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मुद्रा विज्ञान
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मुद्रा विज्ञान
नीलम प्रदीप संघवी
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प्रत : ५०००
आवृत्ति : प्रथम, जून २००० चर्तुथ : मई २००४ प्रकाशक : प्रदीप संघवी मुल्य : रूपया ३०.००
_ प्राप्ति स्थान नीलम प्रदीप संघवी
हरेश संघवी ५०१, श्री अरिहंत बिल्डींग, मे.के.पी. एक्सपोर्टस २५ अंधेरी को .ओ.हा.सोसायटी, ५०४, सफरोन टावर, पंचवटी सर्कल वि.पी. रोड, ह. स. मेहता मार्ग, आंबावाडी, अमदावाद-३८०००६ अंधेरी (वेस्ट), मुंबई - ४०० ०५८. टे.:२६४२१८२२/२६४२३५२५ टे.:२६२८२८३३/२६२५५५४०
वीरेन्द्र संघवी मोबाईल :३१०७२३७४ E-mail : pradipsanghvi@hotmail.com
८-ए, मलयालम बिल्डींग,
३, वुडबर्न पार्क रोड, मारू (सेमसोनाईट ट्रावेल वड) ।
| कोलकत्ता - ७०००२०. एस.वी. रोड, शोपर स्टोप के सामने, | टे.: २२४०३५०० अंधेरी (वेस्ट), मुंबई - ४०० ०५८.
डॉ. मीना महेता टे.: ५६०५५५२५/५६०५५५२६
८, न्यु शकुंतला भुवन, ओघडभाई लेन, अमर प्लास्टीक्स
घाटकोपर (ईस्ट), मुंबई - ४०० ०७७.
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जशभाई पटेल टे.:२३७१०६६२/२३७२६२५८ | २३६/५०३ जवाहर नगर,
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जयंतीभाई बी. पटेल मुंबई - ४०० ००२.
२०, दिपावली सोसायटी, टे.:२२०१३४४१
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भावनगर - ३६४००२ टे.:२८७०४८१४
टे.: २४३६२७२/२०२५-२५६३५०५
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दो शब्द ....
मनुष्य का शरीर ब्रह्मांड की एक छोटी प्रतिकृति ही है । अगर हम अपने शरीर के रहस्य को जाने तो पता लगेगा कि अपना शरीर इतना सक्षम बना हुआ है कि जितनी तकलीफें इस शरीर में उत्पन्न होती है वे सभी दूर करने की क्षमता और शक्ति भी इसी शरीर में है I
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मुद्राविज्ञान प्राचीन भारतीय ऋषिओं के गहरे अध्ययन का परिणाम है । जिस तरह से पर्यावरण से व्यक्ति प्रभावित होता है इसी तरह से व्यक्ति के स्नायु और ग्रंथितंत्र मुद्रा से प्रभावित होते हैं । मनुष्य अपने व्यक्तित्व का विकास और इच्छित स्वभाव परिवर्तन भी मुद्रा से कर सकता है । मुद्राओं का अभ्यास न केवल प्रभावशाली है बल्कि वैज्ञानिक होने के साथ साथ प्रयोग करने में अति सरल हैं।
मुद्राविज्ञान के विशेषज्ञ और मर्मज्ञ आचार्य केशव देव ने (विवेकानंद योगाश्रम, दिल्ली) अनेक मुद्राओं पर साधना और गहन शोध के बाद मुद्राओं को स्वास्थ्य की चाबी के रुप में प्रस्तुत किया है। उनका कहना है कि, 'मुद्रायें मानव शरीररुपी महायंत्र के नियंत्रक बटन के समान हैं, जिसकी मदद से शरीर में अलौकिक शक्ति या एक खास प्रकार की ऊर्जा तरंगे जरुरत के हिसाब से प्रवाहित होती है और असन्तुलन को दूर करती है। योग्य मुद्राओं के अभ्यास से शरीर के पंच तत्त्वो में सन्तुलन उत्पन्न होता है जो मनुष्य को स्वास्थ्य लाभ तो देने के साथ-साथ भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति भी देता हैं ।'
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मुद्राओं के प्रयोग करते समय मुद्रा करने का प्रयोजन स्पष्ट होना चाहिए । एकाग्रता से प्रयोग करने से निश्चित लाभ होता है । जैसे कर्मवर्गणा, भाषा वर्गणा और ध्वनि के तरंगे चारों ओर फैली हुई है इसी तरह अग्नि, वायु, आकाश, पृथ्वी और जल जैसे पंच तत्त्व भी चारों ओर फैले हुए है, अपनी आवश्यकता और शक्ति के अनुसार प्रयोग कर के यह तत्त्व प्राप्त और अनुभव किया जा सकता है।
इस पुस्तकमें पाँच नमस्कार मुद्राओं का भी समावेश किया है जिसके प्रणेता मुनिश्री किशनलालजी हैं | वे तेरापंथ संप्रदाय के गणाधिपति तुलसीजी
और आचार्य महाप्रज्ञजी के विद्वान और साधनाशील शिष्य हैं । वे प्रेक्षाध्यान, जीवनविज्ञान, अध्यात्मयोग और नैतिक शिक्षाकें शिबिरों के निर्देशक और व्याख्याकार हैं | उनकी दूसरी पुस्तकें जैसे आसन-प्राणायाम, योगासन, यौगिक क्रिया, साधना प्रयोग और परिणाम, पढ़ने योग्य हैं ।
मुनिश्री किसनलालजी, रिटायर्ड - न्यायाधीश और प्रेक्षाध्यान के मूधन्य प्रशिक्षक श्री. चांदमल बोराजी, ध्यान साधना के गहरे अभ्यासी एडवोकेटश्री. रमेशभाई अग्रवाल, मुद्राओं के निष्णात - डॉ. सुरेशभाई सराफ, मातृतुल्य प्रशिक्षका - स्व. सुशीलाबहन नगीनभाई शाह, प्रकाशन सहायता के लिए पितृतुल्यश्री. मोहनभाई शाह, हिन्दी भाषांतर के लिए स्नातकेतर शिक्षक (हिन्दी) केन्द्रीय विद्यालय - श्री. श्रीकांत कुलश्रेष्ठ, व्यक्तित्व विकास शिबिर के प्रणेता और आयोजक - श्रीमती जयश्रीबहन भट्ट, इस पुस्ततके प्रकाशन के लिए श्री. प्रदीप संघवी की मैं बहुत ऋणी हूँ | मैंने गुजराती में मुद्राविज्ञान पुस्तक लिखी है उसका हिन्दीमें अनुवाद करके हिन्दीभाषी पाठकों तक पहुँचानेकी यह मेरी नम्र कोशिष हैं। हिन्दी में यह पुनः पुनरावृति की सफलता के लिए मैं आप सब की आभारी हुँ ।
नीलम प्रदीप संघवी
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अनुक्रमणिका मुद्रा चिकित्सा १ ज्ञानमुद्रा के प्रकार
१.१ ज्ञानमुद्रा१.२ ज्ञानध्यान मुद्रा-- १.३ ज्ञानवैराग्य मुद्रा १.४ अभयज्ञान मुद्रा१.५ तत्वज्ञान मुद्रा१.६ बोधिसत्त्व मुद्रावायु मुद्राआकाश मुद्राशून्य मुद्रापृथ्वी मुद्रा - आदिति मुद्रा
सूर्य मुद्रा - ८ वरुण मुद्रा
जलोदर नाशक मुद्रा१० पंच प्राण मुद्रा के प्रकार -
१०.१ प्राण मुद्रा१०.२ अपान मुद्रा --- १०.३ व्यान मुद्रा१०.४ उदान मुद्रा-- १०.५ समान मुद्रा - अपानवायु मुद्रा किडनी - मूत्राशय मुद्रा
लिंग मुद्रा१४ योनि मद्रा१५ शंख मुद्रा
सहजशंख मुद्रा१७ ध्यान मुद्रा -
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१८ बंधक मुद्रा
पुस्तक मुद्राप्रज्वलिनी मुद्रा
हार्ट मुद्रा ----- २२ मृगी मुद्रा२३ हंसी मुद्रा२४ सुकरी मुद्रा२५ सुरभि मुद्रा के प्रकार
२५.१ सुरभि मुद्रा२५.२ जलसुरभि मुद्रा-- २५.३ पृथ्वीसुरभि मुद्रा२५.४ शून्य सुरभि मुद्रा
२५.५ वायुसुरभि मुद्रा२६ आशीर्वाद मुद्रा२७ नमस्कार मद्रा
पंच परमेष्ठी मुद्राओं के प्रकार ------- २८.१ अर्हमुद्रा२८.२ सिध्ध मुद्रा२८.३ आचार्य मुद्रा२८.४ उपाध्याय मुद्रा २८.५ मुनि मुद्रा - हठयोग की मुद्राएं२९.१ महा मुद्रा - २९.२ महाबंध मुद्रा २९.३ महावेद मुद्रा२९.४ खेचरी मुद्रा--
२९.५ सर्वेन्द्रिय मुद्रापरिशिष्ट - १ ग्रंथिओंके स्थानपरिशिष्ट - २ रोग और मुद्रा चिकित्सा
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मुद्रा चिकित्सा ब्रह्माण्ड जैसे पांच तत्त्वों से बना हुआ है ऐसे ही अपना शरीर भी पांच तत्त्वों से बना हुआ है, यह पांच महाभूततत्त्व अग्नि, वायु, आकाश, पृथ्वी और जल माने जाते हैं। हमारी पांचो अंगुलियाँ इन तत्त्वोंका प्रतिनिधित्व करती हैं ।
आकाशा
मध्यमा तजेनी
कनिष्ठिका अनामिका मा
अंगूठा
अंगुली का नाम Thumb - Index - Centre - Ring - Little -
अंगूठा तर्जनी 48441 अनामिका कनिष्ठिका
तत्त्व का नाम अग्नि - Fire - Sun वायु - Air- Wind 311191 - Ether - Space पृथ्वी . Earth जल - Water
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हाथ में विशेष प्रकार की प्राण ऊर्जा, विद्युत शक्ति, इलेक्ट्रिक तरंग और जीवनी शक्ति (ओरा) निरंतर निकलती रहती है । विभिन्न अंगुलियों की मुद्राएँ, शरीर की चेतना शक्ति के रिमोट कंट्रोल के बटन की तरह काम करती हैं ।
मुद्रा करने के सामान्य नियम :
पांच तत्त्वों के संतुलन से मनुष्य स्वस्थ रह सकते हैं। अंगूठे के अग्रभाग पर दूसरी अंगुली के अग्रभाग को रखने से उस अंगुली का तत्त्व बढ़ता है और अंगुली के अग्रभाग को अंगूठे के मूल पर लगाने से वह तत्त्व कम होता है।
१.
