Book Title: Lipi Vikas
Author(s): Rammurti Mehrotra
Publisher: Sahitya Ratna Bhandar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि विकास ३८३ www.kobatirth.org. EL.y 介个 3 as wa 1 TIME 20m 200 asa93 4 2 A Al G 1 TICK प्रकाशक: लेखक राममूर्ति मेहरोत्रा एम ए (नागरा ) एम ए (लखनऊ MSTUDIO 19 साहित्य रत्न भण्डार, आगरा For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि-विकास श्री राममूर्ति मेहरोत्रा एम०ए. साहित्य-रन-भण्डार, भागरा ।। For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org साहित्य रत्न भण्डार; भागस । प्रथम संस्करण ५०० मूल्य III) साहित्य प्रेस, आगरा । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दो शब्द विकासवाद की दृष्टि से यद्यपि मौखिक भाषा के उदय का प्रश्न अरना विशेष महत्त्व रखता है तथापि लिखित भाषा के क्रमागत आविष्कार का मार्ग निश्चित करना उससे कम जटिल प्रश्न नहीं है। मौखिक भाषा के उदय में स्वाभाविक प्रतिक्रियात्मक प्राकृतिक कारण हो सकते हैं। उसमें तो किसी सचेतन उद्योग का कोई प्रश्न मुश्किल से ही उठता है किन्तु लिखित भाषा के विकास में एक विशेष मानसिक उन्नति और किसी अंश में सचेतन प्रयास भी अपेक्षित है। विकास-क्रम में पीछे आने क कारण लिखित भाषा का महत्त्व किसी प्रकार कम नहीं हो जाता। इसके कारण मौखिक भाषाको अपेक्षाकृत स्थायित्व और देशान्तर गति की शक्ति मिल जाती है। विभिन्न वर्गों के सूत्रों तथा उनमें लगी हुई ग्रन्थियों की भाव-लिपियों और कार्यलिपियों की दुर्गम घाटियों को पार कर पूर्णतया विश्लिष्ट संस्कृत की सी वर्णमाला तक पहुंचना एक लम्बी यात्रा है। इसके आगे ब्राह्मी लिपि का गुप्त लिपि और कुटिल लिपि द्वारा वर्तमान नागरी लिपि तक आना यात्रा का दूसरा उन्नति क्रम है । विकास की इस लम्बी यात्रा का विवरण विद्वान लेखक की भाषा में पढ़ कर हम उस जटिल मागे का अन्दाज लगा सकते हैं । योरुपीय, साभी और भारतीय भाषाओं के विभिन्न स्रोत होते हुए उनके विकास का मागे प्रायः एकसा ही है । मौखिक भाषा के उदय में जो प्रवृत्तियाँ हैं उनमें से कमसे कम अनुकरण और संकेत-निर्माण की प्रवृत्तियाँ लिखित भाषा के उदय में भी परिलक्षित होती है। For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विदेशी पण्डितों की इन दोनों कल्पनाओं का कि ब्राह्मी लिपि फिनिशियन लिपि से निकली है अथवा उसमें खारोष्ट्री का प्रभाव रहा है इस पुस्तक में बड़ी विद्वत्ता के साथ निराकरण किया गया है। ___ मेहरोत्राजी ने ब्राह्मी लिपि से देवनागरी तथा भारत की विभिन्न लिपियों के विकास का जो क्रम दिखाया है वह आजकल भाषा के आन्दोलन की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। उसके अध्ययन से भारतीय लिपियों की पारवारिक एकता और सौन्दर्य, व्यापकता और त्वरा लेखन की दृष्टि से देवनागरी अक्षरों की श्रेष्ठता पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। लेखक ने रोमन लिपि की तुलना में भी देवनागरी की श्रेष्ठता प्रमाणित की है। हिन्दी में जिन ध्वनियों की कमियाँ हैं और जो लिपि-चिह्न भ्रामक हैं उनकी ओर संकेत कर लेखक ने यह प्रमाणित कर दिया है कि वह देवनागरी लिपि का अन्धभक्त नहीं है। इस विषय पर श्रद्धेय ओझाजी की जो विशद और प्रामाणिक पुस्तक है वह विद्यार्थियों की पहुँच से बाहर है। यह पुस्तक विद्यार्थियों को इस विषय का आवश्यक ज्ञान करा सकेगी और आशा है, भाषा-विज्ञान के साहित्य में अपना उचित स्थान प्राप्त करेगी। सेन्टजान्स कालेज, आगरा जन्माष्टमी, २००२ हरिहरनाथ टंडन एम. ए. अध्यक्ष-हिन्दी-विभाग For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुक्रमणिका १-लिपि का आविष्कार २-भारत की प्राचीन लिपियाँ ३-ब्राह्मी का विकास ४-अकों का विकास ५-शब्दाङ्क सूची ६-अङ्कों का संक्षिप्त इतिहास ७--हिन्दी तथा अन्य लिपियां For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि-विकास लिपि का आविष्कार मनुष्य समाजबद्ध प्राणी है, वह विचार-विनिमय किए बिना नहीं रह सकता। भाषण-क्रिया तो उसका जन्म-सिद्ध अधिकार था ही, अतः भाषोत्पत्ति के पूर्व आदि-काल में तो वह मूक मनुष्यों की भाँति आ-आ, ई-ई करके इंगितों द्वारा अपना कार्य चला लेता होगा, परन्तु बाद में वाक-शक्ति का विकास होने पर मौखिक भाषा द्वारा अपना कार्य सञ्चालन करने लगा होगा। मौखिक भाषा द्वारा निकट होने पर तो विचार-विनिमय हो सकता था, परन्तु दूर होने पर नहीं । अतः यह एक जटिल समस्या थी कि दर के मनुष्यों पर भाव प्रकाशन किस प्रकार किया जाय । इसके अतिरिक्त जब सामाजिक जटिलताएँ बढ़ने लगी, तो मनुष्य के सम्मुख एक प्रश्न यह भी पाया कि वह उन बातों को जिनको कि वह अपने जीवन के लिए आवश्यक समझता है अथवा जो उसे अच्छी लगती हैं, अपनी आगामी सन्तानों के लिये किस प्रकार सुरक्षित छोड़ें। ये प्रश्न भिन्न-भिन्न देशों में विभिन्न लिपियों द्वारा हल किये गये । यहाँ लिपि सम्बन्धी दो एक बातें स्मरण रखनी चाहिए। प्रथम यह कि प्राचीन काल में धर्म, साहित्य तथा इतिहास का लिपि से उतना घनिष्ट सम्बन्ध नहीं था जितना आज है । आज लिपि के अभाव में साहित्य, इतिहास आदि का होना असम्भव सा प्रतीत होता है, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। लिपि के For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि-विकास अभाव में भी साहित्य, इतिहास आदि हो सकते हैं और थे, केवल इतना अंतर हो जाता है कि वे अनिश्चित से रहते हैंधमें जंत्र-मंत्र का, साहित्य कविता का और इतिहास लोककथाओं का रूप ग्रहण कर लेता है। हमारे वैदिक मंत्र, रामायण तथा महाभारत की कथाएँ यूनानियों की ट्राय, एडिपस आदि की कहानियाँ तथा विभिन्न देशों की परम्परागत लोककथाएँ इसके उदाहरण स्वरूप हैं। अतः लेखन कला के अभाव में धर्म, साहित्य, इतिहास आदि का होना सम्भव है। द्वितीय यह कि लिपि से आशय केवल वर्ण-लिपि से ही नहीं है। जिस प्रकार लेखन-कला के अभाव में साहित्य का होना सम्भव है, उसी प्रकार वर्णमाला के अभाव में लिपि का होना भी सम्भव है । वर्णमाला के अभाव में मनुष्य रज्जु, रेखा, चित्र आदि द्वारा अपने भावों तथा विचारों को लिपिबद्ध करता था। अतः लिपि के अन्तर्गत वर्ण-लिपि के अतिरिक्त रज्जु-लिपि, रेखालिपि, चित्र लिपि आदि भी आ जाती हैं। इन सब का कालक्रमानुसार विशद वर्णन नीचे किया जायगा। । १) रज्जु अथवा ग्रन्थि-लिपि-हिन्दी शब्द 'वर्षगाँठ' तथा फारसी - (साल गिरह ) का अर्थ है 'साल की गाँठ' । कुछ ही समय पूर्व और किसी-किसी घर में तो, जहाँ कि स्त्रियाँ अधिक वयोवृद्ध, अपढ़ तथा प्राचीन विचार की हैं, आजकल भी, बच्चे की जन्म-तिथि के दिन एक वर्ष व्यतीत होने पर सून की डोरी में एक गाँठ लगा दी जाती है जिससे उन्हें स्मरण रहे कि उनका बच्चा