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इस मुद्रा से वायु और आकाश तत्त्व के संयोजन से ब्रह्मान्ड चक्र स्थिर होता है । पृथ्वी और जल तत्त्व के संयोजन से सर्जनशक्ति का विकास होता है। गायत्री मंत्र करते वक्त और यज्ञ में गौदान देने के वक्त यह मुद्रा महत्व की है। इस मुद्रा में अंगूठे के (अग्नितत्व) को अलग अलग स्थान पर रखने से उसके परिणाम भी अलग अलग आते है इसका विवरण १) जल सुरभि २) पृथ्वी सुरभि ३) शून्य सुरभि ४) वायु सुरभि मुद्रा में दिया गया है।
२५.२ जलसुरभि मुद्रा : सुरभि मुद्रा कर के दोनो अंगूठे के अग्रभाग को कनिष्ठिका के मूल भाग पर लगाने से जलसुरभि मुद्रा बनती है। लाभ: • इससे पित्त के संबंधी रोग में राहत मिलती है । इसलिए पित्त प्रकृति वाले के
लिए उपयोगी मुद्रा है। किडनी या मूत्र संबंधी दोषों में फायदा कारक है । जलसुरभि मुद्रा में जल और अग्नि तत्व का संयोजन होने से जल के बढ़ने या कमी के दोष में राहत मिलती है।
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