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जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. वात की आपश्री स्वल्प समयमे द्वादशांगी चौदापूर्वदि सर्वागम और अनेक विद्या के पारगामि हो गये वैसे ही धैर्य गांभिर्य शौर्य तर्कषितर्क स्याद्वादादि अनेक गुणोमें निपुण होगये. इधर आचार्य स्वयंप्रभसूरि शासनानति शासन सेवा कर अनेक भव्योंका उद्धार करते हुवे अपनि अन्तिमावस्था नान. रत्नचुडमुनिको योग्य जान. " गुरुणा स्वपदे स्थापितः श्रीमद्वारजिनेश्वरात् द्वपंचाशत वर्षे (५२) आचार्यपद स्थापिताः पंचशत साधुसह धरां विचरन्ति" __ भगवान् वीरप्रभुके निर्वाणात् ५२ वर्षे रत्नचुडमुनिको आचार्यपदपर स्थापनकर ५०० मुनियोंके साथ भूमण्डलपर विहार करने की आचार्य स्वयंप्रभसूरिने आज्ञा दी. अन्य हजारों मुनि आचार्य रत्नप्रभरि की आज्ञासे अन्योन्य प्रान्तोंमे विहार करने लगे. आप सलेखना करते हुवे अन्तमे श्री सिद्ध गिरिपर एक मासका अनसन कर स्वर्गमे अषतीर्ण हुवे इति प्रार्श्वनाथ भगावन् का पंचवापट्ट स्वयंप्रभसूरि हुवे।
आपश्रीका शासनमें भगवान महावीर-गौतम-सौधम्म और जम्बुस्वामिका मोक्ष श्रीमाल पोरवाड जातियों कि स्था. पना और अनेक राजा महाराजाओ को धर्मबोध लाखो पशुओको जीवतदान और यज्ञमें हजारों पशुओका बलिदानरूप मिथ्यारूढियो का नडामूलसे नष्ट करदेना इत्यादि बहुत धर्म प देशोन्नति हुईथी.
(६) आचार्य स्वयंप्रभसूरि के पट्ट प्रभाकर मिथ्यात्वाम्धकार को नाश करने मे सूर्यसदृश आचार्य रत्नप्रभसूरि (रत्नचुड) हुथे इधर नम्बुस्वामिके पट्टपर प्रभवस्थामि भी महा प्रभाविक
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