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(१८) जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. का मुह श्याम और दान्त खटे हो गये हाहो कर रहस्ता पकडा वह अपने मठों में नाके विशेषशूद्रलोग जोकि विल्कूल अज्ञानी और मांसमदिरा के लोलपी थे उन्हकों अपनी झालमे फसा के जैसे तेसै उपदेश दे अपने उपासक बना रखा पर उन पाखण्डियों की पोल खुल जाना से राजा प्रज्या कि जैन धर्मपर ओर भी अधिक दृढ श्रद्धा हो गई उपसंहार में सूरिजोने कहा भव्यों । हमे आपसे नतो कुच्छ लेना है न कोइ आप को धोखा देना है जनताके सत्य रहस्ता बतलाना हम हमारा कर्त्तव्य समझ के ही उपदेश करते है जिसको अच्छा लगें वह स्वीकार करें। भगवात् महावीर के सदुप. देशद्वारा बहुत देशो में ज्ञानका प्रकाश से मिथ्यांधकार का नाश हो गया है हजारो लाखो निरापराधि नीषो की यझमे होती हुइ बलिरूप मिथ्या रूढियो मूल से नष्ट हो गइ पर यह मरूभूमि इस अज्ञान दशा व्याप्त हो रही थी पर कल्याण हो आचार्य स्वयंप्रभसूरि का कि वह श्रीमाल भिन्नमाल तक अहिंसा का प्रचार कीया आज आप लोगों का भी अहोभाग्य है कि पवित्र जैन धम्म को स्वीकार कर आत्म कल्यान करने को तत्पर हुवे हो इत्यादि. राजा उपलदेवने नम्रतापूर्वक अर्ज करी कि हे प्रभो ! भगवान् महावीर और आचार्य स्प्रयंप्रभसूरि जो कुछ अहिंसा भत्तवती का झुंडा भूमि पर फरकाया वह महान् उपकार कर गये पर हमारे लिये तो आप ही महावीर आप ही आचार्य है की हमे मिथ्याझालसे छुडवा के सत्य रहस्ता पर लगाया इत्यादि नयध्वनी के साथ सभा विसर्जन हुई ॥
एक उपकेशपट्टनमें ही नहीं किन्तु आसपासमें जैसे जैसे जैन धर्मका प्रचार होता गया वैसे वैसे पाखण्डियां का
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