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________________ देविको प्रतिबोध. अर्ज करी थी कि आप राना प्रज्या को जैनी तो बनाते हो पर मेरे कहडका मरडका मत छोडाना ? पर आपने तो ठोक ही क्या इत्यादि देवि का वचना सुन सूरिजी महा. राजने कहा देवि यह नलयेर तो तेरा कडडका है और गुलराव तेरा मरडका है इस को स्वीकार क्यो नहीं करती हा भो देवि पूर्व जन्म में तो तुमने अच्छा सुकृत कीया बहुत जीवों को जीतब दान दीया तब तुमे देव योनि मीली है पर यहां पर यह घोर हिंसा करवा के तुम किस योनि में जाना चाहाती हो हे देवि अच्छा मनुष्य भी कुतूहल के लिये निरर्थक हिंसा करना नहीं चाहाता है तो तुम ज्ञानवान् देवि होके फक्त कतूहल के मारी हजारो जीवो के प्राणो पर छरा चलवाना क्यों पसंद कीया है इत्यादि उपदेश देने पर देषि उस बख्त तो शान्त हो गई पर गृहस्य वर्ग घबरा रहे थे शिनीने उन पर वासक्षेप कर विसर्जन कोये पर देवि सर्वता शान्त नहीं हुई थी. अज्ञान के बस हो यह रहा देख रही थी कि कभी आचार्यश्री प्रमार मे हो तो में मेरा बदला लु । "एकदा छलं लब्ध्या देव्या आचार्यस्य कालवेलायां किंचिंत स्वद्यायादि रहितस्य वामनैत्रे भूराधिष्टिता वेदना जातः " भाचार्यश्री सदैव अप्रमत्तपने ही रहते थे पर एका अकाल में स्वधाय ध्यान रहित होने से देविने आपश्री के बामा नेत्र में वेदना कर दी वह भी एसी कि कायर मनुष्य उसे सहन भी नहीं कर सके पर सूरिनी को तो उस की परवा ही नहीं थो उन्होने तो अपने दुष्ट कर्मों का देना चुकाने को दुकान हो खोल रखी थी तत्पश्चात् देवि अपना असली रूप कर आचार्य - श्री के पास आ के कहने लगी कि भो आचार्य में धमुंडा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034569
Book TitleOswal Porwal Aur Shreemal Jatiyo Ka Sachitra Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpamala
Publication Year1929
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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