कितने वर्ष का है। इसके अतिरिक्त प्रायः किसी बात का स्मरण रखने के लिये आजकल भी गाँठ बाँधी जानी है। ग़ालिब का रुमाल में गाँठे बाँध कर कविता याद रखना तो प्रसिद्ध ही है। स्काउट भी घास आदि में गाँठ लगा कर संकेर बनात है। इन बातों से सिद्ध होता है कि भारत में किसी For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि का आविष्कार समय ग्रन्थि लिपि का प्रचार अवश्य था। सम्भवतः प्राचीन साहित्य रज्जु अथवा सूत के डोरे आदि में छोटी-बड़ी अनेक प्रकार तथा रङ्ग की गाँठे लगा कर ही सुरक्षित रक्खा जाता था और पुस्तकों का स्वरूप वही था। सम्भव है संस्कृत 'सूत्र ग्रन्थों' का भी इससे कोई सम्बन्ध हो । इतिहास से इस बात का पता चलता है कि दक्षिण भारत में इस प्रकार की लिपि प्रचलित थी। उत्तरी अमरीका तथा चीन का शिक्षा-विकास इस बात का साक्षी है कि वहां की सर्व प्रथम लिपि रज्जु-लिपि ही थी। वहाँ साधारण बोलचाल के अतिरिक्त राजनैतिक तथा ऐतिहासिक घटनाएँ आदि भी इसी में लिपि-बद्ध होती थीं । एक रस्सी में बँधी हुई सूक्ष्म, स्थूल तथा अन्य अनेक प्रकार की ग्रन्थियाँ विभिन्न भावों की प्रकाशक थीं, उदाहरणार्थ रंगीन तागे वस्तुवाचक भावों के प्रकाशक थे, जैसे श्वेत तागा चाँदी अथवाशान्ति का, लाल युद्ध अथवा स्वर्ण का द्योतक होता था। सम्भव है लिपि चिन्हों का नाम 'वर्ण' रस्सियों के विभिन्न वर्णों ( रंगों) के कारण ही पड़ा हो । पीरु में रज्जु लिपि को किषु (Quipu) कहते थे। पीरु की सर्व प्रथम पुस्तक इसी लिपि में है। इसमें प्रवियन सेना का वर्णन है। यह पुस्तक प्राप्य तो अब भी है, परन्तु आजकल अबोव्य है। अतः सर्व प्रथम लिपि, रज्ज-लिपि थी । यहाँ यह न भूलना चाहिये कि भाषा का प्रारम्भ वाक्यों से हुआ है, अतः तागों के विभिन्न वर्ण अथवा ग्रन्थियों के विविध प्रकार पूर्ण भाव अथवा विचार के द्योतक थे, मनोभाव के नहीं अर्थान वाक्यों के द्योतक थे, शब्दों के नहीं। (२) रेखा लिपि-प्रायः अनपढ़ वयोवृद्ध दूकानदार तथा स्त्रियाँ रुपये पैसे का हिसाब कागज अथवा दीवालों पर खड़ी पड़ी, टेढ़ी-सीधी रेखाएँ खींच कर करते हैं। हिन्दी ० १ २ ३,उर्दू • 1 Pro इत्यादि का विकास क्रमशः - = = For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि-विकास तथा । ॥ ॥ ॥ A आदि रेखाओं से हुआ है । मण्डल मतालम्बी मनोवैज्ञानिकों का मत है कि समस्त रेखा-चित्र तथा चिन्ह मण्डल 'O' अर्थात शन्य से निकले हैं । यही कारण है कि हिन्दुओं का धार्मिक चिन्ह स्वस्तिका) (जर्मनों का धार्मिक चिन्ह ), (मुसलमानों का धार्मिक चिन्ह ), + (इसाइयों का क्रास ) आदि सब मण्डल ' में परिवर्तित हो सकते हैं। इस मत का आधार यह है कि मस्तिष्क केन्द्र में सैल्स ( cells) मण्डलाकार है, यही कारण है कि छोटे बच्चे जब स्वतन्त्र रूप से ड्राइंग खींचते हैं तो वे प्रायः अपने मस्तिष्क की सैल्स की प्रतिछाया स्वरूप गोल-मोल लकीरें होती हैं। इससे प्रगट है कि अङ्गों की उत्पत्ति रेखाओं से "हुई है; और क्योंकि अनेकों भापा-लिपियों में दो एक अङ्क ऐसे मिलते हैं जिनका रूप किसी न किसी वण से मिलता है जैसे उद(१) अरबी 1 (अलिफ) से. (३) फा० (सीन) के शोशे, से, हिन्दी ५ का प्राचीन रूप चिह्न नं० १. हिन्दी के 'प' वर्ण से रोमन ५ १० क्रमशः अँग्रेजी के v और x वर्ण सं. ग्रीक १, २, १८, २० आदि ग्रीक वर्ण अलफा, बीटा, आइअोटा, काप्पा यादि (क्रमशः चिह्न नं० २, ३, ४, ५) से मिलते है। अतः अङ्कों की उत्पत्ति सम्भवतः वर्णों से पूर्व हो चुकी थी। अतएव रेखा-लिपि किसी समय एक नियमित तथा ससम्बद्ध लिपि अवश्य थी। सम्मवतः जब रज्जु लिपि से काम न चला होगा तो रेखा लिपि का प्रचार हुआ होगा। प्राचीन काल में भिन्नाकार नक्काशीदार लकड़ी अथवा पत्थर काम में लाए जाते थे। अफ्रीका की कुछ जङ्गली जातियों में रेखालिपि का अब भी प्रचार है। यहाँ यह बात याद रखनी चाहिये कि रेखा-लिपि से वर्णों की अपेक्षा अङ्कों की उद्भावना अधिक सम्भव है। For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि का आविष्कार (३) भाव-प्रकाशक लिपि-किसी भाषा अथवा लिपि के इतिहास में बच्चों का भाषार्जन करना, असभ्य तथा जंगली जातियों की लिपियों का ज्ञान प्राप्त करना, इत्यादि बहुत सहायक होते हैं। हम देखते हैं कि छोटे बच्चे चित्र-रचना (Picture composition ) में चित्रों द्वारा पूरी कहानी बना लेते हैं। इसी प्रकार जब मनुष्य नकाशी अादि करने लगा और चित्रकला की उन्नति हो गई, तो भिन्न-भिन्न प्रकार के चित्रों द्वारा परस्पर विचार-विनिमय होने लगा। ये चित्र प्रायः शिलाओं, पेड़ की छालों तथा जानवरों की खालों, हड्डियों, सींचा, दाँतों आदि पर बनाये जाते थे। अब भी अनेकों चित्र कैलीफोर्निया की घाटी तथा स्काटलैंड में पत्थरों पर, ओहियो रियासत में पेड़ की छालों पर, लैपलैंड में ढीलों पर तथा औवर्न (फ्रांस ) में सींचों पर खुदे हुए पाए जाते हैं। प्रारम्भ में एक चित्र द्वारा सम्पूर्ण घटना का बोध होता था। इस प्रकार की घटना-प्रकाशक चित्र-लिपि अमरीका के अादि तिवासियों में प्रचलित थी। तत्पश्चात पृथक-पृथक वस्तुओं से उत्पन्न भावों के लिए एक-एक चित्र-संकेत ( Idtograph) आने लगा। इस प्रकार की भाव-बाधक चित्र लिपि मैक्सिको तथा मिश्र के आदि निवासियों में प्रचलित थी। बाद में जब संवाद समझने में कठिनता हुई और कभीकभी विपरीत समाचार गृहीत हुए, तो एक-एक मूर्त अथवा अमूर्त पदार्थ के लिए एक-एक भाव चित्र आने लगा, उदाहरणार्थ प्राचीन चीनी चित्र लिपि में पेड़ों से 'बने', दो मिले हुए हाथों से 'मित्रता' आदि का बोध होता था। कालान्तर में ये चित्र संक्षिप्त होकर सांकेतिक चिह्न मात्र रह गए। उदाहरणार्थ प्रोफैन्द (Grotefend) के मतानुसार रोमन अंक प्राचीन काल में भाव चित्रों के द्योतक थे, यथा I, II तथा III अंगुलियों के द्योतक. V अँगूठे और उसके पास की अँगूली द्वारा बनने वाले कोण For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि-विकास का द्योतक X () दोनों हाथों वा द्योतक और 1V, VI, VII, VIII, IX आदि अंगुलियों के घटने-बढ़ने से बनने वाले हाथ अथवा हाथों के द्योतक सांकेतिक चिह्न थे। कहीं-कहीं तो ये सांकेतिक-चिह्न इतने परिवर्तित हो गए कि इनका अपने मूल-चित्रों से लेश मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहा और उनके प्रतीक बन गए, उदाहरणार्थ प्राचीन चीनी लिपि में 'कुत्ता' तथा 'लकड़ी' के भाव-चित्र क्रमशः न०६ तथा ७ थे, परन्तु अधुनिक चीनी लिपि में इनके सांकेतिक चिह्न अथवा प्रतीक क्रमशः नं०८ तथा ६ हैं। जटिल भावों आदि का द्योतन करने के लिए दो तीन भाव-चित्र मिला लिए जाते थे, जैसे प्राचीन चीनी लिपि में साधु का बोध पर्वत पर मनुष्य रहने के भाव-चित्र नं०१० द्वारा होता था और आधुनिक चीनी-लिपि में भी सांकेतिक चिह्न नं० ११ द्वारा