मे भी निपुण है इन दोनो पार्टियोके बाद विवाद तर्क बाद यहां तक बडगबाको जिस्का निर्णय करना भुजबलपर आ पडा पर चन्द्रसेन अपने पक्षकारोको समजादीया की मुझे तो राजकी इच्छा नहीं है आप अपना हटको छोड दीजिये. गृह कलेशसे भविष्यमें बडी भारी हानी होगा इत्यादि समझाने पर उनने स्वीकार कर लिया बस । फिर थाहो क्या ब्रह्मणों का और शिवोपासकोका पाणि नौ गज चढ गया बडी धामधूमसे भीमसेनका राजाभिषक हो गया. पहला पहल ही भीमसेनने अपनि राज सताका जोर जुलम जैनोपर ही जमाना शरु कोया कभी कभी तो राजसभामेभी चन्द्रसेनके साथ धर्म युद्ध होने लगा । तब चन्द्रसेन ने कहा कि महाराज अब आप राजगादीपर न्याय करने को विराजे है तो आपका फर्ज है की जैनोको और शिवोको एक ही दृष्टिसे देखे जैसे महाराजा जयसेन परम जैन होने पर भी दोनो धर्म वालोको सामान दृष्टिसे ही देख Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. तेथे में ठीक कहता हुँ कि आप अपनी कुट नीतिका प्रयोग करोगे तो आपके राजकी आज जो अबादी है वह आखिर तक रहना असंभव है इत्यादि बहुत समजाया पर साथमे ब्राह्मण भीतो रानाकी अनभिज्ञताका लाभ ले जैनोसे बदला लेना चाहाते थे भीमसेनको राजगादी मीली उस समयसे जैनोपर जुलम गुजारना प्रारंभ हुवा आज जैन लोगा पुरी तंग हालतमे आ पडे तब चन्द्रसेन के अध्यक्षत्वमे एक जैनोकी विराट सभा हुइ उसमें यह प्रस्ताव पास हुवा कि तमाम जैन इस नगरको छोड देना चाहिये इत्यादि बाद चन्द्रसेन अपना दशरथ नामका मंत्रीको साथले आबुकी तरफ चलधरा वहांपर एक उन्नत भूमि देख नगरी बसाना प्रारंभकरदीया बाद श्रीमाल नगरसे ७२००० घर जिस्मे ५५०० घर तो अर्वाधिप और १००० घर करीबन् कोड' पति थे वह सभी अपने कुटम्ब सह उस नुतन नगरीमें आगये । उस नगरीका नाम चन्द्रसेन रानाके नामपर चन्द्रावती रखदीया प्रज्याका अकछा नम्माव होनेपर चन्द्रसेनको वहांका राज पद दे राज अभिषेक कर दीया. नगरीकी आबादी इस कदर से हा की स्वल्प समय में स्वर्ग सदृश बन गइ राजा चन्द्रसेन के छोटे भाइ शिवसेनने पास ही में शिवपुरी नगरी बसादी वह भी अच्छी उन्नतिपर बस गइ. इधर भीमाल नगरमे जो शिवोपासक थे वह ही रह गये नगरकी हालत देख भीमसेनने सोचा की ब्रह्मणों के धोखा में आके मेने या अच्छा नहीं किया पर अब पश्चाताप करनेसे होता क्या है रहे हुवे नागरिको के लिये उस श्रीमाल नगरके तीन प्रकोंट बनाये पहला में क्रोडाधिप दूसरा में लक्षापति तीसरा में साधारण लोग एसी रचनाकरके श्रीमाल नगरका नाम भीनमाल रखदीया यह राजा के नामपर ही रखा था कारणउधर चन्द्रसेनने अपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकेशपट्टन की स्थापना. (२९) नामपर चन्द्रावती नगरी आबाद करीथी चन्द्रसेनने चन्द्रा. वती नगरी में अनेक मन्दिर बनाया जिस्की प्रतिष्ठा आचार्य स्वयंप्रभसूरि के करकमलोंसे हुइ थी अस्तु चन्द्रावतो नगरी विक्रमकी बारहवी तेरहवी शताब्दी तक तो बडी आबाद थी ३६० घरतो क्रोडपति के थे और ३०० जैन मन्दिर थे हमेश स्वा मोवात्सल्य हुषा करता था आज उसका खन्डहर मात्र रह गया है यह समयकी ही बलीहारी है इधर भिन्नमाल नगर शिवोपासों का नगर बन गया वहांका कर्ता हर्ता सब ब्राह्मण ही थे, राना भीमसेन एक नाम का ही राना था राजा भीमसेनके दो पुत्र थे एक श्रीपुंज दूस रा उपलदेव पटावली नं.३ में लिखा है कि भीमसेनका पुत्र श्रीपुंज और श्रीपुंज के पुत्र सुरसुंदर और उपलदेव पर समय का मीलन करनेसे पहली पट्टावलीका कथन ठीक मीलता हुवा है। महाराज भीमसेनके महामात्य चन्द्रवंशीय सुवड था उसके छोटा भाइका नाम उहड था सुघड के पास अठारा क्रोडका द्रव्य होनेसे पहला प्रकोट में और उहड के,पस नीनागये लक्षका द्रव्य होनेसे दूसरा कोटमे बसता था एक समय उहड के शरीरमे रात्रिमें तकलीफ होनेसे यह विचार हुवा कि हम दो भाइ होने पर भी एक दूसरे के दुःख सुखमें काम नहीं आते है वास्ते एक लक्ष द्रव्य वृद्ध भाइसे ले में क्रोडपति हो पहला प्रकोट में जावसु. शुभे उहड अपने भाई के पास ना के एक लक्ष द्रव्य की याचना करी इसपर भाईने कहा की तुमारे विगर प्रकोट शुन्य नहीं है (दूसरी पदावलि मे लिख है की भाई की ओरत ने एसा कहां ) कि तुम करज ले क्रोडपति होनेकी कौशीस करते हों इत्यादि यह अभिमान का वचन उहड को बडा दुःखदाई हुवा झट वहांसे निकल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. के अपने मकान पर आके एक लक्ष द्रव्य पैदा करने का उपाय सोचने लगा. इधर युगराज श्रीपुंज के और उपलदे व राजकुमर के आपत्त में बोलना होनेपर श्रीपुंज ने कहा भाई एसा हुकम तो तुम अपने भुजबलसे रान जमावो तब ही चलेगा? इस ताना के मारा उपलदेव राजकुमर प्रतिज्ञा कर ली की जब हम भुज वलसे रान स्थापन करेंगे तब ही आप को मुह बतलायेंगे बस ! इसके सहायक ऊहड मंत्री विघ्रचित में बेठा ही था दोनों के आपस में बातें हो जाने से वह भि भिन्नमालनगर से निकल गया और चलते चलते रहस्तामें एक मनुष्य मीला उसने पुच्छा कुमरसाब आज किस तरफ छडाई हुई है उपलदेवने उत्तर दीया कि हम एक नया राज स्थापन करने कों नो रहे है फिर पुच्छा यह साथ में कोन है? यह हमारा मंत्रि है उस सरदारने कहा कुमर साब राज स्थापन करना कोइ बालको का खेल नहीं है आप के पास एसी कौनसी सामग्री है कि जिसके बलसे आप राज स्थापन कर सकोगे? कुमर ने कहां की हमारी भूजामे सब सामग्री भरी हुई है इसी भुज बलसे ही हम नया राज स्थापन कर सकेगे ? इस वीरता का वचन सुन सरदारने आमन्त्रण कीया की आज दिन बहुत तंग हे वास्ते रात्रि हमारे यहां विश्राम लो कल पधार जाना बहुत आग्रह होनेसे कुमर ने स्वीकार कर उस सरदार के साथ चल दीया वह सरदार था संग्रामसिंह वैराट नगर का राजा, कुमर को बडे सत्कार के साथ अपना नगरमें लाया बहुत स्वागत कर उसका शौर्य धैर्य और धीरता देख संग्रामसिंह अपनि पुत्री की सगाई उस उपलदेव कुमर के साथ कर दी रात्रि तो वहां ही रहै दूसरे दिन प्रातःसमय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकेश पट्टन की स्थापना. ( ३१ ) वहांसे चल दीया रहस्ता में अश्व व्यापारियोंसे ५५ अश्व ( दूसरी पट्टावलिमे १८० अश्व लिखा है ) ले के ढेलीपुर ( दिल्लि ) पहुंचे वहां श्री साधु नामका राजा राज करता था वह छैमास राजका काम देखता था नौर छैमास अन्तेवर महलमे रहता था उत्पलदेव राजकुमार हमेशा राज दरबार मे जाया करता था और एकेक अश्व भेट किया करता था. जब ५५ दिन व १८० दिनमें सब घोडें भेटकर चुका तब दूसरे दिन राजा राज सभामें आया और वह अश्व भेट की बात सुनी तब उपलदेव कुमार को बुलाया पुच्छनेपर कुमर ने ari मे भिन्नमाल के राजा भीमसेन का पुत्र हुं नयानगर बसाने के लिये कुच्छ जमीन की याचना करने के लिये यहां आया हुं इस विषय पट्टावलियों के अलावे कुच्छ प्राचीन कवित भी मीलते है पर वह स्यात् पीच्छे से किसी कवियाने रचा हुवा ज्ञात होता है । खेर राजा श्री साधु कुमर की वीरता पर मुग्ध हो एक घोडी दे दी की जायें। जहां पर उजड भूमि देखा वहां ही तुम अपना नया नगर वसा लेना पासमें एक शुकनी वेठा था उसने कहा कुमार साब जहां घोडी पैशाब करे वहां हो नगर वसा देना, इसी शुकनो पर राजकुमार और मंत्री वहां से सवार हो चल धरे कि शुबह मंडोर से कुच्छ आगे उजडभूमि पडी थी वहां घोडिने पैशाब कीया बस वहां ही छडी रोप दी नगर बसाना प्रारंभ कर दीया उसीलो जमीन होनेसे उस नगर का नाम उपणपट्टन रख दीया मंत्रीश्वरने इधर उधर से लोगों को लाके नगर में बसा रहे थे यह खबर भीनमाल में हुई वहां से भी उपलदेव उद्दड के कुटम्ब के साथ बहुत से लोग आये । " ततो भीनमालात् अष्टादश सहस्र कुटम्ब आगत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय. प्र - तीसरा. ( ३२ ) द्वादश योजन नगरी जाता कवित भी मीलते है । 