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हठयोगकी मुद्राऐं आध्यात्मिक दिशा में आगे बढ सके और ध्यान में साधक प्रगति पा सके इसके लिए हठयोग की थोडी सरल मुद्राएं ध्यान के गहरे अभ्यासी श्री. रमेशजी अग्रवाल के निर्देशन में यहां प्रस्तुत की है।
इस मुद्रा के अभ्यास से ध्यान के अनुकूल मनोस्थिति निर्माण होकर ध्यान के उच्च स्तर तक पहुंचा जा सकता है।
इसका संदर्भ और आधार गोरक्ष पद्धति, शिवसंहिता, धरेण्डसंहिता और हठयोग प्रदीपिका में से लिए गये है।
इस मुद्रा के करते समय जिस बंध का उल्लेख है इसकी जानकारी इस तरह से है : १ उड्डीयान बंध : श्वसनतंत्र में से पूरा श्वास निकालकर पेट को मेरुदंड की ओर
संकोचन करते हुए, श्वास को बाहर ही रोककर उड्डीयान बंध होता है । जालंदर बंध : नाक के द्वारा श्वास भर के, थुड्डी को कोलरबोन के बीच में लगाकर, रोके हुए श्वास को बाहर न निकलने देते हुए, थोडा दबाव दिया जाता
है, इस क्रिया को जालंदर बंध या कोकमुद्रा कहते है। ३ मूलबंध : श्वास पूरा बाहर निकालकर गुदा के स्नायु को ऊपर की ओर खींचते
हुए मूलबंध होता है । यह सभी मुद्राएं करते वखत चित्त को आज्ञाकेन्द्र (दर्शनकेन्द्र) दो भकृटिओं के बीच स्थापित करना है।
२९.१ महामुद्रा : बाये पैर के घुटने को मोडकर एडी से योनिमार्ग (शीवनी) पर दबाव देते हुए, दाहिना पैर फैलाकर जमीन से लगाकर रखें । फिर दोनों हाथो से दाहिने पैर की एडी के ऊपर के हिस्से को पकडना है, अगर एडी को न पकड सके तो घुटना और पैर के तलवे के बीच का हिस्सा पकडकर संकल्प से नव द्वार (दो आँख, दो कान, दोनो नासिकाएँ, जालंदर, उड्डीयान और मूलबंध) बंद कर के महामुद्रा बनती है । फिर यही क्रिया दूसरे पैर से करे ।