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________________ ( ३८ ) जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. ___ "गुरुणा कथितं मम न कार्ये" आचार्यश्रीने फरमाया कि मेने तो खुद ही वैताड्य गिरि का राज और राज खजाना त्याग के योग लिया है अब हम त्यागियोंको इस द्रव्यसे .क्या प्रयोजन है यह तो गृहस्थ लोगोंका भूषण है अगर इसे देशहित धर्महित में लगाया जाय तो पुन्थोपार्जित हो सकता है नहींतो दुर्गतिका ही कारण है इत्यादि । अगर हमे खुश करना चाहाते हो तो " भवद्भिः जिनधर्मोगृह्यतां" आप सब लोग पवित्र जैनधर्मको स्वीकार करों जिससे तुमारा कल्याण हो इत्यादि । यह सुन श्रेष्टि वैगरह रानाके पास नाके सब हाल सुनाया आचार्यश्री की नि:स्पृहीताने राजाके अन्तकरणपर इतना असर डाला कि वह चतुरांग शैन्या और नागरिक जनको साथ ले सूरिजीको वन्दन करनेको वडे ही आडम्बर से आयां आचार्यश्रीको बन्दन कर बोलाकि हे भगवान् ! आपतो हमारे जैसे पामर जीवों पर बडा भारी उपकार किया है जिस्का बदला इस भत्रमे तो क्या परभवोभयमे देने को हम लोग असमर्थ है हमारी इच्छा आपश्री के मुखाविन्दसे धर्म श्रवण करने की है। . आचार्यश्रीने उच्चस्वर और मधुरभाषासे धर्मदेशना देना प्रारंभ किया है राजेन्द्र ! इस आरापार संसारके अन्दर जीव परिभ्रमण करते हुवे को अनंताकाल हो गया कारण कि सुक्षमबादर निगोदमें अनंतकाल पृथ्वीपाणि तेउवायमें असं. ख्याताकाल एवं पकेन्द्रियमें अनंतानंतकाल परिभ्रमन कीया बाद कुच्छ पुन्य बड जानेसे बेन्द्रिय एवं तेन्द्रिय चोरिन्द्रिय व तीर्यच पांचेन्द्रिय अनार्य मनुष्य या अकाम पुन्योदय देव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034569
Book TitleOswal Porwal Aur Shreemal Jatiyo Ka Sachitra Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpamala
Publication Year1929
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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