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आचार्य स्वयंप्रभसूरि. उद्देश्यानुसार यहाँ महावीर भगवान् का संबन्ध यहीं समा. सकर आगे जैनजाति के बारामे ही मेरा लेख प्रारंभ करता हुँ ____ भगवान् कैशीश्रमणाचार्यने जैनधर्म को अच्छी तरक्की दी अन्तिमावस्थ में आप अपने पाट पर स्वयंप्रभ नामके मुनिकों स्थापनकर एक मासका अनशन पूर्वक सम्मेतशिखर गिरिपर स्वर्ग को प्रस्थान कीया इति पार्श्वनाथ भगवान् का चतुर्थ पाट हुवा ।
(५ ) केशीश्रमणाचार्य के पट्ट उदयाचल पर सूर्य के समान प्रकाश करनेवाले आचार्य स्वयंप्रभसूरि हुए आपका जन्म विषाधर कुलमें हुवाथा. आप अनेक विद्याओं के पारगामी थे स्वपरमत्त के शास्त्रों में निपुण थे आपके आज्ञावत्तिं हजारों मुनि भूमण्डल पर विहार कर धर्म प्रचार के साथ ननताका उद्धार कर रहेथे इधर भगवान् वीरप्रभुकी सन्तान भी कम संख्या नहीं थी भगवान महावीर का झंडेली उपदेशसे ब्राह्मजोका जोर और यज्ञकर्म प्रायः नष्ट हो गया था तथापि मरूस्थल जैसे रेतीले देशमें न तो जैन पहुँच सके थे और न बौद्ध भी यहां आस के थे वास्ते यहां बाममागियो का बड़ा भारी मोरशोर था. यज्ञ होम और भी वडे वडे अत्याचार हो रहे थे धर्म के नामपर दुराचार व्यभिचार का भी पोषण हो रहा था कुण्डापन्थ का चलीयापंथ यह वाममागियों की शाखाएं थी देवीशक्ता के वह उपासक थे इस देशके राजा प्रजा प्रायः सब इसी पन्थ के उपासक थे उस समय मारवाड मे श्रीमालनामक नगर उन वाममागियोका केन्द्रस्थान गीना नाता था.
आचार्य स्वयंप्रभसूरि के उपासक जैसे खेचर भूचर मनुष्य विद्याधर थे वैसे ही देवि देवता भी थे वह भी समय
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