19 इस के सिवाय के प्राचीन " गाडी सहस गुण तोस, रथ सहस इग्यार अठारा सहत असवार, पाला पायक को नहीं पार ओठी सहत अठार, तोस हस्ती मद झरंता दश सहस दुकान, कोड व्यापार करता पंच सहस विप्र भीनमाल से, मणिधर साथे माडिया. " शाहा उहडने उपलदे सहित, घर बार साथे छांडिया |१| अगर उपलदे ष और ऊहड के कुटुम्ब अटारा हजार और शेष बाद में आया हो पर यह तो ठीक है कि भिन्नमाल तुट के उपशपट्टन बसी है । मूळ पट्टाबलिमें नगर का विस्तार बारह योजन का है साथ में मंडोवर भी उस समय में मोजुद थी उपश का नाम संस्कृत ग्रन्थकारोने उपकेशपट्टन लिखा है उपश का अपभ्रंश " ओशीयों हुवा है दन्तकथाओं से ज्ञात होता है कि ओशोयों से १२ मिल तिवरी तेलीपुरा था ६ मिल खेतार क्षत्रिपुरा था २४ मिल लोहावट ओशीयों को लोहामंडी थी ओशीयों से २० मिल पर घटियाला ग्राम है वहां पर दरवाजा था जिसके पुरांणे कुच्छ चिन्ह अभी भी खोद काम से मिलते है थोडा हो वर्षा पहला तिवरी के पास खोद काम करतों एक शिखरबंद्ध जैन मन्दिर जमीन से निकला है इत्यादि प्रमाणों से उपश नगरी इतिनी बडी हो तो असंभव नही है दूसरा यह भी तो है कि जहां चार पांच लक्ष घरों की संख्या हो वह बारह योजन विस्तार में नगरी हो तो एसा कोई आश्चर्य भी नहीं है । नूतन बसा हुवा उपकेशपट्टन थोंडा ही वर्षों में इतना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com 6. C.MALI: आ० रत्नप्रभसूरिजीने पांचसो मुनियोंके साथ, उपकेशपुर निकटवर्ती लूणाद्रि टेकरी पर समवसरण कीया। (६०) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकेशपट्टन की स्थापना. आबाध हो गया की वहां लाखो घरों की वस्ती हो गई व्या. पार का एक केन्द्र स्थान बन गया पास मे मीटा मेहरबान समुद्र भी था वास्ते जल थल दोनों रहस्ते व्यापार चलता था राना की तरफ से व्यापारीयों को बड़ी भारी सहायता मीलती थी नहां व्यापार की उन्नति है वहां राजा प्रजा सब की उन्नति हुवा करती है इति उपकेशपट्टन स्थापना सम्बन्ध । आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि अपने ५०० मुनियों के साथ भूमण्डल को पवित्र करते हुवे क्रमसे उपकेशपट्टन पधारे वहां लुणावी छोटीसी पहाडीथी वहां ठेर गये " मासकल्प अरण्येस्थिता" एक मासकी तपश्चर्या कर पहाडीपर रहे पर किसी एकवचातकने भी सूरिजी को खबर न लो. बाद केइ मुनियों के तप पारणा था वह भिक्षाके लिये नगर में गये "गोचर्या मुनीश्वरा व्रजंति परंभिक्षा न लभते लोकामिथ्यत्व वासिता यादृशा गता तादृशा आगता मुनीश्वराः तपोवृद्धि पात्राणि प्रतिलेष्यमास यावत् संतोषेणस्थिताः नगरमे लोग वाममागि देवि उपासक मांस मदिरा भक्षी होनेसे मुनियों को शुद्ध भिक्षा न मीलने पर जैसे पात्र ले के गयेथे वैसेही वापिस आगये मुनियोंने सोचा कि आज और भी तपोवृद्धि हुइ पात्रोका प्रतिलेखन कर स गोषसे अपना ज्ञानध्यानमे मग्न हो आत्मकल्यानमे लग गये। इसपर (१) यति रामलालजी महाजनवंश मुक्तावलिमें लिखते है कि रत्न प्रभसूरि एक शिष्य के साथ आये भिक्षा न मिलनेसे गृहस्थों की औषधी कर भिक्षा लातेथे. और ( २ । सेवगलोग कहते है कि उन मुनियों को भिक्षा न मीलनेसे हमारे पूर्वजोंने भिक्षा दी थी (३) भाट भोजक कहते है कि भिक्षा न मीलने पर आचा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) जैन जाति महोदय. प्र - तीसरा. र्यका शिष्य जगलसे लकडीयों काट भारी बना बजारमे वेचके उसका धान ला रोटी बनाके खाताथा इसी रीतसे उस शिष्यके सिरके बालतक उड गये । एकदा सूरिजीने शिष्यके सिरपर हाथ फेरा तो बाल नही पायें तब पुच्छने पर शिष्यने सब हाल सुनाया जब सूरिजीने एक रुइका मायावी साप बनाके राजाका पुत्रको कटाया और ओसवाल मनाया इत्यादि यह सब मनकल्पीत झूटी दान्तकथाओं है कारण अखण्डित चारित्र पालनेवाले पुर्वधर मुनियोंकों एसे विटम्बना करने की जरूरत क्या अगर मिक्षा न मीली तो फिर उस नगर में रहनेका प्रयोजन ह्रीं क्या उस समय मामुली साधुभी एक शिष्यसे बिहार नहीं करते थे तो रत्नप्रभाचार्य जेसे महान् पुरुष विकट घरतीमें एक शिष्य के साथ पधारे यह बिलकुल असंभव है आगे भाट भोजको या यतियोंने रत्नप्रभसूरिका समय बीयेबाइसे २२२ का बतलाते है वह भी गलत है जिसका खुलासा हम फिर करेंगें दर असल वह समय विक्रम पूर्व ४०० वर्षका था और भिक्षा के लिये मुनियोंने तप वृद्धि करीथी । मुनियों के तपवृद्धि होते हुवेकों बहुत दिन हो गये तब उपाध्यया वीरधवळने सूरिजी से अर्ज करी कि यहां के सब लोग देवि उपासक वाममार्ग मांस मदिर भक्षी है शुद्ध भिक्षा के अभाष मुनियोंका निर्वाहा होना मुश्किल है ? इस पर आया श्रीने कहा एसाही हो तो विहार करों. मुनिगण तो पहला से ही तैयार हो रहे थे हुकम मिलतोंही कम्मर बन्ध तय्यार हो गये । यह हाल वहां की अधिष्टायिका चमुंडा देविको ज्ञानद्वारा ज्ञात हुबा तब देविने सोचा कि मेरी सखी चक्रेश्वरी के भेजे हुवे महात्मा यहां पर आये है और यहां से क्षुद्धा पिपास पिडित चले जायेंगे तो इसमें मेरी अच्छी न लागेगा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचर्यरत्नप्रभसूरि. . ( ३५) इस विचारसे देवी सूरिजी के पास आई " शासन देव्या कथितं भोप्राचार्य अत्र चतुर्मासकं करूं तत्र महालाभो भविष्यति" हे आचार्य । आप यहां मेरी विनंतिसे चतुर्मास करो यहां आपको बहुत लाभ होगा इस पर सूरिजी देवि की विनंतिको स्वीकार कर मुनियोंसे कह दीया कि जो विकट तपस्या के करने वाले हो वह हमारे पास रहे शेष यहां से विहार कर अन्य क्षेत्रोंमे चतुर्मास करना इस पर ४६५ मुनि तो गुरु आज्ञासे विहार किया “गुरु: पंचत्रिंशत् मुनिभिः सहस्थितः" आचार्यश्री ३५ मुनियों के साथ वहां चतुर्मास स्थित रहे । रहे हुवे मुनियोंने विकट यानि उत्कृष्ट चार चार मासकी तपस्या करली । और पहाडी की बनराजी मे आसन लगा के सामाधि ध्यान में रमणता करने लग गये । “ज्ञानामृत भोजनम् " इधर स्वर्ग सदृश उपदृश पकेन में राजा उत्पलदेव राम राज कर रहा था अन्य राणियों में जालणदेवी ( सग्रामसिंहकी पुत्री) पट्टराणिथी उसके एक पुत्री जिस्का नाम शोभाग्यदेवी था वह घर योग्य होनेसे राजा को चिंत्तां हुई वर की तलास कर रहा था एकदा राणिके पास राजाने वात करी तव राणिने कहा महाराज मेरी पुत्री मुझे प्राणसे बल्लभ हे एसा न हो की आप इसकों दूर देशमे दे मेरे प्राणों को खो बेठो आप एता पर रहै बाई रात्रिमे सासरे और दिनमें मेरे पास की, तलास करावे कि इत्यादि राजा यह सुन और भी विचारमे पड़ गया। इधर उहडदे मंत्रि के तिलकसी नाम का पुत्र अच्छा लिखा पढा रुपमे भी सुन्दर कामदेव तूल्य था उसे देख Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) . जैन जातिमहोदय. प्र-तीसरा. " राजाने साचाकी शोभाग्यदेवी की सादी इसके साथ कर देने मे एक तो में मंत्रि का ऋणि हुँ वह भी अदा हो जायगा दूसरा राणिका कहना भी रह जायगा एसा समझ वडे आडाम्बर के साथ अपनी कन्या शोभाग्यदेवी मंत्रेश्वरका पुत्र तिलोकसी को परणादी. वह दम्पति एकदा अपनि सुखशेर्थ्य में सुते हुवे थें " मंत्रीश्वर ऊहड सुतं भुजंगेनदृष्टः " मंत्रीश्वर के पुत्र ती लोकसी को अकस्मात् सर्प काट खाया अज्ञ लोक कहते है की सूरिजीने रूह का साप बना के राजा का पुत्र को कटाया था यह बिलकुल मिथ्या है " नूतन परणा हुवा राजा का जमाई ( मंत्रीश्वर का पुत्र ) को सांप काट खाने से नगर मे हा-हाकार मच गया बहुत से मंत्र यंत्र तंत्र बादी आये अपना अपना उपचार सबने किया जिसका फल कुच्छ भी न हुवा आखिर कुमरको अग्नि संस्कार करने के लिये स्मशान ले जाने की तैयारी हुई तस्य स्त्री काष्ट भक्षणे स्मशाने आघाता " राजपुत्री सौभाग्यदेवी अपना पति के पीच्छे सती होने को अश्वारूढ हो वह भी साथ मे हो गई । राजा मंत्री और नागरिक महान् दुःखि हुवे रूदन करते हुवे. स्मशान भूमि की तरफ जा रहे थे " कारण उस समय