I
२. हर कोई स्त्री पुरुष, बालक - वृद्ध और रोगी - निरोगी मुद्रा कर सकते हैं । बायें हाथ से मुद्रा करने से शरीर के दाहिने भाग पर असर होता है और दाहिने हाथ से करने से शरीर के बायें भाग पर असर होता है ।
३. मुद्रा करते समय अंगुली और अंगूठे का स्पर्श सहज होना चाहिए । अंगूठे से हल्का सहज रुप से दबाव देना चाहिए और दूसरी अंगुलियाँ सीधी और एक दूसरे से लगी रहनी चाहिए और हथेली आसमान की ओर रहनी चाहिए। अगर अंगुलियाँ सीधी न रहें तो आरामपूर्वक हो सके इतनी सीधी रखने की कोशिश करनी चाहिए, धीरे-धीरे बीमारी दूर होने से अंगुलियाँ सीधी होती जाएँगी और मुद्रा भी ठीक से होगी ।
1
४. हर मुद्रा ४८ मिनट तक करनी चाहिए । अगर एक साथ न हो सके तो सुबहशाम १५-१५ करके ३० मिनट तक एक मुद्रा करनी चाहिए । सिर्फ वायुमुद्रा भोजन के बाद तुरंत कर सकते हैं, जिससे गैस की तकलीफ दूर हो सकती हैं ।
५. धार्मिक उपासना या साधना बढ़ाने के लिए मुद्राओं का प्रयोग करना हो तो मंत्र के साथ योग्य दिशा-आसन और निर्धारित समय पर करने से ज्यादा लाभ होता
है । मुद्राएँ पद्मासन, वज्रासन और ध्यान के दरम्यान करने से ज्यादा लाभ होता
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है। अगर न हो सके तो आसन, या कुर्सी पर बैठ कर भी किया जा सकता हैं ।
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प्राणमुद्रा, अपनामुद्रा, पृथ्वीमुद्रा और ज्ञानमुद्रा साधक अपनी इच्छा के अनुसार ज्यादा से ज्यादा और लंबे समय तक कर सकते हैं । दूसरी मुद्राएं जैसे
वायुमुद्रा, शून्यमुद्रा, लिंगमुद्रा, तकलीफ हो तब तक करनी चाहिए । ७. अपानवायु मुद्रा हृदय के लगते कोई भी रोग में तत्काल फायदा देती है ।
डाक्टरी सहायता मिलने से पहले रोगी यदि इसे करे तो उसे तात्कालिक लाभ
प्राप्त होने साथ साथ राहत मिलती है। ८. अन्य कोई भी चिकित्सा के साथ मुद्रा का प्रयोग कर सकते हैं, क्योंकि इससे
(मुद्रासे) चिकित्सा में सहायता मिलती है। ९. प्राण और अपान सम होने से योग साध्य होता है, नाडी शुद्धि भी होती है,
और शरीर स्वस्थ बन कर रोगरहित बनता है । यह क्रिया प्राणमुद्रा और अपानमुद्रा के प्रयोग से होती है । ज्ञानमुद्रा मानसिक तनाव दूर कर के ज्ञानशक्ति बढाती है । पृथ्वीमुद्रा से शारीरिक शक्ति बढ़ती है । शंखमुद्रा से ७२००० नाड़ियों पर प्रभाव पड़ता है और स्नायुमंडल सशक्त होता है । सुरभिमुद्रा से वात-पित्त और कफ प्रकृतिप्रधान मनुष्य को फायदा होता है । अगर कोई बीमारी न हो और हमेशा स्वस्थ रहना चाहते हैं उसे ऊपर दी गई
९ नंबर की मुद्रायें नियमित समय पर करनी चाहिए। १०. कोई भी दो मुद्रायें जो साथ में करने का उल्लेख हो तब १५ मिनट दोनों
हाथों से पहली मुद्रा करनी चाहिए और फिर तुरंत दोनों हाथों से जो
दूसरी मुद्रा बतायी हो वह १५ मिनट करनी चाहिए | ११: मुद्राओं से अलग अलग तत्त्व में परिवर्तन, विघटन, अभिव्यक्ति और
प्रत्यावर्तन होकर तत्त्व का संतुलन होता है |
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मुद्राओंका विवेचन
१. ज्ञानमुद्रा : तर्जनी के अग्रभाग और अंगूठे के अग्रभाग को मिलाकर, मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका, अंगुलियाँ को एक साथ सीधी रखते हुए ज्ञानमुद्रा बनती है । लाभ: • यह मुद्रा मस्तिष्क के ज्ञानतंतु को क्रियावंत करती है । मन शांत होता है और
ज्ञान का विकास होता है। मानसिक एकाग्रता, यादशक्ति और प्रसन्नता बढ़ती हैं। आध्यात्मिकता, स्नायुमंडल की क्षमता और ध्यान में प्रगति होती है। मस्तिष्क के कोई भी रोग जैसे पागलपन, चिडचिडापन, अस्थिरता, गभराहट, अनिश्चितता, उन्माद, बैचेनी, डीप्रेशन, फिट की बिमारी, चंचलता और व्याकुलता
दूर होती है। • क्रोध, उत्तेजना, आलस्य, भय जैसे मानसिक तनाव दूर होते हैं ।
अनिद्रा के रोग में ज्ञानमुद्रा रामबाण उपाय है । जिसे ज्यादा नींद आती हो उनकी नींद संतुलित होती है । पुरानी अनिद्रा की बिमारी हो तो ज्ञानमुद्रा और प्राणमुद्रा साथ करनी चाहिए।
शरीर की पिच्युटरी और पिनियल ग्रंथिओं के स्त्राव नियंत्रण में रहते हैं। • अविकसित बुधरेखा और शुक्र के पर्वत का विकास होता है । • इस मुद्रा को व्याख्यान और सरस्वती मुद्रा भी कहते है क्योंकि इस मुद्रा से स्वयं
का ज्ञान और पुस्तक का ज्ञान बढ़ता है। • माइग्रेन जैसे सिरदर्द के लिए ज्ञानमुद्रा के साथ प्राणमुद्रा करनी चाहिए ।
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ज्ञानमुद्रा के प्रकार :
१.१ ज्ञानध्यान मुद्रा : दोनों हाथों से ज्ञानमुद्रा करके, बायें हाथ की हथेली पर दाहिने हाथ की हथेली रखकर, पद्मासन या सुखासन करते हुए, दोनों हाथ नाभि के पास रखकर ज्ञान-ध्यान मुद्रा बनती हैं। लाभ : ज्ञानमुद्रा के सभी लाभ होते हुए ध्यानाभ्यासी को ध्यान में ज्यादा प्रगति होती है।
१.२ ज्ञान वैराग्य मुद्रा : दाहिने हाथ से ज्ञानमुद्रा करके हृदय के पास आनंदकेन्द्र (अनाहत चक्र) के पास रखते हुए, बायें हाथ से ज्ञानमुद्रा करके बायें घुटने पर रखते हुए ज्ञान - वैराग्य मुद्रा बनती हैं। लाभः • ज्ञान मुद्रा के सभी फायदे के साथ इस मुद्रा से कोई भी व्यक्ति संसार में रहते
हुए वैराग्यपूर्ण और निष्पाप जीवन जी सकता है ।
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१.३ अभयज्ञान मुद्रा :
दोनों हाथों से ज्ञानमुद्रा करके दोनों कंधो के आसपास इस तरह दोनों हाथों को रखे कि हथेली के ऊपर का हिस्सा कंधे के पास रखते हुए अभयज्ञान मुद्रा बनती है। लाभः
ज्ञानमुद्रा के सभी लाभ के साथ जीवन में निर्भयता आती है । मौत या कोई भी प्रकार के डर से मुक्ति मिलती है ।
१.४ तत्त्वज्ञान मुद्रा : बायें हाथ की पृथ्वीमुद्रा (अंगूठा और अनामिका के अग्रभाग को मिलाकर) और दाहिने हाथ की ज्ञानमुद्रा (तर्जनी और अंगूठे के अग्रभाग को मिलाकर) दोनों हाथों को घुटनों पर रखते हुए तत्त्वज्ञान मुद्रा बनती है । लाभ:
ज्ञानमुद्रा के सभी लाभ के साथ विज्ञानमय कोष खुलते है और इससे तत्त्वज्ञान का ज्ञान बढ़ता है।
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१.५ बोधिसत्त्व ज्ञान मुद्रा :
बोधिसत्त्व ज्ञानमुद्रा करने के लिए पहले दाहिने हाथ से ज्ञानमुद्रा करके हृदय के पास रखकर, उसके ऊपर बायें हाथ से ज्ञानमुद्रा करके इस तरह से रखें कि दोनों हाथों के अंगूठे और तर्जनी एक दूसरे को मिले । लाभ :
ज्ञानमुद्रा के सभी फायदे के उपरांत ध्यान करने में प्रगति होती है और साधक को अपनी साधनानुसार ज्योतिकेन्द्र (ललाटके मध्यभाग) पर श्वेत प्रकाश
दिखाई देता है। विशेष :
यह सभी ज्ञानमुद्राएं लम्बे समय तक कर सकते हैं । कम से कम १५ मिनट करनी चाहिए और परिणाम जल्दी चाहिए तो नियमित रुप से ४८ मिनट करनी चाहिए। ज्ञानमुद्रा से ग्रंथिओं के स्त्राव संतुलित होते हैं और इसीलिए भाव परिवर्तन होता है और स्वभाव परिवर्तन भी होता है ।
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२ वायुमुद्रा : तर्जनी के अग्रभाग को अंगूठे के मूल पर लगाकर अंगूठे से उसके पर हल्का सा दबाव रखते हुए और दूसरी अंगुलियाँ सीधी रखते हुए वायुमुद्रा बनती है । वायुमुद्रा वज्रासन में बैठकर करने से तुरंत और ज्यादा लाभ मिलता है। लाभ: • शरीर में वायु उत्पन्न होकर, जिस जगह पर जमता है वहाँ वात के रोग होते
हैं । इस प्रकार के वायु के सभी रोग में इस मुद्रा करने से फायदा होता है । खाना खाने के बाद बैचेनी या गेस की तकलीफ हो तब तुरंत वज्रासन में बैठकर यह मुद्रा करने से राहत मिलती है। वायु के रोग जैसे कपंवा (पारकीन्सन), सायटिका, लकवा (पेरेलिसीस), सर्वाईकल स्पोडिंलाइसीस, घुटनों के दर्द में राहत मिलती है। वातजन्य गर्दन के रोग में अगर बायीं ओर तकलीफ हो तो दाहिने हाथ से और दाहिनी ओर तकलीफ हो तो बाये हाथ से और अगर पूरी गर्दन का दर्द हो तो दोनों हाथ से वायुमुद्रा करके, मणीबंध से हाथ सर्कल में घुमाने से तकलीफ दूर होती है। वायु के हिसाब से पैदा होनेवाली मन की चंचलता इस मुद्रा से दूर होती है और
इससे एकाग्रता आती है। विशेष : अंगूठे के मूल भाग पर जहाँ तर्जनी का दबाव आता है वहाँ ऐसे बिन्दु
है जो इस मुद्रा से पूरे शरीर को संतुलन और स्वस्थता प्रदान करता है। नोट : यह मुद्रा ३० मिनट तक कर सकते हैं । जरुरत हो तो दिन में २ या
३ बार १५-१५ मिनट तक कर सकते है । जब दर्द दूर हो जाये और वायु सम हो जाये तब इस मुद्रा का प्रयोग बंद कर देना चाहिए ।
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३ आकाशमुद्रा : मध्यमा की अंगुली के अग्रभाग को अंगूठे के अग्रभाग से मिलाकर, शेष तीनों अंगुलियों को सीधी रखते हुए आकाशमुद्रा बनती है । लाभ : • ध्यान करते वख आकाशमुद्रा करने से भावधारा निर्मल होती है । ज्ञानकेन्द्र
(सिर के अग्रभाग, सहस्त्रारचक्र) पर प्रकंपन के अनुभव होते है । दिव्यशक्ति के साथ अनुसंधान होने का अनुभव होता है । इस मुद्रा के अभ्यास से स्वयं-शक्ति और जागृतता का विकास होता है। हड्डियों की कई बीमारियाँ मे लाभदायक है । इस मुद्रा से केल्सियम की पूर्ति होती है इसलिए हड्डियाँ मजबूत बनती है । स्टीरोइडस और कोर्टीझन लेनेवाले दर्दी को उस दवाई की आडअसर से बचाती है । दाँत की कोई भी तकलीफ दूर होकर दांत मजबूत बनते हैं । उबासी लेते वखत अगर जबड़ा जम जाये तो इस मुद्रा से ठीक होता है इसलिए उबासी लेते वख्त मध्यमा से चुटकी बजायी जाती है। मध्यमा अंगुली और हृदय का एक दुसरे के साथ संबंध होने से हृदय के कई रोग जैसे रक्तदाब, अन्जाइना पेइन, अनियमित पल्स रेट में यह मुद्रा लाभदायक है । अगर हृदय की कोई बीमारी हो तब यह मुद्रा ठीक से नहीं होगी, पर अभ्यास से मुद्रा भी ठीक होगी और तकलीफ भी दूर हो सकती है। कान की बीमारी अगर शून्यमुद्रा से ठीक न हो तो साथ में आकाशमुद्रा भी करनी चाहिए। माला के मनको को अंगूठे पर रखकर मध्यमा के अग्रभाग से फेरने से मन की समृध्धि, ऐश्वर्य और भौतिक सुख मिलता है । कषायमुक्ति और मोक्ष अभिलाषी
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को अंगूठे पर माला रखकर तर्जनी या अनामिका से माला करनी चाहिए । आनंदकेन्द्र के पास माला रखकर, नाखून न लगे इस तरह से माला करनी चाहिए । नोट : अंर्तमुहूंत में यह मुद्रा करने से ज्यादा लाभ होता है । यह मुद्रा करते वख्त
हथेली आसमान की ओर रहनी चाहिए ।
४ शून्यमुद्रा:
मध्यमा के अग्रभाग को अंगूठे के मूल भाग पर लगाकर उसके ऊपर अंगूठा रखकर हल्का दबाव देकर बाकी की अंगुलियाँ सीधी रखते हुए शून्य मुद्रा बनती है । लाभ: • कान के कोई भी दर्द के लिए यह खास मुद्रा है । ५ से १० मिनट करने से
तुरंत राहत मिलती है। कान के दर्द में, सतत कान में आवाज आना, कम सुनाई देना, कान का बहना आदि कोई भी कान की तकलीफ में बीमारी ठीक न हो तब तक यह मुद्रा निरंतर करनी चाहिए। जन्म से गूंगे न हो पर आवाज ठीक न हो तब यह मुद्रा करने से आवाज अच्छी होती है। बच्चे को कभी गालपर मारने से या किसी के साथ टकराने से कान में तम्मर चढ जाये तब तुरंत यह मुद्रा करने से राहत मिलती है। .