होता है। इसी प्रकार विवाहिता स्त्री के लिए स्त्री तथा झाड़ के, प्रेम करने के लिए स्त्री तथा पुत्र के, रक्षा के लिए स्त्री पर हाथ के, अन्धकार के लिए वृक्ष के नीचे सूर्य के, प्रकाश के लिए वृक्ष पर चन्द्र-सूर्य के, सांकेतिक चित्र बनाए जाते थे। क्यूनीफार्म लिपि में बन्दीगृह के लिए घर तथा अन्धकार के, अश्रु के लिए जल तथा आँख के और मिस्त्री में प्यास के लिए जल तथा उसकी ओर दौड़ते हुए पशु-वत्स के सांकेतिक चिह्न बनाए जाते थे। इसी प्रकार रेड इंडियन जाति में समय के लिए वृत्त का, कुटुम्ब के लिए अग्नि का, शान्ति के लिए पाइप का और शीघ्रता के लिए पंख फैलाए हुए पक्षी का प्रयोग होता था। चूँ कि ये सांकेतिक चिह्न शब्दों की भांति प्रयुक्त होते थे, अतः इस लिपि को शब्द-लिपि कह सकते हैं । ये सांकेतिक चिह्न भिन्नभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न प्रकार के थे। उदाहरणार्थ सुमेर तथा मिश्र के जल-चिह्न क्रमशः नं० १२ तथा १३ थे। इसी प्रकार चीन में मित्रता का बोध दो मिले हुए हाथों से होता था, परन्तु For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लपि का आविष्कार अमरीका की रैड इंडियन जाति में अँगूर की बेल द्वारा होता था। + (योग),-(घटाना),x (गुणा), भाग, : (चूँकि), :: (इसलिए), =(बराबर),> ( अपेक्षाकृत बड़ा),<( अपेक्षा कृत छोटा ),( समानान्तर)A(त्रिभुज)। (लम्ब) आदि तथा O (चन्द्रमा),O (सूर्य), नं० १४ (पृथ्वी), नं० १५ (वृहस्पति) नं० १६ (मङ्गल), नं० १७ (शुक्र), नं०१८ (शनिश्चर ) आदि भी, जिनको सर्व संसार के गणितज्ञ तथा भूगोलज्ञ अथवा ज्योतिषी एक होने के कारण समझ लेते हैं, सम्भवतः इसी प्रकार के चिह्न हैं। विशप विल्किस के मत से भी, जो कि इनको अत्यन्त प्राचीन और विश्व भाषा ( universal language ) का अवशेष चिह्न मानता है, इसकी पुष्टि होती है। स्काउट अाजकल भी इस प्रकार के शब्द चिह्नों का प्रयोग करते हैं, जैसे नं० १३, १६,->,O,+ आदि क्रमशः जल, डेरा, आओ, घर, भय आदि के द्योतक हैं । यहाँ यह याद रखना चाहिए कि स्काउट चिहों का, जो अभी कुछ समय पूर्व निर्मित हा है. प्राचीन शब्द-प्रकाशक-चित्र लिपि से कोई सम्बन्ध नहीं है। ( ४ ) ध्वनि प्रकाशक चित्र लिपिः-मूर्त पदार्थों का तो वास्तविक सांकेतिक चित्रों द्वारा और अमूर्त पदार्थों का सांकेतिक चिह्नों द्वारा प्रकाशन हो जाता था ओर जटिल भावों के लिए दो तीन भाव-चित्र संयुक्त कर लिए जाते थे, परन्तु व्यक्तिवाचक संज्ञाओं को व्यक्त करने के लिए कोई चिह्न न था। इस आवश्यकता की पूर्ति भाव-चित्रों को ध्वनि-चित्रों में परिणत करके की गई, उदाहरणार्थ मैक्सिको केच तुर्थ राजा 'इत्जकोल' का नाम मैक्सकन 'इत्ज' (चाकू) तथा 'कोल' (सर्प) के भाव-चित्रों द्वारा लिखा गया है। इस प्रकार मूल चित्रों से सांकेतिक भाव-चित्र और भाव चित्रों से ध्वनि-चित्र बने । For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ लिपि-विकास ( क ) समोच्चारक शब्द-लिपि-जब भाव-चित्र ध्वनिचित्रों में परिणत होने लगे तो कुछ समय पश्चात् समोच्चारक शब्दों के लिए एक लिपि-चिह्न प्रयुक्त होने लगा। क्योंकि इन लिपि-चिह्नों का सम्बन्ध मौखिक ध्वनियों से था, अतः इसे मौखिक ( Verbal ) लिपि भी कहते हैं। यह लिपि प्राचीन काल में मिस्त्र में प्रचलित थी और चीन में तो अब भी प्रचलित है : एक उदाहरण से उसका रूप स्पष्ट हो जायगा। चीनी में एक मोच्चारक शब्द है मु, मुक, मोक अथवा मुङ्ग जिसका ध्वनि-चिह्न है नं० २० जोकि सोचना, सोच, सोचनीय, सोचा, सोचता है, साचूँगा, सोचेगा आदि सब के लिए आता है अर्थात् जिस प्रकार हिन्दी में किसी शब्द के संज्ञा, क्रिया, विशेषण आदि भिन्न-भिन्न शब्द-भेदों, स्त्रीलिङ्ग, पुल्लिङ्ग आदि विभिन्न लिङ्गों, एक वचन, बहुवचन आदि विभिन्न वचनों, उत्तम, मध्यम आदि विभिन्न पुरुषों, कर्ता, कर्म आदि विभिन्न कारकों, भूत भविष्यत आदि विभिन्न कालों अथवा काल-भेदों में भिन्न-भिन्न रूप आते हैं, उस प्रकार चीनी में नहीं होता, उसमें इन सब दशाओं में एक ही रूप रहता है। समोच्चारक शब्दों को अंग्रेजी में Homophones कहते हैं । होमोफोन्स वे शब्द हैं जिनमें एक ही उच्चारण से अनेकों शब्दों का काम चल सके अर्थात् एक शब्द अथवा शब्द-चिह्न के कई अर्थ हों। चीनी में इस प्रकार के अनेक. होमोफोन्स हैं। किसी शब्द को निश्चयपूर्वक समझने के लिए प्रत्येक ध्वनि-चिह्न के साथ उसकी टीका ( Key ) स्वरूप एक भाव-चिह्न प्रयुक्त होता है। उदाहरणार्थ चीनी में 'पा' ध्वनि-बोधक चिन्ह नं० २१ के आठ अर्थ हैं। इसके साथ केले के अर्थ में वृक्षा की, घाव के अर्थ में रोग की, चिल्लाहट के अर्थ में मुख की टीका अर्थात् भाव-बोधक चिन्ह लगाया जाता है। For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि का आविष्कार (ख ) अक्षर (Syllable) लिपि-तत्पश्चात् लेखनप्रणाली को सरल करने के लिए जिन शब्दों के आदि में समान अनर (एकाच पद अथवा पदांश) था उनको एकचित्र करके सव सम्मिलित अक्षर का पृथक ध्वनि-चिन्ह आने लगा अर्थात आद्याक्षर सिद्धान्तानुसार सांकेतिक ध्वनि-चिन्ह आक्षरिक संकेतों के लिए प्रयुक्त होने लगे। आक्षरिक चिन्हों का निर्माण होने पर उनको संयुक्त करके अनेकाक्षरों का बोध कराया जाने लगा। इस प्रकार बहुत से अनेक ध्वनि बोधन ( Polyphonic ) प्रतीक बन गए जिनकं अर्थ का स्पष्टीकरण करने के लिए अनेकों विशेषणों का प्रयोग होने लगा। ये विशेषण विशेष तथा जातिबोधक दो प्रकार के होने थे। उदाहरणार्थ मिस्त्री-लिपि में चिन्ह नं०६१ में प्रथम दो ध्वनि-बोधक संकेत 'सेर' की ध्वनि के प्रतीक हैं । इनके बाद एक पशु का चित्र है। यह पशु-चित्र विशेषण विशेप है। जाति बोधक विशेषण केवल मुख्य-मुख्य स्थलों पर ही प्रयुक्त होते थे जैसे 'चक्षु' का प्रयोग दृष्टि सम्बन्धी शब्दों के लिए, 'दो टाँगो' का प्रयोग चलने से सम्बन्ध रखने वाले शब्दों के लिए और 'बत्तन' का प्रयोग पक्षीमात्र के लिए होता था। यही कारण है कि विशेष विशेषण तो बहुत से थे परन्तु जाति बोधक विशेषण बहुत थोड़े थे। मौखिक लिपि से आक्षरिक लिपि के विकास का सर्वोत्तम उदाहरण चीनी लिपि में जापानी लिपि का उद्भव है। इस परिवर्तन में विजातीय संसर्ग अत्यन्त सहायक है। यद्यपि चीनी आज तक मौखिक लिपि से आगे न बढ़ सकी, परन्तु जापानियों ने, जिनकी भाषा अनेकाक्षरी थी, चीनी वर्गों को आक्षरिक चिन्हों के रूप में प्रयोग करना प्रारम्भ कर दिया, जैसे चीनी सांकेतिक चिन्हों 'सि', नं० २२, कासाकाना (जापानी) में नं० २३ के For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि-विकास रूप में 'त्सी' अक्षर के लिए आता है। यूक्रेटिक उपत्यका की सैमेटिक कीलाक्षर ( Cuneiform ) लिपि भी इसका सुन्दर उदाहरण है। मेक्सिको के आदि निवासी एजटिक लोगों में भी इसका प्रचार था। उक्त प्रकार के परिवर्तनों अर्थात् मूलभाव-बोधक चित्र लिपि से आक्षरिक लिपि तक के विकास को समझने के लिए एक दो उदाहरण दे देना अधिक युक्तिसङ्गत होगा। क्यूनीफार्म तथा मिस्री लिपि में यह सभी परिवर्तन पाए जाते हैं। क्यूनीफार्म लिपि में तारे का मूल चित्र नं० २४ था, इसका सरलीकृत रूप नं. २४ आकाश का वाचक हुआ। 