एसी मृत्यु क्वचित् ही होती थी" - " इधर चमुंडा देविने सोचा कि मेने सूरिजी को विनंति कर रख तो लिया और कहा था कि बहुत लाभ होगा जिसका आज तक मैने कुच्छ भी प्रयत्न नहीं किया पर आज यह अवसर लाभ का है एसा विचार एक लघु मुनि का रूप बना स्मशान की तरक जाता हुवा कुमर का झापन (सेविका) के सामने जाके कहा कि " जीवितं कथं ज्वालियतः " भो लोगों इस जीवत कुमर को जलाने को क्यों ले जाते हो इतना कह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रिपुत्र को सर्प काटा. ( ३७ ) देषितों अदृश हो गई ( दूसरी पट्टावलि में वह मुनि सूरिनी का शिष्य था ) लोगोंने यह सुन बडा हर्ष मनाया और राजा व मंत्री के पास खुशखबरदी राजाने हुकम दीया कि उस मुनि को लावों, पर मुनि तो अदृश हो गया था तब सब कि स.. म्मति से सब लोगों के साथ कुमर का झांपांन को ले सूरिजी के पास आये " श्रेष्टि गुरु चरणे शिरं निवेश्य एवं कथयति भो दयालु ममदेवरूष्टामम गृहीशून्यो भवति तेन कारणेनमम पुत्र भिक्षां देहि " राना और मंत्री गुरुचरणो मे सिर चका के दोनता के बचनो से कहने लगे । हे दयाल । करूणासागर आज मेरे पर देव रूष्ट हुवा मेरा गृह शुन्य हुवा आप महात्मा हो रेखमें भी मेख मारने को समर्थ हो वास्ते में आपसे पुत्ररूपी भिक्षा को याचना करता हु आप अनुग्रह करावे । इसपर उ० वीरधवल ने कहा " प्रासु जल मानीय चरणोप्रक्षाल्य तस्य छटितं " फासुकजल से गुरु महाराज के चरणो का प्रक्षाल कर कुमर पर छंट को बस इतना कहने पर देरी ही क्या थी गुरु चरणों का प्रक्षाल कर कुमर पर जल छांटतो ही "सहसात्कारण सजोव भूवः" एकदम कुमर बेठा हुवा इधर उधर देखने लगा तो चोतरफ हर्षका वाजिंत्र बज रहा लोग कहने लगे कि गुरु महाराज की कृपासे कुमरजी आज नये जन्म आये है सब लोगोंने नगरमे जा पोषाको बदल के बडे गाजावाजा के साथ सूरिजी को हजारो लाखों जिह्वाओं से आशीर्वाद देते हुधे बडे ही समरोह के साथ नगर मे प्रवेश किया. राजाने अएने खजानाषालो को हुकम दे दिया कि खजाना में बडिया से पडिया रत्नमणि माणक लीलम पन्ना पीरोजिया लश णियादि बहुमूल्य जवेरायत हो वह महात्माजी के चरणो मे भेट करो? तदानुस्वार रत्नादि भेट किये तथा ऊहड श्रेष्टिने भी बहुत द्रव्य भेट किया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. ___ "गुरुणा कथितं मम न कार्ये" आचार्यश्रीने फरमाया कि मेने तो खुद ही वैताड्य गिरि का राज और राज खजाना त्याग के योग लिया है अब हम त्यागियोंको इस द्रव्यसे .क्या प्रयोजन है यह तो गृहस्थ लोगोंका भूषण है अगर इसे देशहित धर्महित में लगाया जाय तो पुन्थोपार्जित हो सकता है नहींतो दुर्गतिका ही कारण है इत्यादि । अगर हमे खुश करना चाहाते हो तो " भवद्भिः जिनधर्मोगृह्यतां" आप सब लोग पवित्र जैनधर्मको स्वीकार करों जिससे तुमारा कल्याण हो इत्यादि । यह सुन श्रेष्टि वैगरह रानाके पास नाके सब हाल सुनाया आचार्यश्री की नि:स्पृहीताने राजाके अन्तकरणपर इतना असर डाला कि वह चतुरांग शैन्या और नागरिक जनको साथ ले सूरिजीको वन्दन करनेको वडे ही आडम्बर से आयां आचार्यश्रीको बन्दन कर बोलाकि हे भगवान् ! आपतो हमारे जैसे पामर जीवों पर बडा भारी उपकार किया है जिस्का बदला इस भत्रमे तो क्या परभवोभयमे देने को हम लोग असमर्थ है हमारी इच्छा आपश्री के मुखाविन्दसे धर्म श्रवण करने की है। . आचार्यश्रीने उच्चस्वर और मधुरभाषासे धर्मदेशना देना प्रारंभ किया है राजेन्द्र ! इस आरापार संसारके अन्दर जीव परिभ्रमण करते हुवे को अनंताकाल हो गया कारण कि सुक्षमबादर निगोदमें अनंतकाल पृथ्वीपाणि तेउवायमें असं. ख्याताकाल एवं पकेन्द्रियमें अनंतानंतकाल परिभ्रमन कीया बाद कुच्छ पुन्य बड जानेसे बेन्द्रिय एवं तेन्द्रिय चोरिन्द्रिय व तीर्यच पांचेन्द्रिय अनार्य मनुष्य या अकाम पुन्योदय देव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरिजी का उपदेश. योनिमें भ्रमन किया पर उत्तम सामग्री के अभाष शुद्ध धर्म न मीला, हे राजन् ! सुकृत कर्मका सुकृत फल और दुःकृत कर्मका दुःकृतफल भविष्यमे अवश्य मीलता है सबसे पहला तो जीवोको मनुष्यभव मीलना मुश्किल है कदाच् मनुष्य भव मील गया तो आर्य क्षेत्र उत्तम कुल शरीरनिरोग इन्द्रियोपूर्ण और दोर्घायुष्य क्रमशः मोलना दुर्लभ है कदाच यह सब सामग्री मील जावे तो सदगुरुओंकी सेवा मिलना कठिन है यह आप जानते हो कि गुरु विगरह ज्ञान हो नहीं सक्ता है जगत् मे पसे भी गुरु नाम धरानेवाले पाये जाते है की वह भांगों पीना, गाजा चडश उडाना, व्यभिचार करना, यज्ञहोम के नाम हजारो लाखों पशुओंके प्राण लुटना मांस मदिरा भक्षण करना इत्यादि अत्याचार करने वालोसे सद्गुणों की . प्राप्ति कभी नहीं होती है वास्ते आत्मकल्याणके लिये सबसे पहला सदगुरु की आवश्यक्ता है सदगुरु मिलने पर भी सदागम श्रवण करणा दुर्लभ है विगरह सुने हिताहित की खबर नहीं पड सक्ती है अगर सुन भी लीया तो सत्य पातको स्वीकार करना बडा ही मुश्किल है स्वीकार करने पर भी उस पर पाबंदो रख उस्मे पुरुषार्थ करना सबसे कठिन है। हे धराधिप । इस पृथ्वीपर केइ धर्म प्रचलित है सबमे प्राचीन और सर्वोतम है तो एक जैन धर्म है जन धर्म का तत्वज्ञान इतना उच्च कोटि का है को साधारण मनुष्य उस्मे एकदम प्रवेश होना असंभव है जैन धर्म का आचार व्यवहार भी सब से उच्च दर्जा का है अहिंसा परमो धर्मः जैन धर्म का मुख्य सिद्धान्त है यह धर्म संपूर्ण ज्ञानवाले सर्वज्ञ का फरमाग हुवा है मांस मदिर सिकार परस्त्रीगमन वैश्यागमन चौथे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. जुवा एवं सात कुव्यसन सर्वता तज्य है रात्रिभोजनादि अभक्ष पदार्थों की बिलकुल मना है जो पूर्वोक्त कार्य करनेघाले धर्म और धर्म गुरुओ की तरफ जैन हमेशो तिस्कार की दृष्टि से देखता है जैन धर्म पालने वालो के लिये मुख्य दोय रहस्ता बतलाया हुवा है (१) गृहस्थ धर्म (२) मुनि धर्म जिस्मे गृहस्थ धम्म के लिये सम्यक्त्व भूल बारहा व्रत है जिस्मे व्यवहार सम्यक्त्व उसे कहते है कि (१) देव अरिहन्त वीतराग सर्वज्ञ लोकालोक के भाषो को जाननेवाले सदा परोपकार के लिये जिसका प्रयत्न है जिस्के जीवन की पवित्रता और मुद्रामें शान्त रस देखने से ही दुनिया का भला होता है एसे देव को देव बुद्धिकर मानना इस्के सिवाय राग द्वेष विषय विकार के चिन्ह मिस के पासमे हो जिसके पशुओ की बलि चढती हो एसे देव मे कभी देवत्व न समजे (२) गुरु निग्रन्थ अहिंसा सत्य अचौर्य ब्रह्मचार्य और ममत्व भाष रहीत अचाई सच्चाई अमाई न्याई पेपरवाई उसका लक्षण है परोपकार पर जिस का जीवन है इत्यादि (३) धर्म जिस देवने अपना संपूर्ण ज्ञान बलसे दुनियों का उद्धार के लिये धर्म कहा है जैसे दान शील तप भाव पूजा प्रभावना सामायिक प्रतिक्रमण व्रत नियम विनय भक्ति सेवा उपासना आसन समाधि ध्यान इत्यादि अर्थात् पहला इन देवगुरु धर्म पर खुब पृढ श्रद्धा प्रतित और रूची होना जरूरी है बाद अगर गृहस्थ धर्म पालना है तो उसके लिये बार हा व्रत है (१) पहला व्रतमे हलता चलता मीषों को विगर अपराध मारने की बुद्धिसे नहीं मारना अगर कोइ अपराध करे कोइ मारने को आवे आज्ञा का भंग करे उस का सामना करना इस व्रत का भंग नहीं है (२) दूसरा व्रत में राजदंड ले लोगों मे भांडाचार हो एसा धडा झुटबोलना मना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहा व्रत विवर्ण. (४१) है (३) तीसरा व्रतमे पूर्वोक्त स्थुल चौरी करना मना है (४) चतुर्थ व्रत में परस्त्रि वैश्यादि से गमन करना मना है (५) पंचवा व्रत में धनमाल राज स्टेट वगैरह का नियम करने पर अधिक बडाना मना है (६) छठा व्रत में चोतरफ दिशाओं में जितनी भूमिका में जाने का प्रमाण कर लिया हो उससे अधिक नाना मना है ( ७ ) सातवा व्रत में पहला तो भक्षाभक्षका विचार