कोई भी अंग में सून चढ जाये तब यह मुद्रा से फायदा होता है । नोट : ऊपर बतायी हुई तकलीफ दूर होने के बाद यह शून्यमुद्रा का अभ्यास भी
बंध कर देना चाहिए।
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५ पृथ्वीमुद्रा :
अनामिका अंगुली के अग्रभाग को अंगूठे के अग्रभाग से मिलाकर शेष तीनों अंगुलियाँ तर्जनी, मध्यमा, और कनिष्ठिका सीधी रखकर पृथ्वीमुद्रा बनती है ।
लाभ :
पृथ्वी तत्त्वके कमी से जो शारीरिक दुबर्लता और उसके हिसाब से होनेवाले रोग में यह मुद्रा उपयोगी है ।
शारीरिक कमजोरी दूर होकर, इस मुद्रासे व्यक्ति सबल और सप्रमाण बनता
है।
•
शक्ति, कान्ति, तेज और तेजस्विता बढ़ती है । बाजार के कोई भी टोनिक से ज्यादा असरकारक है ।
नियमित अभ्यास से, सूक्ष्म तत्त्वो में परिवर्तन होते हैं इसलिए नई दिशा मिलती है और अध्यात्मिकता की ओर जा सकते हैं
1
इस मुद्रा से आंतरिक प्रसन्नता, स्फूर्ति, स्वस्थता, उदारता और विचारशीलता बढ़ती है और विशाल हृदयी बन सकते हैं ।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बृहस्पति ग्रह को फायदा होता है और बौद्धिक क्षमता और स्मृति का विकास होता है ।
अंगूठे की तरह अनामिका में भी विशेष विद्युतशक्ति होने के कारण इस मुद्रा से शक्ति मिलती है और इसीलिए इस अंगुली से तिलक करके शक्ति को प्रवाहित किया जाता है ।
नोट : इस मुद्रा से शक्ति बढती है इसलिए बढी हुई शक्ति का दुरुपयोग न हो इसका ध्यान रहे ।
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६ आदिति मुद्रा : अंगूठे के अग्रभाग को अनामिका के मूल पर रखकर, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका, इन चारों अंगुलियों को एक दूसरे के पास सीधी रखते हुए आदिति मुद्रा बनती है । अंगूठा थोडा सा तिरछा रहेगा।
लाभ :
उबासी और छींक रोकी जा सकती है इसलिए साधना करते वख्त अवरोध दूर होता है। जिन्हें सुबह उठते ही एक साथ बहुत छींक आती हो या नियमित छींक की तकलीफ रहती हो तो इस मुद्रा से यह तकलीफ दूर होती हैं। आदिति मुद्रा, दोनों हाथ पास में रखकर भी बनायी जाती है यानि कि दोनो हाथों से आदिति मुद्रा करके अंजलि बनाकर देवों को आवाहन दिया जाता है। सत्संग करते समय यह मुद्रा करने से सत्संग का ज्यादा लाभ मिलता है। जैन तीर्थंकर की अधिकतर प्रतिमाएँ इस मुद्रा में पायी जाती हैं इसलिए इसे तीर्थकरमुद्रा भी कहते हैं । इस मुद्रा से ध्यान में लीन बन सकते हैं । यह मुद्रा करके हथेली के पीछे के हिस्से को आसमान की ओर रखने से स्थापिनी मुद्रा बनती है । भगवान की प्रतिमा की स्थापना करते समय इस मुद्रा का प्रयोग किया जाता है।
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७ सूर्यमुद्रा :
अनामिका के अग्रभाग को अंगूठे के मूल पर लगाकर अंगूठे से अनामिका पर हल्का सा दबाव देते हुए शेष अंगुलियाँ सीधी रखते हुए सूर्यमुद्रा बनती है । पद्मासन या सिध्धासन में ज्यादा लाभ होता है ।
लाभ :
अंगूठे के अग्नितत्व की उर्जा, अनामिका के पृथ्वी तत्त्व को ग्रहण करके उसका संग्रह करती है इसलिए सूर्यमुद्रा से शीघ्र शक्ति का अनुभव होता है ।
•
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·
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५ से १५ मिनट करने से सूर्यस्वर शुरू होता है ।
थायरोईड ग्रंथि के स्त्राव का संतुलन होता है।
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शरीर का भारीपन दूर होकर शरीर सप्रमाण बनता है । ज्यादा वजन को कम करने में सहायता मिलती है ।
शारीरिक और मानसिक तनाव दूर होते हैं ।
इस मुद्रा से सूर्यस्वर शुरू होकर अग्नितत्त्व बढता है, जिससे कफ के कोई भी रोग जैसे दम, सरदी, निमोनिया, टी. बी. प्लुरसी, सायनस और सरदी में `उपयोगी है । यह सभी रोग में सूर्यमुद्रा के साथ लिंगमुद्रा करने से ज्यादा फायदा मिलता है
I
इस मुद्रा के नियमित अभ्यास से पाचन शक्ति का विकास होता है और पुरानी कब्जकी तकलीफ दूर होती है । उर्जा और उष्णतामान पूरे शरीर में फैलते हैं। नोट : ज्यादा दुर्बल शरीरवाले इस मुद्रा का प्रयोग न करें ।
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८ वरुण मुद्रा : कनिष्ठिका के अग्रभाग को अंगूठे के अग्रभाग से मिलाकर, अंगूठे से हल्का सा दबाव देते हुए शेष अंगुलियाँ सीधी रखते हुए वरुणमुद्रा बनती है। लाभ:
कनिष्ठिका अंगुली, जल तत्त्व का नियमन करती है इसलिए शरीर के प्रवाही का संतुलन इस मुद्रा से होता है । शरीर के प्राण-प्रवाह और रक्त प्रवाह की
तरलता व्यवस्थित रहती है और इससे उनका परिभ्रमण का नियमन होता है। • शरीर का सूखापन दूर होता है जिससे त्वचा में चमक, चिकनाई, मुलामियत
और स्निग्धता आती है। रक्त विकार की बिमारी या रक्त की अशुद्धि की बिमारी में लाभदायक है । त्वचा के दर्द जैसे सोरायसीस, खुजली, दादर आदि में लाभदायक है। जलतत्त्व से होनेवाली बीमारीयाँ जैसे कि गेस्ट्रोएन्ट्राइटिस, डायरिया, डीहाईड्रेशन में लाभदायक है और इस मुद्रा से तृषा बुझती है। शरीर में कहीं भी खुजली आये तो इस मुद्रा के प्रयोग से खुजली शांत
होती है। • स्नायु के खिंचाव हो तब इस मुद्रा से राहत मिलती है। • तन का तेज बढता है और यौवन लम्बे समय तक रहता है । विशेष :अंगूठे के अग्रभाग से कनिष्ठिका के अग्रभाग को मालिस करने से मुर्छा
तूटती है। आकस्मिक दुघर्टना में चमत्कारी परिणाम मिलते है। नोट : कफ प्रकृतिवाले यह मुद्रा अपनी प्रकृति के अनुसार करे । त्वचा के दर्दी
को इस मुद्रा से दर्द बढ़ता लगे तो इस मुद्रा के साथ अपानमुद्रा करने से तकलीफ दूर होकर दर्द में भी राहत मिलती है ।
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९ जलोदरनाशक मुद्रा :
कनिष्ठिका के अग्रभाग को अंगठे के मूल भाग पर रखकर अंगूठे से उसके पर हल्का सा दबाव देते हुए, शेष अंगुलियाँ सीधी रखते हुए जलोदरनाशक मुद्रा बनती है।
लाभ :
• जलतत्त्व के बढने से जो बीमारियाँ होती हैं, इसमें इस मुद्रा से राहत
मिलती है। जलोदर की बीमारी में खास तोर से असरकारक होने से ही इस मुद्राका नाम जलोदरनाशक मुद्रा है।
इस मुद्रा से हाथ में, पैर में, या मुँह पर सूजन हो तो दूर हो सकती है । • फाईलेरिया - एलीफन्टायसीस (हाथीपगा) और पेट में पानी भर गया हो तो दूर
होता हैं।
नोट : बीमारी दूर हो तब तक नियमित यह मुद्रा करनी चाहिए क्योंकि इसका
असर धीरेधीरे अवश्य होता है ।
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१०.१ प्राणमुद्रा : शरीर के दस वायुमें से पाँच वायु मुख्य है जिसे पंचप्राणतत्त्व कहते हैं । इन पाँच वायुओं के नाम हैं - प्राण, अपान, उदान, व्यान और समान वायु । इन पाँचो वायुओं को शरीर में व्यवस्थित रखने के लिए पाँच मुद्राएँ हैं । इन पाँचों वायु में से भी प्राण और अपान वायु सब से महत्त्वपूर्ण हैं । प्राण और अपान सम होने से योग साध्य होता है । योग और प्राणायाम के प्रयोगो से प्राण और अपान सम बनते हैं, पर प्राण और अपान दोनों मुद्रा करने से सहज रूप से योग साध्य होता है । अंगूठे के अग्रभाग पर कनिष्ठिका के अग्रभाग मिलाकर, कनिष्ठिका के नाखून पर अनामिका का अग्रभाग रखकर, शेष तर्जनी और मध्यमा सीधी रखकर प्राणमुद्रा बनती है। यही मुद्रा करने का दूसरा तरीका : अनामिका और कनिष्ठिका के अग्रभाग को अंगूठे के अग्रभाग से मिलाकर अंगूठे से हल्का सा दबाव देते हुए शेष अंगुलियाँ (तर्जनी और मध्यमा) सीधी रखते हुए प्राणमुद्रा बनती है। प्राणवायु मुख्यतया नासिका में, मुख में, हृदय में और नाभि के मध्यभाग में होता हैं। लाभ : प्राणमुद्रा से प्राणशक्ति का विकास होता है । मेरुदंड सीधा रखते हुए प्राणमुद्रा करने से प्राणऊर्जा सक्रिय बनकर उर्ध्वमुखी बनती है, जिससे इन्द्रिय, मन और भावों मे सूक्ष्म परिवर्तन होता है और व्यक्ति की चेतना उर्ध्वगामी होती है । पृथ्वी, जल और अग्नितत्त्व का संयोजन इस मुद्रा से होने से प्राण और रक्त की सभी प्रक्रिया के अवरोध दूर होते हैं।
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इस मुद्रा से शरीर में प्राणशक्ति का ऐसा संचार होता है कि जैसे शरीर का डायनेमो शुरु हो गया हो । प्राण के प्रकंपनो शरीर के हरएक अवयव में अनुभव होता है। इस मुद्रा से रक्तवाहिनी में कोई रुकावट हो तो दूर होती है और रक्तसंचार की शुद्धि होती है । शरीर में स्फूर्ति, आशा, उमंग और उत्साह पैदा होता है। कमजोर और शारीरिक तौर से दुर्बल व्यक्ति के लिए यह खास मुद्रा है । इससे इतनी शक्ति पैदा होती है कि कमजोर व्यक्ति शारीरिक और मानसिक दृष्टि से शक्तिशाली बनकर रोग के संक्रमण से दूर रह सकता हैं । इस मुद्रा से विटामिन्स की कमी दूर हो सकती है ।
आँखो की रोशनी बढ़ती है और आँखों की किसी भी बीमारी में लाभदायक है। नस या स्नायु के खींचाव में राहत मिलती है । पैर का दर्द दूर होता है । सिर या शरीर के कोई भी अवयव का सूनापन दूर होता है। पेरालेसिस के बाद की स्थिति में लाभदायक हैं । जब भी थकान लगे तब यह मुद्रा करने से थोड़ी ही देर में शरीर में नवशक्ति का अनुभव होकर थकान दूर होती है । स्नायुमंडल सशक्त बनता है। प्राणमुद्रा से भूख-प्यास की भावना लुप्त होती है इसलिए उपवास के वख्त खाने पीने की इच्छा नियंत्रण में आ सकती है । एकाग्रता का विकास होता है। डायबटीस (मीठी पिशाब) के लिए प्राणमुद्रा और अपानमुद्रा साथ में करनी
चाहिए। • नींद न आने की बिमारी में ज्ञानमुद्रा और प्राणमुद्रा साथ में करनी चाहिए । नोट : कोई भी दो मुद्रायें साथ में करने का उल्लेख हो तब १५ मिनिट दोनों हाथों
से एक ही मुद्रा करनी चाहिए ओर फिर तुरंत दोनों हाथों से जो दूसरी मुद्रा बतायी हो वह १५ मिनट करनी चाहिए।
