Book Title: Mahamohapadhyay Gangadharji ke Jain Darshan ke Vishay me Asatya Aakshepo ke Uttar
Author(s): Sacchidanand Bhikshu
Publisher: Harakchand Bhurabhai
Catalog link: https://jainqq.org/explore/034824/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી યશોવિજયજી 2. જૈન ગ્રંથમાળા આ દાદાસાહેબ, ભાવનગર, ટેetheA2-268૦ : PIકે છે ૩૦૦૪૮૪s. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ kahastra 290 NA * महामहोपाध्याय श्रीगंगाधरजी के, जैनदर्शन के विषय में, असत्य आक्षेपों के उत्तर । .....०००००००००००००००००००००००००००००००००० ASKULUMUKaskill888888888888882 (लेखक-सच्चिदानन्द भिक्षु) 200*Printed and Published by Shah Harakhchand Bhurabhai, at the Dharmabhyudaya Press, Benares City. सं० १९६९ । सन् १९१३ । CANAVAYOOT yyeyARAN . १०१००१ . ०००००० से संपूर्ण मूल्य एक आना. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara- Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखमुखपाठकगण ! इस लेख में क्या विषय है यह समाचार तो अन्य के नाम से ही ज्ञेय है. इस लेख के लिखने का प्रयोजन और लूछ नहीं है किन्तु हमारे काशी के विद्वान् आस्तिक्यपूर्ण जैनदर्शन को नास्तिक कह करनसके अन्य विनाही पढ़े उसका खण्डन लिखने को उद्यत हो जाते हैं, अब से ऐसा न होने पावे और सर्व विद्वान् महाशय आंख खोल के जैनदर्शन को पढकर उसका खण्डन करें यह ही लेख निदान है। __ महाशय ! यदि आप उभय लोक में सुख की इच्छा करते हों तो वह तब तक परिपूर्ण नहीं हो सकती जब तक आप सत्य धर्म को प्राप्त न करें, में अपना अनुभव पक्षपात राहित्य से आपकी समक्ष दिखलाता हूं कि यदि जगत में प्राचीन, वीतराग प्रदर्शित, परस्पर अबाधित, शान्तिप्रिय और आधुनिक विज्ञान से भी सिद्ध कोई धर्म है तो केवल जैन धर्म ही है इस में कोई भी संदेह नहीं है, इस जैन धर्म के विषय में प्राचीन ग्रन्थकारों की लेखनी इतनी निर्दोष और अगर्व है कि ग्रन्थ को पढतेही ग्रन्थकार का आसत्व स्पष्टही झलकता है जिस प्राचीन जैन ग्रन्थों से मुझे बहुत उपकार हुवा है, उपकार ही क्या?, किन्तु, भवसागर से मेरा उद्धार ही होगया है, उस ग्रन्थों का और उसके निर्दोष सर्वज्ञ जैनश्वेताम्बराचार्य प्रणेताओं का नम्र अनुचर होता हुआ मैं उसको अनन्त धन्यवाद देता हूं और इस छोटे से लेख में प्रमाणभूत दिये गये जैन ग्रन्थों का पाठक महाशयों को कुछ परिचय मी देता हूं। लेखपृष्ठ- ग्रन्थनाम- कर्ता . प्रमाणमीमांसा- कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्रसूरि. यह एक अपूर्वतर्क अन्य है. अन्यकार ने इसको पांच अध्याय से संपूर्ण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) किया है. ग्रन्थकार विक्रमवर्ष ११४५ में हुए थे. इस ग्रन्थके द्वितीय अध्याय के अन्त भागमें गौतम से कहे हुए मोक्षाङ्गभूत छल, जाति और निग्रह स्थान की अच्छी खबर ली है. याने छल कपट से ही मोक्ष होता तो क्यों व्यर्थ सन्यास ग्रहण करना चाहिये ?. ग्रन्थकारने और भी व्याकरण, साहित्य-प्रभृति विषय में अपनी लेखनी को व्याप्त करके जगतका उपकार बहुत किया है. १५-१९ तक स्याद्वादरत्नाकर-श्रीवादिदेवमूरि. यह भी बड़ा भारी न्यायका ग्रन्थ है जिसका प्रमाण ८४००० श्लोक है. यह आठ परिच्छेद से विभक्त हुआ है. इसके रचयिता ११४३ में हुए थे इसमें प्रामाण्यवाद, आत्मवाद, तमोवाद, इन्द्रियवाद, ईश्वरतत्त्व, मोक्षतत्त्व प्र. भृति का यथार्थ वर्णन है. और इसमें गौतमादि की तरह प्रतिवादिका पूर्वपक्ष दूसरा और वादिका उत्तर पक्षभी दूसरा इस प्रकार से व्यवहार नहीं है किन्तु परपक्षका पूर्णस्थापन होजाने पर स्वपक्षकी युक्ति चलती है. कहीं कहीं तो कुसुमाञ्जलिका पूर्वपक्ष दस २ पृष्ठ तक चलता है और पीछे उसका खण्डन किया जाता है. यह सम्पूर्ण मिलता नहीं है. २७-२९ तक स्याद्वादमञ्जरी- श्रीमल्लिषेणमूरि. २५ और ३७ यह भी एक श्रीजिनस्तुतिरूपन्याय का ग्रन्थ है. रचयिता सूरि १३४९ में विद्यमान थे. जो ग्रन्थ बनारस में चौखम्बा ग्रन्थमाला में छप चुका है और श्री दामोदर लाल गोस्वामी ने उसको बडीही असावधानता से शोध कर उसका सत्यरूप में कुछ विपरिणामोत्पाद किया है और यह यशोविजय ग्रन्थमाला वनारस में, बंबई में भी छपा है. ४१ तत्त्वार्यसूत्र-श्री उमास्वामिवाचक. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनके रचयिता विक्रम वर्ष के १७० वर्ष पहले ही प्रायः हुये थे, इसमें संक्षेप से जैनदशन का रहस्य समझाया गया है। ग्रन्थकार बडेही संग्राहक थे यह वात इस ग्रन्थ के पाठक स्वयं जान लेते हैं और बडे भारी विद्वान् और आप्तप्रवर थे. सूत्ररूप से ग्रन्थ दश अध्याय में है और साथ स्वोपज्ञभाष्य भी दिया गया है, इसका भाषान्तर रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला के अध्यक्षों ने श्री महामहोपाध्याय दामोदर शास्त्री के शिष्य ठाकुर प्रसाद व्याकरणाचार्यजी से करवाया है। किन्तु भाषान्तरकार ने केवल दक्षिणाप्राप्ति पर लक्ष्य रक्खा है किन्तु पाठक लोग इस भापान्तर से ग्रन्थ का तात्पर्य कैसे समझेंगे इसका ख्याल बहुत कम किया है और भाषान्तर में स्खलना भी बहुत है. माघशुक्ल-द्वितीया. सच्चिदानंद भिक्षु. स्थल-शान्तिशिखर. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामहोपाध्याय श्रीगंगाधर जी के, जैनदर्शन के विषय में, असत्य आक्षेपों के उत्तर। श्रीगिरिजापतये नमो नमः । मैं पवित्र काशीपुरी में कितने वरसों से प्राचीन न्याय पढ़ रहा हूँ। पढ़ते पढ़ते मैंने आजतक प्राचीन न्याय में गौतमभाष्य, न्यायवार्तिक, तात्पर्यटीका, श्लोकवार्तिक, ब्रह्मसूत्रशांकरभाष्य, शाबरभाष्य, सांख्यदर्शन, और बौद्धका न्यायबिन्दु, माध्यमिकावृत्ति प्रभृति ग्रन्थोमें श्रीगुरुदेवकी परमदया से यथाशक्ति नैपुण्य पाया है. मैं गवेषी, जिज्ञासु, आत्मा हूँ. मेरा कहीं पर मिथ्या आग्रह नहीं है. मैं जैनों के और चार्वाकों के दर्शनों को भी देखने के लिये पिपासु हूँ. थोड़े ही दिनों के पहिले श्रीमाधवाचार्य विरचित 'सर्वदर्शनसंग्रह' मैं पढ़ता था, जब उसमें जैनमत आया तब मेरी बुद्धिको मी चक्कर आ गया याने जैनीयों के वास्तव मन्तव्य को मैं जान नहीं सका. तब मुझे जैनतार्किकों के तर्कों को देखने की विशेष इच्छा हुई. उसकी परिपूर्णताके लिये मैं शिवपुरी में घूमता था, इतने में परमभाग्य से एक जैनश्वेताम्बर पाठशाला मुझको मिल गई. वहां के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) बड़े बड़े छात्र मेरे अच्छे स्नेही हो गये. वहां के अध्यक्ष को मैंने प्रार्थनापूर्वक अपनी पूर्वोक्त इच्छा प्रकट की तब उन्होंने बड़े हर्ष के साथ एक अध्यापक के पास मुझको परिपूर्ण समय दिया. वहां भी कम से कम मैं दो वर्ष पढ़ा, और जैनन्याय के स्याद्वादमञ्जरी, रत्नाकरावतारिका, अनेकान्तजयपताका, सम्मतितर्क आदि ग्रन्थों को समाप्त कर दिया, और भी कई जैन के आगमग्रन्थ भी देख डाले, इससे मुझे यह स्पष्ट ज्ञात हुआ कि जैनदर्शन में परस्पर जरासा भी विरोध नहीं है, और संब प्राचीन जैनग्रन्थ एक ही मन्तव्य पर चलते हैं. और वेदानुयायि, नैयायिक, सांख्य, वैशेषिक, वेदान्तादि दर्शनो में बहुतसा विरोध स्पष्ट दिखाई देता है याने जो वेदकी श्रुति का नैयायिक लोक अर्थ करते हैं, उससे विपरीत ही सांख्य लोक करते हैं, तात्पर्य यह है कि पूर्व आर्यावर्त में सदैव सुभिक्ष होने से निश्चिन्ततासे प्राचीन ऋषिओ ने बिचारे वेदकी मिट्टी को खराब कर दी है किसी कविने कहा है कि "श्रुतयश्च भिनाः स्एतयश्च भिन्ना नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् । धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गत्तः स पन्थाः " ॥१॥ यह ठीक २ सुघटित होता है. और जैन दर्शन पढ़ने से मुझे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह भी एक बड़ा लाभ हुआ की जो मेरा अटल निश्चय था की जैनलोग नास्तिक हैं, जैनलोग अस्पृश्य हैं, वह सब हवा में उड़ गया; और मनमें यह प्रतिभान हुआ की वेदानुयायि, कुमारिल, शंकर, गौतम, वेदव्यास, वाचस्पति प्रभृतिने जैनयों के विषय में जो कुच्छ भी लिखा है वह वादिप्रतिवादि की नीति से नहीं लिखा है, किन्तु छल से सब उटपटाँग घसीट मारा है, याने जैनीयों के सिद्धान्त दूसरे, और अपना खण्डन का बकवाद दूसरा, अब उसी निश्चय से मेरी लेखनीसवृत्त हुई है की सत्य सूर्य का उदय हो, असत्य घूकों का संहार हो. याने पूर्वोक्त ऋषि के और आधुनिकमहर्षिओं के झूठे आक्षेपोंका प्रत्युत्तर युक्तियुक्त लिखना चाहिये, परन्तु यहां तो मैं 'प्रत्यासत्तिबलीयसी' इस न्याय से आधुनिक कविचक्रशक महामहापोध्याय गंगाधर जी महाशय से निर्मित 'अलिविलासिसंलाप' नामक खण्डकाव्य की संक्षिप्त समालोचना करूंगा. इस महाशयजी ने भी 'बाप जैसा बेटा और वड तैसा टेटा' इस किंवदन्ती को सत्य की है याने पूर्वोक्त ऋषिओं की तरह इन्होंने भी जैनीयों के विषयमें मनःकल्पित अपना अभिप्राय प्रकट किया है इस लिये पाठकोंको ‘अलिविलासिसंलाप' का चौथा शतक देखना चाहिये. मैं भी दिखलाता हूँ की महाशयजी किस रीति से जैनीयों का झूठा पूर्व पक्ष खड़ा करते हैं और किस प्रकार उसका आपही आप उत्तर भी देते हैं. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) " स्यादस्ति कार्यकरणेन समस्त वस्तु | स्यान्नास्ति तच्च विलयात् परतश्च बाधात् ॥ २५ ॥ यहां से २८ तक - जैनदर्शन कार्य करनेसे ही सब वस्तु को सत् मानता है, और वस्तु नाश होने से यातो इतरज्ञान से बाघ होनेसे वस्तुओं को असत् मानता है इत्यादि । अब इस पूर्वपक्ष के खण्डन में महाशयजी अपनी न्यायप्रवीणता दिखलाते हैं की" हा ! हन्त ! संतमससंततवासघूक ! नानाविकल्पमय दुर्मतजञ्जक ! | प्रामाणिको न हि वदन् विरमेद् विकल्पेsप्रामाणिकोक्तिरपराध्यति वादकाले || ३६ || वस्तुस्थितिप्रमितिरेव हि मानकृत्यं न त्वस्ति वस्तु युगपत् सदसद्दिरूपम् । वस्तुन्यस द्विविधरूपमतिभ्रमः स्यात् तां दोष एव जनयेद् न कदापि मानम् ॥ ३७ ॥ अन्योऽन्यबाधकम सच्चमथापि सत्त्व मेकत्र वक्षि युगपद् यदि संशयः सः । यत्सर्वसंशयनिवर्ति तदेव शास्त्रं संशाययेत्तदपि चेत् शरणं किमन्यत् १ ॥ ३८ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्णतुमक्षमतया विविधागमार्थो च्छिष्टैकदेशलघुसंग्रहमात्रकारी । आचार्यलक्षणविहीनतया न मान्यः संशायकोत्युपनमढजिनो जिनो नः ॥ ३९ ॥ स्याद्वादसिद्ध्युपगमे खमतस्य हानि स्तत्र प्रमाणकथनेऽपि स एव दोषः। साध्यप्रमाणविषये तु कथं प्रवृत्तिः सेष्टा सदा मतिमतोऽध्यवसायपूर्वा ॥ ४० ॥ द्विवेतरेतरविरुद्धसशङ्कवाक्या वृत्त्येकसारमपि शास्त्रमिति प्रवक्तुः । नीराजयन्तु वदनं कृतहस्तताला जैनाङ्गना बहुलगोमयदीपिकाभिः ॥४१॥" प्रथम ३६ में श्लोकमें तो पण्डितजी ने गेहेशूरता दिखलाई है याने डरपोक की तरह जैनतार्किकों को दो एक गालियाँ दी है, फिर आगे चल कर पण्डितजी अपनी पण्डिताई छांटते हुए कहते हैं की वस्तु याने पदार्थ की स्थिति की ठीक ठीक प्रमिति (ज्ञान) करानी यही प्रमाण का कार्य है. और वस्तु सद् और असद् ऐसे दो स्वभाववाली नहीं है, तब भी जो तुम यह कहते हो कि वस्तु सत् और असत् यह उभयस्वभावसहित है वह तुमको भ्रम है, तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस भ्रमका जनक दोष ( अज्ञानादि ) है क्यों कि प्रमाण तो कमी दोषका कारण हो ही नहीं सकता ॥ ३७ ॥ आपसमें शत्रुतावाले सत्त्व और असत्त्व हैं, याने वह दोनो कभी साथ रही नहीं सकते तब भी तुम कहते हो की यह दोनों पदार्थ में साथ रहते हैं यह तुमारा संदेह है, और जो संशयका छेदन करनेवाला शास्त्र हैं वह भी जो संशयको पैदा करै, दूसरा कौन शरण है ? ॥ ३८ ॥ निर्णय करने में असमर्थता होने से विविधप्रकारके शास्त्रों का उच्छिष्ट जो एक देशं उसका अल्पसंग्रह करनेवाला, और आचार्य (निश्चायक) के लक्षणों से रहित होने से, जिन (अर्हन्) हमको मान्य नहीं है ॥ ३९ ॥ और स्याद्वादकी सिद्धिको जो तुम निश्चित मानोगे तो तुमारा संशयपर्यवसायी सिद्धान्त नष्ट हो जायगा, और यदि उसमें प्रमाणकी प्रवृत्ति दिखलावोगे तब भी वही दोष आवेगा, और विद्वानों की प्रवृत्ति सदैव निश्चयपूर्वक होती है इस लिये तुमारे सिद्धान्त में कोई प्रवृत्ति नहीं कर सकता ॥ ४० ॥ जिसमें शङ्कित और परस्पर विरुद्ध वाक्यों कि पुनः पुनः आवृत्ति हो वह भी शास्त्र है ऐसा कहनेवालेके मुखकी आरती जैनाङ्गना उतारै ॥४१॥ यहां तक जो महाशयजी ने जैनियों का अभेद्य स्याद्वादका कुछ आक्षेपण किया है उसका पाठक महाशय निम्न लिखित उत्तर विचारसे पढ़ें, "महाशयजी ने कहा है कि-जैनदर्शन कार्य करने से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि वस्तु को सत् मानता है इत्यादि। मैं महाशयजी से प्रार्थना पूर्वक कहता हूँ की यदि आप अपना पक्षपातोपहतचक्षुः को दूर करते तो स्पष्ट मालूम होता की जैनदर्शनका वह (पूर्वोक्त) मन्तव्य नहीं है. परन्तु बैनदर्शनका यह मन्तव्य है कि वस्तुका स्वभाव ही सद् असद् रूप है. याने स्वभाव से ही वस्तु भावाऽभाव उभयस्वरूप है. फिर शास्त्रीजी की स्थूल बुद्धिमें इस वातकी समझ न पड़ी तो कहा की क्या एकही वस्तु भावस्वरूप और अभावस्वरूप कभी होसक्ती है ?, तो मुझे कहना चाहिये की क्या आपमें पुत्रत्व, पितृत्व नहीं है ! क्या आप मनुष्यभावरूप और अश्वाऽभावरूप नहीं है !, आपको अविलम्ब स्वीकार करना होगा विरुद्ध धर्म भी सापेक्ष होकर एक वस्तु में अच्छी रीति से रह सकते हैं, इसमें कोई प्रकार का विरोध नहीं है. देखिये और चित्त को सुस्थित रख कर पढ़िये "न हि भावैकरूपं वस्त्विति, विश्वस्य वैश्वरूप्यप्रसङ्गात् । नाऽप्यभावरूपम् , नीरूपत्वप्रसङ्गात् । किन्तु स्वरूपेण स्वद्रव्य-क्षेत्र-कालभावैः सत्त्वात् , पररूपेण स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावैश्वाऽसत्त्वात् भावाऽभावरूप वस्तु । तथैव प्रमाणानां प्रवृत्तेः । यदाह"अयमेवेति यो वेष भावे भवति निर्णयः । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) नैष वस्त्वन्तराऽभावसंवित्यनुगमादृते । १ ।” जगत में वस्तु केवल भावरूपही नहीं है क्योंकि यदि भावरूप होती तो घंट भी पटभावरूप, अश्वभावरूप, हस्तिभावरूप होता, और वस्तु केवल अभावरूप भी नहीं है- ऐसा माने तो सब का शून्यत्व का ही प्रसंग होगा, इस लिये सब वस्तु अपने रूप से याने अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूपसे तो सत् है और परकीयरूपसे याने पराया द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप से असत् है जैसे कि - द्रव्यसे घट पार्थिवरूपसे है, परन्तु जलरूप से नहि है, क्षेत्र से काशी में बना हुआ घट काशी का है, किन्तु हरद्वार का नहीं है; काल से वसन्त ऋतु में बना हुआ घट वासन्तिक है किन्तु शैशिर नहीं है; भावसे श्याम घट श्याम है, किन्तु रक्त नहीं है; यदि सब रूपसे वस्तु को सत् मानने में आवे तो एक ही घट का बहुत रूपसे ( इतर पटादिरूपसे) भी स्थिति होनी चाहिये, इस लिये जैन तार्किकों का यह तर्क ठीक २ वस्तुका निश्चय ज्ञान दिखलाता है कि वस्तु स्वभाव से ही स्वरूप से सत् है और पररूपसे असत् है. और यह बात तो आबाल गोपाल प्रसिद्ध है. और शास्त्रीजी ने जो कहा कि " वस्तु में भावाऽभावरूप जो ज्ञान है वह भ्रमजन्य है” वह भी उनका कथन भ्रमविषयक है, क्योंकि भ्रमका जो लक्षण 'अतस्मिन् तदध्यवसायो श्रमः' याने जो घट में पटका ज्ञान होना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९ ) वह ही भ्रम है किन्तु घट में घटका ज्ञान होना तो भ्रम नहीं हैं. ऐसे ही वस्तु उभय रूप है उस में उभयरूपताज्ञान भ्रमात्मकं कभी नहीं हो सकता. और जो शास्त्रीजी बावाने अपनी तूती चलाई है कि "यदि एक ही वस्तु में यह दो बात ( सद्-असद् रूपता ) माना जाय तो वह ज्ञान संशयात्मक है" इस से यह मालूम होता कि शास्त्रीजी संशय के लक्षणको भूलगये- देखिये, संशयका लक्षण पूर्व ऋषियोंने इस प्रकार बतलाया है कि - 'अनुभयत्र उभयको - टिसंस्पर्शी प्रत्ययः संशयः; अनुभयस्वभावे वस्तुनि उभयपरिमर्शनशीलं ज्ञानं संशयः ।' याने जिसमें दो स्वभाव नहीं है और उसमें दो स्वभावका जो ज्ञान होता है वह संशय है परन्तु यह बात वस्तुका सद्-असद् उभय ज्ञान में नहीं आसकती, क्योंकि पूर्वोक्त कई प्रमाणों से वस्तु उभयस्वभाव सिद्ध हो चुकी है और शास्त्रीजी ने जो कहा कि " स्याद्वाद की और प्रमाण की सत्ता को निश्चित मानो तो तुमारा सिद्धान्त बाधित होगा" यह भी एक पुराण की तरह गप्प है क्योंकि जैनदर्शन तो सब वस्तु को निज रूपसे सत् और अन्यरूप से असत् मानता है. वैसे ही स्याद्वाद भी स्वरूपसे सत् और स्याद्वादाभासरूप से असत् है और प्रमाण भी प्रमाणरूप सत् और प्रमाणाभासरूप से असत् है. और शास्त्री जी यह समझते होंगे कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) जैनदर्शन का मन्तव्य अव्यवस्थित है तो यह नहीं है क्योंकि पूर्वोक्त रीतिसे जैनदर्शन कथित वस्तुस्वभाव कथन वास्तव वस्तुका निश्चायक है परन्तु उसमें अल्प भी अव्यवस्था नहीं है, जो कई लोग वस्तुका एकही रूप है याने वस्तु भावरूप ही है या अभावरूप है ऐसा मानते हैं उनके सिद्धान्त में बड़ी भारी अव्यवस्था हो जायगी. और यदि शास्त्रीजी एकही पदार्थ में विरुद्ध धर्मद्वय के स्वीकार को विरोध समझैं तो उनके पितामह प्रशस्तपादभाष्यकार के सिद्धान्त को भी विरुद्ध मानना चाहिये क्योंकि- भाष्यकार भी एक ही पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, उसमें नित्यता और अनित्यता मानते हैं उन्होंने कहा . है कि- 'सा तु द्विविधा, नित्या अनित्या च, नित्या परमाणुरूपा कार्यरूपा तु अनित्या.' याने जो पृथ्वी परमाणुरूप है वह नित्य है और जो पृथ्वी कार्यरूप है वह अनित्य है. और नवीन तार्किकगण भी भाव और अभावका समानाधिकरण मानते हैं यह बात क्या शास्त्रीजी भूल गये ? इन सब बातों से यही सिद्ध होता है कि अलिविलासिसंलाप और उसके निर्माता ये दोनों ही अनाप्त हैं। अब जैनसम्मत ईश्वर में जो शास्त्री जी के पूर्वपक्ष हैं उनको हम लिखते हैं "पाताल-भू-गगनसर्वपीनजीवाः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) स्वादृष्ट-यत्नसहिता निजभोग्यभागान् । उत्पादयन्त्वलमशेषकृतेश्वरेण क्लृप्तेन, सिध्यति फले न हि कल्प्यतेऽन्यत् ॥ सब जीव अपने अदृष्ट (भाग्य) और यत्न से सब चीज को पैदा करते हैं, इसलिये सृष्टि का बनानेवाला एक ईश्वर है ऐसी झूठी कल्पना नहीं करनी चाहिये, सृष्टिकर्ता ईश्वर के विना भी जब अपना इष्ट होता है तब उसकी कल्पना निष्फल है ।" ( शास्त्रिजी कृत उत्तरपक्ष ) "दृष्ट्वैकचेतननिदेशवशां प्रवृत्ति कार्ये लघावपि गृहे बहुचेतनानाम् । ब्रह्माण्डनिर्मितमनेककृतामपीच्छ नेकं समस्त विभुमीश्वरमाश्रयस्व ।। ४७ ।। कुर्वन्तु काश्चन यथास्वरुचि प्रवृत्ती रेकाऽपि काsपि परभीतिकृता प्रवृत्तिः । दृष्ट्वा कुटुम्बनगरस्थितचेतनेषु यद्भीतिजाऽखिलकृतिः परमेश्वरः सः ॥ ४८ ॥ तन्नित्यमिष्टमुपपत्तिमदन्यथाऽस्य हेत्वन्तरानुसरणे त्वनवस्थितिः स्यात् । नित्यं गतातिशयमीश इदं दधानः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) साधारणं सकलकार्यविधौ निदानम् ।। ५० ।। वस्वार्जिताशुभशुभावहकर्मभेदात् प्रामोति जीवनिवहः फलभेदमद्धा । आन्ध्येन पङ्गुसदृशाक्षमकर्मवन्दा अधिष्ठानताहतनिदानगुणो महेशः ।। ५१ ॥ क्षेत्री लभेत यदि कर्षणबीजवाप दाक्ष्यममादवशतः फलसिद्ध्य-सिद्धी । दोषोऽत्र नैव जलदस्य तथेश्वरस्य वैषम्यनिघृणतयोर्न यतः प्रसङ्गः ॥ ५२ ।। अन्येषु हेतुषु तु सत्स्वऽपि कष्टुचेष्टा स्यानिष्फला जलधरो यदि न प्रवर्षत । साधारणो जलधरः किल तेन हेतुः सा रीतिरप्रतिहता परमेश्वरेऽपि ॥ ५३॥ जीवो न वेत्ति सकलं स्वमपीह कर्म दूरे परस्य कथमेव ततोऽधितिष्ठेत् । सर्वज्ञतां तदुचितां हि वहन् परेशो___ अधिष्ठानताभरसहोऽल्पमतिन जीवः ॥ ५४॥ इत्युक्तयुक्तिनिवहैः परमेशसिद्धौ तस्य प्रपञ्चहितसाधनमार्गदर्शी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) आदेश एव किल वेदपदाभिधेयो नोल्लङ्घ्य एष तदधीनहितार्थिजीवैः ।। ५५ ।। इन सब श्लोकका रहस्य यह ही है कि इस जगत के रचयिता कोई एक ईश्वर है, यह बात अनुमान प्रमाण से सिद्ध होती है. जैसे की प्राणीओं के छोटेसे भी कार्य में कोईन कोई अधिष्ठाता रहता है, तो यह अनेक प्राणीसे बना हुवा जो ब्रह्माण्ड रूप कार्य उसमें अधिष्ठाता सर्वत्र व्यापक एक ईश्वर को मानना चाहिये ॥ ४७ ॥ जितनी प्रवृत्तियां यथारुचि जीवगण करता है, उन सब में एक प्रवृत्ति तो किसीका डर रखके कुटुम्ब और नगर में रहे हुवे जीव में दिखाई देता है, इसलिये जिसकी भीति से उस प्रवृत्तिको लोग कर रहे हैं, वह ही सर्वस्रष्टा ईश्वर है ॥ ४८ ॥ और उस ईश्वरका ज्ञान नित्य है याने न कभी नष्ट होता है, न कभी पैदा होता है, न कभी विकार को भी पाता है, सदा एक रूपही रहता है. यदि उसको अनित्य माना जाय तो उसका (ज्ञानका ) कोइ हेत्वन्तर स्वीकारना पडेगा, तो जो हेतु स्वीकृत है वह नित्य, या अनित्य ?, यदि नित्य, तों ज्ञानकोही नित्य मानकर व्यर्थ हेतु प्रकल्पन क्यों करना चाहिये ? और अनित्य मानो तो उसका भी हेतु होना चाहिये. इस प्रकार माननेमें अनवस्था आती है. इसलिये ईश्वरका ज्ञान नित्य ही है और सब कार्य में कारण रूपसे उसीको ही ईश्वर धारण करतें हैं ॥ ५० ॥ यदि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) जैन कहे की अपना २ शुभाशुभ कर्मसेही आत्मा शुभाशुभ फल पाता है तो भी यह उचित नहीं, क्योंकि कर्म तो जड़ होनेसे फल देने में असमर्थ है, इसलिये उसका (कर्मका) भी एक महेश अधिष्ठाता होना चाहिये ॥ ५१ ॥ खेतीहर अपनी कर्षणकी और बोनेकी कुशलता और अकुशलता से फलसिद्धि यातो फलाऽसिद्धिको पाता है, जैसे इसमें मेघका दोष नहीं है, वैसेही जीवको सुख, दुःख पाने में ईश्वरका दोष नही है इसलिये ईश्वर रागी, द्वेषी नहीं कहा जा सकता है ॥ ५२ ॥ और भी सब हेतुगण विद्यमान होनेपर भी यदि वृष्टि न होवे तो जैसे खेतीहर की सब कर्षणादि चेष्टा निष्फल होती है, वैसेही यदि ईश्वरेच्छा न हो तो एक भी कार्य नही हो सकता ॥ ५३ ॥ जीव अपने कर्मको जानता नहीं है, और परकीय कर्म दूर है, इसलिये स्व, पर कोई कर्मका अधिष्ठाता नही हो सकता, अतः उसका अधिष्ठाता सर्वज्ञ महादेवजी ही है ॥ ५४ ॥ ऐसी अनेक युक्तिसे जगत्कर्ता ईश्वर सिद्ध होनेपर उसका सकलमार्गदर्शी वेदविहित जो आदेश उसको उल्लति नही करना चाहिये || ५५ || और भी वह महाशय धर्मान्धतामें लिपट कर अपने महादेव बावाका जूठाही निष्पक्षपात बतलातें हैमाद्येत् खलो गुरुतरार्चनया, कुलीनो दण्डे महीयसि कृते भृशमुद्विजेत । यायाद् विपर्ययमनेन च लोकयात्रा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) sseत्यां शुभं विदधदेष न पक्षपातः ॥ ६१ ॥ बड़ी पूजा से खल - दुष्ट मत्त होता है, और बड़ा दण्ड करने से कुलीन अच्छा मनुष्य उद्विग्न होता है और ऐसा करनेसे लोकयात्रा व्यवस्थिति में रह नहीं सकती, और उचित पूजा, दण्ड करने से यह पक्षपात नहीं कहलाता है । अब शास्त्रीजीने जो उपरोक्त पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष सृष्टिकर्ता के बारेमे दिखलाये हैं, वे सब मिथ्या प्रलाप है और ईश्वरको कलङ्कित बनानेके उपाय है, देखिये - वीतराग ईश्वर इस जगत को किस लिये बनावेगा ?. तथाहि - शशभृन्मौले त्रैलोक्यघटने भवेत् । । यथारुचिप्रवृत्तिः किम् १, कर्मतन्त्रतयाऽथवा १ ॥ १ ॥ धर्माद्यर्थमथोद्दिश्य १, यद्वा क्रीडाकुतूहलात् १ | निग्रहाऽनुग्रहाय वा : सुखस्योत्पत्तयेऽथवा ॥ २॥ यद्वा दुःख विनोदार्थम् १, प्रत्यवायक्षयाय वा १ । भविष्यत्प्रत्यवायस्य परीहारकृते किमु १ ।। ३ ॥ अपार करुणापूरात् किं वा ?, किंवा स्वभावतः १ | एकादशैवमेते स्युः प्रकाराः परदुस्सहाः || ४ | अर्थात् क्या महादेवजी जो सृष्टि बनाते हैं सो अपनी यथारुचि बनाते हैं ? | या कर्म से परतन्त्र होकर बनाते हैं ? | वा अपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) को धर्म हो इसलिये ? या अपनी क्रीड़ा के लिये ? या प्राणियोंको निग्रह और अनुग्रह करने के लिये? या अपने को सुख होवे इसलिये, या अपने दुःखका नाश करनेके लिये ? या अपने पापका क्षयके लिये ? या अपने स्वभाव से इस सृष्टिका रचना करते हैं . ?. यह हमारा एकादश विकल्प शास्त्रिीका अलिविलासिको विलापि बना देगा जायेत पौरस्त्यविकल्पनायां कदाचिदन्याहगपि त्रिलोकी । न नाम नैयत्यनिमित्तमस्य __किंचिद् विरूपाक्षरुचेः समस्ति ॥ १ ॥ करोत्ययं तां यदि कर्मतन्त्रः __ स्वतन्त्रतैवास्य तदा कथं स्यात् । सखे ! स्वतन्त्रत्वमिदं हि येषां परानपेक्षैव सदा प्रवृत्तिः ॥२॥ कर्मव्यपेक्षस्य च कर्तृताया मीशस्य युक्ता न खलु प्रवृत्तिः। कर्मैव यस्मादखिलत्रिलोकी करिष्यते चित्रविपाकपात्रम् ॥३॥ नाऽचेतनं कर्म करोति कार्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) मप्रेरितं चेदिह चेतनेन । यथा मृदित्येतदपास्पमान माकर्णनीयं पुरतः सकणः॥४॥ तृतीयकल्पे कृतकृत्यभावः कथं भवेद् भूतपतेः कथंचित् । प्रयोजनं तस्य तथाविधस्य धर्मादिकं हन्त ! विरुध्यते यत् ॥ ५॥ अथाऽपि शम्भुर्जगतां विधाने प्रवर्तते क्रीडनकौतुकेन । कथं भवेत् तर्हि स वीतरागः सखे ! प्रमत्ताभकमण्डलीव १ ॥६॥ विनिग्रहाऽनुग्रहसाधनाय प्रवर्तते चेद् गिरिशस्तदानीम् । । विरागता द्वेषविमुक्तता वा __ तथाविधवामिवदस्य न स्यात् ॥ ७॥ उत्पत्तये न च सुखस्य तथा प्रवृत्तिः शम्भोर्यतः सुखगुणोऽत्र न सम्मतस्ते । स स्वीकृतो दशगुणेश्वरवादिभिय स्तैरप्यसावुपगतो बत ! नित्य एव ॥८॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) एतस्य दुःखं न भवद्भिरिष्टं __ न प्रत्यवायोऽपि कदाचनाऽपि । दुःखादिभेदत्रितयं न वक्तुं युक्तं ततो यौगधुरन्धरस्य ॥९॥ पुण्यकारुण्यपीयूषपूरेणाऽत्यन्तपूरितः। प्रवर्तते जगत्सर्गे भर्ग इत्यपि भङ्गुरम् ॥ १० ॥ यतःक्षुद्रग्रामे निवासः कचिदपि सदने रौद्रदारिद्रयमुद्रा जाया दुर्दर्शकाया कटुरटनपटुः पुत्रिकाणां सवित्री । दुःस्वामिप्रेष्यभावो भवति भवभृतामत्र येषां बतैतान् शम्भुर्दुःखैकदग्धान् सृजति यदि तदा स्यात्कृपा कीदृगस्य ॥ अथ धर्ममधर्ममङ्गभाजां सचिवं कार्यविधावपेक्षमाणः । सुखमसुखमिहार्पयद् गिरीशस्त दवरमुपरि निषेधनादमुष्य ॥ १२ ॥ स्वभाव एवैष पिनाकपाणेः प्रवर्तते विश्वविौ यदेवम् । खभाव एवैष रविजगन्ति प्रकाशयत्येष यदित्ययुक्तम् ॥ १३ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) एवं हीश्वरसंविदो विफलता तस्माद् निसर्गाद् निजात् किं मा भूद् जगतां प्रवर्तनविधिनिश्चेतनानामपि । तत्तेषां परिकल्पयन्ति किमधिष्ठातारमेते शिवं व्यर्थे वस्तुनि युज्यते मतिमतां किं पक्षपातः कचित् १ ॥१४॥ निश्चेतनानां जगतां प्रवृत्ती ___ कार्य कथं स्याद् नियतप्रदेशे। जातेsपि कार्ये विरतिश्च न स्याद् __ इत्येतदप्येति न युक्तिवीथीम् ॥ १५॥ स्वभाववादाश्रयणप्रसादा देवंविधानां कुविकल्पनानाम् । नास्ति प्रसङ्गः कथमन्यथा स्याद् नायं सुधादीधितिशेखरेऽपि ॥ १६ ॥ यह हमारे एकादश विकल्प में से यदि शास्त्रीजी प्रथम विकल्प को स्वीकृत करें, तो सृष्टि कभी न कभी दूसरी रीतिसे होनी चाहिये, याने ब्राह्मणकी स्त्रीको मूंछ और डाढी आनी चाहिये, और ब्राह्मणको स्तन भी होना चाहिये, क्योंकि हमेशा समान, नियमित सृष्टि होने में महादेवजी को कोई निमित्त नहीं है ॥१॥ यदि मी० गंगाधरजी कहैं की महादेवजी कर्मसे परतन्त्र होकर सृष्टिको रचते है. पाठकगण ! देखिये महादेवजीकी स्वतन्त्रता, कोई तो चेतन से पराधीन होता है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) परन्तु महादेवजी तो जडरूप जो कर्मसमूह, उसके वश होकर कार्य करते हैं, तब भी स्वतन्त्र कहलाते हैं, यह स्वतन्त्रता दक्षिण देशकी है. मैं मी० गंगाधरजी से कहता हूँ की सखे ! उसका ही नाम स्वातन्व्य है कि जहां कोई की भी अपेक्षा न की जावे, और भी हमारे शास्त्रीजी ईश्वर को कर्मपरतन्त्र न मानकर केवल सकर्मक आत्मा ही यह सब सृष्टिका प्रवाहरूप से रचयिता है, ऐसा माने तो कोई भी दूषण देखनेमें नहीं आता है, फिर क्यों ईश्वर को बीच में अन्तर्गडु कि तरह शास्त्रीजी मानते हैं? यदि शास्त्रीजी इस दलील को पेश करें, की कर्म जड होनेसे उससे सहकृत आत्मा एक भी संपूर्ण नियमित कार्य नहीं कर सकता है, तो यह बात सविस्तर सयुक्तिक आगे खण्डित की जावेगी इसलिये पाठक महाशय सावधानता से देख लेवें, और भी जडसहकृत चेतन नियमित कार्य नहि करसकता है, यह बात कहना सर्व वर्तमान व्यवहार का अपलाप करना है ॥ ३ ॥ यदि शास्त्रीजी कहैं कि 'अपनेको धर्म हो' इस लिये शिशिर ऋतु में भी प्रातःकाल महादेवजी अपनी प्रिया पार्वती की शय्या को छोडकर कुम्भकार की तरह यह संसार की रचना में लगते हैं, तो यह बात भी ब्राह्मण के शृङ्ग की समान है. क्योंकि आप (न्यायदर्शन) श्रीमहादेवजी को कृतकृत्य मानते हैं, और वह ही कृतकृत्य कहा जा सकता है कि जो कभी कार्य करने में प्रवृत्त न होवे, परन्तु आपके गिरि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) जापति की तो कृतकृत्यता भी विलक्षण है जब महादेव बाबा कृतकृत्य ठहरे तो उनको धर्म करने से क्या मतलब ?॥४॥ यदि पण्डितजी कहें की महादेवजी पार्वती के मान से खिन्न होकर अपनी मौजके लिये यह सब कारवाई करते हैं तो धन्य है आपके महादेवजी को, जो पार्वती के पैरोमें भी अपना सिर झुकाने को भी तत्पर हैं और यदि महादेव इस संसार को क्रीडासे करते हैं तो फिर उसकी वीतरागता कहां रही !, वीतरागी होकर सामान्य जीव भी क्रीडा नहि करता है तो वीतरांग होने पर भी महादेवजी छोटे बच्चे की तरह खेल करने लगे तब तो महादेव की तरह क्रीडा करने पर भी सब वीतराग कहलावैगे ॥५॥ और यदि शास्त्रीजी कहैं की प्राणियों को निग्रह और अनुग्रह करने के लिये यह सब तकलीफ महादेवजी उठाते हैं, तब भी महादेव जी प्रजापालक राजा की तरह कभी वीतराग और वीतद्वेष नहीं हो सकते, और यह नियम तो खानुभवसिद्ध है कि जो कार्य करने में आता है उसके आगे कर्ता को भी उस कार्य की तरह परिणत होना चाहिये, तो जब महादेवजी कहीं भी अनुग्रह करेंगे तब वे सरागी कहे जायेंगे और कहीं निग्रह करें तो वे सद्वेष होजाते हैं, यदि निग्रह अग्रनुह करने पर भी जो महादेवजी को ईश्वर का टाइटल दिया जावे तो हमारे निग्रह, अनुग्रह के को महाराजा पञ्चम जार्ज को भी साक्षात् ईश्वर मानने में क्या हरज है ?॥६॥ यदि पण्डितजी फरमावें कि अपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) को सुख हो इस लिये, अपना प्रत्यवाय (पाप) नष्ट हो इस लिये, और अपना होनहार जो प्रत्यवाय उसके नाश के लिये भी महादेवजी इस जगतको पैदा करते हैं तो यह कथन भी शपथश्रद्धेय है, क्योंकि ईश्वर में तो नित्य ही सुख रहता है तो फिर महादेव क्यों सुख के लिये यत्न करेंगे, और विचारे भोले महादेव को प्रत्यवाय भी माननेमें नहीं आता है तो फिर वे अपना प्रत्यवायके नाश के लिये क्यों उद्यत होंगे ॥७॥ यदि शास्त्रीजी कहैं कि अपूर्व अनुकम्पा से महादेवजीने यह जगत बनाया है, यह कथन भी वृथा है, यदि महादेव करुणासे जगत बनाते तो यह कभी न होता कि एक दरिद्री, एक धनी, एक सुरूपी एक कुरूपी, एक विद्वान् , एक पागल, एक देव, और एक दानव होता, यदि शास्त्रीजी कहैं कि प्राणियोंके धर्म और अधर्म के बराबर उनको महादेवजी फल देते हैं, महाशय ! देखिये ऐसा मानने में द्वितीय श्लोक में दिखाई हुई बराबर ईश्वर की खतन्त्रता नष्ट हो जायगी और एक मामूली कुलीकी श्रेणिमें महादेवजी का नम्बर लग जायगा. जैसे कि ( सापेक्षोऽसमर्थः ) याने जो कोई भी कार्य में किसी का अपेक्षा रक्खे तो वह असमर्थ, पराधीन कहलाता है वैसे ही धर्म और अधर्म सापेक्ष कार्य करनेवाला महादेव कहां से स्वतन्त्र होगा ? ॥८॥ अब शास्त्रीजी परेशान होकर अन्तिम पक्षको स्वीकारते हैं की महा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) देवजीका जगत् बनानेका स्वभाव ही है, यदि केवल महादेवका स्वभाव मानने पर यह सब संसार हो सकता है तब महादेवजीको सर्वज्ञ, व्यापक और नित्य न मानना चाहिये, क्योंकि सर्वज्ञ, व्यापक और नित्य न होनेपर भी महादेव अपने स्वभाव से ही इस संसार चक्रको घुमावेगा, हम तो बिचारे के सुख के लिये मी. गंगाधर जी को कहते हैं की महादेवजी की तरह सकर्मक आत्मा में अपने कर्म का फल पाने का, और यह सृष्टिको चलाने का स्वभाव मान ले और महादेवजी को तो पार्वती के चरणरेणुका स्पर्शसुख लेने में अन्तराय न करें, और मी० गंगाधरजीने जो पूर्वमें कुतर्क दिखलाये हैं कि कर्म जड होनेसे उससे सहकृत आत्मा कुच्छभी नहीं कर सकता है, तो वह कुविकल्प स्वभाववादमें नहीं चल सकता. जैसे लोहचुम्बक जड होनेपर भी निज स्वभावसे दूरस्थितभी लोहाको खींचता है, दूरबीन और खुरबीन यह दोनो यन्त्र जड काचके बने हुए हैं तब भी उससे सहकृत पुरुष दूरकी बस्तुको और सूक्ष्म पदार्थ को भी प्रत्यक्ष करलेता है, फोनोग्राफ जडहोने पर भी सब तरहके शब्द, सबतरहकी भाषाको बोल सकता है, ज्यादा क्या कहैं, परन्तु सकर्मक जीव, विना जड एक कदम भी नहीं दे सकता है. इसलिये सकर्मक आत्माका पूर्वोक्त स्वभाव मानने में कोई भी हानि नहीं आती, तो बिचारे बूढे महादेवजी को क्यों सताते हो? और जैन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) दर्शन केवल सकर्मक जीबको ही कर्ता मानता है वैसाही नहीं है, परन्तु हर कोई कार्य करनेमें पुरुषार्थ, कर्म काल नियति, स्वभाव यह पांच कारणों की भी जरूरत मानता है यदि इस पांच कारणों में से एक भी न हो तो पुरुष अपनी अङ्गुली तक को भी हिला नहीं सकता. इसलिये स्वभाववादमें इन पांचो कारणोंसे सृष्टि प्रवाह होना असंभवित नहीं है, परन्तु यह पांच कारणभी विना जीव, कुछ नहि करसकते इसलिये जैनदर्शन में जीवको ही कर्ता, भोक्ता मानते हैं. बस, इससे पाठक गणको जरूर विदित हुआ होगा कि मी-गंगाधरजीका सृष्टिकर्ताके विषयमें जो जो कुच्छ वक्तव्य था वह सब कैसा नियुक्तिक और तुच्छ था. अभी तो इस विषयको में यहां ही खतम करता हुआ आगे मी-गंगाधरजी की खबर लेता हुँ ॥ और भी वे साहब अपनी महामहोपाध्यायता प्रकट करते हुए आत्म व्यापकत्वमें पूर्वपक्ष दिखलाते हैं-- ( पूर्वपक्ष ) देहाद् बहिर्नहि सुखादि कदापि दृष्टं तेनाऽस्तु देहपरिमाणक एव जीवः । बन्धोऽस्य सम्भवति देहमितत्व एव मोक्षोऽपि वा स्वतनुयोगवियोगभेदात् ॥ ३१ ॥ तस्मिन् विभौ तु सतताऽखिलकाययोगा दापद्यते सततबन्धनदुष्पसङ्गः । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) देहान् मृषेति मनुषे यदि तर्हि मोक्षे सिद्धे मुधा किमनुतिष्ठसि साधनानि ? || ३२ ॥ अस्मन्मते तनुभितो निजपुण्य-पापदेहादिभारभृदपारभवाब्धिमग्नः । सम्यक्चरित्र-मति-दर्शन लुप्तभारो जीवः प्रयात्यनिशमूर्ध्वमियं विमुक्तिः ॥ ३३ ॥ अर्थात् सुख, दुःख, ज्ञान प्रभृति आत्मीयगुण शरीर में ही दिखाई पड़ते हैं, और किसीने भी पूर्वोक्त गुण देह के बहार नहीं देखे, इसलिये यह बात साफ सबूत होती है कि जिसका गुण जहां है, वह भी वहां ही रहता है, याने आत्मा सर्वव्यापी नहीं है किन्तु देहव्यापी याने जितना बडा शरीर है, उत्तना ही परिणाम आत्माका है, और जिस शरीर में आत्मसंयोग है उसीसे उसका बन्ध और मुक्ति है ॥ ३१ ॥ यदि कोई आत्माको सर्वव्यापी माने तो वह आत्मा सर्व शरीर से संयुक्त होनेसे उसको सदैव बन्धन प्रसङ्ग होगा और यदि सब शरीरको मिथ्या माने तो मोक्ष स्वयं सिद्ध है, फिर मोक्ष के लिये कोइ भी अनुष्ठान क्यों करना ? ॥ ३२ ॥ हमारें मतसे आत्मा शरीरपरिमाणी है, और पुण्य पापके भारसे लिप्त है. जब वह सम्यग् ज्ञान, दशर्न, चारित्र को पाता है तब उसकी ऊर्ध्वगति होती है वही विमुक्ति ( मोक्ष ) है ॥ ३३ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) अब आपही उत्तर पक्षको प्रकट करते हैंजीवस्त्वयैव कृतहान्य-ऽकृतागमाभ्यां __ भीतेन नित्य उदितोऽस्य तनूमितत्वे । मातङ्ग-कीटवपुषारनयोः शरीर___ व्यत्यास आपतति संभवपूर्त्यभावः ।। ४२ ॥ संकोच-विस्तृतिकथाऽत्र वृथा तथात्वे__ऽस्यापद्यतेऽवयविताऽथ विनाशिता च । कापीक्ष्यतेऽवयविनोरुभयोर्न चैक देशस्थितिस्तदलमेभिरसत्प्रलापैः ॥ ४३ ॥ कस्मात् तपःक्षतसवासनकर्मजालो जीवः प्रयात्युपरि किं भयमत्र वासे । कर्मस्वसत्स्विह परत्र च नास्ति बन्धः कर्मस्थितौ तु गगनेऽप्यनिवार्य एषः॥४४॥ तुमने (जैनोने ) कृतहानि, अकृतागम दोषोंसे भय पाकर आत्माको नित्य माना है, और यदि उसको तुम तनुमात्र ( शरीर परिमाणी) मानोगे तो हाथीका और कीटका शरीरका व्यत्यास होगा याने हस्तिका शरीर में रहा हुआ जीव कीटके शरीर में कैसे जायगा !, कीटके शरीरमें रहा हुआ जीव हस्ति के शरीर में कैसे जायगा ! ॥४२॥ यदि तुम (जैन) संकोचं ( समेटना) और विकाश Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) (फैलना) आत्मा में मानोगे, तो वह अवयवि होनेसे विनाशी मानना पडेगा, और दो अवयवि तो कभी एक देशमे ठहर नहीं सकते, इसलिये ऐसा झूठा प्रलाप मत करो कि आत्मा व्यापक नहीं है ॥४३॥ और जब आत्मा निष्कर्मा होता है तब जैनीयोंके मत में वह उंचा चला जाता है, क्या इधर रहने में उसको कुच्छ भय है !, जो आत्मा निष्कर्मा है तो उसको कहिं भी रहने में हरज नहीं है, और आत्मा सकर्मक है तो ऊपर जानेसे भी क्या हुआ ? ॥ ४४ ॥ ___ इस उत्तर पक्ष में जो शास्त्रीजीने आत्मा का शरीर परिमाणत्वका खण्डन, आत्मव्यापकत्वका मण्डन किया है वह भी भ्रममूलक है, क्योंकि शास्त्रीजीने जो आपत्तियाँ आत्माका शरीर परिमाणमें दी है वे सब झूठी हैं, जो शास्त्रीजी कहते हैं कि जीव अपरिणामी कूटस्थ नित्य है. यह अनुभव, प्रमाण और वर्तमान विज्ञान से विरुद्ध है. वर्तमान विज्ञान ( सायन्स ) यह ही सिद्ध करता है कि दुनिया में कोई भी चीज केवल नित्य या अनित्य नहीं है. किन्तु सब पदार्थ नित्य, अनित्य उभय स्वरूप हैं यदि आत्मा को या कोई पदार्थको अपरिणामी नित्य माना जाय तो वह अपरिणामी कूटस्थ नित्य पदार्थ कभी एक भी क्रिया नहीं कर सकता. देखिये वस्तुनस्तावदर्थक्रियाकारित्वं लक्षणम् , तचैकान्तनित्यानित्यपक्षयोर्न घटते, अपच्युताऽनुत्पन्नस्थिरैकरूपो हि नित्यः, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८ ) स च क्रमेणार्थक्रियां कुर्वीत, अक्रमेण वा ?, अन्योऽन्यव्यवच्छेदरूपाणां प्रकारान्तरासम्भवात् । तत्र न तावत् क्रमेण, स हि कालान्तरभाविनीः क्रियाः प्रथमक्रियाकाल एव प्रसह्य कुर्यात् ; समर्थस्य कालक्षेपाऽयोगात् । कालक्षेपिणो वाऽसामर्थ्यप्राप्तेः । समर्थोऽपि तत्तत्सहकारिसमवधाने तं तमर्थ करोतीति चेत् । न तर्हि तस्य सामर्थ्यम् ; अपरसहकारिसापेक्षवृत्तित्वात ; सापेक्षमसमर्थम् , इति न्यायात् ।। न तेन सहकारिणोऽपेक्ष्यन्ते अपि तु कार्यमेव सहकारिष्वसत्स्वभवत् तानपेक्षत इति चेत् । तत् किं स भावोऽसमर्थः समर्थो वा ? । समर्थश्चेत्, किं सहकारिमुखप्रेक्षणदीनानि तान्युपेक्षते ?, न पुनर्झटिति घटयति । ननु समर्थमपि बीजम्इलाजलानिलादिसहकारिसहितमेवाङ्करं करोति, नान्यथा । तत् किं तस्य सहकारिभिः किश्चिदुपक्रियेत, न वा ? । यदि नोपक्रियेत, तदा सहकारिसनिधानात् प्रागिव, किं न तदाऽप्यर्थक्रियायामुदास्ते ? । उपक्रियेत चेत् सः, तर्हि तैरुपकारोभिन्नो भिन्नो वा क्रियत इति वाच्यम् ?। अभेदे स एव क्रियते । इति लाभमिच्छतो मृलक्षतिरायाता, कृतकत्वेन तस्यानित्यत्वाऽऽपत्तेः। भेदे तु स कथं तस्योपकारः ?, किं न सह्य-विन्ध्यादर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९ ) पि । तत्संबन्धात् तस्यायमिति चेत् । उपकार्योपकारयोः कः सम्बन्धः १ । न तावत् संयोगः; द्रव्ययोरेव तस्य भावात् । अत्र तु उपकार्य द्रव्यम् , उपकारश्च क्रियति न संयोगः । नापि समवायः; तस्यैकत्वात्-व्यापकत्वाच प्रत्यासत्तिविप्रकर्षाभावेन सर्वत्र तुल्यत्वाद् न नियतैः सम्बन्धिभिः सम्बन्धो युक्तः । नियतसंबन्धिसंबन्धे चाङ्गीक्रियमाणे तत्कृत उपकारोऽस्य समवायस्याभ्युपगन्तव्यः । तथा च सति उपकारस्य भेदाऽभेदकल्पना तदवस्थैव । उपकारस्य समवायादभेदे, समवाय एव कृतः स्यात् । भेदे, पुनरपि समवायस्य न नियतसम्बन्धिसंबन्धत्वम् । तत्रैकान्तनित्यो भावः क्रमेणार्थक्रियां कुरुते । ____ सब दर्शनकारोने वस्तुका लक्षण अर्थक्रियाकारित्व माना है, यह लक्षण कूटस्थ और अपरिणामि आत्मा में जा नहीं सकता. कूटस्थ और अपरिणामि वह कहा जा सकता है जो कभी नष्ट नहीं होता हो, जो कभी उत्पन्न नहीं होता हो, और जिसका एकही स्थिर ही रूप हो, यद्यपि ऐसा पदार्थ जगत में एक भी नहीं है यह बात आजकाल के नये विज्ञान ( सायन्स ) विद्याविशारदोने भी जगत को प्रत्यक्ष कराई है तब भी "तुष्यतु दुर्जनः" इस न्याय से एक आत्मा को हम ऐसा कूटस्थ अपरिणामी नित्य माने तो वह एक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) भी व्यापार को नहीं कर सकता. मैं पूछता हूँ कि कूटस्थ अपरिणामी आत्मा अपने व्यापार को क्रम से करेगा ?, या युगपत् करेगा ?, क्योंकि विना क्रम और अक्रम दूसरा कोई भी उपाय नहीं है कि जिससे क्रिया हो सके. यदि महाशयजी कहें की क्रम से व्यापार करता है, तो यह नहीं हो सकता, क्योंकि जब वह आत्मा कूटस्थ, अपरिणामी नित्य है तो उसको व्यापार करने में किसी की अपेक्षा नहीं है याने वह स्वयं समर्थ है, तो कालान्तर में होनेवाली जो क्रियाएं है उनको भी एक ही काल में करने में समर्थ होना चाहिये, अन्यथा वह असमर्थ होनेपर अनित्य हो जायगा. अब शास्त्रिजी यदि फिर कहें की वह आत्मा किसीकी अपेक्षा नहीं रखता है, किन्तु होनेवाला जो कार्य है सो विना सहकारी नहीं होता है, तब मुझे कहना चाहिये की वह आत्मा पदार्थ समर्थ है ?, या असमर्थ है ?, यदि समर्थ है, तो वह उस कार्य को क्यों सहकारी की अपेक्षा रखने देता है ?, क्यों शीघ्र पैदा नहीं करता है ?, फिर शात्रिजी उच्चारे की क्या समर्थ भी सहकारी की अपेक्षा नहि रखता है ?, अवश्य रखता है, जैसे वृक्ष को पैदा करनेवाला बीज समर्थ होनेपर भी पृथ्वी, जल, वायु और तापकी अपेक्षा रखता है, इसी तरह यह समर्थ भी आत्मा व्यापार करने में सहकारी की अपेक्षा रखता है, उससे वह उस बीजकी तरह असमर्थ नहीं कहा जायगा. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब हम यह पूछते हैं कि क्या वह सहकारीगण उस आत्मा का कुछ उपकार करते हैं, या नहि करते हैं ?. यदि नहि करते हैं, तो जब वह सहकारी हाजिर नहीं था तब वह आत्मा अर्थक्रिया नहीं करता था, वैसे ही सहकारीगण सेवा में उपस्थित होने पर भी क्यों अर्थक्रिया करेगा ?. अब शास्त्रिजी कहें की सहकारी उसको उपकार करते हैं, तो वह सहकारी कृत उपकार आत्मासे भिन्न है, या अभिन्न है ?, यदि वह उपकार को अभिन्न माना जाय तो जैसे क्रियमाण उपकार अनित्य है, उसी तरह तदभिन्न आत्मा भी अनित्य हो जायगा, इसीसे लाभ होनेकी चेष्टा करते हुए भी आपने अपने लाभ को नष्ट किया. यदि क्रियमाण उपकार और उपकार्य आत्माको भेद माने तो वह उपकार उसी आत्मा को है ऐसा ज्ञान कैसे होगा ?. वह उपकार और किसीका क्यों नहीं है, इसमें क्या प्रमाण है ?, यदि शास्त्रीजी कहें की उपकार और उपकार्य को परस्पर समवाय नामक संबन्ध है, जिससे 'तस्यैवायमुपकारः' यह ज्ञान स्पष्ट होगा, तब मैं यही कहता हूं की समवाय मानने पर भी वह ही दोष आवेगा, क्योंकि समवाय भी एक खपुप्प तुल्य पदार्थ है, और वह एक, व्यापक होने से ( उसीसे ) उसका संबन्ध सर्वत्र होने से यह नियम नहीं हो सकता है कि यह उसका ही उपकार है. और कोई समवाय पदार्थ ही नहीं है, क्योंकि जैसे समवायत्व समवाय में स्व Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) रूप संबन्ध से रहता है वेसैही पृथिवी में पृथ्वीत्व, घट में नील वगैरह को भी स्वरूप संबन्ध से रहने वाले मानो, क्यों निष्फल समवाय की जूठी कल्पना करते है ?, भला यह क्या बात है कि पृथिवीका धर्म पृथ्वीत्व तो पृथ्वी में समवाय से रहे, और समवाय का धर्म समवायत्व समवाय में स्वरूप संबन्ध से रहे ?, हम तो यह कहते हैं कि दोनों धर्म एकही संबन्ध से मानना चाहिये, तो जो समवाय से मानो तो समवाय का एकत्व नष्ट होजायगा, और स्वरूप संबन्ध से मानो तो यह बात सर्वाभेद्य है, इस लिये समवाय कोई भी प्रकार से पदार्थ की गिनती में नहीं आ सकता, और पूर्वोक्त प्रकार से नित्य पदार्थ क्रमसे अर्थ क्रिया नहीं कर सकता है. यदि शास्त्रीजी कहें कि अक्रम से अर्थक्रिया करता है, तो फिर जरा शास्त्रीजी स्वयं सोचे की वह जब अक्रम से ( युगपत् ) साथही एक क्षण में सब क्रिया कर देगा तो फिर दूसरे क्षण में क्या बनावेगा ?, यदि कुछ न करे तो फिर अर्थक्रिया शून्य होने से पदार्थ की गणना में कैसे आ सकता है ? और यदि कुछ क्रिया करे तो फिर क्रम ही हो गया, और शास्त्रीजी का अक्रम पक्ष तो गंगास्नान करने को गया, और भी यह बात अनुभव से विरुद्ध है की एक ही पदार्थ सब क्रियाओं को एक क्षण में कर देवें, इसलिये कभी अक्रम से भी अर्थक्रिया नहीं हो सकती है. तब जब कूटस्थ अपरिणामि नित्य मानने पर कोइ चींज Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम, अक्रम से एक भी क्रिया नहीं कर सकती है तब पदार्थ की श्रेणी में तार्किक लोग कैसे मान सकते हैं १. पाठक ! अब तक शास्त्रीजी का एक भी पक्ष नहीं ठहर सका है, तब भी सब से अधिक अनुकम्प्य ब्राह्मण वर्गस्थ शास्त्रीजी को एक बात मैं सिखलाता हूं, कि जिससे शीघ्र ही शास्त्रीजी विजयी बनें. शास्त्रीजी महाशय ! अब अपने यशकी रक्षा के लिये जो आपने धर्मान्धता का वेष पहिना है उसको उतारिये और निष्पक्षपातिका ड्रेसको अपने दिल पर गा लीजिये याने आप आकाश से लेकर परमाणु तक छोटा मोटा सब पदार्थ को नित्यानित्य मानें तो आपके यह मत में बृहस्पति भी दूषण नहीं डाल सकता है. जैसे उदाहरण में आप आत्मा को ही समझिये की आत्मा जब गमनक्रिया में प्रवृत्त होता है तब उस क्रिया के पूर्व आत्मा की शयन क्रिया में जो प्रवृत्ति थी वह नष्ट होती है, अर्थात् सब पदार्थ क्रिया करते समय अपने पूर्व का आकार ( पर्याय ) को त्यजते हैं, और