है मांस मदिर वासीविठ्ठल सहेत मक्खनादि जो कि जिस्मे प्रचूर जीवों की उत्पति हो वह खाना मना है दूसरा व्यापरापेक्षा है जिस्मे ज्यादा पाप और कम लाभ और तुच्छव्यापर हो एसे व्यापार रूपी कम्र्मादान करनामना है (८) अनर्था दंडव्रत है जोकी अपना स्वार्थ न होने पर भी पापकारी उपदेशका देना दूसरों की उन्नति देख इर्षा करना आवश्यक्तासे अधिक हिंसा कारी उपकरण एकत्र करना प्रमाद के वस ही घृत तेल दुद्ध दही छास पाणि के वरतन खुले रख देना इत्यादि (९) नौवा व्रतमे हमेशां समताभाव सामायिक करना (१०) दशवा व्रतमे दिशादि मे रहे हुवे द्रव्यादि पदार्थों के लिये १४ नियम याद करना (११) ग्यारवा व्रतमे आत्माको पुष्टिरूप पौषध करना (१२) बारहवा व्रत अतित्थी महात्माओको सुपात्रदान देना इन गृहस्थधर्म पालने वालोको हमेशों परमात्मा की पूजा करना नये नये तीर्थो की यात्रा करना स्वाधर्मि भाइयों के साथ पात्सल्यता और प्रभावना करना नीषदया के लिये बने वहां तक अमरिय पहहा फीराना, जैनमन्दिर जैनमूर्ति ज्ञान साधुसाध्वियों श्रावक श्राविकाओं एवं सात क्षेत्रमें समर्थ होनेपर द्रव्य को खरचना और जिनशासनोन्नति मे तनमन धन लगा देना गृहस्थोंका आचार है आगे बड के मुनिपद की इच्छावाले सर्व प्रकारसे जीवहिंसाका त्याग एवं झूट बोलना चौरी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. करना मैथुन और परिग्रहका सर्वता परित्याग करना. सिर का बाल भी हाथोंसे खेचना पैदल विहार करना परोपकारके सिवाय और कोई कार्य नहीं करना एसा मुनियोंका आचार है हे राजन् ! इस पवित्र धर्मका सेवन करने से भूतकाल में अनंते जीव जरामरण रोगशोक और संसारके सव बन्धनासे मुक्त हो सास्वते सुख जो मोक्ष है उस को प्राप्ति कर लीया था वर्तमान मे कर रहे है और भविष्यने करेंगा वास्ते आप सब सजन मिथ्या पाखण्ड मत्तका सर्वता त्याग कर इस शुद्ध पवित्र सर्वोत्तम धर्मको स्वीकार करो ताकी आप इस लोक परलोकमे सुखके अधिकारी बनों किमधिकम् । सूरिजी महाराजकी अपूर्व और अमृतमय देशना श्रवण कर राजा प्रजा एकदम अजब गजब और आश्चर्यमे गरक बन गये. हर्ष के मारे शरीर रोमाचित हो गये कारण इस के पहला कभी एसी देशना सुनी ही नहीं थी । राजा हाथ नोड वोला कि हे प्रभो! एक तरफ तो हमे बडा भारी दुःख हो रहा है और दूसरी तरफ हर्ष हमारा हृदय में समा नहीं सक्ता है इस का कारण यह है कि हमने दुर्लभ मनुष्यभष पाके सामग्रोके होते हुवे भी कुगुरुओ की वासना की पास मे पड हमारा अमूल्य समय निरर्थक खो दीया इतना ही नही परधर्म के नाम से हम अज्ञान लोगोंने अनेक प्रकारका अत्याचार कर मिथ्यात्वरूपो पाप की पोठसिर पर उठाइ वह आज आपश्रीका सत्योपदेश श्रवण करने से ज्ञान हुवा है फिर अधिक दुःख इस बात का है कि आप जैसे परमयोगिराज महात्मा पुरुषोंका हमारे यहां विराजना होने पर भी हम हतभाग्य आप के दर्शनतक भी नहीं किया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म की सत्यता. { ४३ ) हे प्रभो। इसका कारण यह था कि हम लोगों को पहलासे हि एसा शिक्षण दीया जाता था की जैन नास्तिक है ईश्वर को नहीं मानते है शास्त्रविधिसे यज्ञ करना भी वह निषेध करते है नन देव को पूजते है अहिंसा २ कर जनताका शौर्य पर कुठार चलाते है इत्यादि पर आज हमारा शोभाग्य है कि आप जैसे पर मोपकारी महात्माओंके मुखाविन्दसे अमृतमय देशना श्रवण करने का समय मीला, हे दयाल । आज हमार सब भ्रम दूर हो गया है नतों जैन नास्तिक है न जैनधर्म जनताको निर्बल कायर बनाता है जिस्मे ईश्वरत्व है उसे जैनधर्म ईश्वर (देव) मानते है जैनधर्म एक पवित्र उच्च कोटीका स्वतंत्र धर्म है हे विभों । इतने दिन हम लोग मिथ्यात्व रुपी नशेमे एसे धैभान हो मिथ्या फाँसीमे फस कर सरासर व्यभिचार अधम्मका धर्म समझ रखाथा सत्य है कि विना परीक्षा पीतलकोभी मनुष्य सोना मान धोखा खालेता है यह युक्ति हमारे लिये ठीक चरतार्थ होती है हे भगवन् । हम तो आपके पहलेसेही ऋणि है आप श्रीमानों ने एक हमारे जमाइकोही जीवतदान नहीं दीया पर हम सबको एक भवके लियेही नहीं किन्तु भवोभवके लिये जीवन दीया है नरकके रहस्ते जाते हुवे हमको स्वर्ग मोक्षका रहस्ता बतला दिया है इत्यादि सूरिजी के गुण कीर्तन कर राजाने कहा की हम सब लोग जैनधर्म स्वीकार करने को तैयार है आचार्यश्रीने कहा " जहांसुखम्” इस सुअवसर पर एक नया चमत्कार यह हुषा की आकाशमे सनधन अवाजो और झाणकार होना प्रारंभ हुवा सब लोग उर्व दृष्टि कर देखने लगें इतने मे तो वैमानोंसे उत्तरते हुवे सेंकडो विद्याधर नरनारियों सालंकृत शरीर सूरिजी के चरण कमलो बन्दना करने लगें इतनामे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) . जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. ओर आकाश गुंज उठा झणकार रणकार के साथ चक्रेश्वरी आंबिका पद्मावती ओर सिद्धायक। देवियों सूरिजीकों वन्दनार्थ आई वहभी नम्रता भावसे चन्दन किया. राजा मंत्री ओर नागरिक लोग यह दृश्य देख चित्रवत् हो गये अहो हम निर्भाग्य इसे अमूल्य रत्नको एक कांकरा समज तिरस्कार किया इस पापसे हम कैसे छुटेगें! राजा प्रना सूरिजीसे जैनधर्म धारण करने में इतने तो आतुर हो रहे थे को सब लोगोंने जनौयों ष कण्ठियों तोड तोडके सूरिजी के चरणों मे डालदी और अर्ज करी कि भगवान आपही हमारे देव हो आपही हमारे गुरु हो आपही हमारे धर्म हो आपके वचनहो हमारे शास्त्र है हम तो आजसे आप और आपकी सन्तानके परमोपसक है इतनाही नहीं पर हमारी कुल संतति भविष्यमे सूर्यचन्द्र पृथ्वीपर रहेगा यहांतक जैनधर्म पालेगा और आपके सन्ता. नके उपासक रहेगा यह सुनते ही चक्रेश्वरी देवि बज्ररत्नके स्थालमे पासक्षेप लाई सूरिजीने राना उपलदेव मंत्रि उहड और नागरिक क्षत्रिय ब्राह्मण वैश्यों को पूर्व सेवित मिथ्यात्वकी आलोचन करवाके महा ऋद्धि सिद्धि वृद्धि सयुक्त महामंत्र पूर्वक विधि विधान के साथ पास क्षेप दे कर उन भिन्न भिन्न वर्ण और जातियोंका एक "महाजन संघ" स्थापन किया उस समय अन्य देवियों के साथ च मुंडा भी हाजर थी वह विच में बोल उठी कि हे भगवान् । आप इन सब को जैनोपासक बनाते सो तो ठीक है पर मेरा कडुडके मडके न छोडावे सूरिजोने कहां ठीक है देवि तुमारा कड्डका मड्डका न छुडाया जावेगा । इस पवित्र दृश्य को देख उन विद्याधरोंने १ देखो नोट नम्बर ३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन जाति महास्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat HOM 17 D.CMALOGUE www.umaragyanbhandar.com राना और प्रधानने सख्यातीत कुटुंबियोंके साथ सूरिजीके वासक्षपेसे जैन धर्म अंगीकार कीया, और महाजन वंशकि स्थापना हुई, वंदनार्थ आए हुए देव विद्याधरोंने पुष्प वृष्टि की। (पृ ७३) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मका स्वीकार. ( ४५ ) राजा उपलदेवादि सब को उत्साहावृद्धक धन्यबाद दीया कि आप लोगोंका प्रबल पुन्योदय है कि ऐसे गुरु महाराज मीले है आपको कोटीशः धन्यबाद है कि मिथ्या फांसी से छुट पवित्र धर्म को स्वीकार कीया है आगे के लिये आप ज्ञान श्रद्धा पूर्वक इस धर्म का पालनकर अपनि आत्मा का कल्यान करते रहना राजा उपलदेव उन विद्याधरों का परमोपकार माना और स्वाधर्मि भाइ सभज महमान रहने की बिनति करी इसपर वह आपस मे वात्सल्यता करते हुवे बाद देवियों और विद्याधर सूरिजी को वन्दन नमस्कार कर विसर्जन हुवे । अब तो उपकेशपुर के घर घरमें जैन धर्म की तारीफ होने लगी और रहे हुवे लोग भी जैन धर्म को स्वीकार करने लगें यह बात वाममार्गिमत्त के अध्यक्षो के मट्टों तक पहुंच गई की एक जैन सेबडा आया है वह न जाने राजा प्रज्यापर क्या जादु डारा कि वह सबको जैन बना दीया. अगर इस पर कुच्छ प्रयत्न न किया जावेगा तो अपनि तो सब की सब दुकानदारी उठ जावेगा । यह तो उनको विश्वास था