'प्रोटो-वैबीलोनियन धर्म में नक्षत्रों की उपासना मुख्य थी। इसलिए यह मांकेतिक चिह्न 'भगवान' के लिए प्रतीकात्मक भाववोधक चित्र बना। भगवान के लिए ऐकेडियन भाषा में 'ऐना' है। इसका सरलीकृत रूप हुआ ऐन' । इस प्रकार हमने देखा कि पहले तो सांकेतिक चिह्न आकाश का बोध कराने वाला भाव-बोधक चिह्न बना और भगवान के लिए प्रयुक्त हुआ और अन्तिम अवस्था में वह केवल 'ऐन' के उच्चारण- बोधक ध्वनि-बोधक चिह्न के रूप में प्रयुक्त हुआ। जब एक बार मूलध्वनि-बोधक संकेतों से अक्षरों का निर्माण होगया तो इन अक्षरों को मिला कर अनेकाक्षरी शब्दों का बोध कराया जाने लगा।' इसी प्रकार मित्री में ५ 'वंशी' का चित्र 'उत्तमता' का प्रतीक समझा जाता था। लन्पश्चात् वह 'अच्छे का बोध कराने के लिव ध्वनि-बोधक संकत बना। मिस्त्री भाषा में इसके लिए 'नेफर' शब्द है । परन्तु यह ध्वनि-संकेत दो शब्दों के अर्थ में प्रयुक्त होता है-एक का अर्थ 'अच्छे' का है और दूसरे का 'यथासम्भव' । अतएव हम देखते हैं कि वही विश्व भारती खण्ड १ पृष्ठ ३५४ ॐ विश्व भारती खण्ड १ पृष्ठ ३५५ For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private And Personal Use Only O K પ્ 4+20+ . २५ 1-<<< ༣༢ لله ४० *H*R M મક < 2 a ૧૩ n R& D હૃદ W ૪૧ V દર 3 by ५५ Fin ९१ THE D X 26 d $8 ૪૩ ५६ て м ५० अथवा ४ V ૧૩ ༢༠ २६ - ax V 83 M © w O ५७ ५. 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R 1113= Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि का आविष्कार संकेत 'वंशी' का बोध कराने के लिए भाव-बोधक चित्र-संकेत है और 'अच्छाई का बोध कराने के लिए भाव-बोधक प्रतीक है। फिर वही 'यथासम्भव' के अर्थ में ध्वनि-बोधक उपसर्ग 'नेफर' बना और अन्त में 'ने' का बोध कराने के लिए आक्षरिक संकेत बन गया ( ने 'नेकर' आ आद्यक्षर है)। (ग) आद्यध्वनि (व्यंजन) मूलक लिपिः--जव मानसिक शक्ति का अधिक विकास हुआ और शब्दों तथा अक्षों की ध्वयनियों का अंशतः विश्लेषण होने लगा तो प्रत्येक प्राय व्यञ्जन के लिए एक पृथक सांकेतिक चिह्न प्रयुक्त होने लगा। इन आद्य व्यञ्जनों का पृथक्करण भी आद्य अक्षरों की भांति ही हुआ होगा। सम्भवतः प्रारम्भ में जो वस्तु जैसी होती थी उसकी आकृति के अनुकरण पर वैसा ही चिह्न उसके आदि व्यञ्जन के लिए आने लगा, उदाहरणार्थ ब्राह्मी में ध का रूप धनुषाकृति के समान नं० २६, क का कातिरिका के समान +, च का चमसा के समान नं० २७, व का वीणा के समान नं० २८, त का ताड़ के समान नं० २६, ग का गगन चिन्ह के समान नं०३० था, अरबी में AS आदि के प्रारम्भिक रूप क्रमशः -- (जमल = ऊँट) की गर्दन, ८, (बैत= घर ) के चिन्ह, - (कफ = हथेली) के चिन्ह 5 (ऐन = आँख) के चिन्ह .. (माए = जल ) के चिन्ह के समान थे। इसी प्रकार अंगरेजी में A B DPM Q R आदि क्रमशः उकाव, बगुला, हाथ, मिस्री वरी, मूलक ( उलूक), कोण, मुंह आदि के मूल चित्रों से बने हैं (अंगरेजी अक्षरों का निकास-चित्र देखो)। M में तो उल्लू का रूप अब भी स्पष्ट लक्षित होता है, M की दोनों चोटियाँ उल्लू के दोनों कान, बीच की नोक चोंच और पहली सीधी लकोर वक्षःस्थल की द्योतक हैं। मिस्त्री-भाषा में उलूक को मूलक कहते हैं। प्रारम्भ में उलूक का चित्र मूलक द्योतक भाव चित्र रहा होगा जो For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि-विकास शनैः शनैः ध्वनि-बोधक चित्र में परिणत हो गया होगा, तदतन्तर वह आद्याक्षरोच्चारण सिद्धान्त ( Acrologie Principle) के अनुसार 'मू' अक्षर का द्योतक आक्षरिक चिन्ह बन गया होगा। और अन्त में केवल 'म' व्यञ्जन ध्वनि का द्योतक रह गया होगा। वर्ण-चिन्ह का क्रमशः, विकास मित्री हापरोग्लाइफिक (नं० ३१), हाएरेटिक (नं० ३२), फिनीशियन (नं०३३) तथा रोमन (M) संकेत चिन्हों के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है। प्रत्येक लिपि में कुछ न कुछ वर्णचिन्ह इस प्रकार अवश्य बने होंगे। ब्राह्मी में कुछ लिपि-चिन्ह ऐसे भी हैं जो देवताओं के सांकेतिक चिन्हों द्वारा बने हैं। (घ) वणं मूलक लिपि-तत्पश्चात शब्दों तथा अक्षर की समस्त ध्वनियों का विश्लेषण होने लगा और प्रत्येक ध्वनि के लिये लिपि-चिन्ह निर्मित हो गएः परन्तु सब लिपि चिन्ह वस्तुओं के अनुकरण पर नहीं बने, क्योंकि अधिकतर प्राचीन लिपि-चिन्ह ऐसे हैं जिनका उनसे उच्चरित होने वाली वस्तुओं की आकृति से कोई सादृश्य नहीं है, उदाहरणार्थ अप (जल) के श्राद्य वर्ण 'अ' का प्राचीन रूप सुमेर जल चिन्ह नं० १२ के समान है । अब प्रश्न यह है कि 'अ' जल चिन्ह के ही समान क्यों हुआ ? 'अ' ध्वनि का उससे क्या सम्बन्ध है ? इसका समाधान वस्तु वाचक अनुकरणात्मक चित्र लिपि से नहीं हो सकता । अनेक प्राचीन लिपि चिन्ह ऐसे हैं जिनका प्राकार उनके उच्चारण में भाषणावयवों द्वारा उत्पन्न होने वाली आकृति से मिलता-जुलता है, उदाहरणार्थ अनुनासिक ध्वनियों के उच्चारण में दोनों नथने या तो फूल कर नं० ३४ को भाँति अथवा सिकुड़ कर नं० ३५ की भाँति हो जाते हैं। समय की मात्रा प्रकट करने के लिए हिन्दी में।, 5 तथा अँगरेजी में,-प्रयुक्त होते हैं और वैदिक साहित्य में स्वरित स्वर के ऊपर ।' और अनुदात्त के नीचे For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंग्रेजी अक्षरों का विकास चित्र marame -m momawa - - - डायरेक CHiezélie) फिनीशियन रोमन अपामा tal Photrician (Romanor Finanzliche मिली हारोश्ना फिक (hieroglyphic) उकाव |अगुला सिंहासन بة سا - हस्त मल भुलैया चलनी । समानान्तर रेखा प्याला सिंहनी ६६ NX of isot z 3r - I TIPOLO DE उल्लू - जल खिड़की कोण ७६ MUSBV मुख जल उप्नान a x+ की की पी3 h अंशत: विश्वभारती पृ ३५१५ र १ के आर पर. new m e aniw omenrmmernmereum For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि का आविष्कार --' लगा देते थे, उसी प्रकार अनुनासिक ध्वनियों के साथ ( विन्दु) का प्रयोग होता है । इसकी पुष्टि इससे भी होती है कि स्काउटिंग, पुलिस आदि में लम्बी तथा छोटी आवाजों को व्यक्त करने के लिए क्रमशः चिन्हों का प्रयोग होता है। जैसे -. -.