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________________ आचर्यरत्नप्रभसूरि. . ( ३५) इस विचारसे देवी सूरिजी के पास आई " शासन देव्या कथितं भोप्राचार्य अत्र चतुर्मासकं करूं तत्र महालाभो भविष्यति" हे आचार्य । आप यहां मेरी विनंतिसे चतुर्मास करो यहां आपको बहुत लाभ होगा इस पर सूरिजी देवि की विनंतिको स्वीकार कर मुनियोंसे कह दीया कि जो विकट तपस्या के करने वाले हो वह हमारे पास रहे शेष यहां से विहार कर अन्य क्षेत्रोंमे चतुर्मास करना इस पर ४६५ मुनि तो गुरु आज्ञासे विहार किया “गुरु: पंचत्रिंशत् मुनिभिः सहस्थितः" आचार्यश्री ३५ मुनियों के साथ वहां चतुर्मास स्थित रहे । रहे हुवे मुनियोंने विकट यानि उत्कृष्ट चार चार मासकी तपस्या करली । और पहाडी की बनराजी मे आसन लगा के सामाधि ध्यान में रमणता करने लग गये । “ज्ञानामृत भोजनम् " इधर स्वर्ग सदृश उपदृश पकेन में राजा उत्पलदेव राम राज कर रहा था अन्य राणियों में जालणदेवी ( सग्रामसिंहकी पुत्री) पट्टराणिथी उसके एक पुत्री जिस्का नाम शोभाग्यदेवी था वह घर योग्य होनेसे राजा को चिंत्तां हुई वर की तलास कर रहा था एकदा राणिके पास राजाने वात करी तव राणिने कहा महाराज मेरी पुत्री मुझे प्राणसे बल्लभ हे एसा न हो की आप इसकों दूर देशमे दे मेरे प्राणों को खो बेठो आप एता पर रहै बाई रात्रिमे सासरे और दिनमें मेरे पास की, तलास करावे कि इत्यादि राजा यह सुन और भी विचारमे पड़ गया। इधर उहडदे मंत्रि के तिलकसी नाम का पुत्र अच्छा लिखा पढा रुपमे भी सुन्दर कामदेव तूल्य था उसे देख Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034569
Book TitleOswal Porwal Aur Shreemal Jatiyo Ka Sachitra Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpamala
Publication Year1929
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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