उत्तर के आकार को स्वीकारते हैं. जैसे एक वस्त्र पर काला रङ्ग है. उसको धोने से वह चला नाला है, और वस्त्र भी लाल हो सकता है, उससे वस्त्र नष्ट होता है यह बात नहीं है, वैसेही यह आस्मा भी अपना पूर्व रङ्ग को छोड़ता है, उत्तर रङ्ग को खीकारता है इससे वह परिणामी है किन्तु नष्ट नहीं होता है. और भी आज कल के नये विज्ञान से यह साफ सिद्ध Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती है की मूल द्रव्य, वह तो नित्य है. परंतु वह मूल द्रव्य में समय समय में परिणाम हुवा ही करता है. किन्तु वह मूल द्रव्य मष्ट नहीं होता है और वास्तवमें वस्तुका सत्य स्वरूप तो यह ही है की जिसमें उत्पाद, व्यय, प्रौव्य यह तीन रहता है वह ही पदार्थ है और इससे अन्य सब ब्राह्मणपुच्छ की तरह है. पाठकगण ! खूब सोच के पढ़े, इस समय में पूर्वोक्त उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य का स्वरूप दिखलाता हूँ. जो पदार्थ उत्पन्न होता है, बदलता भी है, और स्थिर रहता है वह ही पदार्थ है, यह बात अनुभव से सिद्ध भी है, परन्तु शोक है की शास्त्रीजी की वृद्धावस्था होने से उनको पक्ष पा का चश्मा आगया है. देखिये- आपका ही ( शास्त्रीजी का ) उदाहरण- आपका नाम गंगाधर है जो बहुत छोटी अवस्था में रक्खा गया था, जब वह नाम रक्खा गया तब आपकी शरीराकृति और ही थी और अब आपका शरीरसौन्दर्य उस आकृति से बिलकुल विपरीत है. जिस आकृति की विद्यमानता में आपका नाम गंगाधर रक्खा गया था वह आकृति न होने पर भी इस समय सब लोग आपको गंगाधर ही क्यों कहते हैं ?, जरा बुद्धि लगाकर विचारने से स्पष्ट सिद्ध होता है की जो पूर्वका गंगाधर था, वह कालादि परिणाम से विकृत होकर इस समय एक नया ही गंगाधर बना है, और जो नया बना है, जो विकृत हुआ था, यह दोनो में गंगाधर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) धारक एक चीज स्थिर है उससे अब भी आप गंगाघर शब्द वाच्य हैं. जब आपमें भी उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य यह तीन शक्ति है, तो आपको यह शक्ति सब पदार्थ में मानने में क्या हानि है ? और पूर्वोक्त युक्तिसे आत्मा में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य मानने पर एक भी दूषण गौतमगुरु भी नहीं दे सकते. इससे यह ही फलितार्थ हुआ की आत्मा कूटस्थ नित्य नहीं है, तब भी जो शास्त्रिजी को आग्रह है की आत्मा कूटस्थ नित्य है, उससे वह पक्ष में और भी दूषण बतलाता हूँ-- नैकाम्तवादे सुख-दुःखभोगौ न पुण्य-पापे न च बन्ध-मोक्षौ । दुर्नीतिवादव्यसनासिनैवं परैर्विलुप्तं जगदप्यशेषम् ॥ २७॥ जो युक्तियां मैंने पदार्थकी अर्थक्रियाके बारेमें दिखलाई है, उसी ही तर्को से कूटस्थ नित्य आत्मा कभी सुख, दुःखको अनुभव में नहीं ला सकता, वैसे जीवको पुण्य, पाप भी लग नहीं सकता, वह आत्मा कभी बद्ध, मुक्त नहीं होसकता, है, इसलिये सापेक्ष आत्मा नित्यानित्य है यह सिद्धान्त अवश्य स्वीकारना पड़ेगा. और जैनदर्शन से, नव्य विज्ञान से भी यह बात सिद्ध की गई है कि सब पदार्थ मात्र नित्यानित्य हैं तब भी, शास्त्रिजी ! आपकी यह. पुरा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगप्प आपका मालचन्द्र ही सुनेगा और कोई प्रामाणिक न मानेगा, और जो शास्त्रिजी ने कहा की हाथी का आत्मा कीट में कैसे जायगा और कीटस्थ जीव हाथी में कैसे जायगा यह भी शास्त्रीजी की शङ्का गलत है. क्योंकि सब लोग आबालगोपाल यह अनुभव करते हैं की एक बड़ा भारी दीपक जिसमे बहुत प्रकाश हो, उसको लाकर बड़े कमरे में रखिये तो उसका सारा प्रकाश सारे कमरे में फैल जायगा, और उसी बड़ा भारी दीपक को एक छोटी पर्णकुटी में रखिये तो वह प्रकाश का दृश्य और कुछ हो जायगा याने इससे यह सिद्ध होता है की प्रकाश तो दोनों स्थल में समान ही है किन्तु जिसको जितना फैलने के लिये स्थान मिलता है उतनाही फैलता है इसी तरह आत्मा का कोई भी मान नहीं है, किन्तु उसमें यह एक प्रकार की शक्ति है की जहां जितना स्थल वहां उसका उतनाही पसरना होता है इसलिये शरीरी आत्मा का प्रमाण जिस शरीर में वह है उतनाही है ऐसे सिद्धान्त में कुछ बाधाही नहीं होती है. मुझे हँसी आती है कि जो लोग, जो ऋषी यह कहते हैं कि आत्मा का परिमाण महत् है तो वे ऋषी महाशय कणाद, गौतम, गङ्गाधरजी प्रभृति गज लेकर क्या आत्मा को नापने गये थे? हरगिज नहीं, परन्तु यह झूठा जाल पसार कर बिचारे अज्ञानी प्राणिओं को दुर्मार्ग दिखलाकर वे गृहविजयी बनते हैं. पाठकगण! और भी इसी विषय में कुछ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) युक्तियां दिखलाता हूं यत्रैव यो दृष्टगुणः स तत्र कुम्भादिवनिष्पतिपक्षमेतत् । तथाऽपि देहाद् बहिरामतत्त्व मतत्त्ववादोपहताः पठन्ति ॥ ___ यह बात सबको ही मालूम है कि जहां जो गुण रहता है, वहां ही उस गुण का आधार भी अवश्य रहता है. जैसे जहां घट का रूप की स्थिति है उसी स्थल में घट की भी स्थिति चार आखों से देखने में आती है. उसी तरह आत्मा का गुण ज्ञान, स्मरण, अनुभव, चैतन्य प्रभृति जहां रहते हैं, जहां देखने में आते हैं वहां आस्मा की स्थिति भी होनी चाहिये. इस सिद्धान्त का विरोधक और कोई भी सिद्धान्त न होने पर भी हमारे अविद्या से उपहत शास्त्रीजी बाबा अपनी सच्ची करने के लिये प्रत्यक्ष प्रमाण से स्थिर बात को भी नहीं मानकर प्रज्ञाचक्षु की गिनती में आना चाहते हैं. पाठक महोदय ! यह बात प्रत्यक्ष प्रमाण से स्थिर की गई है कि आत्मा का ज्ञानादि गुण केवल स्थूल शरीर में ही उपलब्ध होते हैं. तब भी आत्मा सर्व व्यापक है यह कहना केवल अपने पाण्डित्य को कलकित करने को उद्यत होना है. भला ऐसा कोई कह सकता है कि अमि ( आग ) तो सर्वव्यापक है परन्तु उसका दाह गुण तो सिर्फ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) · चूहा में ही मालूम होता है ? ब्राह्मण तो सर्वव्यापक है, किन्तु ब्राह्मण का धर्म तो अमूक गल्ली में ही मिल सकते हैं. ऐसी ऐसी ब्राह्मणपुच्छ समान बातों को कहनेवाले बड़े प्राज्ञ समझे जाते हैं, और भी आत्मा व्यापक मानने में बडी २ आफत का सामना करना पड़ता है, जैसे यदि कोई शास्त्रीजी बावा को पूछे की जो आत्मा व्यापक है तो वह अमूक अमूक स्थल में ही क्यों भोगादि करता है ?, सर्वत्र अपना भोगादि क्यों नहीं करता है ?, तब तो शास्त्रीजी कांपते कांपते कहेंगे की यह बात तो उपाधि भेद से मालूम होती है, वास्तव में आत्मा सर्वत्र है. फिर कोई शास्त्रीजी से पूछै की क्या उपाधि से जो भेद मालूम पड़ता है वह सच्चा है की झूठा ?, यदि शास्त्रिजी कहैं कि झूठा तब तो वे सारे संसार के व्यवहारके, नाशक भये क्योंकि आत्मा पुरुष नहीं है, आत्मा स्त्री नहीं है, जात्मा क्लीब नहीं है आत्मा ब्राह्मण नहीं है, आत्मा शूद्र नहीं है, आत्मा माता नहीं है ऐसे प्रकार से जो जो जगत् में व्यवहार चले आते हैं, वे सब का कारण फ़क्त उपाधि ही है. याने अपनी २ कर्मस्थिति ( उपाधि ) भिन्न होने से समान स्वरूप आत्मा भी भिन्न प्रकार से व्यवहृत होता है, यदि यह सब व्यवहार उपाधि जन्य होनेसे जूठा माना जाय तो जगत ही नहीं चल सकता, इस लिये उपाधि जन्य व्यवहार में भी प्रामाण्य रहा हुवा है. इसलिये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९ ) • शास्त्रिजी सर्वज्ञ होने पर भी यह कभी नहीं कह सकते हैं कि उपाधि जन्य व्यवहार असत्य, मिथ्या है, यदि शास्त्रिजी कहें की यह सब भ्रान्त है जैसे स्फटिक निर्मल होने पर भी यदि कोई लाल, काला पदार्थ उसके पास रक्खा जाय कि तुरन्त उसका रंग बदलके लाल, काला, हो जायगा, इसलिये स्फटिक का मूल श्वेतवर्ण तो सत्य हैं और दूसरे पार्श्वस्य पदार्थ से भये हुये स्फटिक वर्ण भ्रान्त है, तो यह भी बाबाजी कि झूठी बात है, क्योंकि आप महामहोपाध्याय तो हुए हैं परन्तु अफसोस है कि आपने आज काल की नयी साइन्स विद्या कुछ भी न देखी, यदि आप पूर्वोक्त बात कोई साइन्स विद्या विशारदको कहते तो वे जरूर हँसता और आपकी महामहोपाध्यायता पर मुग्ध हो जाता; प्यारे महाशय ! एक पदार्थ से जो दूसरे पदार्थ में परिणाम होता है सो कभी मिथ्या, भ्रान्त नहीं है, जैसे कोई रंगसाज ने लाल रंग से एक श्वेत कपड़ा को लाल बनाया, तो क्या उस कपड़े का लाल रंग झूठा कहा जावेगा ?, और श्वेतरंग सच्चा कहा जावेगा ?, यह कभी होही नहीं सकता, क्योंकि दोनों रंग सच्चे हैं. यदि दोनों में से एक भी झूठा होता तो बजान से और रंगरेज से कोई वस्त्र ही नहीं खरीदता, और रंग की दुकान पर जो लाखों रुपये कि आमदनी है सो भी नहीं होतीं, इसलिये वस्त्र रंग की तरह स्फटिक का रंग भी जो भिन्न भिन्न पार्श्ववर्ति प Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्थों से होता है सो प्रान्त, मिथ्या नहीं है, उसी तरह आपका व्यापक आत्मा भी उपाधि से जो शरीर में ही प्रमाणित होता है सो भी असत्य नहीं है। अब तो आपका आत्मा व्यापक है, और उपाधि से छोटा है यह दोनों बात आपके अभिप्राय से सिद्ध हो चुकी तब मला आपके मत में एक आत्मा में दो विरुद्ध धर्म कैसे रह सकता है ? क्योंकि मी० व्यासजी ने लिखा है कि "नैकस्मिन्नसंभवात्" याने असंभव होने से एकही पदार्थ में प्रकाश और अन्धकार कि तरह दो विरुद्ध धर्म नहीं ठहर सकते हैं, तब भला आप क्या करियेगा ! क्योंकि आपने पूर्वोक्त युक्ति से दोनों बात ( उपाधि जन्य लघुत्व, व्यापकत्व ) सिद्ध किया है, यदि दोनों ही एक ही आत्मा में आप मानें तो आपके प्रपितामह के वचन पर पोचा फेर जायगा, और यदि एकही आत्मा में यह दोनों बात को आप न माने तो आप प्रमाणसिद्ध वस्तु के अपलापी की पदवी से विभूषित किये जायंगे. पाठकगण ! अब यह बूढे ब्राह्मण को "इतो नदी इतो व्याघ्रः" यह दशा हुई है, अब भी जो वे माने की जड़ चेतन सब पदार्थों में परिणाम हुआ ही करता है और कोई भी कूटस्थ नित्य नहीं है सब वस्तु सापेक्ष नित्याऽनित्य है. और आत्मा का कोई भी नियत परिमाण नहीं है तब तो ये बच सकते हैं, अन्यथा प्रामाणिक और सायन्सवेत्ता यह ब्राह्मण की हंसी उड़ावेंगे. पाठक महाशय ! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) मैं कहां तक लिखू, यदि आत्मा व्यापक माना जाय तो आत्मा का शरीर के बाहर का जो अंश है सो तमाम निकम्मा ( निष्फल ) है, क्योंकि वह अंश, कुछ नहीं जानता है, न स्मृति कर सकता है, और न कोह भी क्रिया वह कर सकता है, ठीक ठीक वह अंश और जड़ पदार्थ समान हो जाते हैं, इसलिये यही कहना ठीक है कि आत्मा खशरीर परिमित है, और यदि आत्मा को व्यापक मानें तो फिर उपासना क्यों करनी !, उपासना किसकी करनी यह सब प्रश्न उपस्थित होते हैं, जिसका उत्तर श्रीब्रह्माजी, सी. आई. इ. भी नहीं दे सकते हैं, इसलिये शास्त्रीजी से मैं नम्र प्रार्थना करता हूं की आप सत्य के पक्षपाती बनकर अपने ब्राह्मण जन्म को सफल कीजिये, और कुछ कृपाकर सायन्स भी पढ़ लीजिये जिससे पाश्चात्य लोग आपकी हंसी न करें। जो शास्त्रीजीने लिखा है कि मुकजीव उपर क्यों जाते हैं !, यह शास्त्रीजीकी शङ्का शास्त्रीजीकी सब पोलको खोल देती है, क्योंकि जड़, चेतन यह दोनों पदार्थ में क्या क्यां शक्तियां हैं उससे शास्त्रीजी अपशिचित है. देखिये, और सावधानी से विचारिये पूर्वप्रयोगात् , असङ्गत्वात् , वन्धच्छेदात् , तथागतिपरिणामाच तद्गतिः॥ मर्थात् यह चार प्रकार से जीवकी ऊर्ध्वगति होती है. शास्त्रीमी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) महाशय ! जैसे एक कुम्भारने अपने हस्त, दण्डका प्रयोग से चक्र को चलाया, फिर वह कुम्भार अपना हस्त, दण्डका प्रयोग नहीं करता है तब भी वह चक्र बहुत समय तक चला करता है अर्थात् वेगसे यह चक्र चलता है वैसेही कर्म (पुण्यपाप) रूप कुलाल से यह आत्म चक्र घुमाया जाता है, जब वह कर्म कुलालका समूल नाश हो गया, तब भी पूर्व के वेगसे वह मुक्तजीव उपरही जाता है. दूसरा प्रकार यह है कि जीव में हमेशा ऊपर जानेकी ही शक्ति नियत है, जड़में हमेशा अधोगमन की शक्ति नियत है, परन्तु जब तक जीव और पुद्गल किसी के अधीन रहते हैं तब तक उसकी सब तरफ गति होती है, और जब जीव, पुद्गल असङ्ग, स्वतन्त्र होते हैं तब उसकी गति अपने नियमानुसार ऊपर और नीचेही होती है, तीसरा प्रकार तो खेतिहर भी जानता है. जैसे एरण्ड की सिङ्गका बन्धच्छेद करने से एरण्डकी ऊर्ध्वगति होती है वैसेही जीव के कर्मबन्धका छेद होने से उसकी उच्चगति होती है, और चौथा प्रकार तो स्पष्ट ही है कि जैसे तुम्बको जब पङ्कलगता है तब जलं के नीचे जाता है, और जब पङ्क नष्ट होता है तब वह तुम्ब उपर चला आता है, सी तरह कर्मपङ्क नष्ट होने से वह जीवमें उच्चगमन का परिणाम होता है और वह ऊंचे लोकान्त तक जाता है, इसीसे ही शास्त्रीजी समजे होंगे की मुक्कजीव उपर क्यों जाता है यदि और भी कोई शङ्का शास्त्रीजी की होवे तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) उसको भी विनीतता से पूछने से उत्तर दे सकता हूँ. अब शास्त्रीजी के शब्दार्थ कोश ज्ञान की मीमांसा की जाती है, मैं सुनता हूं कि शास्त्रीजी साहित्य के बड़े नामी विद्वान है किन्तु यह बात इस ‘अलिविलासी' को देखकर संदिग्ध हो जाती है, क्योंकि शास्त्रीजीने इस 'अलिविलासी' में कई श्लोको में जहां जैनो का खण्डन हो रहा है उसमें जैनके स्थान पर बौद्धसूचक शब्द रक्खा है, याने कौन शब्द बौद्धका वाचक और कौन शब्द जैनका वाचक है यह बात शास्त्रीजी से अपरिचित है, देखिये इत्थं तथागतपथागतवेदनिन्दा. सर्वेश्वरादरविरोधवचो निशम्य ॥ ३५ ॥ तथागतपधामताहितकथा वितीर्णप्रथा ॥१०३ ॥ चतुर्थशतक. ऐसे बहुत से श्लोक में अर्हन का पर्याय तथागत को स्क्खा गया है। पाठक ! आपही कहिये की इस वृद्धावस्थामें भी शास्त्रीजी को कोश कण्ठस्थ करने की आवश्यकता है या नहीं शास्त्रीजी महाशय ! तथागत नाम अर्हन् ( जैनधर्मप्रकाशक ) का नहीं है किन्तु यह नाम आपके बुद्धावतार, बुद्धदेव को बतलाता है, परन्तु भईन का नाम तो यह है कि अर्हन् जिनः पारगतस्त्रिकालवित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) क्षीणाष्टकर्मा परमेष्ठ्यधीश्वरः । शम्भुः स्वयम्भूर्भगवान् जगत्पतितीर्थकर स्तीर्थकरो जिनेश्वरः ॥ ( इत्यादि ) अब मैं अपनी लेखनी को विश्रान्ति देता हुआ आपसे (शास्त्री जी से) प्रार्थना करता हूँ कि 'सहसा विदधीत न क्रियाम्' इस वाक्य को आप बराबर याद रखिये, याने जिस सिद्धान्त का खण्डन करना उसका मण्डन बराबर देख लेना, परन्तु गडरिका प्रवाह की तरह प्राचीन बुड्ढोकी माफक अण्ड बण्ड नहीं घसेटना. समय आनेपर वे सब बुड्ढों की ( कुमारिल, गौतमादि की ) भी मनीषा मीमांसा करूँगा. अब जिस वेद में हिंसा भरी हुई है, और जिस वेद की भाषा का भी कुछ ठिकाना नहीं है, क्योंकि ऋषी पाणिनीय ने भी अपनी प्राकृतमञ्जरी में छ भाषा की गिनती की है जो संस्कृत, प्राकृत शौरसेनी, पैशाची, मागघी और अपभ्रंश है, उसमें की कोई भी भाषा वेद में नहीं है, किन्तु वेद में विचित्रही भाषा है, उस वेद को भी धर्मान्धशास्त्रीजी ईश्वर तुल्यमान रहे हैं, अहो ! क्या श्रद्धा का चमत्कार की गधे को भी सींग मानना, बस लेख में जो कुछ शास्त्रीजी की हित शिक्षा के लिये कटु शब्द लिखे गये हों सो शास्त्री - जी क्षमा करें । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज २५० निबंध. 45 . IN मनुष्याचे स्वाभाविक अन्न.. मुनि महाराज श्री हंसविजय वीच्या मदुपदेशने...' अमदाबाद हंसविजयजी जैल लायब्ररीकरिता त्यांच्या खर्चान प्रकाशक प्राणिरक्षकसंस्था धुळे. बा. ३०-७-१४ प्रति ५,०००, अमूल्य. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्या कोणाम प्राणीरक्षक संस्थेम काही मदत करावयाची इच्छा होईल त्यांनी कृपा करून परभारें मेक्रेटरी प्राणीरक्षक संस्था धुळे य: पत्या वर पाठवावी. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. मनुष्यप्राण्यांस. आरोग्यता, शक्ति. वः दीर्घायुपता वगर कसे प्राप्त होईल यासंबंधी तपास पाश्चिमात्यः देशांत एक सारखे चालू आहेत. व विद्वान डाक्तर लोकांनी यासंबंधी बराच शोध करून असे सिद्ध केले आहे की मनुष्यास जे. कांहीं रोग होतात तें दररोज खाण्यांत येणाऱ्या.मलिन व अमंगळ मांसासापासूनच होतात. तेव्हा अशा प्रकारचे अन्न लोकांनी खाऊ नये ह्मणून खटपट करण्याकरिता पाश्चिमात्य देशांत ( व्हेजिटेरिअन ) वनस्पतिआ. हाराचा फैलाव करण्यासाठी काही संस्था स्थापन झाल्या असून त्यांनी लाखो लोकांस मांसाहारापासूनः सोडविण्याची खटपट चालू ठेवली आहे. तसेच मुक्या जनावरावर होणा-या घातकी षणास: आळावालण्याकरतां: काही मंडळ्या स्थापन झाल्या असून थंचे चाललेले प्रयत्नः पाहून फारच आश्चर्य वाटते. जनावरांची जोपासना कशी करावी याचे सांगोपांग ज्ञान देण्याची व्यवस्था तिकडे करण्यांत आली आहे. व निरनिराळ्या प्रांतांत कुले, मांजर, बकरी, मेंढ, घोडा, गाय, बंगरे याची जोपासना कशी करितात यांसंबंधी मासिक पुस्तके काढून त्यांचा लोकांत प्रसार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मनुष्याचें स्वाभाविक अन्न' आपले शरीर हैं एक प्रकारचें यंत्र आहे. यंत्राचा कांहीं भाग त्याच्या गतीमुळे घासून जातो; त्याप्रमाणें आपल्या शरीरांबील अवयवांचा भाग श्रमामुळे शक्तिहीन होतो. शक्तिहीन होणारा भाग पूर्वीप्रमाणे भरून काढण्याकरितां आपणांस अन्न खाण्याची अत्यंत जरूर आहे. यंत्राचे भाग नीट सुरळीत चालण्यासाठी वारंवार त्यास तेल द्यावें लागतें; त्याचप्रमाणें मानवी शरीररूपी यंत्राचे भागास देण्यासाठीं रुधिररूपी तेलाची अत्यंत अवश्यकता आहे व त्याची उत्पत्ति अन्नापासून होतें. आपण जे पदार्थ खातो; त्या पदार्थामध्ये असा एक गुण आहे कीं, शरीरास बळकटी आणून अंगांत उष्णता उत्पन्न करतो व ती उष्णता शरी रांत कायम टिकून तीपासून चरत्री उत्पन्न होऊन रक्ताची वृद्धि करतो. तसेंच हाडास वळकटी आणण्यास कणखर पदार्थाची Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) अवश्यकता आहे तो पदार्थ ( लाइमखार ) ही यापासून मिळून हाडास मजबुती आणतो. आपला मुख्य व अवश्य असा खुराक अन्न - वनस्पतिजन्य - च आहे. जसें निरनिराळ्या प्रकारचें धान्य, भाजीपाला व फळ फळावळ. पौष्टिक पदार्थात दुध व त्या पासून होणारें दही, म लाई, तूप, ताक हीं होत. शरीरांस पोषण करून बळकटी आणणारें सत्व त्यांत असतांना सुद्धां या देशांतील कांहीं लोक जसें क्षत्रिय, कोळी, वाघरी, रजपूत वगैरे हिंदु, मुसलमान, पारसी, ख्रिस्ती व अन्य जातीचे लोक मांस खातात. धर्मशास्त्रदृष्ट्या विचार केला तर कोणत्याच धर्मांत धर्माच्या नांवानें हिंसा करण्याची अगर मांस खाण्याची आज्ञा नसतां - ना सुद्धां केवळ अज्ञानपणानेंच ही घातकी चाल चालत आली आहे. असें ह्मणणें गैर होणार नाहीं. या संबंधान किशेष विचार करतांना असें अनुमान निघतें कीं, ज्यावेळी भयंकर दुष्काळ पडून अथवा भयंकर रण माजून अन्नाचा तुटवडा पडत असेल व त्या वेळी केवळ प्राणरक्षणासाठी मांस खाण्यांत आले असेल व तीच रुडि पुढें अमलांत येऊन जास्त प्रमाणाने प्रचारांत आलेली असावा ! कारण नुसत्या मांसावरच मनुष्याचें जीवन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) अवलंबून नसून त्यास अन्नाची अत्यंत अवश्यकता आहे, केवळ मांसच खाऊन राहणारा मनुष्य प्राणी जगणे फारच कठीण! आपणांस नित्य लांगणाऱ्या मांसाकरितां प्राणी वध करणे अत्यंत जरूर आहे. हिला करणे झणजे पापाचा संग्रह करून शेवटी नरकचं भोगणें जरूर आहे. तेव्हां हिंसा या शब्दाचा अर्थ पाहूं. संस्कृतांत मुळ शद्ध हिंस हा असून याचा अर्थ मारणे हा आहे ह्मणज एखाद्या प्राण्याचा वध करून जीव रहीत करणे हा हाय. एखाद्या प्र ____ या जगांतील लहान थोर सर्व प्राणीमात्राचा आत्मा एकसारेखा आहे. परंतु त्याच्या शरीराची रचना मात्र निरनिराळ्या प्रकारची असते. ज्याप्रमाणे दिव्याचा प्रकाश जागेच्या प्रमाणानं लहान मोठा असतो त्याचप्रमाणे आत्म्याचे चैतन्य प्राण्यांच्या शरीराप्रमाणे लहान मोठे असतें मनुष्याचा आत्मा वाचाशक्तिमुळे दुसऱ्या प्राण्यांच्या आत्म्यापेक्षा पुष्कळ सुधारलेला असल्यामुळे उच्च दर्जाचा दिसतो; कारण जथे वाचाशक्तिं आहे तेथे समजशक्तीस सुधारण्यात साधन मिळू शकते. जनावरांस वाचा नसल्या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) मुळे त्याची समजशक्ति वृद्धिंगत होऊ शकत नाही. शिवाय त्यांना जी समजशाक्त असते तिचा उपयोग केवळ शरीरपोषण व येणान्या संकटापासून रक्षण करण्यापलीकडे काही एक करणे शक्य नसते! पहा की, कित्येक वेळां कोल्हा, मांजर, कावळा, उंदीर हे प्राणी आपणांस कावेबाजपणाने कसे फसवीत असतात ? याचे दाखले वारंवार पहावयास मिळतात. त्याचे मुख्य कारण त्यांच्यामध्ये असलेली समजशक्ति हीच होय; परंतु वाचा नसल्यामुळे शरीराचे रक्षण व पोषण करण्यास लागणाऱ्या अकले पेक्षा जास्त अक्कल चालत नाही. यामुळे आपणांस वाटते की त्याच्यामध्ये तर्कशक्ति काही एक नाही. आतां जनावरांमध्ये समजशक्ति नाही तर मग त्यांनां मरणाचे भय, दुःख, त्रास वगैरे वाटत नाही काय? अगर एखाद्या जनावरास लांकडाने मारले असतां वेदना होत नाहीत काय ? होतात. परंतु वाचाशक्तीच्या अभावामुळे त्यास सांगता येत नाही. त. नुसता बंदुकीचा आवाज ऐकल्यावरोवर पक्षी एकत्र जमून ओरडून ओरडून इकडे तिकडे पळत असताना आपण पहात नाही काय? इतकेच नाही तर मांजर रस्तान जात .. असेल तर पक्षी आपल्या ओरडण्याने दुसऱ्या पक्ष्यास Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) सावध करताना आपण कित्येक वेळा पाहिले सुद्धा अनल! रात्रीचे वेळी आपण निद्रेच्या आधान पूर्णपणे जहों असतांनां ढेकूग आपणांस चावून रक्त प्राशन करण्यासाटी धडपड करितो तेव्हां त्यास पकडण्याचा प्रयत्न केला असतां कला पळून जातो; अगर मेल्याव संग करून पडून राहतो? हैं। सर्व चिन्हें कशाची वरें? हा सर्व चिन्हें भयदर्शक सूचविणारीच होत ! हे उघड आहे. तेव्हा एखाद्या पशूस मुहाम पकडून नेऊन त्याजपुढे सुरी नेल्यावर त्याल समजत नसेल असें ह्मणणे निार्थक होय. कित्येक वेळा असे होते की एखादे जनावरास कपताना दुसन्या जनावाने पाहिले तर तें कत्तलखान्यांत जातनाही इतकेच नव्हे तर पळून जाण्याचा प्रयत्न करते. अशावेळी त्यांस कत्तलखान्यांत न्यावयास फारच त्रास पडतो. एखादे कुत्रे विषान्न खाऊन मरत असेल तर दुसरा कुत्रा तेथे उभा सुद्धां राहत नाही. ते एबाद्या जनावरास त्याच्या मर्जी वि. रुद्ध कत्तलखन्यांत नेऊन त्याचे चारी पाय दोरीने गच्च बांधून त्यावर पाय ठेऊन त्याच्या मानबर सुरी चालवितानां किती दुःख त्यास होत असेल बरे? कारीत असताना पाय आपटून व मोठ्याने ओरडून मला सोडवा असे दर्शवित असताना सुद्धा त्या निर्दय इसमास दया कोट्टन यणार? कारण त्याचा हा दर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) रोजचा क्रम असल्यामुळे दयेचा अंकूर उत्पन्न होणे शक्यच नाहीं. यामुळे त्यांच्या ओरड्याकडे दुर्लक्ष होणे स्वाभाविक आहे. याच्या उलट मनुष्य प्राण्याची गोष्ट आहे. पहा जर कोणी इसम एखाद्या इसमाचा खून करीत असेल तर तो ओरडून आपल्या रक्षणासाठी लोकांस पाचारण करील व आपला बचाव करून घेईल. कारण त्यास वाचाशक्ति आहे हे होय! परंतु अवाचक प्राण्यांची कोणास दया न येऊन केवळ मांसाहाराच्या लालवीने कठोर अंतःकरणाचीं मनुष्ये त्यांच्या गळ्यावर सुरी चालवून वध करीत आहेत. प्राण जाण्याचे वेळी अत्यंत वेदना भोगून हाय हाय करून प्राण सोडतात व प्राण सोडण्याचे वेळीं असे दर्शवितात कीं, हे अधम पापी मनुष्या तुझे हाल माझ्या प्रमाणेच होवो! चारा खाऊन आह्मी मांसाची वृद्धि करीत असतांना कातडी सोलून आमचें मांस खाऊन आपलें मांस वृद्धिंगत करितां हे केवढे आश्चर्य आहे बरें ? या संबंधी एका कवीचं काय हणणे आहे तें पाहूं. घांस खा मांस धावे ताकी उतरे खाल । मांस खाके मांस धावे ताका कोण हवाल ॥ तेव्हां या गोष्टीचा विचार करावयास नको काय ? त्याच www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रम में निदाप पक्षी झाडावर बसून मधूर गायन करीत असताना त्यामगोगनें अगर गलोलीने दगड मारून जमिनीवर पाडतात त्यावेका ते पंख उडवून अत्यंत वान होऊन तडफडत प्राण सोडतात; परंतु दगडासारख्या कठीण अंतःकरणाच्या मनुष्यास दया कोठून असणार? ह्या वितभर पोटाकरितां निप, अवाचक, गरीब, परोपकारी प्राण्यांचा जाव घेतान्नं तुमचे वज्रासारखें कठीण हात मागें होऊ नयेत हे किती आश्चर्य आहे बरे ? आपल्या धर्मशास्त्रांत लिहिले आहे की, सर्व प्राणीमावास साचा आत्मा प्रिय आहे ह्मणून त्याची हिंसा करूं नका. महा भारतांत अनुशासन पर्वात असें झटले आहे की, प्राणदानात्परं दानं न भूतं न भविष्यति । नद्यात्मनः प्रियतरं किंचिदस्तो ह निश्चितम् ॥ प्रागदानापेक्षा दुसरें श्रेष्ट दान कोणतें ही नाही. कारण या लोकी आत्म्यापेक्षा दुसरी कोणतीही गोष्ट अधिक प्रियकर नाही. ह्यगून अभयदानासारखे दुसरे मोठे पुण्यच नाही. या संबंधाने येथे एका ऐतिहासिक गोष्टाचे टाचण करणे वावगें होणार नाही. ह्मणून ते येथे देतो. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) सुलतान महमद याचा बाप सबकगन ज्यावेळी सेजर धांवला परंतु हरिणा तर त्या लहान अर्भकास याचा गुलाम होता त्या वेळी त्याजजवळ फक्त एकच घोडा होता व त्याचा दररोज शिकारीस जाण्याचा परिपाठ असे. एके दिवशी शनांत एक हरिणी आपल्या बच्चास घेऊन चरत असतां तो तीस मारण्यास आपल्या जीवरक्षणार्थ पळून गेली. पळून जाता येईना. तेव्हां त्यास पकडून त्याच चारा पाव दोरीने घट्ट बांधून त्यात घेऊन चालले. तेव्हां हरिणाने डोळ्यास पाणी आणून आकाशाकडे पाहून अल्लाची विनंति केली कीं, बच्चास सोडून द्यावें, ही तिची करुणाजनक स्थिति पाहून सबक्तगीन वास दया येऊन त्यानें त्या बच्चास सोडून दिले. वें दवडत आपल्या आईजवळ जाऊन उभे राहिलें तेव्हां तिनें आपली कृतज्ञता दर्शवून अरण्यांत गेली. सबक्तगीन तसाच रात्री त्यास गाढ निद्रा लागली असतांना हजरत पैगंबरनें त्याच्या स्वप्नांत येऊन असें सांगितलें कीं, तूं त्या गरीब प्राण्यावर जी दया दाखविली ती पाहून भी फार खुप झालों आहे व तुला राज्यदान दिले आहे. तेव्हां तूं ज्याप्रमाणें या गरीब प्राण्यावर दया दाखविली आहेस, त्याप्रमाणे सर्व प्राणीमात्रावर दया ठेव. थोड्या दिवसानंतर तो गुलामगिरीतून मुक्त होऊन परत आला. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) त्यास राज्य प्राप्त झाले, हे कशाचें फळ बरें? ज्या वेळी दिसाठलेला कुत्रा तुमच्या अंगावर चावण्यासा* चालून येतो अथवा कोल्हा, वाघ, तरस वगैरे प्राण्यांपैकी एखादा प्राणी तुमच्यावर खाण्यासाठी हल्ला करण्याच्या हेतूने येत असल तेव्हा तुमच्या अंगावर रोमांच उभे राहून अंग घामाने डबडबून जाऊन गाळग उडून जाऊन जीव रक्षण करण्यासाठी तुझी धडपड करीत अाल परंतु या गवि अवाचक प्राण्यांचा जीव घेताना मात्र तुमच्या अंतःकरणांत दया उत्पन्न होऊ नये ही केवढी आश्चर्याची गोष्ट आहे बरे! सर्वांचा आत्मा जर सारखाच असून सर्वास सारखाच प्रिय आहे तर दुमन्याचा प्राण घेण्याचा अधि. कार तुह्मांस काय? दादु महाराज ह्मणतात की, काहेको दुःख दिजीए घर घर आत्माराम । दादु सब संताखिए यह सादुका काम ।। काहेको दुःख दिए साहेब है सब माहे । दादु एकही आत्मा दुजा के ई नाहे ।। साहेबजीको आत्मा दीजे सुख संतोख । दादु दुजा कोई नहीं क्या चवदस तिन्ही लोक ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) व त्यास उत्तम प्रकारचे भोजन घालून तो निद्रावश झाला मणजे त्यास लुटीत असत. हा त्यांचा नित्य क्रम असे. अशा मांवों परमहंस महाराजांचा मुकाम झाला. महागजांचे मान बंगो झाल्यावर त्यास सुग्रास भोजन देऊन तृप्त केले. तदनंतर स्वास निद्रा घ्यावी असे वाटले. निद्रा लागते न लागते तोच त्याचे मनांत चोरी करावी अशी इच्छा झाली हाणून महाराज झोप न घे. वां उठून बसले व विचार करू लागले की, आज मला अशी इच्छा काय झणून होत आहे ? तेव्हां त्यांनी तेथे असलेल्या एका वृद्ध मनुष्यास विचारिलें की हा गांव कोणाचा आहे, व या ठिकाणी गहणार लोक काय धंदा करितात? तेन्हां तो ह्मणाला हा गांव ठा लोकांचा असून त्यांचा धंदा चोरी काण्याचा आहे. हे ऐकून महाराजांनी त्याचक्षगी त्या जागेचा त्याग करून खाल्लेमें अन्न वमन करून टाकले व पुन्हां स्नान करून त्या गांवास समराम करून चालते झाले. एक वेळ अन्न भक्षण करण्याचा जर हा गुण तर निरंतर तामसवृत्तीचा मलीन आहार जर आपण स्वाऊं लागलों तर त्याचा परिणाम कसा होईल बरें! याचा विचार करावयास नको काय ? तामसवृत्ती गसून लोकांनी दूर रहावें हणून श्री समर्थ रामदास, तुकाराम, एकनाथ, नामदेव वार सारख्या सत्पुरुषानी एकसारखा टाहो फोडून उपदेश केलाच आहे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) ब आपल्या मागें अभंगरूपीं वाणीनें उपदेशामृत पाजीतच आहेत. शिवाय मांसाहार करणाऱ्याची बुद्धि घातकी, दुष्ट रागीट अशी बनते. व वनस्पतिजन्य अन्नाचा आहार करणाऱ्या मनुष्याची बुद्धि नेहमी शांत व विचारी असते. आतां आपण धर्मशास्त्रदृष्ट्या विचार करूं, झणजे धर्मशास्त्रकारांनी मांस खाण्याबद्दल काय सांगितलें आहे तें कळेल. आपण हिंदुधर्मशास्त्रकाराचें काय झणणे आहे प्रथम पाहूं. याज्ञवल्क्य स्मृतींत धर्माची दहा लक्षणें सांगितळी वीं येणेंप्रमाणे::--- अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमींद्रियनिग्रहः । दानं दया दमः शांतिः सर्वेषां सर्व साधनम् ॥ हिंसा न करणे, सत्य बोलणें, चोरी न करणें, पवित्रता ठेवणे, इंद्रिय दमन करणे, परोपकार करणे, दया करणे, मनोनिग्रह करणें, क्षमा करणें वगैरे ह्रीं धर्माची दहा लक्षणे आहेत. यावरून Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ससम फळ मिळाल्याशिवाय राहणार नाही. श्री व्यास महारानांनी आठरा पुराणांचे सार सांगतानां पुढील उद्गार काढले आहेत. अष्टादश पुराणानां व्यासस्य वचनद्वयम् । परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीडनम् ।। परोपकारासारखें पुण्य नाही व परपीडेसारखें पाप नाहीं थावरून काय बोध घ्यावयाचा? प्राण्यास त्याचा जीव किती प्रिय असतो हे आपण पाहूं. एक वृद्ध झालेली ८० वर्षांची झातारी मृत्युचे आधीन लवकरच होणारी, व्याधीने पिडलेली व जिवास कंटाळून त्रस्त झालली बाजेवर स्वस्थ पडून राहिली असतांना अकस्मात वरून एक मोठा कृष्णसर्प तिच्या डोक्यावर पडला तर ती अंगांत शक्ति नसतांना अवसान आणून एकदम त्या बाजेवरून प्राणरक्षण करण्यासाठी उडी मारून बाजूवर पडेल. याचे कारण आत्मरक्षण हे होय ! मरण फिती अप्रिय आहे हे यावरून उघड दिसतच आह. या संबंधी श्री महाभारत अनुशासन पर्वामध्ये. उल्लेख केला आहे तो असा: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) अनिष्टं सर्वभूतानां मरणं नाम भारत । मृत्युकाले हि भूतानां सबो भवति वेपथुः ।। सर्व प्राणीमात्रास मृत्यु नको आहे. कारण मृत्युकाली भयंकर वेदना होतात. मग तो कोणत्याही योनीत असो त्यास तीच योनी फार आवडत असते व पुष्कळ दिवस जगांत गहावे वाटते. मनुष्यप्राण्यापेक्षा इतर सर्व प्राण्यांचे आयुष्यमान फारच थोडके आहे. मरण समयीं आप्तस्वकीयांचा वियोग कराश यावल फाच वाईट वाटते. या सर्व गोष्टी आपल्या अनुप. वाच्या आहेत. असे असतांनासुद्धा हिंसक लोक केवळ स्वार्थबुद्धीने थोडक्या फायद्याकरितां मुक्या प्राण्यांचा वध करून त्यां. च्या मुलाबाळापासून एकदम दूर करितात इतकेच नाहीतर आई मारून त्याच्या लहान लहान अर्भकांस तसेंच रखत्त ठेवून दुधावांचून त्यान मृत्युचे घरी पाठवितात. तेव्हां या अघोर पातकापासून दूर राहण्याचा विचार न कराल तर चांगले फळ मिळण्या ऐवजी अधोगती नही ठरलेली आहे. आतां कितएिक मांसाहारी लोक असा आक्षेप घेतात की आदी पैसे देऊन मांस विकत घेतो आमी प्रत्यक्ष थोडेच मारतो ! देव्हां आझांस पाप कसले ? प्रथमारंभी त्यांचे ह्मणणे खरे वाट Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) तें. पण मांस खाणारे लोकच जर कमी झाले तर हिंसाहि कमी होईल हे उघडच आहे. कारण ही हिंसा मांसाहार करणाऱ्या लोकासाठीच करावी लागते ह्मणून तो यांतून सुटत नसून जीव हिंसेचा दोष मात्र लागतोच. पीनल कोडमध्यें चोरी करणारा जसा आपराधी ठरतो तसाच चोरीचा माल ठेवणाराही पण अपराश्री ठरून त्यास शिक्षा भोगावी लागते. त्याच प्रमाणें मांस खाणारा शिजविणारा, विकणारा, कापणारा व त्यास अनुमती देणारा हे सर्व दोनी आहेत असें मनुस्मृतिमध्ये स्मृतिकारांनी स्पष्ट ह्यटलें आहे. हे खालील लोकावरून स्पष्ट कळेलच. अनुमंता, विशसिता, निर्हता क्रयविक्रयी । संस्कर्ता चोपहर्तात खादकचेति घातकाः ॥ यावरून उघडच झालें कीं बाजारांतून विकत आणून खाणाराही दोषी ठरतच आहे. हे वाचून एखादा इसम असा प्रश्न करील की आम्झी थोडेच प्रत्यक्ष व करीत आहोत? मांस चिकत आणणे, शिजविणें व खाणें यांमध्ये आपण दोषी ठरत नाहीं. शा प्रकारचा कायदा करणारा मनु मूर्ख किंवा वेडा तरी अक्षला पाहिजे. अ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) सांप्रत आपण ज्या दयालु इंग्रज सरकारच्या अमलाखाली आहों; त्याच सरकाराने केलेले कायदे मनापासून पाळून ज्यावर आपण पूर्णपणे विश्वास ठेवतो त्या कायद्याचे तत्त्र तरी काय आहे हे आपण पाहू. एखादे ठिकाणीं खून करणाऱ्या इसमापैक एक इसम दुरऱ्या इसमास नेमलेल्या जागीं फुसलावून घेऊन जातो. दुसत्यास पंख्याने वारा घालतो. निद्रा येण्या माठीं तिसरा त्याचें अंगावर गुलाबपाणी शिंपडून गोड गोड गोष्टी करित बसतो व चवथा त्यास लवकर झोप यावी ह्मणून सतार वगैरे मोहक वाद्ये वाजवून निद्रावश करून टाकतो मग पांचवा तो निद्रावस झाल्यावर तलवारीनें त्याचें डोकं उडवितो. तेव्हां या पांचजणास्त्र न्यायाधीश कायद्याने गुन्हेगार ठरवूं शकतो किंवा नाहीं ? ठरवीलच. कारण या सर्वाचा हेतू एकच होता व कायद्याचे तत्व पण त्याच हेतूचा विचार करून ठरविलेले आहे. आतां कोणी अशी शंका घेईल की, शास्त्रांत जर हिंसा कर ण्याची मनाई आहे तर देवी देवतांच्या नांवानें पशूहिंसा कशी करि ara? त्यांचे कारण अ अहे की वाममार्गी लोक केवळ स्वार्थ बुद्धीने व जीभेच्या लालचीकरितां उलट अर्थ करून लोकांस समब्ावून सांगून कार्यभाग करून घेतात कित्येक अज्ञान लोक अज्ञान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणे रुदीच्या नांवानेहीपण हिला करितात. त्यावेळी हे देवी, जगतजननी, भगवती वगैरे शह उचारून तोस आळविताल, नगतजननी झणजे सर्व जगांतील प्राणीमात्रांची आई अपर अब होतो. तेव्हां जी आई स्वतःच्या मुलांचे रक्त पीते व मांस खाते तेव्हां ती जगन्माता कशी होऊ शकेल! वाममागासंबंधी येथे विचार करावयाचा नाही ह्मणून आपण आपल्या विषयाचा विचार कर. श्री महाभारत शांतीपर्वात अध्यात १५२ मध्ये असा स्पष्ट उल्लेख केला आहे की, अद्रोहः सर्व भूतेषु कर्मणा मनसा गिरा। अनुग्रहश्च दानं च सतां धर्मसनातनः ॥ मन, वाणी आणि कर्मे करून कोणत्याही प्राणीमात्राचा द्रोह न करणे, दया ठेवणे, उपकार करणे हा ससुरुषांचा सनासन धर्म आहे. तसेच १९६ व्या अध्यायांत. अहिंसा परमो धर्षस्तथाहिंसा परो दमः । अहिंसा परमं दानं हिंसा परमं तपः ॥ अहिंसा हाच उत्तम धर्म, उत्तम दम, उत्तम दान व उत्तम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) लप आहे. या संबंधाने विष्णु पुराणांत असे सांगितले आहे की, कपिलानां सहस्त्राणि योद्विजेभ्यः प्रयच्छति । एकस्मायाभयं दद्यात्तयोस्तुल्यं फल स्मृतम् ॥ हजागे कीला गाई वालणास दान दिल्याने जे पुण्य मि. छत तितकंच पुण्य एका जीवास अभयदान दिल्याने मिळते. शिवाय स्मृतिकारांनी असे सांगितले आहे की, अहिंसा नियम पाळणाराम आपत्तियोग येणार नाही. स्वत:च्या आत्म्याप्रमाणे दु. सल्याचा आत्मा मानणाराम उत्तम फळ मिळते. ईश्वराची खरी पूजा कोणती या संबंधाने याज्ञवल्क्य स्मृतिकार ह्मणतात की "हिं. सादि रहितं कारमेतदश्विर पूजनम्" हिंसा रहित कम करणे हीच ईश्वराची पूना आहे. ___ आतां किती एक लोक असें लणतात की यज्ञांत अक्शेष राहिलेला भाग खाण्यात शास्त्राची सम्पती आहे. पण ही समज चुकीची आहे. मांस खाण्यावाचून ज्याचे चालत नसेल त्यांनी यज्ञात गहिलेला शेपभाग खादा अशी धर्माची आज्ञा आहे. पण या युगमंच यज्ञ करण्यासंबंधी मनाई असून हल्ली ते कोणीही करित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) नाहीत. या संबंधी ज्ञानेश्वर म. राजांनी ज्ञानेश्वरीमध्ये जी टकिर कला आहे ती वाचली असतां शंकेचं समाधान होते. तसच एफनाथ महाराजांनीही पण मांस भक्षणासंबंधी आपले विचार प्रगट हल आहेत ते येथे देतो. " करावे मांस भक्षण | ह वेदाज्ञा नाही जाण । त्याचे करावया मांस भक्षण । नेमला प्रमाण यज्ञभाग।। ६ हेही वेदाचे बोलणें । मूर्ख प्रलोभा करणें । येन्हवी पशू वध न करणें । मांस न मक्षणे हे वेद गुह्य ॥ २ ॥ वृथा पशूस दुःख देकी। तेणें दुःखे स्वये होती। ऐसी याज्ञिकांची गती । आश्चर्य श्रीपती सांगत ॥ ३॥ ज्ञानेश्वर महाराज ह्मणतातः- “ येहवी तन्ही पाही। स्वभाव वृद्धीच्या ठायीं । अहारावाचूनि नाहीं । बळा हेतू ॥११३n प्रत्यक्ष पाहे पां वीरा । जो सावध घे मदीरा । तो दाउनि ठाके माजिरा। तयेचि क्षणी ॥ ११३ ॥ कां जो साविया अन्नरस सेवी । तो व्याविजे वात श्लेष्म स्वभावी । काय ज्वरू जालिया निववी । पयादिक । ११४ ॥ तरी अमृत जया परि । घतली या प्राण वारी । कां आपुलिया ऐसे करी । जैसे विष ॥ १५ ॥ तया आपेयाच्या पानी । अखाद्यांच्या भोजनीं । वाढविजे उतान्ही । वामसे वेणें ॥ १६३ ॥ एव तामस जेवणारा । ऐसे सी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) मेचू हे वीरा । तयाचें फळ दूसरा । क्षणीं नाहीं ॥ १६४ ॥ जेव्हांच हे अपवित्र । शिवे तयाचेच वक्र । तेव्हांचि पापा पात्र । झाला तो कों ॥। १६५ ।। यावर से जे जेवी । ते जेविती वोज न झप्पावी । पोट भरती जाणावी । यातना ते ॥ १६६ ॥ तेवि जैसा आणि धातु ऐसा आकारु । घे अहरु | धातु साचि होय अंतरु | भावो पोखे ॥ ६७ ॥ तुकाराम महाराज झणतात: 1 ऐसा कैसा तुझा देव । घेतो दुसऱ्याचा जीव ॥ तुका ह्मणे मांस खाती । त्याचें उसने पुढे देती ॥ मांस खाता होस करी । जोडुनी वैरी ठेवियला || कोणत्याची करील कींव जीवे जीव नेणती ।। पुढिलासाठी पाजवी सुरी । आपुली चोरी आंगुळी ॥ तुका ह्मणे कुटती हाडें । आपल्या नाडे रडती || नीवें जीव नेणें पापी सारीकाची ॥ नळी दुजियाची कापू बेसे ॥ १ ॥ आत्मानारायण सर्वा घटीं आहे । प्रशु मध्ये काय कळो नये ॥ २ ॥ देखत हा जीव दुंबरे वरडत | " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) निष्ठुराचे हात वाहती कैचे ॥३॥ तुका ह्मणे तया चांडाळासी नर्क । भोगिती अनेक महा दुःखे ॥ ४ ॥ अशाच प्रकारचे उदार सर्व सत्पुरुषांनी काढले असून हिंदु धर्मास हिंसा मान्य नाही हेच खरे. त्याच प्रमाणे पारशी धर्मशास्त्रांतही पण हिंसा वर्ण्य आहे. शहानामा कर्ता कवि फर्दोसी ह्मणतो की आमचा झरदोस्ती धर्म अशी आज्ञा फर्मावि. तो की, पशूस मारून खाऊ नका. व जनावराची शिकार करूं नका-जे लोक जनावरांस मारण्यासंबंधी आपली पसंती दर्शवितात अशा लोकाप्रसून दूर रहा-हत्या करूं नका. अशा प्रकारची बरीच वचने देता येतील. तेव्हा या धर्मात सुद्धा हिंसा करण्यास मनाई आह. तव्हां आपण मुसलमान धर्मात काय आहे ते पाहूं. कुराणामध्ये सुरहज मायात ३६ मध्ये सांगितले आहे की: लेई यनाल अल्लाह । लहु महा बलादिमा ॥ ओहावले किनयना । लल्ल अतकवा मिन्न कूम् ।। मांस व रक्त परमेश्वास पावत नाहीं [ मान्य नाही ] Sh सादर कोणी अशी शंका घेईल की हे वयन हाचे वेळचें झणजे. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) मकेच्या यात्रेस यात्रेकरूं जात असतां, तेथे मात्र हे लागू होणार आहे ह्मणने मुसलमाना धर्माप्रमाणे त्या ठिकाणी यत्किचित क्षुद्र प्राणी, कोणाच्या हातून मला गेला तरी पाप लागते या विषयी हे वचन आहे; अन्य प्रलगी अन्य स्थानीं ते लागू नाही. यावर असें उत्तर आहे की कोणी कलेक्टर साहेबादी बदमाष लोमांस जर असे सांगितले की, तुमचा कांगाली अगद स्थून आमा नजरेस येता कामा नये. तर याचा अर्थ कलेक्टर साहेनालया नजरेबाहेर रस्त्यावर त्याने वाटेल तशी मागमारी अमर खून कबवा असा बिलकूट विवक्षित अर्थ होत नाही त्याप्रमाण अमुक ठिकाणीच करावयाचे असा त्या वचनाचा अर्थ होत नसून सर्व ठिकाणींच हिंसेचा निषेध समजावयाचा खुद महमद पैगंधाने देखील मक्का शहरांत कयाधापुढे कोण याही प्राण्याचा वध करूं नये असा सक्त हुकूम केला आहे. हल्लीसुद्धा एक मुसलमान 'साटेक शयात' मधून तरीखमध्ये गेला झणजे मांस खाण्याचे सोडून देतो. हजरत मी साहेव ह्मणतात की तूं पशू आणि पक्षी यांची कवर पोटांत करू नकोस झगजे तू पशु पक्ष्याला माखन खाऊं नकोस. मुसलमान बांधवाच्याधर्म पुस्तकांत लिहिले आहे की, पृथ्वी करण्याचे अगाद रमेशडाने.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) करिता उत्पन्न केली आहे ती तूं स्था.” " ज्यावेळी तुझी आपले हाल बर करून मजकडे पहाल त्या वेळी माझी दृष्टी तुमचेकडे न ठगिनां दुमरीकडे शिवीन व तुमच्या विनंतिक छन देगार नाही, कारण तुमचे हात रक्ताने भरले आहेत. अशा प्र काचवच दाखले आपणांग्न देवा यतील. असो यातां या पाविज्ञान विद्वान पडिमंचे सासरांचे काय अभिप्राय आहेत ते पळू. वर्डसवर्थकविः-हे भित्रा! अशा कोणत्याही गोष्ठति लू आनंद मानू नकोस की ज्याच्या योगानें कोणत्याही प्रय मामाच दुःख होईड. शेले कावः- शारीरिक व मानसिक असा कोणताही रोम नाही की जो वनस्पतिजन्य अन्न व स्वच्छ पाणी याचा उपयोग केल्याने घग होणार नाही. त्याच्या प्रयोगाने हळु हळु शीमंत अशक्तीच्या ऐवजी शक्ती, रोगाचे ठिकाणी आरोग्यता, वेड्या मनुष्याचे बडबड करणे व वेड्या सारखी करीत असलेली कृत्ये या ऐवजी शांत स्वभाव व शद्दामपण येते. हाणून मी. आग्रहाने हा प्रयोग अजमाविण्यास विनंता करितो बाचा sh अनुभव सहा माहिन्यानंतर... फळेल. मांसान पचण्यास www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९) जितका वेळ लागतो, तितका वेळ वनस्सातजन्य अन्न पचण्यास लागत नाही. शिवाय कित्येक वेळा असें होने की मांस दधीम पडल्यास शिसारी वसते यामुळे ते पचन पण होत नाही. गोल्स्मीथः- कुरणांत मनसोक्त रीतीने चरणार जे कळप त्यास निईयतेने मारावें असें मी कधीही झगणार नाही. जी शक्ति ( ईश्वरा शक्ति ) मजवर दया करते तिनेच असल्या फळपावर दया करण्याचे मला शिकविले आहे पर्वतावर हिरव्या चार बाजूवर उगवलेलें व वमपत आणि फळे यांनी मिश्र बन ठेले निर्देष अन्न न झन्याचें ताज पाणी हे मी आणतो व त्यावर आपला उदर निवाई करतो. प्रोफेसर सर रिचर्ड ओवन लिहितात की लंगूर नवावे वानर आहे त्याचे दांत व मनुष्याचे दांत एकसारखे आहेत. तो फळफळावळ, भाजी पाला व काही झाड्यांच्यामुळ्या व पानंच खातो. यावरून असे सिद्ध होते की मनुष्य प्राणी शाकाहारीच आहे. डाक्तर जाशिया ओल्ड फील्ड ह्मणतात की, ज्ञानाच्या योगाने ही गोष्ट सिद्ध झाली आहे की मनुष्य मांस भक्षक नाही; परंतु वनस्पतिजन्यच आहारी आहे. सांप्रत ज्याप्रकार मांसान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) सोसायटीनें लिव्हरपूलमधील अनाथाश्रमांस गतवर्षी पुष्कळ मदत केली आहे; सदरहू संस्थेत केवळ वनस्पत्याहारच चालू आहे व यामुळे अनाथ मुलांची प्रकृती उत्तम आहे. डॉक्टर थर यांनी असे मत दिले आहे कीं, चालण्या. या शर्यतींत मि. एमर रॉथ ह्याने १९०५ पासून बलि येथto osकरी लोकांशी पाच वेळ सामने देऊन पांचही वेळ यश संपादन केलें. जर्मनीचे लष्करी खात्याचे मुख्य अधिकात्यांनी सदरहु इसमास पहिल्या नंबरचें बक्षिस दिले आहे. शर्यती नंतर सदरहू मनुष्याची नाडी पाहतांच त्याची शरीर संपत्ति उत्तम आहे असं दिसले. एका पाक शाळेत १०००० मुलांना सहा महिने पर्यंत वनस्पत्याहारच दिला व त्याच वेळीं दुसन्या पाक शाळेत तितक्याच मुलांनां मांसाहार चालू ठेवला. सहा महिन्यानंतर दोन्ही पाकशाळेतील मुलांच्या प्रकृतीचा वैद्यकीय तपास करण्यांत आला त्यांत वनस्पत्वाहारी मुलांचीच प्रकृति निरोगी त्यांच वजन व त्यांचे स्नायू व कातडी ज्यास्त चांगली असल्याचे सिद्ध झाले. तसेच लंडनमध्य एक सायक्लिंग व एथलेटिक नांवाची एक संस्था आहे तींत फक्त वनस्पत्याहारीच सभासद आहेब. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३) प्रथम ४० सभासद होते; परंतु हल्ली ९७० सभासद झाले असून त्यांस ६. स्त्रिया आहेत. चालणे, धांवणे, पोहणे, वल्ही मारणे, बॉक्सिग करणे, गोल्फ व टेनिस खेळणे, वजन उचलणे वगैरे हरएक प्रकारचे खळांत वनस्पत्याहारी लोकांची सरशी होते, असा सदरहू संस्थेचा अनुभव आहे. खर्चाच्या दृष्टीनेंहि वनस्पत्याहारच सोईचा आहे. मांसा मध्ये एकपट अन्नद्रव्ये व तिप्पट पाणी असते; परंतु वनस्पतिमध्ये तसे नसते. शिवाय वनस्पति मधील पाणी अगदी शुद्ध असते. तसें मांस व रक्त, यामधील नसते. कोणताही जीव गतप्राण झाल्यावर त्याचे घटकावयव सडूं लागतात, त्यामुळे हानिकारक असे नाना प्रकारचे भयंकर जंतू उत्पन्न होऊन ते मांसाबरोबर पोटांत जाऊन रोगांस उत्पन्न करितात. प्रार्थना:- अशा प्रकारचे नुकसानकारक व रोगोत्पादक मांसान टाकून देण्याची भीष्म प्रतिज्ञा करून दररोज होणाऱ्या असंख्य वधास आळा घालून जीवास अभय देण्याची अमोरिक संधी वाया दवडणार नाहति अशी भाशा धरुन मनुष्याचे स्वाभाविक अन्न हा विषय येथे पुरा करतो. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OM. शाखा संस्था. संस्थेने चालविलेले जीवदयेचे काम विस्तृत प्रमाणावर वाढविण्यासाठी शाखा संस्था निरनिराळ्या ठिकाणी स्थापन करण्याची फार जरूर आहे. तरी दयाळ लोकानी लक्ष देऊन शाखा अवश्य स्थापन कराव्यात. शाखा संस्थेचे नियम मागवा. ___ संस्थेच्या शाखा बेळगाव व नेपाळ या दोन ठिकाणी स्थापन झाल्या अहेत. सेक्रेटरी प्राणीरक्षक संस्था. धुळे. प्राणीरक्षक संस्थेकरितां सखाराम विष्णु गुर्जर यांनी बालचंद हिराचंद चांदवडकर यांच्या मालेगांव, “कलाप्रकाश" प्रेसमध्ये छापवून धुळे आग्रारोडवरील संस्थेच्या ऑफिसांत प्रसिद्ध केला, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ચશોહિ alchbllo bilec かねたや Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com