--, - - - - -, इत्यादि। अतः ङ, न, म, आदि अनुनासिक ध्वनियों के स्वरूप रेखा तथा विन्दु द्वारा निर्मित नं०३६, ३७ आदि रहे होंगे जैसा कि विभिन्न देशों की अनुनासिक ध्वनियों के प्राचीन लिपि-चिन्हों से प्रकट है-यथा वैदिक नं०३८,३६ समर नं०४०, ४१ भित्र नं०४२, ४३ फिनीशियन नं० ४४, ३३ वल्म नं०४५, ४६ हिन्दी ङ, , उर्दू 0 इत्यादि से । अतः अनेकों ध्वनियों के लिपि-चिन्हों का निर्माण उनके उच्चारण में भाषणावयवों द्वारा उत्पन्न होने वाली आकृतियों के भद्दे चित्रों द्वारा हुआ है। प्राचीन काल में रोम तथा मिस्र में इस प्रकार की ध्वन्यात्मक लिपि प्रचलित थी। वर्णमाला का प्रचार सर्व प्रथम मिस्र में हुआ। वर्णों के आधुनिक अष्टवर्ग, अोष्टय, दन्त्य, तालव्य कंठ आदि से भी भापणावयवों का महत्व प्रकट होता है। International Phonetis Association द्वारा Phonograph ( फोनोग्राफ) की सहायता से आविष्कृत धन्यात्मक लिपि ( phonetic script) इसी का विकसित रूप है। ब्राह्मी आदि प्रत्येकलिपि के वर्णों तथा अङ्कों की उत्पत्ति तथा विकास इसी क्रमानुसार हुआ है। अब प्रश्न केवल इतना रह जाता है कि ध्वन्यात्मक लिपि द्वारा वर्गों का आविष्कार होने पर वे वैसे ही रहे अथवा उनमें फिर कुछ परिवर्तन हुआ। किसी भी देश अथवा भाषा की आधुनिक तथा प्राचीन लिपियों के तुलनात्मक अध्ययन से प्रकट होता है कि वे एक दूसरे से नितान्त भिन्न हैं। आधुनिक लिपियाँ प्राचीन लिपियों का परिपक्व, विकसित तथा उन्नत स्वरूप प्रतीत For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४ लिपि - विकास होती हैं। किसी-किसी वर्ण अथवा अंक में तो इतना परिवर्तन हो गया है कि पहचानना तक कठिन है और प्राचीन तथा आधुनिक रूपों में कोई सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता जैसे इ उ ए गणन मयर आदि के प्राचीन ( क्रमशः नं० ४७, ८, 4, नं० ३०, ४,८,, नं० ४६, आदि ) तथा नवीन रूपों में । के उदाहरण से यह विषय और भी स्पष्ट हो जायगा । अ, विशेषतः बं, ञ, ध्वनि के उच्चारण में मुह अधिक फैलता है और उसका आकार लगभग == अथवा नं० ५० जैसा हो जाता है । अतः अ का आकार नं० ५० जैसा होना चाहिए था, परन्तु क्योंकि दीर्घ 'अ' के उच्चारण में भी निकटतया वैसा ही आकार बनता है, अतः ह्रस्व तथा दीर्घ का भेदक अथवा समय की मात्रा का द्योतक चिह्न अङ्कित करना पड़ा होगा क्योंकि दीर्घ आ के उच्चारण में ह्रस्व की अपेक्षा दूना अथवा दो मात्रा समय लगता है और समय की मात्रा का चिन्ह '|' था, अतः लिपि चिन्ह का निर्माण मुखाकृति नं० २० तथा मात्रा '' के संयोग से हुआ और के आकार प्रारम्भ में सम्भवतः कुछ कुछ नं० ५१, ५२, जैसे रहे होंगे, परन्तु क्योंकि अशोक कालीन ब्राह्मी से, जिस से कि हिन्दी का निष्क्रमण हुआ, पूर्व की लिपि अप्राप्य है, अतः आधुनिक का प्राचीनतम प्राप्य रूप नं० ५३ जैसा रूप तथा '' किस प्रकार हुआ ? उक्त प्रकार के परिवर्तनों के कारण निम्नलिखित हैं कारण : -- (१) लेखन सामग्री की विभिन्नता - प्राचीन काल में आजकल के से कागज-कलम न थे । कागज का आवि कार तो बहुत बाद में (तीसरी शता० पूर्व तथा पश्चात् के मध्य ) हुआ है । सर्व प्रथम चीन में रेशम का कागज बना, फिर साइलन ( Tsilon ) ने पत्नियों के रेशों से कागज बनाया । चंगेज खाँ के चीनी हमले से इसका प्रचार तातार में हो गया । भारत For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि का आविष्कार में यों तो चीथड़े गूदड़ों को कूटकर चौथी शताब्दी में कागज बनने लगा था, परन्तु इसका ठीक प्रकार प्रारम्भ मोहम्मद गौरी के आक्रमण से और प्रचार अकबर के समय से हुआ । इङ्गलैंड में १४६० ई०प० में कागज बना । अतः ११ वीं शताब्दी से पूर्व भारत में कागज का प्रचार न था। इससे पूर्व का काम शिला ( हनुमानजी का वाल्मीकि रामायण की स्पर्धा में शिलाओं पर रामायण की रचना करना प्रसिद्ध ही है), ताम्र पत्र, ताड़पत्र, चर्म पत्र, लकड़ी के तख्ते (बाद में भोज पत्र) आदि से लिया जाता था,अतः मृदुल लेखनी से काम नहीं चल सकता था और लोहे के पुष्ट सूजे आदि से काम लिया जाता था, उदाहरणार्थ रोम तथा मिस्र में हड्डी से, युफ्रटिस उपत्यका में कीलों से लेखनी का काम लिया जाता था । मृदुल कागज पर लिखने की अपेक्षा शिला, ताड़पत्र आदि कठोर पदार्थों पर लिखने में वर्षों का रूप टेढ़ा-मेढ़ा हो जाता है। ज्यों-ज्यों मृदुल लेखनी तथा पत्र का प्रचार होता गया त्यों त्यों वणों के रूप में भी हेर-फेर होता गया और रेखाएँ सीधी तथा मुन्दर होती गई। (२) वैज्ञानिक आधार का लोपः-कालान्तर में लिपि चिन्ह तथा उच्चारण कालीन मुखाकृति का सम्बन्ध विस्मृत हो गया और रेखाएँ मुखाकृति की दद्योतक न रह कर केवल रेखा मात्र समझी जाने लगी ! फलतः उनकी स्थिति तथा रूप में बहुत भेद हो गया। अनेकों रेखाएँDसे अथवा -से नं० ५४ न० ४५ से नं० १, ) से ७, इत्यादि हो गई। सम्भवतः अ का प्रारम्भिक रूप नं०५१ भी इसी प्रकार विकृत होकर न० ५३ जैसा हो गया होगा। (३) लिखने की राति:-निश्चय, सरलता, त्वरा-लेखन. सुन्दरता आदि लिपि गुणों के कारण भी अनेक विकार होते रहते हैं। For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि-विकास • (क) त्वरा लेखन:-शीघ्रता से लिखने में रेखाओं के रूपा में प्रायः परिवर्तन हो जाता है उदाहरणार्थ 'अ' 'र' आदि लिखने में नं० ५५,५६ जैसे होजाते हैं। शीघ्रता से लिखने में लेखनी कम उठाई जाती है और रेखाएँ प्रायः मिल जाती हैं। सिरबन्दी का लोप हो जाना तो साधारण सी बात है। सम्भव है किसी समय सिरबन्दी त्वरालेखन में बाधक होने के कारमा विल्कुल ही हटा दी जाय । (ख) सुन्दरता तथा निश्चय-प्राचीन काल में वर्णों के ऊपर सिरबन्दी न होने के कारण कुरूपता के अतिरिक्त बड़ी गड़बड़ भी होती होगी। अतः सौन्दर्य वृद्धि तथा निश्चय के लिए वर्णों के ऊपर एक छोटी पगड़ी-सी (-) रकरवी जाने लगी जो दो अंशों में विभक्त होती थी। कालान्तर में ये दोनों अंश त्वरालेखन के कारण मिल कर एक हो गए और सिरबन्दी में परिवर्तित हो गए । प्राचीन छः (नं०५७) तथा नौ (नं० ५८) में अधिक अन्तर न था, अतः अब ६ तथा ६ रूप हो गए । इसी प्रकार अकाड़ वर्णों में सुन्दरता के लिए एक तीर की नोंक सी लगा दी जाती थी जैसा कि नं० ५६ से प्रकट है। हिन्दीए का नवीन रूप नं० ६० अाधुनिक नया प्रचलित रूप 'ए' से कहीं अधिक सुन्दर है। (ग) सरलता-किसी-किसी वर्ण का रूप क्लिष्ट होता है और उसके सरल करने में अनेकों रेवाएँ वक्र से सरल हो जाती है, उदाहरणार्थ त्त, का अथवा क्ल, दय के स्थान में त, क्त, द्य आदि आने लगे हैं। इसी प्रकार वैदिक नं० ३८ का हो गया। पाश्चात्य लिपियों में पूर्वात्य लिपियों की अपेक्षा रेखाओं का विकास वक्रता से सरलता की ओर अधिक है ! कभी-कभी सरलता के कारण वर्गों के प्राचीन रूपों का लोप और नवीन रूपों For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि का आविष्कार १७ की उत्पत्ति भी होती है, जैसे हिन्दी में अ की जगह मराठी अ लिखने का प्रचार अधिक हो रहा है तथा मराठी में इ, उ, ए के स्थान में अ, अ, अ आने लगे हैं । [४] विभाष - मिश्रण - किसी भाषा का विभाषा से संसर्ग होने पर उसमें अनेकों नवीन ध्वनियाँ आ जाती