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१०.२ अपानमुद्रा : मध्यमा और अनामिका के अग्रभाग को अंगूठे के अग्रभाग से लगा के अंगूठे से हल्का दबाव देते हुए, तर्जनी और कनिष्ठिका सीधी रखते हुए अपानमुद्रा बनती है। अपानवायु का स्थान स्वास्थ्य केन्द्र (स्वाधिष्ठान चक्र), शक्तिकेन्द्र (मूलाधर चक्र), पेट, नाभि, गुदा, लिंग, घुटना, पिंडी और जांघ मे हैं । लाभ: • अपानवायु का काम शरीर की शुद्धि करना है । इससे शरीर के विष दूर होते
हैं और विजातीय तत्त्व दूर होने से सात्त्विकता आती है । इस मुद्रा से मल, मूत्र और पसीना ठीक से होता है । जिसे कभी मूत्र बंद हो जाने से तकलीफ होती है तब यह मुद्रा ४५ मिनट करने से पिशाब होता है। पसीना बहुत कम होता हो या बहुत ज्यादा होता हो तब इस मुद्रा से उसका संतुलन होता है। पेट के विकार दूर होते हैं । उल्टी, हिचकी और जी मचलने की तकलीफ में राहत मिलती हैं। दांत के स्वास्थ्य में अपानमुद्रा और प्राणमुद्रा साथ करनी चाहिए ।
डायबिटीस में अपानमुद्रा और प्राणमुद्रा साथ में करनी चाहिए । • सिरदर्द में ज्ञानमुद्रा और अपानमुद्रा साथ करनी चाहिए ।
आँख, कान, नाक या मुँह के कोई भी विकार में अपानमुद्रा और प्राणमुद्रा साथ करनी चाहिए। मासिक धर्म की तकलीफ में राहत मिलती है । मासिक स्त्राव का नियंत्रण होकर उसके होनेवाले दर्द में लाभदायक है ।
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हाथ, पैर, हृदय या पिशाब की जलन दूर होती है
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निम्न रक्तचाप (लो ब्लडप्रेशर) का नियमन होता है । गर्भाशय या नाभि अपनी जगह से हट जाये तब इस मुद्रा से अपने स्थान में आती है।
कब्ज के रोग में राहत मिलती है । पेट के हरएक अवयव की क्षमता बढ़ती है और हृदय शक्तिशाली बनता है । शरीर के विष दूर होने से आध्यात्मिक निमर्लता आती है और सूक्ष्म और स्वच्छ परिस्थिति मानसिक स्तर पर निर्माण होती है ।
नोंध : इस मुद्रा के प्रयोग से मूत्र ज्यादा होता है पर इससे कोई नुकसान नहीं होता है
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१०. ३ व्यानमुद्रा :
मध्यमा के अग्रभाग को अंगूठे के अग्रभाग से मिलाकर, मध्यमा के नाखून पर तर्जनी के अग्रभाग को रखकर, अंगूठे से हल्का सा दबाव देते हुए, बाकी की शेष अंगुलियाँ अनामिका और कनिष्ठिका सीधी रखते हुए व्यानमुद्रा बनती है । व्यानवायु पूरे शरीर में व्यापक रुप से फैला हुआ रहता है। खास तोर से दोनो नेत्र में, दोनो कान में, दोनो कंधे में और कंठ में सूक्ष्म रुप से रहता है ।
लाभ :
व्यानमुद्रा व्यानवायु का संतुलन करती है इसलिए इस मुद्रा से व्यानवायु का कार्य ठीक से होता है ।
भगवान को भोग चढ़ाने के वख्त और यज्ञ करते समय व्यानः स्वाहाः शब्द का प्रयोग करते वख्त इस मुद्रा से आहुति दी जाती है ।
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१०.४ उदानमुद्रा : तर्जनी के अग्रभाग को अंगूठे के अग्रभाग से लगाकर तर्जनी के नाखून पर मध्यमा के अग्रभाग को लगाकर अनामिका और कनिष्ठिका सीधी रखते हुए, अंगूठे से हल्का सा दबाव देते हुए उदानमुद्रा बनती है । उदानवायु मुख्यतया कंठ में रहता है और दोनो हाथ-पैर में भी रहता है ।
लाभ :
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उदानमुद्रा करने से शरीर का उदानवायु शरीर में ठीक तरह से काम करती है। उदानवायु मुख्यतया कंठ में होने से कंठ के विशुद्धि केन्द्र पर इसका प्रभाव पडता है। विशुद्धिकेन्द्र विचार और वचन का उद्भव स्थान माना जाता है इसलिए विचार और वचन की शुद्धि होती है। ध्यान दरम्यान उदानमुद्रा करने से विशुद्धि केन्द्र और ज्ञानकेन्द्र का अनुसंधान होकर चेतना उर्ध्वगामी बनती है और ध्यान में प्रगति होती है। थायराईड और पेराथायराईड ग्रंथिओं के स्त्राव इस मुद्रा से संतुलित होते है इसलिए थायराईड संबंधी बीमारियों में राहत मिलती है । भगवान को भोग चढ़ाने के वख्त और यज्ञ करते वख्त, उदानः स्वाहाः शब्द प्रयोग करने के समय इस मुद्रा से आहुति दी जाती है ।
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१०.५ समानमुद्रा :
पाँचो अंगुलियों के अग्रभाग को मिलाकर, हाथ सीधे, माने अंगुलियों के अग्रभाग को आसमान की और रखते हुए समान मुद्रा बनती है । इस मुद्रा से पाँचों तत्वों का संयोजन या समन्वय होता है इसलिए इस मुद्रा को समन्वयमुद्रा भी कहा जाता है। समानवायु दूसरे वायुओं के साथ पूरे शरीर में रहता है ।
लाभ:
समानमुद्रा के अभ्यास से शरीर का समानवायु व्यवस्थित रुप से काम करता है।
इस मुद्रा से सभी तत्त्वों का संतुलन होने से सब के साथ समन्वय के भाव बढ़ते हैं। अनिष्टता का निवारण होकर सात्त्विकता का विकास होता है। एक्युप्रेशर के हिसाब से मस्तिष्क और पिच्युटरी ग्रंथि के पोइन्ट दबते हैं जिससे उसका स्त्राव नियंत्रण में होकर शक्ति का विकास होता है । जप, अनुष्ठान और यज्ञ करते वख्त यह मुद्रा उस क्रिया के दरम्यान की जाती है।
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११ अपानवायुमुद्रा :
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अपानमुद्रा और वायुमुद्रा मिलाकर अपानवायु मुद्रा बनती है । वायुमुद्रा करके (तर्जनी के अग्रभाग को अंगूठे के मूल से लगाकर) मध्यमा और अनामिका के अग्रभाग को अंगूठे के अग्रभाग से लगाकर अंगूठे से हल्का सा दबाव देते हुए, कनिष्ठिका को सीधी रखते हुए अपानवायु मुद्रा बनती है ।
लाभ :
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•
वायुमुद्रा और अपानमुद्रा दोनों मुद्राओं का फायदा इस एक मुद्रा से होता है।
इस मुद्रा से खास तौर से हृदय पर असर होता है । अचानक हृदय के हमले के वख्त, अन्जाइना पेईन में और हाय ब्लडप्रेशर के वख्त यह मुद्रा करने से प्रभावशाली इन्जेक्शन या सोरबिट्रेट दवा का काम होता है । इसलिए इस मुद्रा को मृतसंजीवनी माने मरे हुए को जीवनदान देने की मुद्रा कहलाती है ।
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इस मुद्रा से हृदय में घबराहट, हृदय की मंदगति, हार्टबीट्स का चूकना, पेट के वायु हृदय तक पहुंचकर तकलीफ दे तब और हृदय के कोई भी रोग में नियमित १५-१५ मिनट सुबह-शाम करने से राहत मिलती है और हृदय शक्तिशाली बनता है।
जागरण, मानसिक चिन्ता, अधिक परिश्रम, रक्तसंचय की गडबड के कारण से होनेवाले सिर का दर्द हो, तो दूर होता है ।
शरीर के कोई भी वायु और पेट के वायु से होते हुए कोई भी दर्द में राहत मिलती है। एसीडीटी में राहत मिलती है।
शरीर का मल और विजातीय तत्त्व दूर होते हैं ।
हाथ-पैर का ज्यादा पसीना दूर होता है ।
१० से १५ मिनट इस मुद्रा के प्रयोग से बंद पिशाब शुरु होता है
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पेट के विभिन्न अवयवो की क्षमता का विकास होता है। • दांत के दर्द और दोष दूर होते हैं। • शरीर का तापमान संतुलित रहता है। • गुदा के स्नायुओं के दोष दूर होते हैं । • किसी भी प्रकार के वात के रोग में राहत मिलती हैं । • वात के रोग जो सिर्फ वायुमुद्रा से ठीक न हो तो इस मुद्रा से ठीक होते है।
१२ किडनी-मूत्राशय मुद्रा : अनामिका और कनिष्ठिका के अग्रभाग को अंगूठे के मूलभाग पर लगाकर दोनों अंगुलियों पर अंगूठा रखकर हल्का सा दबाव देकर शेष दो अंगुलियाँ (तर्जनी और मध्यमा) सीधी रखते हुए किडनी मुद्रा एवम् मूत्राशय मुद्रा बनती है । बंदूक की निशानी जैसे बनता है। लाभ: • जलोदरनाशक मुद्रा के सभी लाभ मिलते है और किडनी की किसी भी बीमारी
में राहत मिलती है। बीमारी ठीक न हो तब तक नियमित करनी चाहिए ।
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१३ लिंग मुद्रा : दोनो हाथ की अंगुलियाँ आपस में फँसाकर बाँया अंगूठा सीधा रखते हुए, पीछे की तरफ दायें अंगूठे के मूल पर दाहिने अंगूठे से हल्का दबाव देकर, सभी अंगुलियाँ के अग्रभाग से हथेली के पीछे के पोइन्ट दबाते हुए लिंगमुद्रा या अंगुष्ठ मुद्रा या शिवलिंग मुद्रा बनती है । हाथ बदलकर भी यह मुद्रा कर सकते है, तब दाहिना अंगूठा सीधा रहता है । जो ज्यादातर काम बायें हाथ से करते है उसे दाहिना अंगूठा सीधा रखना चाहिए और जो दाहिने हाथ से काम करते है उसे बाया अंगूठा सीधा रखना चाहिए। लाभ :
लिंगमुद्रा करने से शरीर में गर्मी बढती है इसलिए ठंड लगती हो तब राहत मिलती है। कितनी भी ठंड में यह मुद्रा करने से शरीर में पसीना आ जाये इतनी गरमी पेदा होती है। इस मुद्रा से शरीर में गर्मी बढ़ती है इसलिए कफ के सभी दोष जैसे खांसी, जुकाम, सायनस, दम, अस्थमा, निमोनिया, प्लुरसी, टी.बी. आदि सर्दी के
कोई भी हठीले दर्द दूर होते हैं । • ऋतु बदलने से जो तकलीफें होती है, उसमें राहत मिलती है।
वातानुकूल परिस्थिति में बैचेनी हो तब इस मुद्रा से फायदा होता है । इस मुद्रा से पाचनशक्ति अच्छी होती है । शरीर की चर्बी कम होकर शरीर सप्रमाण बनता है । इसके साथ सूर्यमुद्रा करने से जल्दी परिणाम मिलता है । मासिकस्त्राव कम होने पर या समय के पहले बंद हो जाये तब इस मुद्रा से असर होता है । साथ में सूर्यमुद्रा भी करनी चाहिए । नाभि अपनी स्थान से हट गयी हो तब इस मुद्रा से अपने स्थान पर वापस आती है।
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• यह मुद्रा करने से महिलाएं ब्रह्मचर्य का पालन आसानी से कर सकती है। नोट : • इस मुद्रा से शरीर में उष्णता बढ़ती है इसलिए इस मुद्रा के प्रयोग दरम्यान
प्रवाही याने पानी, फलों के रस, दूध, घी, छाछ, ज्यादा लेना चाहिए । पित्त प्रकृतिवाले यह मुद्रा ज्यादा न करें क्योंकि इससे पित्त बढता है, एसीडीटी बढ़ती है, अम्लता बढ़ती है, चक्कर आते है, गला सूखता है या शरीर में
जलन होती है। • पेट में अगर अल्सर हो तो यह मुद्रा न करें ।
यह मुद्रा तकलीफ हो तब तक ही करनी चाहिए ।
