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________________ १५ शंखमुद्रा : बायें हाथ के अंगूठे को दाहिने हाथ की हथेली पर रखकर दाहिने हाथ से बाएँ अँगूठे सहित मुठ्ठी बंद करके, बायें हाथ की तर्जनी के अग्रभाग को दाहिने हाथ के अंगूठे के अग्रभाग को मिलाकर, बायें हाथ की मध्यमा अनामिका और कनिष्ठिका, दाहिने हाथ की हथेली के पीछे की तरफ दाहिने अंगूठे के पास रखकर शंखमुद्रा बनती है। अंगुलियाँ के अग्रभाग के मिलने के स्थान में हल्का दबाव देना है । इस मुद्रा का आकार शंख की आकृति जैसा होता है । हाथ बदल के भी यह मुद्रा की जाती है। लाभ : यह मुद्रा करने से अंगुलियाँ और अंगूठे के बीच में जो भाग खुला रहता है वहाँ शंख मुख जैसा आकार बनता है, वहाँ मुँह से शंख बजाते है इस तरह से ही बजाने से शंख जैसी आवाज निकलती है । इस शंखस्वर की ध्वनि से रोग का उपद्रव दूर होता है, अनिष्ट तत्वो का विसर्जन होता है और इष्ट तत्त्वों का सर्जन होता है। इस मुद्रा से थायराईड ग्रंथिके पाइन्ट दबते है इसलिए थायराईड रोग दूर होता है और थायराईड की तकलीफ से होने वाली पुरानी बीमारियाँ भी दूर हो सकती है। तेजसकेन्द्र (मणिपुरचक्र - नाभि) के ७२००० नाड़ियों की शुद्धि होती है । हटी हुई नाभि अपने स्थान में आती है । नाभि के पोइन्ट दबते है। पांचनतंत्र पर इस मुद्रा से असर होती है इसलिए सच्ची भूख लगती है और दोनो आंतो में से पुराना मल साफ होता है । वचन (वाणी) संबंधी कोई भी दोष इस मुद्रा से अच्छे होते है । हकलाना, तुतलाना और लकवे के बाद की अस्पष्ट वाणी में भी लाभदायक है।
SR No.002286
Book TitleMudra Vignan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilam P Sanghvi
PublisherPradip Sanghvi
Publication Year
Total Pages66
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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