हैं और उनके द्योतक नवीन चिन्ह भी बन जाते हैं उदाहरणार्थ हिन्दी में अरबीफारसी के संसर्ग से क़, स्न, ग़, 'ज़, फ़, झ, ञ आदि तथा अँग्रेजी के प्रभाव से अॅ ऍ आदि का आगम हो गया है । ड़ ढ़, व्, न्ह, म्ह आदि भी नवीन ध्वनि संकेत हैं । --- निष्कर्ष – सारांश यह है कि लिपि के विकास की मुख्य अवस्थाएँ क्रमानुसार रज्जु अथवा ग्रंथि लिपि, भाव तथा ध्वनिबोधक चित्र लिपि तथा वस्तु अथवा मुख आकृति मूलक ध्वन्यात्मक लिपि हैं । ध्वन्यात्मक लिपि द्वारा निर्धारित लिपि चिन्ह कालान्तर में पूर्णतया वस्तु अथवा मुख आकृति से सम्बद्ध होकर उनके द्योतक न रहे और लिखने के ढङ्ग अर्थात् निश्चय, सरलता, सौन्दर्य, त्वरालेखन आदि लिपि गुणों के कारण समय समय पर विकून होते रहने के कारण आधुनिक रूपों में परिवर्तित हो गए और विशुद्ध वर्णमाला बन गई जिसमें विभाषामिश्रण के कारण अनेकों नवीन ध्वनियों तथा चिन्हों का आगम होता रहता है । For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत की प्राचीन लिपियाँ मराठी, गुजराती, पर्वतिया, उड़िया, बंगला, शारदा, कनड़ी, तामिल, गुरुमुखी, देवनागिरी आदि आधुनिक लिपियों की वर्णमालाओं का तुलनात्मक अध्ययन करने से हम इस महत्व पूर्ण परिणाम पर पहुँचते हैं कि नागरी, मराठी तथा पर्वतिया लिपियों में पूर्णतः सादृश्य है, आसामी तथा बंगला एक ही लिपि में लिखी जाती हैं, उड़िया वर्गों के सिर की घेरेदार पगड़ी, जो प्राचीन काल में लोहे की पुष्ट लेखनी से ताड़ पत्र पर लिखते के कारण उनके सिर पर रखनी पड़ती थी, उतार लेने से अनेक उड़िया वर्ण नागरी वर्गों के समान हो जाते हैं, नागरी वर्गा की सिर बन्दी हटा देने से वे गुजराजी सदृश हो जाते हैं. गुरुमुखी का. निर्माण शारदा के आधार पर, जिसका नागरी से बहुत सादृश्य है, हुआ है; दकन की तेलुगु तथा कनड़ो और तामिल तथा मलयालम में बहुत समानता है और द्राविड़ लिपियों का नागरी से भी सादृश्य है । इतना ही नहीं तिब्बती, बर्मी, स्यामी, काम्बोजी तथा मलय-द्वीपी लिपियों के वर्णों की भी नागरी से समानता है। सारांश यह है कि उत्तरी भारत की आधुनिक लिपियों, दक्षिणी भारत की द्राविड़ लिपियों तथा भारत के पार्श्ववर्ती देशों की लिपियों का नागरी से बहुत कुछ सादृश्य है। इन सब में वर्णमाला, स्वर-व्यंजन भेद, स्वर क्रम, व्यंजनों का वर्गीकरण, मात्रा नियम आदि सब लगभग एक से ही हैं. किसी में दो एक ध्वनियाँ कम हैं और किसी में अधिक, जो कुछ भेद है वह नाम का है । इतिहास इस बात का साक्षी है कि नागरी लिपि मूल आर्य लिपि से सम्बद्ध है, उसको बाद में द्राविड़ों ने For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत की प्राचीन लिपियाँ १६ अपनाया, तदन्तर भारत की पार्श्ववर्ती भाषाओं पर भी इसका प्रभाव पड़ा जैसा कि इससे स्पष्ट है कि पारिभाषिक शब्दों के लिए उक्त सब भाषाओं ने सदैव संस्कृत का ही सहारा लिया है। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि पश्चिमोत्तर भारत की सिन्धी, काफिर, ब्राहुई आदि पर अरबी का बहुत प्रभाव पड़ा है, तदनुसार उनकी लिपि पर सेमिटिक का विशेष प्रभाव है। अतः आधुनिक लिपियों के. विशेषतः नागरी के, इतिहास की खोज करने से प्राचीन भारतीय लिपियों का ज्ञान प्राप्त हो सकता है। प्रागैतिहासिक काल की खोज करने में सब से बड़ी कठिनता प्राचीन सामग्री का अभाव है। यद्यपि बहुत कुछ सामग्री काल कवलित हो गई है, प्राचीन पुस्तकालय आदि विध्वंसकारियों द्वारा नष्ट हो चुके हैं, अनेक शिलालेख दीवालों में चुने जाने पर शहीद होने का दावा कर रहे हैं अथवा खुदे होने के घमण्ड में, सिलबट्टे का रूप धारण करके, छोटी-मोटी वस्तुओं (मसाले, पिट्ठी, आदि) को पीस कर चूर-चूर कर रहे हैं, ताम्रपत्रों ने बर्तनों का रूप धारण कर लिया है और नित्य प्रति कहारियों के कठोर हाथों के रगड़े खाते-खाते अपनी उपयोगिता खो बैठे हैं, सोने-चाँदी के सिके कोमल-कामिनियों के अंग का आभूषण हैं और उनके मृदुल स्पर्श का आनन्द ले रहे हैं, तदपि धरती माता ने अनेक खंडहर, शिखालेख ताम्रपत्र आदि बहुत से रत्न अपने गर्भ में छिपा रक्ख हैं जो प्राचीन स्मारक-रक्षा विभाग के प्रयत्न के फलस्वरूप समय-समय पर हमारे सम्मुख आते रहते हैं । लिपि-सम्बन्धी खोजों का श्रेय चाम विल्किस, जेम्स टाड आदि पाश्चात्य और हीराचन्द ओझा आदि पूर्वात्य विद्वानों को है। ___ अशोक से पूर्व की लिपि अप्राप्य है। अशोक के शिलालेखों से प्रकट होता है कि उस समय (लगभग २५० ई० पू०) भारत वर्ष में दो लिपियाँ प्रचलित थीं ब्राह्मी तथा खरोष्ठी अथवा For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि-विकास खरोष्ट्री । शहबाजगढ़ी और मानसेरा के शिलालेख खरोट्री में और शेष ब्राह्मी में हैं, परन्तु इसके यह मानी नहीं हैं कि भारत में लिपि का आविष्कार तीसरी चौथी शताब्दी पूर्व हुआ और इसके पूर्व कोई लिपि थी ही नहीं। अनेक प्रमाण ऐसे हैं जिनसे सिद्ध होता है कि लिपि का आविष्कार अशोक से सैकड़ों वर्ष पूर्व हो चुका था, उदाहरणार्थ, बड़ली तथा पिपरा में दो लेख पाए गए हैं जो चौथी, पाँचवीं शताब्दी ई० पू० के हैं. हड़प्पा-मोहन जोदड़ो में कुछ मुद्राएँ पाई गई हैं जो १००० ई. पू. की हैं, मेगस्थनीजने अपनी 'इंडिका' में लिखा है कि जन्म-पत्रिकाएँ बनती थीं, 'शील' नामक ग्रन्थ में 'अक्खरिका' खेल का उल्लेख है जो उँगली अथवा सींक से लिख कर पहेली के रूपमें खेलाजाता था, बुद्ध-जीवनी-सम्बन्धी पुस्तक 'ललित-विस्तर' में बुद्धजी के चाँदी की तख्ती पर स्वर्णलेखनी से लिखने का वर्णन है, तथा चीनी यात्री सुएनच्चांग का बीस घोड़ों पर ६५७ पुस्तकें लाद कर ले जाना प्रसिद्ध ही है। इसके अतिरिक्त यास्क के निरूक्त तथा पाणिनि के अष्टाध्यायी जैसे व्याकरणिक ग्रन्थों की रचना लिखित माहित्यिक ग्रन्थों के अभाव में होना असम्भव है। वास्तव में बात यह है कि लेखन-कला तो थी, परन्तु उसका प्रयोग सम्भवतया केवल साहित्य-रचना में होता था, सर्वसाधारण में नहीं। यही कारण है कि प्राचीन काल में लिखित ग्रन्थों का बहुत महत्व था, पुराणों में लिखित ग्रन्थों का दान बड़ा भारी पुण्य माना गया है। यद्यपि लिपि का आविष्कार-काल ठीक ठीक बताना कठिन है, तदपि इस उद्धरण से कुछ अनुमान लगाया जा सकता है, बाभ्रव्य के विषय में यह अनुश्रति है कि उसने शिक्षा शास्त्र का प्रणयन किया ।........प्रणयन का अर्थ है प्रवर्तन, पहले-पहल स्थापित करना और चला देना । 