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जैन जाति महोदय. क्या था ! ज्ञानियों के लिये सांसारिक राजसंम्पदा सब काराघर सदृश ही है कुमर तो परम वैराग्य भाषको प्राप्त हो मुनिको वन्दन कर अपने मकानपर आया मातापितासे दीक्षा की रजा मांगी पर १० वर्षका बालक दीक्षामें क्या समजे एसा समज मातापिताने एक किस्म की हांसी समजलो पर नब कुमरका मुखसे ज्ञानमय बैराग्य रस रंगमे रंगित शब्द सुना तब मातापिता खुद हो संसारको अतार जान वडा पुत्र के राज दे आप अपने प्यारा पुत्र केशीकुमार को साथ ले विदेशी मुनिके पास बडे आडम्बर के साथ जैन दीक्षा धारण कर ली. जयसेन राजर्षि और अनंगसुन्दरी आर्यिका ज्ञान ध्यान तप संयमसे आत्म कलशन कार्यमें प्रवृतमान हुए। केशीकुमर श्रमण जातिस्मरण ज्ञानसे पूर्व पढा हुषा ज्ञानका अध्ययन करते हो तथा विशेष ज्ञानाभ्यास करता हुधा स्वल्प समयमे श्रुत समुद्र का पारगामी हो गया। आचार्य आर्यसमुद्रसूरि अपने जीवन काल में शासन की अच्छी सेवा करी थी धर्म प्रचार और शिष्य समुदाय में भो वृद्धि करी थी अपनि अन्तिमाघस्या जान कैशीश्रमण को अपने पद पर नियुक्तकर आपश्री सिद्धक्षेत्रपर सलेखनां करता हुवा १५ दिनोंका अनसन पूर्वक स्वर्गगमन कोया. इति तीसरा पाट.
(४) आचार्य आर्यत मुद्रपूरि के पट पर आर्यके शो प्रमणाचार्य बालब्रह्मचारी अनेक विद्याओं के ज्ञाता देव देवियों से पूजित जपने निर्मल ज्ञानरूपी सूर्य प्रकाश से भकों के मिथ्यास्वरुप अंधकार को नाश करते हुवे भूमण्डलपर विहार करने लगे इधर दक्षिणविहारी लोहिताचार्य के स्वर्गवास हो जाने के बाद मुनि वर्गमें शिथिलता वा आपसमे कूट पड जानेसे अन्य लोंगोंका जौर बढ जाना स्वाभाविक बात है मतमतान्तरों
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