१४ योनिमुद्रा : दोनो हाथ नमस्कार मुद्रा में रखकर दोनो हाथों की तर्जनी के अग्रभाग मिलाकर रखना है, फिर दोनो मध्यमा को तर्जनी के ऊपर अंगूठे के पास रखना है । दोनो अंगूठे एक दूसरे के आसपास रखते हुए, दाहिने हाथ की अनामिका, बायें हाथ की कनिष्ठिका के अग्रभाग को लगाते हुए, दाहिने हाथ की कनिष्ठिका को बायें हाथ की अनामिका के अग्रभाग से लगा के योनिमुद्रा बनती है । लाभ: • यह मुद्रा करने से स्त्रीके योनि का आकार बनता है । इस मुद्रा से पुरुष ब्रह्मचर्य का पालन आसानी से कर सकते है ।
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१५ शंखमुद्रा : बायें हाथ के अंगूठे को दाहिने हाथ की हथेली पर रखकर दाहिने हाथ से बाएँ अँगूठे सहित मुठ्ठी बंद करके, बायें हाथ की तर्जनी के अग्रभाग को दाहिने हाथ के अंगूठे के अग्रभाग को मिलाकर, बायें हाथ की मध्यमा अनामिका और कनिष्ठिका, दाहिने हाथ की हथेली के पीछे की तरफ दाहिने अंगूठे के पास रखकर शंखमुद्रा बनती है। अंगुलियाँ के अग्रभाग के मिलने के स्थान में हल्का दबाव देना है । इस मुद्रा का आकार शंख की आकृति जैसा होता है । हाथ बदल के भी यह मुद्रा की जाती है। लाभ :
यह मुद्रा करने से अंगुलियाँ और अंगूठे के बीच में जो भाग खुला रहता है वहाँ शंख मुख जैसा आकार बनता है, वहाँ मुँह से शंख बजाते है इस तरह से ही बजाने से शंख जैसी आवाज निकलती है । इस शंखस्वर की ध्वनि से रोग का उपद्रव दूर होता है, अनिष्ट तत्वो का विसर्जन होता है और इष्ट तत्त्वों का सर्जन होता है। इस मुद्रा से थायराईड ग्रंथिके पाइन्ट दबते है इसलिए थायराईड रोग दूर होता है और थायराईड की तकलीफ से होने वाली पुरानी बीमारियाँ भी दूर हो सकती है। तेजसकेन्द्र (मणिपुरचक्र - नाभि) के ७२००० नाड़ियों की शुद्धि होती है । हटी हुई नाभि अपने स्थान में आती है । नाभि के पोइन्ट दबते है। पांचनतंत्र पर इस मुद्रा से असर होती है इसलिए सच्ची भूख लगती है और दोनो आंतो में से पुराना मल साफ होता है । वचन (वाणी) संबंधी कोई भी दोष इस मुद्रा से अच्छे होते है । हकलाना, तुतलाना और लकवे के बाद की अस्पष्ट वाणी में भी लाभदायक है।
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वाकचातुर्य वाणी की मधुरता और वचन स्पष्टता बढ़ती है इसलिए वक्ता, प्रोफेसर, शिक्षक, वकील, संगीत तजज्ञ जैसे व्यवसायी के लिए सहायक है। धूल या धुंआ की एलर्जी दूर होकर गला साफ होता है । गले के टोनसिल के
दोष दूर होते है। • स्नायुमंडल सशक्त बनता है। • आंत, पेट और पेडू के नीचे के भाग के विकार दूर करने शंखमुद्रा और
अपानमुद्रा साथ करनी चाहिए। नोंध : यह मुद्रा ठीक से जानकर बराबर करनी चाहिए क्योंकि यह मुद्रा अगर गलत
तरीके से हो तो थायरोईड के स्त्राव में गरबड होने से शरीर अशक्त हो सकता है या शरीर मोटा हो सकता है । अगर ऐसा हो तो यह मुद्राका प्रयोग बंध कर दे।
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१६ सहज शंखमुद्रा : दोनों हाथ की सभी अंगुलियाँ एक दुसरे में फँसाकर, दोनो हथेली परस्पर दबाते हुए, दोनो अंगूठे तर्जनी पर रखकर हल्का दबाव देते हुए एक दूसरे के साथ रखकर सहज शंखमुद्रा बनती है । सहज शंखमुद्रा वज्रासन में बैठकर मूलबंध लगाकर (गुदा के स्नायु अंदरकी ओर खिंचते हुए) १० मिनट प्राणायाम के साथ करने से विशेष और अवश्य लाभ होता है। लाभ : • वज्रासन, मूलबंध और सहजशंखमुद्रा साथ करने से शरीर की संवेदना और
प्रकंपनो का अनुभव होता है। शंखिनी नाडी शुरु होती है जिससे शक्ति उर्ध्वगामी बनती है। स्तंभनशक्ति और ब्रह्मचर्य की पुष्टी होती है । बालक होने की शक्यता बढ़ती है।
गुदा के स्नायु की कोई भी तकलीफ में लाभदायक है । • शंखमुद्रा के जैसे ही इससे भी शंख की ध्वनि की आवाज निकलती है और
इसके फायदे होते हैं। वचन, आवाज, पाचनशक्ति, पेट और आंत संबंधी सभी फायदे जो शंखमुद्रा
से मिलते है वह सभी, इस मुद्रा से भी मिलते हैं। • मेरुदंड सीधा रहता है और इसका लचीलापन कायम रहता है ।
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१७ ध्यान मुद्रा : पद्मासन में बैठकर अगर न हो सके तो सुखासन में बैठकर बायी हथेली पर दाहिनी हथेली रखकर दोनों अंगूठे एक दूसरे से मिलाकर नाभि के नीचे दोनो हाथ स्थापित करके ध्यानमुद्रा या वितराग मुद्रा बनती है । इस मुद्रा में दोनों अंगूठे मिलाने से अग्नि - उर्जा उत्पन्न होती है, अगर ध्यान में यह मुद्रा करने से ज्यादा उर्जा का अनुभव हो तो अंगूठे एक दूसरे को न मिलाते हुए एक अंगूठे पर दूसरे अंगूठे को रख सकते है । लाभ • ध्यान करते वक्त यह मुद्रा का प्रयोग खास तौर से सहायक है क्योंकि इससे
चंचलता दूर होकर एकाग्रता आती है और ध्यान में उच्च भूमिका जैसे समाधि
और आत्मसाक्षात्कार तक पहुँचने के लिए श्रेष्ठ मुद्रा है । सात्त्विक और वीतरागभाव और सात्त्विक विचारो का निर्माण होने से व्यक्ति का आभामंडल (ओरा) तेजोवलय, प्रभावशाली और शुद्ध बनता है। इस मुद्रा के प्रयोगसे शरीरके चारों ओर एक कवच का निर्माण होता है जिससे अनिष्ट तत्त्व साधना में बाधक नहीं बन सकते। पद्मासन में यह मुद्रा करने से मेरुदंड सीधा रहता है, जिससे सुषुम्ना नाडीका प्रवाह शुरू होकर व्यक्ति को उर्ध्वगामी बनाता है ।
इस मुद्रा से क्रोधी स्वभाव, शांत स्वभाव में परिवर्तन होता है । • मानसिक शांति मिलती है और विपरित संयोगो में मन स्वस्थ रहता है ।
स्नायुमंडल और शरीर के दूसरे अवयव भी सशक्त बनते हैं ।
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१८ बंधक मुद्रा :
दाहिने हाथ के अंगूठे को बायें हाथ के अंगूठे से पकड में लेकर दाहिना और बाया दोनो अंगूठे बाँये हाथ की मुठ्ठी से बंद करके, दाहिने हाथ की चारो अंगुलियाँ बायें हाथ की मुठ्ठी पर (बाये हाथ की तर्जनी के उपर) रखते हुए बंधकमुद्रा बनती है । इसमें बायें हाथ की पाँचो अंगुलियाँ और दाहिना अंगूठा बायें हाथ की मुट्ठी में बंद रहते है और दाहिने हाथकी चारों अंगुलियाँ इस तरह से बाये हाथ की मुठ्ठी पर रहती है कि इनके नाखून आसमान की ओर रहते है । यह मुद्रा वज्रासन या पद्मासन में बैठकर कलींग-कलींग बीजमंत्र के ध्वनि उच्चारण के साथ करने से पूरा लाभ मिलता है। यह मुद्रा सूर्योदय के पहले या सूर्यास्त के बाद ही करनी है क्योंकि इससे शरीर की उष्णता बढती है इसलिये सूर्य की हाजरी में नहीं करनी है। लाभ :
शरीर की उष्णता-ऊर्जा बढती है इसलिए शक्ति मिलती है। हृदय के कई रोग में बहुत लाभदायक है । इससे हृदय को इतनी शक्ति मिलती है कि नियमित ५ से १० मिनट करने से हृदय की कोई भी तकलीफ दूर होती है। उच्च रक्त चाप नियंत्रण में आता है। यह मुद्रा अंर्तमूर्हत में करने से अद्भूत शांति और शरीर में नई शक्ति का संचार अनुभव होता है । आध्यात्मिक दिशा में आगे बढ़ सकते है ।
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१९ पुस्तक मुद्रा : दोनों हाथो की चारो अंगुलियों के अग्रभाग को हथेली के अंगूठे का नीचे के भागपर (शुक्र पर्वत पर) इस तरह रखे कि तर्जनी का अग्रभाग अंगूठे के मूल पर लगे और तीनो, मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका उसके बराबर लगी हुई रहे और अंगूठा तर्जनी के मुडे हुए भाग पर रहे, चारो अंगुलियो के नाखून आसमान की और रखते हुए पुस्तक मुद्रा बनती है। लाभ :
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इस मुद्रा करने से अंगुलियाँ के अग्रभाग हथेली पर दबने से हथेली में धडकन शुरू होते हुए अंगुलियों मे भी धडकन का अनुभव होता है । इस मुद्रा का मस्तिष्क और उसके ज्ञानतंतु के साथ संबंध होने से मस्तिष्क के सुक्ष्म कोषे क्रियावंत बनते है जिससे एकाग्रता सधती है। विद्यार्थियों के लिए यह मुद्रा बहुत महत्त्व की है क्योंकि इससे वे एकाग्र बनकर पढ़ने में मन लगा सकते है और कम समय में ज्यादा विद्या ग्रहण कर सकते है। कोई भी पुस्तक (धार्मिक या कठिन हो ) जो जल्दी समझ में न आती हो तब पुस्तक मुद्रा करने के बाद पढ़ने से तुरंत समझ में आ जाता है। एकाग्रता और ज्ञान पाने की क्षमता का विकास होता है ।
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२० प्रज्वलिनी मुद्रा :
बायें हाथ की कोहनी के उपर के हिस्से पर दायें हाथ की कोहनी रखकर दाहिना हाथ इस तरह घुमाकर रखें कि दोनों हथेलियाँ एक दूसरे से मिले और दोनों अंगूठे नाक के सामने रहे और नजर दोनों अंगूठे पर एकाग्र करते हुए प्रज्वलिनी मुद्रा बनती है। हाथ बदल के भी यह मुद्रा की जाती है ।
लाभ:
यह मुद्रा करने से हाथ से गरुडासन होता है, जिस से गरुड जैसी तीक्ष्ण दृष्टि होती है और आँखों की रोशनी बढ़ती है।
• इस मुद्रा से एकाग्रता, ज्ञान और मेधाशक्ति का विकास होता है,
इसलिए विद्यार्थियों के लिए लाभदायक है । थोडे समय करने से भी लाभ मिलता है।
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२१ हार्टमुद्रा : दोनों हाथ की मध्यमा को मोडकर एक दूसरे से लगाकर, एक हाथ की तर्जनी के अग्रभाग को दूसरे हाथ की तर्जनी के अग्रभाग से मिलाकर, दोनों अनामिका के अग्रभाग को मिलाकर, दोनों कनिष्ठिका के अग्रभाग को मिलाकर, दोनों अंगूठे को एक दूसरे के आसपास रखकर, पहले धीरे-धीरे तर्जनी के अग्रभाग को अलग करके बाद में कनिष्ठिका को अलग करके फिर दोनो अंगूठे अलग करके और अनामिका के अग्रभाग को एक दूसरे से ही लगाकर और मोडी हुई मध्यमा को एक दुसरे से लगाए रखते हुए दबाव का अनुभव करते हुए हार्टमुद्रा बनती है ।
लाभ :
मध्यमा अंगुली आकाशतत्व का प्रतिनिधित्व करती है इसलिए हृदय के साथ उसका संपर्क और संबंध बनता है । इसलिए हृदय की कोई भी बीमारी में यह लाभदायक है। शांत चित्त से यह मुद्रा करने से अंगुलियों से हृदय तक के प्रकंपनो के अनुभव होते हैं। अन्जाईना पेईन, हायपर टेन्शन, रक्त दबाव, नाडी संस्थान की अस्त व्यस्तता
और बायपास करने के पहले और बाद की स्थिति में फायदा कारक है । हृदय के साथ तादात्म्य का अनुभव होता है, स्वयं में लीन रह सकते है और ध्यान में प्रगति होती है।
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२२ मृगी मुद्रा :