'अतः बाभ्रव्य ने वर्णो की विवेचना के विषय को एक शास्त्र का रूप दे दिया। इससे सिद्ध है कि वह For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १ जयवन्दविद्यजं पर २ 'इति' भारत की प्राचीन लिपियाँ २१ विवेचना कुछ पहले शुरू हो चुकी और उसके समय तक पूरी परिपक्व तापा चुकी थी। इस प्रकार भारत युद्ध से सात पीढ़ी पहले अन्दाजन १५५० ई० पू० में - हमारी वर्णमाला स्थापित हो गई थी ।" " (१) ब्राह्मीः -- वेबर तथा वूहलर आदि पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि ब्राह्मी का निर्माण फिनीशियन तथा अरमइक के आधार पर हुआ है। बृहत्तर का कहना है कि 'भारतवासियों ने १८ वर्ण समुद्री व्यापारियों द्वारा ८६० ई० पृ० फिनीशियन लिपि से, २ वर्ण ७५० ई० पू० मेसोपोटामिया से और २ वर्ष छठी शताब्दी ई० पू० में से लिए और इनके आधार पर ब्राह्मी का निर्माण किया । २ डा० आर. एन. साहा ने भी इसे अरबी से सम्बद्ध करने का प्रयत्न किया है। उनके कथनानुसार यह बनारस की ब्रह्म भट या बेताल भट लिपि थी और राजपूनाने के 'दस नामोव सन्यासी भाटों द्वारा प्रयुक्त होती थी । इसे भट लिपि अथवा ब्राह्मी लिपि भी कहते थे । इसमें भी अरबी की भांति ही मात्रा तथा मध्य स्वरों का अभाव था और केवल २८ वर्ण थे ! कोलब्रुक, कनिंघम, फ्लीट, ओझा, जायसबाल आदि इस भत से सहमत नहीं हैं, उन्होंने ब्राह्मी को भारत की ही उपज माना है। कनियम का सबसे बड़ा विरोध यह है कि ब्राह्मी संस्कृत, प्राकृत, पानी आदि भारतीय लिपियों की भाँति बाई ओर को लिखी जानी थी, परन्तु सेमिटिक उर्दू-फारसी की भाँति दाई ओर को लिखी जाती है। इस पर बृहतर ने 'एरण' के सिक्के द्वारा यह भी सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि ब्राह्मी भी पहले दाई ओर को लिखी जाती थी और इसके अवशेष चिन्ह अशोक के शिला लेखों में अत्र भी पाए जाते हैं । उदा • Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यक्ष की रूपरेखा' जिल्द १, पृष्ठ २११ १४ For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२ लिपि-विकास हरणार्थ ध, त, यो व्यञ्जन उसे पाए जाते हैं तथा कुछ संयुक्त व्यञ्जनों में भी उलट-फेर है यथा प्त, त्स, य्व के स्थान में स्प, स्त व्य आदि खुदे हुए पाए जाते हैं । इस पर ओझा आदि विद्वानों का कहना है कि इधर सेमिटिक में केवल २२ वर्ण १८ उच्चारणध्वनियों के दबोतक हैं, वर्णों में न तो क्रम ही है और न स्वरव्यञ्जन विभाग तथा स्वरों में ह्रस्व-दीर्घ का भेद ही. और मात्राओं तथा संयुक्ताक्षरों का भी अभाव है, उधर ब्राह्मी में ६३ ६४ वर्ण हैं, व्यञ्जनों के साथ स्वरों का मात्रा के रूप में सहयोग होना केवल ब्राह्मी की ही विशेषना है और प्रत्येक श्वनि के लिए एक पृथक लिपिचिह्न है, यहाँ तक कि अनुस्वार तक का एक पृथक चिन्ह है। अतः यह असम्भव है कि ६३.६४ मूल उच्चारणों वाली सर्व प्रकार से पूर्ण ब्राह्मी लिपि एक २२ वर्ण वाली सेमिः टिक जैसी दरिद्र लिपि से निष्क्रमित हो और स्वयं २२ वर्ण भी न बना सके। अतः बूहलर के मत का बराबर विरोध होता रहा। १६५७ ई० में हैदराबाद की समाधियों में मिले बर्तनों तथा पत्थरों की खुदाई से बूहलर का मत निराधार सिद्ध हो गया। उन बर्तनों के पाँच लिपिचिन्ह स्पष्टतया अशोक कालीन लिपि से मिलते हैं। इन पत्थरों की भुराभुराहट से, जो कि हाथ लगते ही चूर-चूर हो गए जायसवाल का अनुमान है कि लगभग २:०० ई० पू० के हैं इस प्रकार ब्राह्मी की उत्पत्ति सेमिटिक काल अर्थात १००० ई० पू० के पूर्व हो चुकी थी। जायसवाल ने तो ब्राह्मी के सेमिटिक उद्भव का इतना विरोध किया है कि अनेक युक्तियों से सामी को ही ब्राह्मी से उत्पादित ठहराया है। उन का मत है कि ब्राह्मी तथा सामी वर्गों में समानता इसलिए नहीं है कि ब्राह्मी सामी से निकली है, अपितु इसलिए है कि सेमिटिक रूपों की उत्पत्ति ब्राह्मी से हुई हैं। क्योंकि उत्तरी तथा दक्षिणी सामी में एक ही उच्चारण के लिए भिन्न-भिन्न चिन्ह हैं, परन्तु वे सब ब्राह्मी For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३ भारत की प्राचीन लिपियाँ से मिलते हैं । अतः यदि ब्राह्मी सामी से निष्क्रमत होती, त उसके एक रूप से उधार लेती न कि भिन्न-भिन्न रूपों से थोड़ा थोड़ा। अतएव सागी की भिन्न भिन्न लिपियों ने ही ब्राह्मी से उधार लिया है न कि ब्राह्मी ने सामी से । बाह्मी का मूल अर्थ है 'पूर्ण' । कोई भी लिपि यकायक पूर्ण नहीं हो सकती, वह धीरेधीरे विकसित होकर कुछ समय पश्चात् पूर्ण होती है। भारत में ब्राह्मी ने पूर्व भी कोई अपूर्ण लिपि अवश्य रही होगी जिसका अाविष्कार सेमिटिक काल से सैकड़ों वर्ष पूर्व हो चुका होगा। यतः ब्राह्मी लिपि भारत की ही उपज है किसी विदेशी लिपि की नहीं । इसकी पुष्टि चीनी विश्व-कोप 'फा युअन चुलिन' से भी होती है, जिसमें ब्राह्मी लिपि ब्रह्मा नाम के भारतीय आचार्य द्वारा प्रवर्तित बताई गई है। यहाँ इसकी सुन्दरता के विपय में दो एक उद्धरण देना अनुचित न होगा। ओझा का कथन है कि यह भारतवर्ष के आर्यों का अपनी खोज से उत्पन्न किया हुअा मौलिक बाविष्कार है। इसकी प्राचीनता और साग-सुदरता से चाहे इसका कर्ता ब्रह्मा देवता माना जाकर इसका नाम ब्राझी पड़ा; चाहे साक्षर समाज ब्राह्मणों की लिपि होने से यह ब्राह्मी कहलाइ हो, पर इसमें संदेह नहीं कि इसका किनीशिअन से कुछ भी संबंध नहीं।' टेलर का कथन है कि, ब्राह्मी लिपि एक अत्यन्त पूर्ण और अद्वितीय वैज्ञानिक आविप्रकार है। एडवर्ड थामस का कथन है कि, 'ब्राह्मी अक्षर भारत वासियों की मौलिक उपज हैं और उनकी सरलता से बनाने वालों की बुद्धिमत्ता प्रगट होती है'।' लँसन आदि विद्वानों का कथन भी इसी सत्य की पुष्टि करता है। 'चूँकि इसका प्राचीनतम प्राप्य रूप काफी प्रौढ़ और किसी विदेशी उत्पत्ति से अपनी ओझा, 'प्राचीन लिपिमाला' धृष्ठ २८, टेलर, एल्फाबेट', भाग १ पृष्ठ ५० * हिन्दी विश्व-भारती' खंड २, पृष्ठ १०३६ For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - लिपि-विकाश स्वतन्त्रता प्रगट करता है, अतएव वर्षों पूर्व इसका निर्माण किया जाना ही संभव हो सकता है।' सारांश यह है कि ब्राह्मी लिपि जो साग-पूर्ण तथा सुन्दर है, भारतीय उपज है। जायसवाल के मतानुसार इसकी उत्पत्ति २००० ई० पू० में और बाभ्रव्य विषयक अनुश्रुति के अनुसार इसकी स्थापना १५५० ई० पू० में हो चुकी थी। अशोक के शिलालेखों से प्रकट है कि मौर्यकाल में इसका उत्तरी भारत तथा लंका में प्रचुर प्रचार था। 'पत्रवणा सूत्र' तथा 'समवायांग सूत्र' नामक जैन ग्रंथों में इसका नाम 'बंभी लिपि' दिया है और १८ लिपियों की नामावली में यह सब से ऊपर है। 'ललितविस्तर' की ६४ लिपियों में भी ब्राह्मी सर्व प्रथम नाम है। 