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________________ १०.४ उदानमुद्रा : तर्जनी के अग्रभाग को अंगूठे के अग्रभाग से लगाकर तर्जनी के नाखून पर मध्यमा के अग्रभाग को लगाकर अनामिका और कनिष्ठिका सीधी रखते हुए, अंगूठे से हल्का सा दबाव देते हुए उदानमुद्रा बनती है । उदानवायु मुख्यतया कंठ में रहता है और दोनो हाथ-पैर में भी रहता है । लाभ : • उदानमुद्रा करने से शरीर का उदानवायु शरीर में ठीक तरह से काम करती है। उदानवायु मुख्यतया कंठ में होने से कंठ के विशुद्धि केन्द्र पर इसका प्रभाव पडता है। विशुद्धिकेन्द्र विचार और वचन का उद्भव स्थान माना जाता है इसलिए विचार और वचन की शुद्धि होती है। ध्यान दरम्यान उदानमुद्रा करने से विशुद्धि केन्द्र और ज्ञानकेन्द्र का अनुसंधान होकर चेतना उर्ध्वगामी बनती है और ध्यान में प्रगति होती है। थायराईड और पेराथायराईड ग्रंथिओं के स्त्राव इस मुद्रा से संतुलित होते है इसलिए थायराईड संबंधी बीमारियों में राहत मिलती है । भगवान को भोग चढ़ाने के वख्त और यज्ञ करते वख्त, उदानः स्वाहाः शब्द प्रयोग करने के समय इस मुद्रा से आहुति दी जाती है । •
SR No.002286
Book TitleMudra Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilam P Sanghvi
PublisherPradip Sanghvi
Publication Year
Total Pages66
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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