कि राजा प्रज्या कों जैसे पाठ पढावेर्गे वैसे ही मानने लग जायेंगे सेबडाने उसे जैन बनाया तो चलो अपुन फोरसे शैब बना देंगें एसा सोच वह सब जमात की जमात सज धज के राज सभामे आये. परं जैसे किसीका सर्व श्रेय लुट लेने से उन पर दुर्भाव होता है वैसे उन पाखण्डियों पर राजा प्रजा का दुर्भाव हो गया था. राजाने न तो उनको आदर सत्कार दोया नं उने बोलाया इसपर वह लोग कहने लगे कि हे राजन् ! हम ज्ञानते है कि आप अपने पूर्वजो से चला आया पवित्र धर्म को छोड अर्थात् पूर्वजों की परम्परा पर लकीर फेर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. जैन धर्म को स्वीकार किया है आपने ही नहीं पर आप के दादानी ( जयसेन राजा ) भी परम्परा धर्म छोड जैनी बन गये पर आपके पिताजीने सत्य धर्म की सोध कर पुनः हमारा धर्म के अन्दर स्थिर हो उसका ही प्रचार किया है भलो आप को एप्ता ही करना था तो हम को वहां बुला के शास्त्रार्थ तो कराना था कि जिससे आप को ज्ञात हो नाता की कौनसा धम्म सत्य सदाचारी और प्राचीन है इत्यादि इसपर राजाने कहा कि मेरा दादाजीने और मेंने जो किया वह ठीक सोच समझ के ही कीया है आपके धर्म की सत्यता और सहाचारमें अच्छी तरहसे जानता हूं कि जहां बेहन बेठी और माता के साथ व्यभिचार करने में भी धर्म माना गया है रूतुबंती से भोग करना तो तीर्थयात्रा जीतना पुन्य माना गया है धीकार है एसे धर्म और एसे दुराचारके चलाने वालो को में तो एसे मिथ्या धर्म का नाम कानोमें सुनना में भी महान् पाप समझता हुं सरम है कि एसे अधर्म को धर्म मानकर भी शास्त्रार्थका मिथ्या गमंड रखते हो क्या पवित्र जैनधर्म के सामने व्यभिचारी धर्म शास्त्रार्थ तो क्यापर एक शब्द भी उच्चा रण करने को समर्थ हो सकता है अगर आप को एसा ही आग्रह हो तो हमारे पूज्य गुरुवर्य शाखार्थ करने को तरयार है। गुस्से में भरे हुवे वाममार्गि बोले कि देरी किस की है हमतो इसी वास्ते आये है यह सुनते हो राना अपने योग्य आदमियों को सरिजी के पास भेजे और शास्त्रार्थ के लिये आमन्त्रण कीया. आदमियोंने सूरिजी से सब हाल निवेदन कीया यह सुनते ही अपने शिष्य मण्डलसे सूरिजी महाराज राज सभा में पधार गये। नगर मे इस बात की खबर होते ही सभा एकदम चीकार बद्ध भरा गई। प्रारंभ में ही उच स्वर से शैव बोल उठे कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रार्थका फल. (४७) हे लोगों में आज आमतौर से जाहिर करताहुं कि जैन धर्म एक आधुनीक धर्म है पुनः वह नास्तिक धर्म है पुनः वह ईश्वर को नहीं मानते है इनके मन्दिरो मे नग्न देव है इत्यादि इसपर सूरिजी के पास बेठा हुवा वीरधवलोपाध्याय ने गभिर शब्दो में बडि योग्यता से बोला कि जैन धर्म आधुनिक नहीं परन्तु प्राचीन धर्म है जिस जैन धर्म के विषय में वेद साक्षि दे रहे है ब्रह्मा विष्णु और महादेवने जैन धर्म को नमस्कार किया है पुरांणोवालोने भी जैन धर्म को परम पवित्र माना है ( देखा पहला प्रकरण में जैन धर्म की प्राचीनता ) ओर जैन धर्म नास्तिक भी नहीं है कारण जैन धर्म जीवानीव पुन्य पाप आश्रव संवर निर्जरा वन्ध और मोक्ष तथा लोकअलोक स्वर्ग नरक तथा सुकृत करणि के सुकृत्त फल दुःकृतकरणि का दुकृतफलकों मनाता है इत्यादि जैनास्तिक है नास्तिक वह हो कहा जा सकता है कि पुन्य पाप का फल व यह लोकपरलोक नमाने नास्तियों का यह लक्षण है कि वह व्यभिचार मे धर्म बतलावे आगे ईश्वर के विषय में यह बतलाया गया था कि जैन ईश्वर के बराबर मानते है जो सर्वज्ञ वीतराग परमब्रह्म ज्योती स्वरूप जिस्को संसारी जीवों के साथ कोइ भी संबंध नहीं है लीला क्रीडा रहित जन्म मृत्युयोनि अवतार लेना दि कार्यों से सर्वता मुक्त हो उसे जैन ईश्वर मानते है नकी बगलमे प्यारी को ले बेठा है हाथ में धनुष्य ले रखा है केइ यानि मे ही डेरा लगा रखा है केइ अश्वारूढ हो रहे है केइ पशुबलि में ही मग्न हो रहे है एसे एसे रागी द्वेषी विकारी निर्दय व्यभिचारीयों को जैन कदापि ईश्वर नहीं मानते है जैनों के देव नग्न नहीं पर एक अलौकीकरूप सालंकृत दृश्य और शान्तिमय है इत्यादि विस्तार से उत्तर देने पर पाखण्डियों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. का मुह श्याम और दान्त खटे हो गये हाहो कर रहस्ता पकडा वह अपने मठों में नाके विशेषशूद्रलोग जोकि विल्कूल अज्ञानी और मांसमदिरा के लोलपी थे उन्हकों अपनी झालमे फसा के जैसे तेसै उपदेश दे अपने उपासक बना रखा पर उन पाखण्डियों की पोल खुल जाना से राजा प्रज्या कि जैन धर्मपर ओर भी अधिक दृढ श्रद्धा हो गई उपसंहार में सूरिजोने कहा भव्यों । हमे आपसे नतो कुच्छ लेना है न कोइ आप को धोखा देना है जनताके सत्य रहस्ता बतलाना हम हमारा कर्त्तव्य समझ के ही उपदेश करते है जिसको अच्छा लगें वह स्वीकार करें। भगवात् महावीर के सदुप. देशद्वारा बहुत देशो में ज्ञानका प्रकाश से मिथ्यांधकार का नाश हो गया है हजारो लाखो निरापराधि नीषो की यझमे होती हुइ बलिरूप मिथ्या रूढियो मूल से नष्ट हो गइ पर यह मरूभूमि इस अज्ञान दशा व्याप्त हो रही थी पर कल्याण हो आचार्य स्वयंप्रभसूरि का कि वह श्रीमाल भिन्नमाल तक अहिंसा का प्रचार कीया आज आप लोगों का भी अहोभाग्य है कि पवित्र जैन धम्म को स्वीकार कर आत्म कल्यान करने को तत्पर हुवे हो इत्यादि. राजा उपलदेवने नम्रतापूर्वक अर्ज करी कि हे प्रभो ! भगवान् महावीर और आचार्य स्प्रयंप्रभसूरि जो कुछ अहिंसा भत्तवती का झुंडा भूमि पर फरकाया वह महान् उपकार कर गये पर हमारे लिये तो आप ही महावीर आप ही आचार्य है की हमे मिथ्याझालसे छुडवा के सत्य रहस्ता पर लगाया इत्यादि नयध्वनी के साथ सभा विसर्जन हुई ॥ एक उपकेशपट्टनमें ही नहीं किन्तु आसपासमें जैसे जैसे जैन धर्मका प्रचार होता गया वैसे वैसे पाखण्डियां का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रार्थका फल. (४९) मिथ्यात्व मार्ग लुप्त होता गया. राजा उपलदेव आदि सूरिनी कि हमेशो सेवा भक्ति करते हुवे व्याख्यान सुन रहे थे सूरिजीने तरवमिमंसा तत्वसार मत्त परिक्षादि केइ ग्रन्थ भी निर्माण किये थे एक समय राजाने पुच्छा कि भगवान् यहां पाखंण्डियोंका चिरकालसे परिचय है स्यात् आपके पधार जाने के बाद फिरभी इनका दाव न लग जावे वास्ते आप एसा प्रबन्ध करावे की साधारण जनताकि श्रद्धा जैनधर्मपर मजबुत हो जावे ? सूरिजीने फरमाया कि इस के लिये दो रहस्ता है (१) जैन. तत्वोंका ज्ञान होना ( २ ) जैन मन्दिरोंका निर्माण होना। राजाने दोनों बातों को स्वीकार कर एक तरफ तो ज्ञानाभ्यास वडाना सरू कीया दूसरी तरफ लुणाद्री पहाडी के पास की पहाडी पर एक मन्दिर बनाना प्रारंभ करदीया। उसी नगरमें ऊहड मंत्री पहले से ही एक नारायणका मन्दिर बना रहा था पर वह दिनको बनावे और रात्रिमें पुन: गिरजावे इससे तंगहो सुरिनीसे इसका कारण पुच्छा तो सूरिजीने कहा कि अगर यह मन्दिर भगवान महावीर के नाम से बनाया जाय, तो इस्मे कोइ भी देव उपद्रव नहीं करेंगा-चतुर्मास के दिन नजदीक आ रहे थे राजाके मन्दिर तैयार होने में बहुत दिन लगनेका संभव था वास्ते मंत्री का मन्दिर को शीघ्रतासे तय्यार करवाया नाय कि बह प्रतिष्ठा सूरिजी के करकमलोसे हो इसवास्ते विशाल संख्यामे मजुर लगाके महावीर प्रभुका मन्दिर इतना शीघ्रतासे तय्यार करवायाकि वह स्वल्पकालमें ही तैयार होने लगा कारण कि बहुतसा काम तो पहले से ही तय्यार था, इघर संघने अर्ज करी कि भगवान मन्दिर तो तय्यार होने में है' पर इस्मे विराजमान होने योग्य मृत्तिकी जरूरत है ? सूरिजीने कहा धर्यता रखों मूर्ति तय्यार हो रही है। इधर क्या हो रहा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५.) जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. है कि उहदमंत्रीकी एक गाय जो अमृत सदृश बुद्ध की देने वालिथी