________________
८ वरुण मुद्रा : कनिष्ठिका के अग्रभाग को अंगूठे के अग्रभाग से मिलाकर, अंगूठे से हल्का सा दबाव देते हुए शेष अंगुलियाँ सीधी रखते हुए वरुणमुद्रा बनती है। लाभ:
कनिष्ठिका अंगुली, जल तत्त्व का नियमन करती है इसलिए शरीर के प्रवाही का संतुलन इस मुद्रा से होता है । शरीर के प्राण-प्रवाह और रक्त प्रवाह की
तरलता व्यवस्थित रहती है और इससे उनका परिभ्रमण का नियमन होता है। • शरीर का सूखापन दूर होता है जिससे त्वचा में चमक, चिकनाई, मुलामियत
और स्निग्धता आती है। रक्त विकार की बिमारी या रक्त की अशुद्धि की बिमारी में लाभदायक है । त्वचा के दर्द जैसे सोरायसीस, खुजली, दादर आदि में लाभदायक है। जलतत्त्व से होनेवाली बीमारीयाँ जैसे कि गेस्ट्रोएन्ट्राइटिस, डायरिया, डीहाईड्रेशन में लाभदायक है और इस मुद्रा से तृषा बुझती है। शरीर में कहीं भी खुजली आये तो इस मुद्रा के प्रयोग से खुजली शांत
होती है। • स्नायु के खिंचाव हो तब इस मुद्रा से राहत मिलती है। • तन का तेज बढता है और यौवन लम्बे समय तक रहता है । विशेष :अंगूठे के अग्रभाग से कनिष्ठिका के अग्रभाग को मालिस करने से मुर्छा
तूटती है। आकस्मिक दुघर्टना में चमत्कारी परिणाम मिलते है। नोट : कफ प्रकृतिवाले यह मुद्रा अपनी प्रकृति के अनुसार करे । त्वचा के दर्दी
को इस मुद्रा से दर्द बढ़ता लगे तो इस मुद्रा के साथ अपानमुद्रा करने से तकलीफ दूर होकर दर्द में भी राहत मिलती है ।
१४