मध्यमा और अनामिका को एक दूसरे के पास रखते हुए, अंगूठे के अग्रभाग को वह दोनो अंगुलियों के मध्यभाग पर इस तरह रखें कि हल्का सा दबाव का अनुभव होते हुए तीनों अंगुलियों का स्पर्श बना रहे और तर्जनी और कनिष्ठिका सीधी रखते हुए मृगी मुद्रा बनती है। इस मुद्रा का आकार मृग जैसा बनता है । इसलिए इसे मृगी मुद्रा कहते है ।
लाभ :
•
मृग जैसी सहजता और सरलता आती है । अहंकार के भाव नष्ट होकर ऋजुता के भाव आते है जिस से व्यक्ति नम्र बनकर ईश्वराधीन रहता है। भावधारा सात्त्विक बनती है और चित्त की स्थिरता आती है जिस से आध्यात्मिक दिशा में आगे बढ़ सकते है। इस मुद्रा से दांत और सायनस के रोग में राहत मिलती है । सरदी के सिरदर्द में राहत मिलती है और मानसिक शांति मिलती है । यज्ञमे आहुति देने के वक्त यह मुद्रा करके आहुति मध्यमा और अनामिका के अग्रभाग पर रखकर दी जाती है।
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२३ हंसी मुद्रा :
तर्जनी, मध्यमा और अनामिका को एक दूसरे से लगाकर, अंगूठा मध्यमा के मध्य भाग पर इस तरह रखे कि अंगूठे का स्पर्श अनामिका और तर्जनी से भी हो, फिर अंगूठे से धीरे से दबाव देते हुए, कनिष्ठिका सीधी रखते हुए हंसीमुद्रा बनती है । इस मुद्रा करने से हंस के मुखका आकार बनता है इसलिए इसे हंसी मुद्रा कहते है।
लाभ :
• हंस के प्रतीकरुप जागृति आती है । • हलकेपन का एहेसास होता है । • यज्ञ में हंसीमुद्रा करके आहुति, मध्यमा के अग्रभाव पर रखकर दी जाती है।
इस से धन, धान्य, विजय और संपूर्ण पौष्टिक कर्म का फल मिलता है । नोट :
इस मुद्रा से राजसिक याने भौतिक शक्तियाँ बढ़ती है इसलिए इस मुद्रा के साथ मंत्र-जाप आदि करने का निषेध है ।
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२४ सुकरी मुद्रा :
पाँचो अंगुलियों के अग्रभाग को एक दूसरे से मिलाकर, अंगूठे के अग्रभाग (अंगूठे का नाखून) जमीन की और रहे और चारों अंगुलियों के नाखून आसमान की ओर रहे, याने हथेली के पीछे का हिस्सा मुँह की ओर रहते हुए सुकरी मुद्रा बनती है।
समन्वय या समानमुद्रा की तरह लेकिन विपरीत रूप से सुकरी मुद्रा बनती है।
इस मुद्रा से भुंड या सुव्वर के मुँह की तरह आकार बनता है इसलिये इसे सुकरीमुद्रा कहते है।
लाभ :
इस मुद्रा से पाँचो तत्वो के मिलन से इनका संतुलन एक ही जगह पर होने से मंत्रशक्ति के प्रयोग की शक्ति का कोई सामना नही कर पाता है।
यज्ञ दरम्यान अगर इस मुद्रा से आहुति दी जाती है तो खास ख्याल रखें कि या तो वह यज्ञ तांत्रिक विद्या, धारण, मारण या उचाटन के लिए किया जा रहा हो या व्यक्ति अज्ञानवश करता हो तो उसे समझाना चाहिए, नहीं तो यज्ञ का बुरा असर हो सकता है।
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२५.१ सुरभि मुद्रा :
नमस्कार मुद्रा में हाथ रखकर, एक हाथ की कनिष्ठिका के अग्रभाग को दूसरे हाथ की अनामिका के अग्रभाग से मिलाकर, ऐसे ही एक हाथ की तर्जनी को दूसरे हाथ की मध्यमा के अग्रभाग को लगा के (सभी अंगुलियाँ एक दूसरे के आमने-सामने मिलती है) दोनों अंगूठे एक दुसरे के आसपास रखते हुए सुरभि या धेनुमुद्रा बनती है । यह मुद्रा करने से गाय के आंचल जैसी आकृति बनती है । यह मुद्रा गोदुआसन में (पंजे के बल पर घुटने को मोडकर उसपर बैठकर यह आसन बनता है) श्रेष्ठ परिणाम देता है, नही तो वज्रासन, सुखासन या पद्मासन में भी कर सकते है। लाभ :
सुरभि जिसे कामधेनु भी कहा जाता है और जैसे कामधेनु इच्छित फल प्रदान करती है इस तरह सुरभि मुद्रा से इच्छित शक्ति प्राप्त की जाती है । वात-पित्त और कफ की प्रकृति का संतुलन होता है । नाभिकेन्द्र स्वस्थ होता है इसलिए शरीर के और पेट से संबंधी रोग शान्त
होते हैं। • ग्रंथि तंत्र के स्त्राव का संतुलन होता है। • चित्त की निर्मलता बढती है और योगसाधना में सहयोग मिलता है। • पाचन-क्रिया और अशुद्धि दूर करने की क्रिया में सहायक बनती है ।
शुभ संकल्प लेने के वक्त यह मुद्रा करने से संकल्प दृढ बनकर पूरा होता है। ध्यान करने के वक्त यह मुद्रा करने से ध्यानस्थ लोग को ब्रह्मनाद (दिव्यनाद) सुनाई देता है । दुन्यवी आवाज से दूर होकर इस नाद में लीन रह सकते है।
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इस मुद्रा से वायु और आकाश तत्त्व के संयोजन से ब्रह्मान्ड चक्र स्थिर होता है । पृथ्वी और जल तत्त्व के संयोजन से सर्जनशक्ति का विकास होता है। गायत्री मंत्र करते वक्त और यज्ञ में गौदान देने के वक्त यह मुद्रा महत्व की है। इस मुद्रा में अंगूठे के (अग्नितत्व) को अलग अलग स्थान पर रखने से उसके परिणाम भी अलग अलग आते है इसका विवरण १) जल सुरभि २) पृथ्वी सुरभि ३) शून्य सुरभि ४) वायु सुरभि मुद्रा में दिया गया है।
२५.२ जलसुरभि मुद्रा : सुरभि मुद्रा कर के दोनो अंगूठे के अग्रभाग को कनिष्ठिका के मूल भाग पर लगाने से जलसुरभि मुद्रा बनती है। लाभ: • इससे पित्त के संबंधी रोग में राहत मिलती है । इसलिए पित्त प्रकृति वाले के
लिए उपयोगी मुद्रा है। किडनी या मूत्र संबंधी दोषों में फायदा कारक है । जलसुरभि मुद्रा में जल और अग्नि तत्व का संयोजन होने से जल के बढ़ने या कमी के दोष में राहत मिलती है।
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२५. ३ पृथ्वीसुरभि मुद्रा
सुरभि मुद्रा करके दोनों अंगूठे के अग्रभाग को अनामिका के मूल भाग पर लगाकर पृथ्वी सुरभि मुद्रा बनती है।
लाभ :
•
•
पृथ्वीसुरभि मुद्रा में अग्नितत्त्व और पृथ्वीतत्त्व का संयोजन होने से पृथ्वीतत्त्व के बढ़ने के या कमी के रोग में राहत मिलती है ।
कफ प्रकृतिवाले के लिए उपयोगी मुद्रा है ।
पाचनक्रिया संबंधी या पेट के दर्द में लाभदायक है ।
इस मुद्रा से शक्तिशाली, जागृतवान बन सकते है और शरीर की जड़ता दूर होकर भारीपन दूर होता है ।
पृथ्वी सुरभि मुद्रा नियमित करने से षट्चक्र का भेदन होता है । यह मुद्रा करने के बाद तुरंत ज्ञानमुद्रा करनी चाहिए जिस से शक्ति उत्पन्न होने के बाद उर्ध्वगामी बन सके ।
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२५.४ शून्यसुरभि मुद्रा
सुरभिमुद्रा कर के दोनों अंगूठे के अग्रभाग को मध्यमा के मूल पर लगाकर बनती मुद्रा का नाम शून्य सुरभि मुद्रा है।
लाभ:
अंगूठे के अग्नितत्व का मध्यमा के आकाश तत्त्व के साथ संयोजन होने से बाह्य वातावरण से दूर होकर अंतर्मुखी बन सकते है ।
• नियमित अभ्यास से योगी, ब्रह्मनाद स्पष्टता से सुनकर उस में लीन रहता है।
शान्ति-आनंद-प्रफुल्लता के भाव का विकास होता है।
•
कान के कोई भी दर्द में राहत मिलती है।
इस मुद्रा का नियमित अभ्यास से साधक अपनी आंतरसमृध्धि बढ़ाकर विश्व के कोलाहल से दूर होकर अपने में ही लीन रहता है ।
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२५.५ वायुसुरभि मुद्रा सुरभि मुद्रा कर के दोनो अंगूठे के अग्रभाग को दोनो तर्जनी के मूल पर लगा कर वायु सुरभि मुद्रा बनती है। लाभ : • वायुसुरभि मुद्रा में वायु और अग्नि तत्त्व का संयोजन होने से वायु के दर्द में
राहत मिलती है। • मन की चंचलता दूर होकर स्थिरता प्राप्त होती है । • ध्यान के जप करनेवाले योगी के लिए महत्त्व की मुद्रा है । नोट : • सुरभिमुद्रा और इसके अलग अलग प्रकार बहुआयामी मुद्राएं है जिससे कईबार
विरोधी परिणाम आते है जैसे वायु का शमन होता है तो उष्णता बढ़ जाती है या वात के रोग दूर हो तो पेट या मूत्र के रोग की पीडा बढ़ जाती है, जल तत्त्व के रोग दूर हो तो पाचनक्रिया के रोग बढ जाते है । इसलिए प्रयोग करने वाले व्यक्ति को अपनी प्रकृति को समझकर परिणाम के अभ्यास को देखकर यह मुद्रा करनी चाहिए। यह मुद्रा करते वख्त समयसीमा का खास ख्याल रखना चाहिए । पहले २-२ मिनिट से शुरुकर अपनी प्रकृति के अनुसार और परिणाम के अनुसार ज्यादा समय कर सकते है।
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२६ आशीर्वाद मुद्रा : आशीर्वाद देते हो उस तरह से हाथ की सभी अंगुलियों को सीधी और एक दूसरे से लगाकर, अंगूठे को तर्जनी के पास रखकर दूसरे के सिर पर दोनो हाथ रखकर आशीर्वाद मुद्रा बनती है।
लाभ :
इस मुद्रासे पाँचो तत्वों से मिलती शक्ति का संयोजन होने से वह शक्ति आशीर्वाद के द्वारा दूसरे व्यक्ति में प्रदान की जाती है।
२७ नमस्कार मुद्रा : दोनों हाथ की कोहनी और दोनों हाथ के मणिबंध मिलाकर, (दोनो हाथ के मणिबंध के बीच हो सके इतनी जगह कम कर के) सभी अंगुलियाँ एकदूसरे के आमने सामने मिलाकर याने एक तर्जनी के अग्रभाग को दूसरी तर्जनी के अग्रभाग को मिलाकर ऐसे ही दोनो मध्यमा को, दोनों अनामिका और दोनो कनिष्ठिका के अग्रभाग को और दोनो अंगूठे के अग्रभाग को मिलाकर नमस्कार मुद्रा बनती है । लाभ: • यह मुद्रा जो ठीक से हो सके तो सभी मुद्राओं का लाभ एक साथ मिलता है। • यह मुद्रा शांतचित्त से करने से शरीर के प्रकंपनो के अनुभव होते हैं ।
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पंच परमेष्ठी नमस्कार मुद्राएँ शरीर की मुद्राओं से अतंर के भाव प्रगट होते हैं । विद्यायक मुद्राओं के अभ्यास से विद्यायक भाव का निर्माण होता है और निषेधात्मक भावो से दूर होकर इच्छित चरित्र का निर्माण होता है । पंच परमेष्ठी नमस्कार मुद्राओं से व्यक्ति अपने सामर्थ्य का विकास कर सकते है । हर एक व्यक्ति के अंदर बीज के रुप में अर्हता समायी हुई है । यह अर्हता माने अनंत ज्ञान, अनंत आनंद और अनंत शक्ति । इस अर्हता के जागरण के लिए पंच परमेष्ठी मुद्राएं एक सक्षम उपाय है ।
यह मुद्राएं बच्चे को नियमित करवाने से उनका चरित्र उच्च कक्षा का बनता है, शारीरिक दृष्टि से शरीर मजबूत और शक्तिशाली बनता है और विद्या ग्रहण करने की क्षमता बढ़ती है। पंच परमेष्ठी की पाँच मुद्राओं के नाम है :
१) अर्हमुद्रा २) सिद्ध मुद्रा ३) आचार्य मुद्रा ४) उपाध्याय मुद्रा
५) मुनि मुद्रा। यह पाँचो मुद्राऐं पद्मासन, वज्रासन के सुखासन में कर सकते हैं । खडे होकर भी कर सकते है और इससे ज्यादा लाभ होता है।