वह लुणाद्री पहाडी के पास एक कैरका झाड था वहां जातेही उसके स्तनों से स्वयं ही दुद्ध वहां भर जाता वहां क्या था कि चमुंडादेषि गयाका दुख और वैलुरेतिसे भगवान् महा. वीर प्रभुका विष (भूत्ति) तय्यार कर रहीथी पहला सूरिजी से देवीने अर्ज भी करदी थी तदानुस्वार सूरिनीने संघसे कहाथा की मूर्ति तय्यार हो रही है पर संघने पहला जैनमूतिका दर्शन न किया था वास्ते दर्शन की बडी आतुरता थी. पर सुरिजीने इस बात का भेद संघको नहीं दीया. इधर गायका दुद्धके अभाव मंत्रीश्वरने गवालियाको पुच्छा तो उसने कहा में इस बातको नहीं जानता हु कि गायका दुद्ध कमति क्यो होता है मंत्रीश्वरने पुनः पुनः उपालंभ देनेसे एकदिन गवाल गायके पोच्छे पीच्छे गया तो हमेशोंकी माफीक दुद्धको झरता देख मंत्रीको सब हाल कहा. दूसरे दिन खुप उहामंत्री वहां गया सब हाल देखा और विचार किया कि यहांपर कोई दैव योग्य होना चाहिये गायको दूर कर जमीन खोदी तो यह क्या देखता है कि शान्तमुद्रा पद्मासनयुक्त वीतराग की मूर्ति दीख पडी मंत्रीश्वरने दर्शन फरसन कर वडा आनंद मनाया कि मेरेसे तो मेरी गाय हो वडी भाग्यशालनी है कि अपना दुद्धसे भगवान् का पक्षाल करा रही है खेर मंत्रीश्वर नगरमे आया राजा और अन्योन्य विद्धानेसे सब हाल कहा बस फिर देरी ही क्याथी बढे समरोह यानि गाजा बानाके साथ संघ एकत्र हो सूरिनो महाराजके पास आये और अर्ज करी कि भगवान आपकी कृपासे हमारा महोभाग्य है कि हमने भगवान के बिंबका दर्शन कोया और अब आप भी पधारेकी भगवान् को नगर प्रवेश करावे यह सब संघ भग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर मूर्तिका दर्शन. (५१) पान के दर्शनोका पिपासु हो रहा है इत्यादि ? सूरिजीने सोचा की बिंब तय्यार होने में अभी सातदिनकी देरी है परन्तु दर्शनके लिए आतुर हुवा संघके उत्साहको रोकना भी तो उचित नही है, भवितव्यता पर विचार कर सूरिजी अपने शिष्य समुदायके साथ संघमे सामिल हो जहां भगवानकी मूत्ति थी वहां जा कर जमीनसे बिंब निकलवा कर नमस्कार पूर्वक हस्तीपरारूढ करवा के धामधुम पूर्वक भगवानका नगर प्रवेश करवाया संवमे बडाही आनंद मंगल और घरघर उत्सव वधामणा हुवा कारण पहला उन लोगों ने हिंसक और विकारी देवि देवतों की मूर्तियोको देखी थी पर आज भगवान् की शान्त मुद्रा निर्विकार किसी प्रकारकी चेष्टा रहित पद्मासन मूत्ति देख लोगों की जैनधर्मपर और भी दृढ श्रद्धा होगई । ऊहडमंत्रीका बनाया हुवा महावीर मन्दिरके एक विभागमे भगवान् को बिराजमान किया. यहांपर एक विशेष बात यह हुई कि देविने मूर्तिको सर्वांग सुन्दर बनाना प्रारंभ कियाथा अगर सात दिन और देर कि गह होती तो देषिकी मनता मुताबीक कार्य हो जात। पर आतुरता करनेसे भगवान् के हृदय पर निंबुफल जीतनी गांठो ( स्तनाकार ) रह गइ इससे देवि नाराज हुई पर सूरिजी साथ में थे वास्ते उसका कोइ जोर न चला " भवितव्यता बलवान् है " इधर आश्विन मासकि नौरात्री नजदीक आने लगी तब संघाग्रेसर लौगोने सूरिजी से अर्ज करी कि हे प्रभो ! आप तो हमे कहते हो कि वगरह अपराध किसी जीवोंको तकलीफ नहीं देना पर हमारे यहां चमुंडादेषि एसी निर्दय है कि इस नौरात्रोमे प्रत्येक घरसे एक भैसा और प्रत्येक मनुष्यसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) जैन आति महोदय. प्र-तीसरा. पकेक बकारा कि बलि लेती है अगर एसा न किया जाय तो वह यहांतक उपद्रव करेगा की हमे हमारा जीवनमे भी शंसय है। " पुनराचार्यैः प्रोक्तं अहं रक्षां करिस्यामि " हे भव्यों तुम गवराषो मत में तुमारी रक्षा करूगा. जो सत्य ही देवि देव है वह मांस मदिरादि घृणित पदार्थ कभी नही इच्छेगे अगर कोई व्यान्तरादि देव कतूहल के मारे एसे करते ही होगे तो में उसे उपदेश करूगा हे भद्रों यह देवि देवताओं का भक्ष नहीं है पर कितने ही पाखण्डि लोग मांस भक्षण के हेतु देवि देवताओके नामसे एसी अत्याचार प्रवृति को चला दी है जिस पदार्थोसे अच्छे मनुष्यों को भी घृणा होती है तो वह देव देवि कैसे स्वीकार करेगे अगर तुम को धैर्य नहीं हो तो लहड चुरमा लापसी खाजा नालियेर गुलराबादि शुद्ध सुगंधित पदार्थोसे देवि की पूमा कर सकते हो इत्यादि उप. देश अषण कर संघने अपने अपने घरों में वह ही शुद्ध पदार्थ तय्यार करवा के सूरिजीसे अर्ज करी कि आप हमारे साथ मे चलो कारण हम को देवि का वडा भारा भय है इस पर सूरिजी भी अपने शिष्य मण्डलसे संघ के साथ देवि के मनदिर मे गये. गृहस्थ लोगों ने वह पूजापा नैवेष वगैरह देषि के आगे रखा जिन को देख देवि एकदम कोपायमान हो गइ इधर दृष्टिपात्त किया तो सूरिजी दीख पडे यस देवि का गुस्सा मम का मन मे ही रह गया तथापि देवि, सूरिजी से कहने लगी वहां महारान आपने ठीक किया मेने ही आप को विनंति कर यहां पर रखा और मेरे ही पेट पर आपने पग दीया क्या कलिकाल कि छाया आप जैसे महात्माओ पर ही पड गई है मेने पहले ही आपसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमाप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat (KRBATO www.umaragyanbhandar.com समकंपित नूतन श्रावकाने नेवेद्यादि थालसहित, आचार्य श्री को साथ ले, देवी समक्ष हुए क्रोधित नेत्रों से साक्षत आचार्य महाराज को देखा साक्षत और अपना मांस मदिरा छुडाने वाले आचार्य देवसे बंदका केनेकी ठान ली। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविको प्रतिबोध. अर्ज करी थी कि आप राना प्रज्या को जैनी तो बनाते हो पर मेरे कहडका मरडका मत छोडाना ? पर आपने तो ठोक ही क्या इत्यादि देवि का वचना सुन सूरिजी महा. राजने कहा देवि यह नलयेर तो तेरा कडडका है और गुलराव तेरा मरडका है इस को स्वीकार क्यो नहीं करती हा भो देवि पूर्व जन्म में तो तुमने अच्छा सुकृत कीया बहुत जीवों को जीतब दान दीया तब तुमे देव योनि मीली है पर यहां पर यह घोर हिंसा करवा के तुम किस योनि में जाना चाहाती हो हे देवि अच्छा मनुष्य भी कुतूहल के लिये निरर्थक हिंसा करना नहीं चाहाता है तो तुम ज्ञानवान् देवि होके फक्त कतूहल के मारी हजारो जीवो के प्राणो पर छरा चलवाना क्यों पसंद कीया है इत्यादि उपदेश देने पर देषि उस बख्त तो शान्त हो गई पर गृहस्य वर्ग घबरा रहे थे शिनीने उन पर वासक्षेप कर विसर्जन कोये पर देवि सर्वता शान्त नहीं हुई थी. अज्ञान के बस हो यह रहा देख रही थी कि कभी आचार्यश्री प्रमार मे हो तो में मेरा बदला लु । "एकदा छलं लब्ध्या देव्या आचार्यस्य कालवेलायां किंचिंत स्वद्यायादि रहितस्य वामनैत्रे भूराधिष्टिता वेदना जातः " भाचार्यश्री सदैव अप्रमत्तपने ही रहते थे पर एका अकाल में स्वधाय ध्यान रहित होने से देविने आपश्री के बामा नेत्र में वेदना कर दी वह भी एसी कि कायर मनुष्य उसे सहन भी नहीं कर सके पर सूरिनी को तो उस की परवा ही नहीं थो उन्होने तो अपने दुष्ट कर्मों का देना चुकाने को दुकान हो खोल रखी थी तत्पश्चात् देवि अपना असली रूप कर आचार्य - श्री के पास आ के कहने लगी कि भो आचार्य में धमुंडा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. देवि हुँ आपने मेरा करडका मरडका छोडाया जिस्का यह फल है सूरिजीने कहा कि इस फल से तो मुझे नुकशांन नहीं फायदा है पर तु तेरा दील में विचार कर कि उस करडका मरडका का भविष्य में तुमे क्या फल मिलेगा पूर्वोपार्जित पुन्य से तो यहां देव योनि पाई है पर पशु हिंसा करवा के तीर्यच हो नरक मे जाना पडेगा. उस समय चक्रेश्वरी आदि देवियों सुरिजी के दर्शनार्थी आइ थी चमुंडा और सूरिजी का संवाद देख चमुंडा को एसे उच्च स्वर से ललकारी देषि लजित हो अपनि वेदना को वापिस खांच सूरिजी के चरणाविद में वन्दन नमस्कार कर अपने अज्ञानता से किया हुषा अपराध की माफि मांगी यहां पर बहुत से लोग एकत्र हो गये थे श्री सच्चिकां देवी सर्व लोक प्रत्यक्ष श्री