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जैन जाति महोदय. प्र - तीसरा.
र्यका शिष्य जगलसे लकडीयों काट भारी बना बजारमे वेचके उसका धान ला रोटी बनाके खाताथा इसी रीतसे उस शिष्यके सिरके बालतक उड गये । एकदा सूरिजीने शिष्यके सिरपर हाथ फेरा तो बाल नही पायें तब पुच्छने पर शिष्यने सब हाल सुनाया जब सूरिजीने एक रुइका मायावी साप बनाके राजाका पुत्रको कटाया और ओसवाल मनाया इत्यादि यह सब मनकल्पीत झूटी दान्तकथाओं है कारण अखण्डित चारित्र पालनेवाले पुर्वधर मुनियोंकों एसे विटम्बना करने की जरूरत क्या अगर मिक्षा न मीली तो फिर उस नगर में रहनेका प्रयोजन ह्रीं क्या उस समय मामुली साधुभी एक शिष्यसे बिहार नहीं करते थे तो रत्नप्रभाचार्य जेसे महान् पुरुष विकट घरतीमें एक शिष्य के साथ पधारे यह बिलकुल असंभव है आगे भाट भोजको या यतियोंने रत्नप्रभसूरिका समय बीयेबाइसे २२२ का बतलाते है वह भी गलत है जिसका खुलासा हम फिर करेंगें दर असल वह समय विक्रम पूर्व ४०० वर्षका था और भिक्षा के लिये मुनियोंने तप वृद्धि करीथी ।
मुनियों के तपवृद्धि होते हुवेकों बहुत दिन हो गये तब उपाध्यया वीरधवळने सूरिजी से अर्ज करी कि यहां के सब लोग देवि उपासक वाममार्ग मांस मदिर भक्षी है शुद्ध भिक्षा के अभाष मुनियोंका निर्वाहा होना मुश्किल है ? इस पर आया
श्रीने कहा एसाही हो तो विहार करों. मुनिगण तो पहला से ही तैयार हो रहे थे हुकम मिलतोंही कम्मर बन्ध तय्यार हो गये । यह हाल वहां की अधिष्टायिका चमुंडा देविको ज्ञानद्वारा ज्ञात हुबा तब देविने सोचा कि मेरी सखी चक्रेश्वरी के भेजे हुवे महात्मा यहां पर आये है और यहां से क्षुद्धा पिपास पिडित चले जायेंगे तो इसमें मेरी अच्छी न लागेगा
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