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________________ शास्त्रार्थका फल. (४७) हे लोगों में आज आमतौर से जाहिर करताहुं कि जैन धर्म एक आधुनीक धर्म है पुनः वह नास्तिक धर्म है पुनः वह ईश्वर को नहीं मानते है इनके मन्दिरो मे नग्न देव है इत्यादि इसपर सूरिजी के पास बेठा हुवा वीरधवलोपाध्याय ने गभिर शब्दो में बडि योग्यता से बोला कि जैन धर्म आधुनिक नहीं परन्तु प्राचीन धर्म है जिस जैन धर्म के विषय में वेद साक्षि दे रहे है ब्रह्मा विष्णु और महादेवने जैन धर्म को नमस्कार किया है पुरांणोवालोने भी जैन धर्म को परम पवित्र माना है ( देखा पहला प्रकरण में जैन धर्म की प्राचीनता ) ओर जैन धर्म नास्तिक भी नहीं है कारण जैन धर्म जीवानीव पुन्य पाप आश्रव संवर निर्जरा वन्ध और मोक्ष तथा लोकअलोक स्वर्ग नरक तथा सुकृत करणि के सुकृत्त फल दुःकृतकरणि का दुकृतफलकों मनाता है इत्यादि जैनास्तिक है नास्तिक वह हो कहा जा सकता है कि पुन्य पाप का फल व यह लोकपरलोक नमाने नास्तियों का यह लक्षण है कि वह व्यभिचार मे धर्म बतलावे आगे ईश्वर के विषय में यह बतलाया गया था कि जैन ईश्वर के बराबर मानते है जो सर्वज्ञ वीतराग परमब्रह्म ज्योती स्वरूप जिस्को संसारी जीवों के साथ कोइ भी संबंध नहीं है लीला क्रीडा रहित जन्म मृत्युयोनि अवतार लेना दि कार्यों से सर्वता मुक्त हो उसे जैन ईश्वर मानते है नकी बगलमे प्यारी को ले बेठा है हाथ में धनुष्य ले रखा है केइ यानि मे ही डेरा लगा रखा है केइ अश्वारूढ हो रहे है केइ पशुबलि में ही मग्न हो रहे है एसे एसे रागी द्वेषी विकारी निर्दय व्यभिचारीयों को जैन कदापि ईश्वर नहीं मानते है जैनों के देव नग्न नहीं पर एक अलौकीकरूप सालंकृत दृश्य और शान्तिमय है इत्यादि विस्तार से उत्तर देने पर पाखण्डियों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034569
Book TitleOswal Porwal Aur Shreemal Jatiyo Ka Sachitra Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpamala
Publication Year1929
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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