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यह भी एक बड़ा लाभ हुआ की जो मेरा अटल निश्चय था की जैनलोग नास्तिक हैं, जैनलोग अस्पृश्य हैं, वह सब हवा में उड़ गया; और मनमें यह प्रतिभान हुआ की वेदानुयायि, कुमारिल, शंकर, गौतम, वेदव्यास, वाचस्पति प्रभृतिने जैनयों के विषय में जो कुच्छ भी लिखा है वह वादिप्रतिवादि की नीति से नहीं लिखा है, किन्तु छल से सब उटपटाँग घसीट मारा है, याने जैनीयों के सिद्धान्त दूसरे, और अपना खण्डन का बकवाद दूसरा, अब उसी निश्चय से मेरी लेखनीसवृत्त हुई है की सत्य सूर्य का उदय हो, असत्य घूकों का संहार हो. याने पूर्वोक्त ऋषि के और आधुनिकमहर्षिओं के झूठे आक्षेपोंका प्रत्युत्तर युक्तियुक्त लिखना चाहिये, परन्तु यहां तो मैं 'प्रत्यासत्तिबलीयसी' इस न्याय से आधुनिक कविचक्रशक महामहापोध्याय गंगाधर जी महाशय से निर्मित 'अलिविलासिसंलाप' नामक खण्डकाव्य की संक्षिप्त समालोचना करूंगा. इस महाशयजी ने भी 'बाप जैसा बेटा और वड तैसा टेटा' इस किंवदन्ती को सत्य की है याने पूर्वोक्त ऋषिओं की तरह इन्होंने भी जैनीयों के विषयमें मनःकल्पित अपना अभिप्राय प्रकट किया है इस लिये पाठकोंको ‘अलिविलासिसंलाप' का चौथा शतक देखना चाहिये. मैं भी दिखलाता हूँ की महाशयजी किस रीति से जैनीयों का झूठा पूर्व पक्ष खड़ा करते हैं और किस प्रकार उसका आपही आप उत्तर भी देते हैं.
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