यह मुद्राएं करने के वक्त शरीर स्थिर, सीधा और तनावमुक्त रखें ।
हरएक मुद्रा के शुरु करने के वक्त दोनो हाथों को नमस्कार मुद्रा में, आनंदकेन्द्र हृदय के पास रखें । चित्त को एकाग्र कर के श्वास छोडते वक्त लयबद्ध गुंजारव सहित हरएक मुद्रा के दिये हुए मंत्र या ॐ या अपने इच्छानुसार मंत्र का उच्चारण करें।
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२८.१ अहमुद्रा :
मंत्र : ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं विधि : मंत्र बोलकर नमस्कार की स्थिति में दोनों हाथो की सभी अंगुलियों के अग्रभाग और दोनों हथेलियों को परस्पर मिलाकर थोडा सा दबाव देते हुए, श्वास भरकर, वही स्थिति में हाथों को कान के स्पर्श करते हुए हो सके इतना ऊँचा उठाकर श्वास थोडी सेकंड रोके, और फिर धीरेधीरे श्वास छोड़ते हुए नमस्कार मुद्रा में ही हाथो को आनंदकेन्द्र के पास पूर्वस्थिति में रखें । आध्यात्मिक लाभ : • अर्हमुद्रा से वीतरागभाव का निर्माण होता है, जिस से प्रिय-अप्रिय, राग-द्वेष के
भाव दूर होकर स्थितप्रज्ञता आती है।
अर्हता माने अनंत शक्ति बढ़ती है। शारीरिक लाभ : • पेट, छाती, पसलियाँ और मेरुदंड की सक्रियता बढती है ।
अड्रीनल और थायमस ग्रंथि के स्त्राव संतुलित होते हैं।
अंगुलियाँ, हथेली, मणीबंध और कंधे सशक्त बनते हैं। • शरीर के विजातीय द्रव्यों का विसर्जन होता है। • जडता और आलस्य दूर होकर स्फूर्ति का अनुभव होता हैं ।
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२८.२ सिद्धमुद्रा : मंत्र : ॐ ह्रीं णमो सिध्धाणं विधि : मंत्र का उच्चारण करके दोनो हाथो की अंगुलियों के अग्रभाग और हथेलियों को मिलाकर थोडा सा दबाव देते हुए श्वास भर कर हाथो को नमस्कार मुद्रा में ही उपर सीधा ले जाते हुए हथेलियों को खोलकर सिद्धशिला का आकार देते हुए, दोनो मणिबंध को एक दूसरे से मिलाकर श्वास को कुछ सेकंड रोके फिर धीरेधीरे श्वास छोडते हुए पूर्वस्थिति में आ जाये ।। आध्यात्मिक लाभ : • सिद्धमुद्रा पूर्ण स्वतंत्रता का प्रतीक है, इसलिए इस मुद्रा के अभ्यास से स्वतंत्र
व्यक्तित्व का निर्माण होता है। सिध्धि के द्वार खुलते है। अप्रमादकेन्द्र (कान) पर विशेष प्रभाव होने से प्रमाद दूर होकर स्फूर्ति और
जागृति आती है। शारीरिक लाभ : • अर्हमुद्रा के सभी लाभ मिलते है ।
इनके अलावा हथेली, हाथ, मणिबंध में लचीलापन आता है और वे पुष्ट बनते हैं।
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२८. ३ आचार्य मुद्रा :
मंत्र : ॐ ह्रीं णमो आयरियाणं
विधि : मंत्र का उच्चारण करते हुए दोनो हाथ कंधे के पास रखते हुए दोनों हथेलियाँ खोलकर, अंगूठे का स्पर्श कंधे को हो इस तरह रखकर श्वास थोडी सेकंड रोक कर और फिर धीरे-धीरे श्वास छोड़ते हुए हाथ पूर्वस्थिति में लायें ।
आध्यात्मिक लाभ :
आचार्य मुद्रा से श्रध्धा और समर्पण के भाव प्रगट होते हैं। हाथ जोडते हुए विनय और श्रध्धा के भाव और हाथ खोलते हुए समर्पण के भाव प्रगट होते है ।
यह मुद्रा के अभ्यास से शुध्ध आचरण के प्रति जागृतता आती है । आत्मविश्वास बढकर निर्भयता के भाव का निर्माण होता है ।
शारीरिक लाभ :
इस मुद्रा से कंधे, छाती, पीठ और श्वसन तंत्र के सभी अवयव क्रियाशील बनते हैं ।
हथेलियाँ, अंगुलियाँ और हाथ की सभी मांसपेशियाँ सक्रिय बनती हैं।
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२८.४ उपाध्याय मुद्रा : मंत्र : ॐ ह्रीं णमो उवज्झायाणं विधि : मंत्र का उच्चारण कर के श्वास भरते हुए दोनों हाथ सीधे ऊपर की ओर ले जाकर दोनों हथेलियों को आसमान की ओर खोलकर दोनो अंगूठे के अग्रभाग और दोनों तर्जनी के अग्रभाग को मिलाकर थोडी सेकंड श्वास रोककर आसमान की और अपलक दृष्टि रखकर फिर धीरे-धीरे श्वास छोडते हुए पूर्व स्थिति में आयें। आध्यात्मिक लाभ : • इस मुद्रा के अभ्यास से स्वाध्याय वृति और अध्ययन वृति के प्रति रुचि बढती
है। विद्या ग्रहण करने की शक्ति बढती है । • विकार और विजातीय द्रव्यों का विसर्जन होता है। • विनय का विकास और हृदय की विशालता बढती है। शारीरिक लाभ : • इस मुद्रा से गर्दन के दर्द दूर होते है । • आँखों की रोशनी और दृष्टि की तीक्ष्णता बढ़ती है।
थायराईड, पेराथायराईड, पिच्युटरी, पिनियल और थायमस ग्रंथियों के स्त्राव संतुलित होते है।
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२८.५ मुनि मुद्रा : मंत्र : ॐ ह्रीं णमो लोए सव्वसाहूणं विधि : मंत्र का उच्चारण कर के श्वास भरते हुए नमस्कार मुद्रा में हाथो को कान से स्पर्श करते हुए, हो सके उतना ऊँचा उठाएँ, कुछ सेकंड श्वास रोकते हुए अंजलि बनाकर फिर धीरेधीरे श्वास छोडते हुए, अंजलि बनाये हुए हाथो को जमीन से लगाकर, सिर झुकाते हुए श्वास को कुछ सेकंड के लिए रोकें और फिर श्वास को भरते हुए दोनों हाथों को ऊपर लेकर कुछ सेकंड श्वास रोकें और फिर श्वास छोडते हुए पूर्वस्थिति में आयें। आध्यात्मिक लाभ : • मुनि मुद्रा से समता और सहिष्णुता के भाव की वृध्धि होती है। • हरएक के प्रति मैत्री और करुणा के भाव आते है। • अहंकार की भावना दूर होकर मृदुता - ऋजुता के भाव आते है । शारीरिक लाभ : • अर्हमुद्रा के सभी लाभ के अलावा द्वेष और इर्ष्या से होते हुए मानसिक रोग
से मुक्ति मिलती है।
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हठयोगकी मुद्राऐं आध्यात्मिक दिशा में आगे बढ सके और ध्यान में साधक प्रगति पा सके इसके लिए हठयोग की थोडी सरल मुद्राएं ध्यान के गहरे अभ्यासी श्री. रमेशजी अग्रवाल के निर्देशन में यहां प्रस्तुत की है।
इस मुद्रा के अभ्यास से ध्यान के अनुकूल मनोस्थिति निर्माण होकर ध्यान के उच्च स्तर तक पहुंचा जा सकता है।
इसका संदर्भ और आधार गोरक्ष पद्धति, शिवसंहिता, धरेण्डसंहिता और हठयोग प्रदीपिका में से लिए गये है।
इस मुद्रा के करते समय जिस बंध का उल्लेख है इसकी जानकारी इस तरह से है : १ उड्डीयान बंध : श्वसनतंत्र में से पूरा श्वास निकालकर पेट को मेरुदंड की ओर
संकोचन करते हुए, श्वास को बाहर ही रोककर उड्डीयान बंध होता है । जालंदर बंध : नाक के द्वारा श्वास भर के, थुड्डी को कोलरबोन के बीच में लगाकर, रोके हुए श्वास को बाहर न निकलने देते हुए, थोडा दबाव दिया जाता
है, इस क्रिया को जालंदर बंध या कोकमुद्रा कहते है। ३ मूलबंध : श्वास पूरा बाहर निकालकर गुदा के स्नायु को ऊपर की ओर खींचते
हुए मूलबंध होता है । यह सभी मुद्राएं करते वखत चित्त को आज्ञाकेन्द्र (दर्शनकेन्द्र) दो भकृटिओं के बीच स्थापित करना है।
२९.१ महामुद्रा : बाये पैर के घुटने को मोडकर एडी से योनिमार्ग (शीवनी) पर दबाव देते हुए, दाहिना पैर फैलाकर जमीन से लगाकर रखें । फिर दोनों हाथो से दाहिने पैर की एडी के ऊपर के हिस्से को पकडना है, अगर एडी को न पकड सके तो घुटना और पैर के तलवे के बीच का हिस्सा पकडकर संकल्प से नव द्वार (दो आँख, दो कान, दोनो नासिकाएँ, जालंदर, उड्डीयान और मूलबंध) बंद कर के महामुद्रा बनती है । फिर यही क्रिया दूसरे पैर से करे ।
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लाभ: • सभी नाडियों का संचालन अच्छी तरह से होता है। • जठराग्नि प्रज्वलित होकर, पाचनक्रिया व्यवस्थित होती हैं ।
क्षय और कुष्ठरोग में फायदा होता है। • क्लेश और कषाय दूर होकर शरीरकी कान्ति बढती है । • इन्द्रियो के माध्यम बंध होने से वृतियाँ शांत होती हैं । २९.२ महाबंध मुद्रा : बाये पैर को घुटने से मोडकर एडी से योनिमार्ग (शीवनी) पर दबाव देते हुए, दाहिना पैर घूटने से मोडकर, बाये पैर के जंघापर रखते हुए, मेरुदंड सीधा रखते हुए, नवद्वार बंध कर के महाबंधमुद्रा बनती है । लाभ: • सभी नाडियों का संचालन ठीक तरह से होता है । • प्राणवायु का उर्ध्वगमन होता है। • प्राण का प्रवाह (सुषुम्ना) नाडी में शुरू होता है । २९.३ महावेद मुद्रा : पद्मासन कर के, मूलबंध कर के, दोनों हाथ की हथेलियों को जमीन पर थापे के पास रखकर, मेरुदंड सीधा रखते हुए हाथो को सीधा याने कोहनी को बिना मोडे जमीन पर ताड़न करे । ताड़न याने पालथी लगाकर जमीन पर ४-५ बार लगायें यह ताड़न महाबंध मुद्रा में ज्यादा लाभदायक होता है लेकिन इस मुद्रा में मूलबंध नहीं होता है। लाभ: • त्वचा की स्थिति स्थापकता ज्यादा लम्बे अरसे तक रहती है । • बाल जल्दी सफेद नहीं होते है ।
वृध्धावस्था के कंपन से बच सकते है ।
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२९.४ खेचरी मुद्रा : खेचरी मुद्रा वैसे तो बहुत कठिन मुद्रा है पर यहां दी गयी इस मुद्रा से भी कुछ फायदे जरुर होते हैं । इस मुद्रा में जिह्वा को उलट कर कंठ के मूल पर जो घांटी है उसपर लगाकर, दृष्टि को नाक पर आज्ञाचक्र (दर्शनकेन्द्र) पर अपलक रखते हुए खेचरी मुद्रा बनती है । यह मुद्रा करते वखत उदानमुद्रा और आंतरिक रुप से हम् का मौन उच्चारण करने से ज्यादा लाभ होता है। लाभ: • भूख - प्यास पर नियंत्रण होता है । • मरणतुल्य कष्ट दूर होते है। • एकाग्रता सघती है। • निर्विकल्प दशा में लीन हो सकते है ।
२९.५ सर्वेन्द्रिय मुद्रा : पद्मासन, सुखासन या सिध्धासन में बैठकर, दोनो अंगूठे से दोनो कान के द्वार बंध कर के दोनो तर्जनी से दोनो आँखे बंधकर के, दोनों मध्यमा से दोनों नासिकाएँ बंध करके, दोनों अनामिका को होठ के उपर रखते हुए, दोनों कनिष्ठिका को होठ के नीचे सहज दबाव देते हुए, जालंदर, उड्डीयान और मूलबंध करते हुए सर्वेन्द्रिय मुद्रा बनती है। लाभ : • इन्द्रियो की वृति शांत होकर, चंचलता दूर होकर, ध्यान में लीन हो • सकते है। अंतरमुखी बनने से आंतरिक चेतना जागृत होती है। ज्योतिकेन्द्र पर बंध आंखो से सफेद रंग का अनुभव होता है । आवेश-आवेग शांत होकर, पूर्ण शांति का अनुभव होता है ।
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शांति केन्द्र
ज्योति केन्द्र.