रत्नप्रभाचार्यः प्रतिबोधिता"श्री उपकेशपुरस्था श्री महावीर भक्ता कृता सम्यक्त्व धरिणी संजाता पास्तां मांसं कुशममयि रक्तं नेच्छति कुमारिका शरीरे अवतीर्ण सती इति वक्ति भो मम सेवका अत्र उपकेशस्थं स्वयंभू महावीर. बिंवं पूजयति श्री रत्नप्रभाचार्य उपसेविति भगवान् शिष्य प्रशिष्य व सेवति तस्याहं तोपंगच्छति । तस्य दुरितं दलयामि यस्य पूजा चित्ते धारयामि" सब लोगों के सामने सञ्चिका देवि ' अर्थात् चमुंडा देविने पहला सुरिजी को वचन दीया था कि आप के यहां विराजनासे बहुत उपकार होगा वह वचन सत्य कर बताने से सूरिजीने चमुंडा का नाम सञ्चिका रखा था " को आचार्य रत्नप्रभसूरिने प्रतिबोध दे भगवान् महावीर के मन्दिर की अधिष्टायिक स्थापन करी तब से देषि मांस मदिर छोड Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविकी प्रतिज्ञा. (५५) सम्यक्त्व धारिणि हुई मांस तो क्या पर देवीने एसी प्रतिमा कर कह दीया कि आज से मेरे रक्त वर्ण का पुष्प तक भी नहीं छडेगा. और मेरे भक्त जो उपके शपुर में महावीर के बिंब की पूजा करते रेहगें आचार्य रत्नप्रभसूरि और इन की संतान की सेवा उपासन करते रहेगें उन के दुःख संकट को में निवारण करूगी और विशेष काम पडने पर मुझे जो आराधन करेगा तो में कुमारी कन्या के शरीर मे अवतीर्ण हो आउगी इत्यादि देवी के वचन सुन और भी " श्री सच्चिका देव्या वचनात् क्रमेण श्रुत्व प्रचुरा जनाः श्रावकत्वं प्रतिपन्नाः" बहुत से लोग जैन धर्म को स्वीकार श्रावक बन गये और जैन धर्म का वडा भारी उद्योत हुवा. उपकेश पट्टन में भगवान् महावीर प्रभु का सिखर बद्ध मंदिर तय्यार हो गया तत्पश्चात् प्रतिष्टा का मुहूर्त मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमि गुरुवार को निश्चित हुधा सब सामग्री तैयार हो रहीथी इधर रत्नप्रभसूरि की आज्ञा से ४६५ मुनि विहार किया था उन से कनकप्रभादि कितनेक मुनि कोरंटपुर ( कोला पट्टन) में चतुर्मास किया था आपश्री के उपदेश से वहां के श्रावक वर्गने भगवान महावीर का नवीन मन्दिर बनवाया निस्के प्रतिष्ठा का महुर्त भी मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमि का था तब कोरंट संघ एकत्र हो आचार्य रत्नप्रभसूरि को आमन्त्रण करने को आये “ तेनावसरे कोरंटकस्य श्राद्धानां आह्वानं भागतं" अर्ज करने पर सूरिनीने कहा कि इस टेम पर यहां भी प्रतिष्टा है वास्ते तुम वहां पर रहे हुवे कनकप्रभादि मुनियों से प्रतिष्ठा करवा लेना. इसपर कोरट Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६) जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. संघ दिलगीर हो कहा कि भगवान् हम आपके गुरुमहाराज स्वयंप्रभसूर्ति के प्रतियोधित भावक है और उपकेश पुर के श्रावक आपके प्रतियोधित है वास्ते इन पर आपका राग है खेर आपकी मरजी इसपर आचार्यश्रीने कहा" गुरुणा कथितं मुहूर्त बेलायां गच्छामि " श्रावको तुम अपना कार्य करो में मुहूर्तपर आ जाउगा, श्रावक जयध्वनि के साथ बन्दना कर विसर्जन हुवे इधर उपकेशपुर में प्रतिष्टा महोत्सव बडे ही धामधूम से हो गया पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्यादि से धर्म की बडा भारी उन्नति हुइ । आचार्यश्रीने “निजरूपेण उपकशे प्रतिष्ठा कृता वेक्रयरूपेण कोरंट के प्रतिष्ठाकृता श्राद्धैः द्रव्यव्यय कृतः " यहतो पहला से ही पढ़ चुके है कि आचार्य रत्नप्रभसूरि अनेक विद्याओं के पारगामी थे आप निज रूप. से तो उपकेशपुर मे और पैकय रुप से कोरंटपुर में प्रतिष्टा एक ही मुहूर्त में करवादी उन दोनो प्रतिष्टा महोत्सव में भावकोने बहुत द्रव्य खरच किया था तत्पश्चात् कोरंट संघ को यह खबर हुई कि आचार्य रत्नप्रभसूरि निज रूपसे उपकेशपूर प्रतिष्टा कराइ और यह तो वैक्रयरूपसे आये थे इसपर संघ नाराज हो कनकमभ मुनि को उस की इच्छा के न होने पर भी आचार्य पद से भूषीत कर आचार्य बना दीया इसका फल यह हुवा कि उधर श्रीमाल पोरवाड लोगों का आचार्य कनकप्रभसूरि और इधर उपकेश वंश के श्रावको के आचार्य रत्नप्रभसरि हो गये इन दोनो नगरो के नामसे दो साखा हो गाउन साखाओ के नाम से ही उपकेश गच्छऔर कोरंटगच्छ कि स्थापना हुईथी वह आज पर्यन्त मोजुर है इन दोनों मन्दिरोको प्रतिष्टा का समय में निम्न लिखित श्लोक पट्टावलि मे है. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर मन्दिर कि प्रतिष्टा. ( ५७ ) सप्तत्या (७०) वत्सराणं चरम जिनपतेर्मुक्त जातस्य वर्षे. पंचम्यां शुक्ल पक्षे सुर गुरु दिवसे ब्राह्मण सन्मुहूर्ते । रत्नाचायैः सकल गुणयुक्तैः सर्व संघानुज्ञातैः श्रीमद्वीरस्य विबे भव शत मथने निर्मितेयं प्रतिष्टाः | १ उपकेशे च कोरंटे तुल्यं श्रीवीरविषयोः प्रतिष्ठा निर्मिता शक्त्या श्रीरत्नप्रभसूरिभिः |१| कोरंट गच्छ में भी बडे बडे विद्वानाचार्य हो गये थे जिनके कर कमलो से कराइ हुइ हजारो प्रतिष्टा का लेख मीलते है वर्तमान शिलालेखों मे भी कोरंट गच्छाचार्यो के बहुत शिलालेख इस समय मोजूद है वह मुद्रित भी हो चुके है समय की बलिहारी है जिस गच्छ मे हजारो की संख्या मे मुनिगण भूमिपर विहार करते थे वहां आज एक भी नहीं वि. सं. १९९४ तक कोरंट गच्छ के श्री अजीतसिंहसूरि नाम के श्री पूज्य थे वह बीकानर भी आये थे लंगोट के बढे ही सचे और भारी चमत्कारी थे अब तो सिर्फ कोरंट गच्छीय महात्माओं कि पोसालों रह गई है और वह कोरंट गच्छ के भावकों की वंसावलियों लिखते है तद्यपि जैन समाज कोरंट कि आभारी है और उस गच्छ का नाम आज भी अमर है । । । आचार्य रत्नप्रभसूरि उपक्रेश पटन मे भगवान् महावीर प्रभु के मंदीर की प्रतिष्टा करने के बाद कुच्छ रोज वहां पर विराजमान रहै भावक वर्ग को पूज्ञा प्रभावना स्वामिवात्वल्य सामायिक प्रतिक्रमण व्रत प्रत्याख्यानादि सब क्रिया प्र वृतियों का अभ्यास करवा दीया था. आचार्य रत्नप्रभसूरिने यह सुना था कि मेरे वैक्रय रूप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. से कोरंटपुर जाना से यहां का संघ में मेरे प्रति अभाव हो कनकप्रभ को आचार्य पद स्थापन कीया है वास्ते पहला मुजे वहां जाके उनको शान्त करना जरूरी है कारण गृहक्लेश शासन सेवा मे बाधाए डालनेवाला होता है इस विचार से आप उपकेशपुर से विहार कर सिधे ही कोरंट पुर पधारे आचार्य कनकप्रभसूरि को खबर होने पर वह बहुत दूर तक संघ को ले कर सामने आये बडे ही महोत्सवपूर्वक नगर प्रवेश कीया भगवान् महावीर की यात्रा करी तत्पश्चात् दोनों आचार्य एक पाट पर विराजमान हो देशनादि और प्रतिष्टापर आप वैक्रय रूपसे आने का कारण बतलाया कि तुमतो हमारे गुरु महाराज के प्रतिबोधित पुराणे भाषक श्रद्धासंपन्न हो पर वहां के श्रावक बिलकुल नये थे जैन धर्मपर उन की श्रद्धामजबुत करणिथी इत्यादि मधुर बचनों से कोरंट संघ को संतुष्ट कर दीया और आपने कनकप्रभसूरि कों आचार्य पद दीया यह भी ठीक ही किया है कारण प्रत्येक प्रान्त में एकेक योग्याचार्य होने की इस जमाना में जरूरी है इतने मे कनकप्रभ. सूरिने अर्ज करी कि हे भगवान् । में तो इस कार्य में खुशी नहीं था पर यहां के संघमे अधैर्यता देख संघ बचन को अनेच्छा स्वीकार करना पड़ा था आप तो हमारे गुरु है यह आचार्यपद आपभी के चरणकमलों मे अर्पण है इसपर आचार्य रत्नप्रभसूरि संघ समक्ष कनकप्रभसूरि पर वासक्षेप डाल के आचार्य पद कि विशेषता करदी इस एकदीली को देख संघमे बडा आनंद मंगल छा गया बाद जयध्वनी के साथ सभा विसर्जन हुई बाद रत्नप्रभसूरि कनकप्रभसूरिने अपने योग्य मुनिवरों से कहा की भविष्यकाल महा भयंकार आवेगा जैन धर्म का कठिन नियम संसार लुब्ध जीवों को पालन करना मुश्किल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य कनकप्रभसूरि. (५९) होगा वास्ते जातिधर्म बना देना बहुत लाभकारी होगा इस वास्ते सब साधुओ को कम्मर