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२५.१ सुरभि मुद्रा :
नमस्कार मुद्रा में हाथ रखकर, एक हाथ की कनिष्ठिका के अग्रभाग को दूसरे हाथ की अनामिका के अग्रभाग से मिलाकर, ऐसे ही एक हाथ की तर्जनी को दूसरे हाथ की मध्यमा के अग्रभाग को लगा के (सभी अंगुलियाँ एक दूसरे के आमने-सामने मिलती है) दोनों अंगूठे एक दुसरे के आसपास रखते हुए सुरभि या धेनुमुद्रा बनती है । यह मुद्रा करने से गाय के आंचल जैसी आकृति बनती है । यह मुद्रा गोदुआसन में (पंजे के बल पर घुटने को मोडकर उसपर बैठकर यह आसन बनता है) श्रेष्ठ परिणाम देता है, नही तो वज्रासन, सुखासन या पद्मासन में भी कर सकते है। लाभ :
सुरभि जिसे कामधेनु भी कहा जाता है और जैसे कामधेनु इच्छित फल प्रदान करती है इस तरह सुरभि मुद्रा से इच्छित शक्ति प्राप्त की जाती है । वात-पित्त और कफ की प्रकृति का संतुलन होता है । नाभिकेन्द्र स्वस्थ होता है इसलिए शरीर के और पेट से संबंधी रोग शान्त
होते हैं। • ग्रंथि तंत्र के स्त्राव का संतुलन होता है। • चित्त की निर्मलता बढती है और योगसाधना में सहयोग मिलता है। • पाचन-क्रिया और अशुद्धि दूर करने की क्रिया में सहायक बनती है ।
शुभ संकल्प लेने के वक्त यह मुद्रा करने से संकल्प दृढ बनकर पूरा होता है। ध्यान करने के वक्त यह मुद्रा करने से ध्यानस्थ लोग को ब्रह्मनाद (दिव्यनाद) सुनाई देता है । दुन्यवी आवाज से दूर होकर इस नाद में लीन रह सकते है।
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