दर्शनकेन्द्र
चक्षु
केन्द्र
प्राण केन्द्र
विशुद्धि केन्द्र
आनंद केन्द्र
तेजस केन्द्र
स्वास्थ्य केन्द्र
शक्ति केन्द्र
परिशिष्ट - १ मानव शरीर के चेतना केन्द्र
ज्ञान केन्द्र
पिनियल ग्लान्ड पिच्युटरी ग्लान्ड
पेथाईरोड ग्लान्ड
थाईराईड ग्लान्ड
थायमस ग्लान्ड
. अड्रीनल ग्लान्ड
सुषुम्ना नाडी
गोनाल्ड
मेरूदंड
चेतना केन्द्र के अंतस्त्रावी ग्रंथियाँ और सुषुम्ना नाडी से
उसका संबंध
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परिशिष्ट - २
अ, आ अनिद्रा अविनय कम करने आवाज संबंधी असहिष्णुता हटाने अस्थमा आत्मख्यापन हटाने आलस्य हटाने एकाग्रता बढाने
ज्ञानमुद्रा, प्राणमुद्रा हंसीमुद्रा, मृगीमुद्रा, पंचपरमेष्ठी मुद्राएं शंखमुद्रा, सहजशंखमुद्रा ज्ञानमुद्रा, मृगीमुद्रा, हंसीमुद्रा, मुनिमुद्रा सुर्यमुद्रा, लिंगमुद्रा ज्ञानमुद्रा, ज्ञानवैराग्यमुद्रा, ध्यानमुद्रा पृथ्वीमुद्रा, प्राणमुद्रा, पंचपरमेष्ठी मुद्राएं ज्ञानमुद्रा, प्राणमुद्रा, पंचपरमेष्ठी, प्रज्वलिनीमुद्रा, पुस्तकमुद्रा
आकाशमुद्रा, अपानवायुमुद्रा, हार्टमुद्रा लिंगमुद्रा, शंखमुद्रा
अपानवायुमुद्रा, अपानमुद्रा प्राणमुद्रा, प्रज्वलिनीमुद्रा, उपाध्याय मुद्रा
अन्जाईना पेइन
एलर्जी
असीडीटी आंख के रोग
ज्ञानमुद्रा, ध्यानमुद्रा, मृगीमुद्रा, हंसीमुद्रा, मुनिमुद्रा
ईर्षा दूर करने उ, ऊ उन्माद कम करने उत्तेजना कम करने उर्जाशक्ति बढाने उबासी उल्टी क, ख
ज्ञानमुद्रा ज्ञानमुद्रा, ध्यानमुद्रा सूर्यमुद्रा, प्राणमुद्रा, बंधकमुद्रा, लिंगमुद्रा आदितिमुद्रा अपानमुद्रा, अपानवायुमुद्रा
कफ
सूर्यमुद्रा, लिंगमुद्रा, सुरभिमुद्रा, पृथ्वीसुरभि मुद्रा
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सूर्यमुद्रा, लिंगमुद्रा, शंखमुद्रा, सहजशंखमुद्रा आकाशमुद्रा, शून्यमुद्रा, शून्यसुरभि मुद्रा
कब्ज कान के दर्द कामवृत्ति कम करने
पुरुषों के लिए स्त्रियों के लिए
कीडनी
केम्पस क्रूरता कम करने क्रोध दूर करने खुजली खाँसी ग, घ गर्दन के दर्द गुदा के स्नायु के दर्द गेस्ट्रोएन्ट्राइसीस
योनिमुद्रा, सहजशंखमुद्रा लिंगमुद्रा, सहजशंखमुद्रा अपानमुद्रा, अपानवायुमुद्रा, किडनीमुद्रा, जलसुरभिमुद्रा प्राणमुद्रा, वरुणमुद्रा ज्ञानमुद्रा, मृगीमुद्रा, हंसीमुद्रा, ध्यानमुद्रा, मुनिमुद्रा ज्ञानमुद्रा, ध्यानमुद्रा, मुनिमुद्रा वरुणमुद्रा सूर्यमुद्रा, लिंगमुद्रा
वायुमुद्रा, नमस्कारमुद्रा, उपाध्यायमुद्रा अपानवायुमुद्रा, सहजशंखमुद्रा वरुणमुद्रा ज्ञानमुद्रा, प्राणमुद्रा, पंचपरमेष्ठी मुद्राएं वायुमुद्रा, अपानमुद्रा, अपानवायुमुद्रा
ग्रंथीतंत्र
घुटनों के दर्द च, छ चिन्ता दूर करने चिडचिडापन छींक, उबासी ज, झ
ज्ञानमुद्रा, ध्यानमुद्रा, पंचपरमेष्ठी मुद्राऐं ज्ञानमुद्रा, ध्यानमुद्रा, पंचपरमेष्ठी मुद्राएं आदितिमुद्रा
जलन
जडता दूर करने जबडा का जकड जाना
अपानमुद्रा, वरुणमुद्रा प्राणमुद्रा, पंचपरमेष्ठीमुद्राएं आकाशमुद्रा
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जलंदर जागृतता बढाने जुकाम ट, ठ, ड, ढ, ण
जलोदरनाशक मुद्रा, जलसुरभि मुद्रा आकाशमुद्रा, प्राणमुद्रा सूर्यमुद्रा, लिंगमुद्रा, आचार्यमुद्रा
टी.बी.
टोन्सील ठंड दूर करने डायबिटीस डायारिया डीहाईड्रेशन त, थ, द तनाव दूर करने
सूर्यमुद्रा, लिंगमुद्रा उदानमुद्रा, शंखमुद्रा लिंगमुद्रा, सूर्यमुद्रा प्राणमुद्रा के साथ अपानमुद्रा, मुनिमुद्रा वायुमुद्रा, अपानमुद्रा वरुणमुद्रा
तम्मर दूर करने त्वचा के दर्द
थकान
ज्ञानमुद्रा, सूर्यमुद्रा, ध्यानमुद्रा, उदानमुद्रा, अर्हमुद्रा, शून्यसुरभिमुद्रा शून्यमुद्रा वरुणमुद्रा, जलसुरभिमुद्रा प्राणमुद्रा, पृथ्वीमुद्रा सूर्यमुद्रा, शंखमुद्रा, सहजशंखमुद्रा, उदानमुद्रा सूर्यमुद्रा, लिंगमुद्रा वरुणमुद्रा पृथ्वीमुद्रा, प्राणमुद्रा आकाशमुद्रा, अपानमुद्रा, मृगीमुद्रा
थायरोईड दमा दादर दुर्बलता
दांत
घ, न ध्यान में प्रगति
ज्ञानमुद्रा, ध्यानमुद्रा, तत्त्वज्ञानमुद्रा, ज्ञानध्यानमुद्रा, ज्ञानवैराग्य मुद्रा बोधिसत्त्वमुद्रा, प्राणमुद्रा, आकाशमुद्रा, उदानमुद्रा शंखमुद्रा, अपानमुद्रा, सहजशंखमुद्रा
नाभि के दर्द
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नाडी शुधि के लिए निराशा दूर करने
न्युमोनिया
प, फ,
प्लुरसी पाचनशक्ति
पल्सरेट
पाईल्स
ब
पारकीन्सन
प्राणशक्ति विकास
पेरेलिसीस
पोलियो
पित्त
पैर का दर्द
प्यास बुझाना
फीट (मुरछा) ब्लडप्रेशन (उच्च)
ब्लडप्रेशर (निम्न )
बैचेनी
ब्रह्मचर्य
भ, म
भय दूर करने भाव शुधि
भूख- नियंत्रण भुखार दूर करने
प्राणमुद्रा, शंखमुद्रा, सहजशंखमुद्रा
ज्ञानमुद्रा, प्राणमुद्रा, सुरभिमुद्रा, पंचपरमेष्ठीमुद्रा सूर्यमुद्रा, लिंगमुद्रा
सूर्यमुद्रा, लिंगमुद्रा
सूर्यमुद्रा, लिंगमुद्रा, शंखमुद्रा, सहजशंखमुद्रा,
सुरभिमुद्रा, पंचपरमेष्ठी मुद्रा
आकाशमुद्रा, अपानवायुमुद्रा
सहजशंखमुद्रा
वायुमुद्रा, प्राणमुद्रा
प्राणमुद्रा
वायुमुद्रा, प्राणमुद्रा
वायुमुद्रा, प्राणमुद्रा
सुरभिमुद्रा
प्राणमुद्रा
वरुणमुद्रा, प्राणमुद्रा
वरुणमुद्रा, सुरभिमुद्रा, पृथ्वीसुरभिमुद्रा
आकाशमुद्रा, प्राणमुद्रा, अपानमुद्रा, हार्टमुद्रा
आकाशमुद्रा, प्राणमुद्रा, अपानमुद्रा
ज्ञानमुद्रा, वायुमुद्रा, अपानवायुमुद्रा, प्राणमुद्रा सहजशंखमुद्रा
ज्ञानमुद्रा, अभयज्ञानमुद्रा, सिध्धमुद्रा, आचार्यमुद्रा ज्ञानमुद्रा, प्राणमुद्रा, आकाशमुद्रा, ध्यानमुद्रा, मृगीमुद्रा, सुरभिमुद्रा, पंचपरमेष्ठीमुद्रा
प्राणमुद्रा
अपानवायुमुद्रा
५६
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मलमूत्र संबंधी मस्तिष्क संबंधी माईग्रेन (आधाशीशी) मानसिक रोग मासिक धर्म मेरूदंड
अपानवायुमुद्रा, अपानमुद्रा, उपाध्यायमुद्रा ज्ञानमुद्रा, ध्यानमुद्रा, पंचपरमेष्ठीमुद्राऐं ज्ञानमुद्रा, अपानमुद्रा ज्ञानमुद्रा, प्राणमुद्रा, पंचपरमेष्ठीमुद्राएँ अपानमुद्रा, शंखमुद्रा वायुमुद्रा, व्यानमुद्रा, सहजशंखमुद्रा, ध्यानमुद्रा, नमस्कारमुद्रा, पंचपरमेष्ठीमुद्राएं
ज्ञानमुद्रा, पुस्तकमुद्रा, प्रज्वलिनीमुद्रा वरुणमुद्रा, प्राणमुद्रा, अपानमुद्रा वरुणमुद्रा, प्राणमुद्रा प्राणमुद्रा
य, र यादशक्ति विकास रक्तविकार रक्तपरिभ्रमण रोग प्रतिकारशक्ति ल, व लिवर वजन बढाने वजन कम करने वात के दर्द
सूर्यमुद्रा, शंखमुद्रा, सहजशंखमुद्रा, मुनिमुद्रा पृथ्वीमुद्रा सूर्यमुद्रा, लिंगमुद्रा, पृथ्वीसुरभिमुद्रा वायुमुद्रा, अपानवायुमुद्रा, सुरभिमुद्रा, वायुसुरभिमुद्रा वायुमुद्रा, अपानमुद्रा, अपानवायुमुद्रा प्राणमुद्रा
वायुविकार विटामीन्स की कमी में स, श, ष सरवाईकल स्पोंडिलाईसीस सरलता का विकास सायटिका
वायुमुद्रा, प्राणमुद्रा ज्ञानवैराग्यमुद्रा, मृगीमुद्रा, हंसीमुद्रा, मुनिमुद्रा वायुमुद्रा, प्राणमुद्रा
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स्नायुतंत्र की सशकता
सायनस
सूजन दूर करने
स्फूरणा शक्ति
सोरायसीस
सिरदर्द
स्तंभनशक्ति के लिए स्नायु के खींचावमें
शक्ति बढाने
शारीरिक दुर्बलता दूर करने
शरीर के विष दूर करने
स्त्रीरोग
ह, क्ष, ज्ञ
हृदयरोग के लिए
हार्टअटॅक के वख्त
हार्टबीटस का चूकना
हड्डियों में दर्द
हकलाना
हाथीपगा
हिचकी
ज्ञानशक्ति विकास
प्राणमुद्रा, ज्ञानमुद्रा, ध्यानमुद्रा, शंखमुद्रा सूर्यमुद्रा, लिंगमुद्रा
जलोदरनाशकमुद्रा
आकाशमुद्रा
वरुणमुद्रा, अपानमुद्रा
अपानवायुमुद्रा
सहजशंखमुद्रा
वरुणमुद्रा, प्राणमुद्रा
पृथ्वीमुद्रा, प्राणमुद्रा, बंधकमुद्रा
पृथ्वीमुद्रा, प्राणमुद्रा
अपानमुद्रा, अपानवायुमुद्रा
सहजशंखमुद्रा, शंखमुद्रा, अपानमुद्रा, लिंगमुद्रा
आकाशमुद्रा, अपानवायुमुद्रा, हार्टमुद्रा, प्राणमुद्रा,
बंधकमुद्रा
अपानवायुमुद्रा
अपानवायुमुद्रा
आकाशमुद्रा
शंखमुद्रा
जलोदरनाशक
अपानमुद्रा, अपानवायुमुद्रा
ज्ञानमुद्राऐं, पुस्तकमुद्रा, प्रज्वलिनी मुद्रा,
पंचपरमेष्ठीमुद्राऐं
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