कस के अन्य लोगों को प्रतिबोध दे दे कर इस जातियों की वृद्धि करना बहुत जरूरी बात है इत्यादि वार्तालाप के बाद कनकप्रभसुरि की तो उपकेशपट्टन की तरफ विहार करने कि आज्ञा दी कनकप्रभसूरिने उपकेशपट्टन पधार के उपलदेवराजा के बनाये हुवे पार्श्वनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाइ इत्यादि अनेक शुभ कार्य आपके उपदेश से हुवे और सूरिजीने आप उसी प्रान्त मे व अन्य प्रान्तो मे विहार करने का निर्णय कीया। रत्नप्रभ सरिने फिर अपने १४ वर्ष के जीवन मे हजारो लाखो नये जैन बनाये जिस्मे पोरवाडो से संबन्ध रखने वालों को पोरवाडो मे मीला दीया श्रीमालो से सम्बन्ध रखनेवालो को श्री मालो मे और उपकेश बस से तालुक रखने वालों को उपकेश वंश मे मीलाते गये उपकेशपुर के गोत्रो के सिवाय (१) चरई। गोत्र (२) सुघड गोत्र ( ३ ) लुग गोत्र (४) गटिया गौत्र एवं चार गौत्रोंकी और स्थापना करी आपश्रीने अपने करकमलोसे हजारो जैन मूर्तियोकी प्रतिष्टा और २१ बार श्रीसिद्धगिरि का संघ तथा अन्यभो शासनसेवा और धर्म का उद्योत कीया आपश्रीने करीबन १० लक्ष नये जैन बनाये थे. पद्रावलिमें लिखा है कि देविने महाविदह क्षेत्रमें श्री सीमंधर स्वामिसे निर्णय कीया था कि रत्नप्रभसूरिका नाम चौरासी चौवीसी मे रहेगा एक भवकर मोक्ष जावेगा इत्यादि...जैन कोम आचार्यश्री के उपकारकी पूर्ण ऋणि है आपश्रोके नाम मात्रसे दुनियाँका भला होता है पर खेद इस बात का है कि कीतनेक कृतनी पसे अज्ञ ओसवाल है कि कुमति के कदागृहमें पडके एसे महान् उपकारी गुरुवर्य के नामतक को भुल बैठे है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जातिमहोदय. प्र-तीसरा. यह तो पहले पड़ चुके है कि आचार्य श्री के पास वीरधवल नामके उपाध्याय अच्छे विद्वान थे एक समय राजग्रह नगरमे किसी यक्षने बडा भारी उपद्रव मचा रखाथा जिसके जरिय जैनतो क्यापर सब नागरिक लोक दुःखी हो रहेथे बहुत उपचार किया पर उपद्रव शान्त नहीं हुवा इसपर संघने रत्नप्रभसूरिकि तलास कराइ तो आपका विहार मरूभूमिकी तरफ हो रहाथा तब राजगृहका संघ आचार्यश्री के पास आया और वहांका सब हाल अर्जकर उधर पधारने की विनंति करी सूरिजीने अपनी सलेखनाध्यायन आदि के कारणों से आपने अपने शिष्य वीरधवल उपाध्यायको आज्ञा दी कि हमारा वासक्षेप लेके वहां जावों और संघका संकट को दूर करो तदानुसार उपाध्यायजी क्रमशः, विहार कर राजगृह पहुँचे रात्रीमे आपने स्मशानभूमि मे ध्यान लगा दीया रात्रीमे यक्ष आया पहला तो उपाध्यायजीसे दूर रह बहुत से उपसर्गका ढोंग वत. लाया पर आपके तपतेजसे व उपदेश से वह शान्त हो उपाध्यायजीसे अर्ज करी कि इस नगरीके लोगोंने मेरी बहुत आशातना करी है उपाध्याय जीने उसे उपदेशद्वारा शान्त करदीया पर उसने कहा कि में आपकी आज्ञा सिरोद्धार करता हु पर मेरा नाम कुच्छ न कुच्छ रहना चाहिये. उपाध्याय जीने स्वीकार करलिया वस । सब उपद्रव शान्त हो गया संघमे और नगरमे आनंद मंगल और जैनधर्मकी नयध्वनि होने लग गई उपाध्याय जीने कोतनेहो काल तो उसी प्रान्त मे विहार कर पवित्र तीर्थोंकी यात्रा करी पुनः सूरिजी महाराजकि सेवामे आये और यहाँका सब हाल कह सुनाया यक्षका नाम रखने के लिये बोरधवल उपाध्यायको अपने पद पर आचार्यपद स्थापन कर उसका नाम यक्षदेवसूरिरखदीया तत्पश्चात् आचार्य रत्नप्रम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन जाति महोदय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat LD.CMALL www.umaragyanbhandar.com अंतिम अवस्था जान, तरण तारण सिद्धक्षेत्रकी तलेटीमें असंख्य मुनि व श्रावक श्राविकादि संघकी उपस्थितिमें अनशन कर, अपने जर्जरित देहको छोड आर्चाय श्री रत्नप्रभसूरीश्वरने समाधिपूर्वक स्वर्गको प्रस्थान कीया. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री का स्वर्गवास. सरि सलेखना करते हुवे पवित्रतीर्थ सिद्धाचल पर पधार गये वहां एक मासका अनसन कर समाधि पूर्वक नमस्कार महामंत्र का ध्यान करते हुवे नाशमान शरीर का त्यागकर आप बारहवे स्वर्गमें जाके विराजमान होगये जिस समय आचार्य श्री सिद्धाबलपर अनसन कीया था उसरोंजसे अन्तिम तक करीबन ५००००० श्रावक श्राविका सिवाय विद्याधर और अनेक देवि देवता वहां उपस्थित थे आपश्रीका अग्निसंस्कार होने के बाद अस्थि और रक्षा भस्मी मनुष्योंने पवित्र समझ आपश्रीकी स्मृति के लिये ले गयेथे आपके संस्कार के स्थानपर एक बडा भारी विशाल स्थुभभी श्री संघने कराया था जिस्मे लाखों द्रव्य संघने खरच कीयाथा पर कालके प्रभाषसे इस समय वह स्थुम नहीं है तो भी आपश्रीकी स्मृति चिन्ह आजभी वहां मोजुद है विमलवसीमे आपश्री के चरण पादुका अभी मी है इस रत्नप्रभसूरि रूप रत्न खोदनेसे उस समय संघका महान् दुःख हुवाथा भविष्यका आधार आचार्य यक्षदेवसूरि पर रख पवित्र गिरिराजकी यात्रा कर सब लोग वहांसे विदाहो आचार्य श्री यक्षदेवसूरिके साथ में यात्रा करते हुवे अपने अपने नगर गये और आचार्य यक्षदेवसूरि अपने पूर्वजोके बनाये हुवे जैन जातिका उप देशरूपी अमृतधारा से पोषण करते हुवे फीरभी नये जैन बनाते हुधे उसमे वृद्धि करने लगे ॐ शान्ति यह भगवान पार्श्वनाथ का छठ्ठा पाट आचार्य रत्नप्रभसूरि अपनी चौरासी वर्षकी आयुष्य पूर्ण कर धीरात् चौरासी वर्षे निर्वाण हुवे यह महा प्रभा. विक आचार्य हुधे इति । -*OOK Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथके पाटानुपाट. १ गणधर श्रीशुभदत्ताचार्य. ४ आचार्य केशीश्रमण. २ आचार्य हरिदत्तसूरि. ५ आचार्य स्वयंप्रभसूरि. ३ आचार्य आर्यसमुद्रसूरि. ६ आचार्य रत्नप्रभसूरि. इन छै आचार्यों का संचित जीवन उपरकी पट्टावलीमें आ गया है शेष आचार्योका जीवन आगेके प्रकरणमें लिखा जावेंगे यहां पर तो केवल शुभ नामावली ही दिजाती है । ७ श्रीयक्षदेवसूरिः १७ ,, यक्षदेवसूरिः ८, ककसूरिः १८ , ककसूरिः ९,, देवगुप्तसूरिः १९ , देवगुप्तसूरिः १०, सिद्धसूरिः २० ,, सिद्धसूरिः ११ , रत्नप्रभसूरिः २१ ,, रत्नप्रभसूरिः १२ ,, यक्षदेवसूरिः २२ ,, यक्षदेवरिः १३ ,, ककसूरिः २३ , ककसूरिः . . . . . १४ , देवगुप्तसूरिः २४ ,, देवगुप्त सूरिः १५ ,, सिद्धसूरिः २५ ,, सिद्धसूरिः १६ , रत्नप्रभसूरिः २६ ,, रत्नप्रभसूरिः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति महोदय प्र. तीसरा. (६३) २७ ,, यक्षदेवसूरिः ३९ ,, यक्षदेवसूरिः २८ ,, कसूरिः . ३३ ,, ककसूरिः २९ ,, देवगुप्तसूरिः ३४ , देवगुप्तसूरिः .. ३० ,, सिद्धसूरिः ३५, सिद्धसूरिः .... ३१, रत्नप्रभसरिः ३६, कळसूरिः * इन आचार्यके बाद श्रीरत्नप्रभसूरिः और यचदेवमूरि इन दोनों नामोंको भण्डार कर शेष तीन नामसेही परम्परा चली है। ३७ , देवगुप्तसूरिः ...... ५१ , ककसूरिः ३४.सिद्धतिः ..... ५२ ,, देवगुप्त सूरिः ३९ ,, ककसूरिः ५३ ,, सिद्धसूरिः ४० ,, देवगुप्त सूरिः ,, कसूरिः ४१ ,, सिद्धसूरिः , देवगुप्तसूरिः ४२ ,, ककसूरिः ५६ ,, सिद्धसूरिः ४३ , देवगुप्तसूरिः ५७ , कक्कसूरिः ४४ :, सिद्धसूरिः ५८ , देवगुप्त सूरिः ४५ ,, ककसूरिः ५९ , सिद्धसूरिः ४६ ,, देषगुप्तसूरिः , कसूरिः ४७ ,, सिद्धपुरिः ,, देवगुप्तसूरिः ४८ , ककसूरिः ६२ ,, सिद्धसूरिः ४९ , देवगुप्तसूरिः ६३ , कसूरिः ५०,, सिखसरिः . ६४, देवगुप्तसूरिः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65 ,, सिद्धसूरिः 66 ,, कक्कसूरिः 67 , देवगुप्तसूरिः 68, सिद्धसूरिः 69 ,, कक्कसूरिः , देषगुप्तसूरिः 71 , सिद्धसूरिः , कक्कसूरिः 73 , देवगुप्तसूरिः 74, सिद्धसूरिः जैन जाति महोदय प्र. तीसरा. 75 ,, कक्कसरिः / . 76 ,, देवगुप्तसूरिः 77 ,, सिद्धसूरिः 78 ,, ककसूरिः 79 ,, देवगुप्तसूरिः .. सिद्धसूरिः " कक्कसूरिः " देवगुप्तसूरिः " सिद्धसूरिः 84, ... ... ... ... . 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