'भगबनी सूत्र में प्रारम्भ में ही 'नमो बंभीए' शब्दों द्वारा इसकी बंदना की गई है। अतः इसका प्राचीन अथवा पाली नाम बंभी था और उस समय इसका बहुत आदर था । सब से प्राचीन प्राप्य लिपि अशोकी ब्राह्मी ३००ई० पू० की है । यद्यपि पिपरावा का मटके पर का लेख तथा बड़ली का खंड लेख ४००, ५०० ई० पू० के, हड़पा तथा मोहन-जोदड़ो की मुद्राएँ १००० ई० पू० की तथा हैदरावाद के बर्तनों पर के ५ चिन्ह संभवतः २००० ई. पू० के भी पाए गए हैं, जिनमें मात्राएँ स्पष्ट हैं और अशोकी लिपि के सादृश्य है, परन्तु बोधगम्य न होने के कारण इनसे अभी तक कोई महत्वपूर्ण परिणाम नहीं निकल सका है। (२) खरोष्ठी-खरोष्ठी का चीनी अर्थ है गधे के ओष्ठ वाली' और चीनी विश्व कोप 'फा-युअन-चुलिन' ने इसको भारतीय आचार्य खरोष्ठ द्वारा उत्पादित बताया है। बूहलर ने भी इसी मत को स्वीकार किया है। डा० प्रजिलुस्को के मतानुसार यह प्रारंभ में गधे की खाल पर लिखी जाती थी और खरोष्ठी खरपृष्ठी का अपभ्रंश है, परंतु बाद में अपने आविष्कर्ता For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत की प्राचीन लिपियाँ २५ खरोष्ठ ऋषि के नाम पर खरोष्ठी कहलाने लगी। इन मतों के अनुसार खरोष्ठी भी भारत की ही उपज ठहरती है, परन्तु इसके मानने में कई आपत्तियाँ हैं । प्रथम तो यह ब्राह्मी आदि भारतीय लिपियों की भाँति बाई ओर से दाई ओर को नहीं लिखी जाती हैं; द्वितीय इसमें संयुक्ताक्षरों की कमी और ह्रस्व-दीर्य भेद तथा मात्राओं का अभाव है जोकि भारतीय लिपियों की अपनी निजी विशेषता है तृतीय भारत का सब से प्राचीन साहित्य धर्म-ग्रंथ है, परन्तु खरोष्ठी का जो कुछ साहित्य उपलब्ध है उसका त्राह्मणों के धर्म-ग्रंथों से कोई संबंध नहीं है। इसके अतिरिक्त जिस प्रकार ब्राह्मी से उत्तरी भारत की आधुनिक लिपियाँ निष्क्रमित हुई हैं उस प्रकार खरोटी से पश्चिमोत्तर भारत की कोई लिपि नहीं निकली. प्रत्युत स्वयं इसकी भी तीसरी शताब्दी के पश्चात ही अवनति होने लगी। अतः न तो इसका भारतीय लिपियों से संबंध ही है और न यह भारत को उपज ही है। इसका निर्माण किसी विदेशी लिपि के आधार पर हुआ है। डा० सिलवान लेवी ने एक चीनी ग्रंथ के आधार पर इसका नाम खरोधी बताया है और इसको भारत के निकट-वर्ती खरोष्ट्र देश की उपज माना है। अतएव यह तो निश्चय है कि यह विदेशी लिपि है । अव प्रश्न यह है कि इसका उद्भव किस लिपि से हुआ और यह भारत में किस प्रकार आई। खरोष्ठी का प्रचार केवल पश्चिमोत्तर भारत में था जहाँ की सिन्धी, गल्वा, काफिर, ब्राहुई आदि भाषाओं तथा लिपियों पर अब तक सेमिटिक वर्ग की अरबी भाषाओं का प्रभाव पाया जाता है और चूँकि यह भी अरबी की भाँति दाई ओर से बाई ओर को लिखी जानी है, अतः इसकी उत्पत्ति सेमिटिक लिपि से हुई है। डाडवेल, भंडारकर आदि इतिहासज्ञों का मत है कि खरोष्ठी का निष्क्रमण अरमइक से हुआ है जो कि छठी शताब्दी ई. पू. For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६ लिपि-विकाश पारसी राज्यकाल में सम्पूर्ण हखामनी साम्राज्य की राज्यलिपि थी और जिसका मिन से हिन्दूकुश तक प्रचार था ! डा. जॉन मार्शल का मत है कि खरोष्ठी का प्रचार सवप्रथम गांधार में हुना। इसकी पुष्टि तक्षशिला के शिलालेख से भी होती है। जब भारत के पश्चिमोत्तर आँचल अर्थात् कम्बोज, गांधार तथा सिंध प्रदेश पर लगभग ५१६ ई० पूर्व के पश्चात् ईरानियों का अधिकार हो गया तो उन्होंने भारतवासियों को भी अरमइक सिखाई। कि इसमें केवल २२ लिपिचिन्ह १८ उचारण-ध्वनियों के द्योतक थे और काम नहीं चलता था, अतः खरोष्ट अथवा खरोष्ट्र आदि किसी प्राचार्य ने भारतीय भाषाओं की उन उच्चारण ध्वनियों के लिपिचिन्ह भी इसमें निर्मित कर दिए जिनका इसमें अभाव था । यही हमारी खरोष्ठी लिपि थी। इसकी पुष्टि स्वरूप श्रोझा का एक उद्धरणा देना अधिक अच्छा होगा, 'जव ईरानियों का अधिकार पंजाब के कुछ अंश पर हुआ तब उनकी राजकीय लिपि अरमइक का वहाँ प्रवेश हुअा, परन्तु उसमें केवल २२ अक्षर, जो आर्यभापायों के केवल १८ उच्चारगगों को व्यक्त कर सकते थे, होने तथा स्वरों में हस्व दीर्घ भेद का और स्वरों की मात्राओं के न होने के कारण यहाँ के विद्वानों में से खरोष्ठी या किसी और ने ना अक्षरों तथा ह्रस्व स्वरों की मात्राओं की योजना कर मामूली पढ़े हुए लोगों के लिए, जिनको शुद्धाशुद्ध की विशेष आवश्यकता नहीं रहती थी, काम चलाऊ लिपि बना दी। प्राचीनतम खरोष्ठी शिलालेख तीसरी शताब्दी ई० पू० का है । इससे प्रकट है कि उस समय इसमें २२ मूल वर्गों के अतिरिक्त अन्य भारतीय ध्वनियों के द्योतक लिपि-चिन्ह भी थे अतः उस समय इसका भारत के पश्चिमोत्तर आँचल पर खूब प्रचार था । इसके चीनी तुर्किस्तान तक प्रचार तथा उन्नति का कारण संभवतया कुषाण राज्य था। ओझा, 'प्राचीन लिपिमाला', पृष्ठ १७ For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ब्राह्मी का विकास २७ सारांश यह है कि खरोडी दाई ओर से बाईं ओर लिखी जाने वाली एक अपूर्ण लिपि थी जिसमें संयुक्ताक्षरों की कमी और सात्राओं का अभाव था | अरमइक को काट-छाँट कर खरोष्टी की स्थापना करने का कार्य संभवतः खरोष्ठ ऋषि ने किया था। बाद में इसका इतना प्रचार हुआ कि लगभग ४२५ ई० पू० में उत्तरी-पच्छिमी भारत के हवामनी साम्राज्य से स्वतन्त्र हो जाने पर भी तीसरी शताब्दी ई० पू० में इसका वहाँ खूब प्रचार था, परंतु इससे किसी लिपि का निष्क्रमण न होने के कारण इसका वंश न चल सका और लगभग पाँचवीं शताब्दी तक इसका पूर्णतः अंत हो गया । ब्राह्मी का विकासम लगभग ३५० ई० पू० तक ब्राह्मी का प्रचार अधिक और रूप अपरिवर्तित रहा, तत्पश्चात् शैली की दृष्टि से उसके उत्तरी तथा दक्षिणी दो भेद हो गए । दक्षिणी से दक्षिणी भारत की मध्य तथा आधुनिक कालीन लिपियों अर्थात् तामिल, तेलुगु, कनड़ी, कलिङ्ग, ग्रंथ, पश्चिमी तथा मध्य प्रदेशी आदि का निष्क्रमरण हुआ । चौथी शताब्दी में उत्तरी त्राची वणों के सिरों के चिन्ह कुछ तंत्रे, कुछ वर्षों की आकृतियाँ कुछ-कुछ नागरी सदृश तथा कुछ मात्राओं के चिन्ह परिवर्तित हो गए। गुप्त राज्य के प्रभाव से ब्राह्मी का यह रूप गुप्त-लिपि कहलाने लगा। चौथी, पाँचवीं शताब्दी में इसका प्रचार समस्त उत्तरी भारत में था । छठी शताब्दी में गुप्त लिपि के वर्णों की आकृति कुछ कुटिल हो गई, तदनुसार, ये वर्ण कुटिताक्षर और लिपि कुटिल कहलाने लगी । इसका छठी से नवीं शताब्दी तक उत्तरी भारत में खूब प्रचार था तत्कालीन शिलालेख तथा दानपत्र इसी में लिखे जाते थे । कुटिल लिपिसे, संभवतः दसवीं शताब्दी में, नागरी तथा शारदाका निष्क्रमण For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ܕ: लिपि विकास हुआ | आधुनिक काश्मीरी तथा टक्करी का निष्क्रमण शारदा से ही हुआ है । गुरुमुखी का निर्माण भी सिक्ख गुरु अंगददेव द्वारा शारदा के आधार पर ही हुआ है । नागरी को देवनागरी भी कहते हैं । 'नागरी' शब्द की व्युत्पत्ति के विषय में कई एक मत हैं । (१) आर. शामा शास्त्री के मतानुसार प्राचीनकाल में जब देवताओं की प्रतिमाएँ नहीं बनी थीं, उनकी पूजा से लिए उनके सांकेतिक चिन्ह भति-भाँति के त्रिकोणादि यंत्रों में, जिन्हें देवनागर कहते थे, लिखे जाते थे । कालान्तर में ये देव चिन्ह, उच्चारण ध्वनिसूचक लिपिचिन्ह बन गए, अतः यह लिपि देवनागरी कहलाई । ( २ ) इस लिपि के लिपि चिन्हों तथा तान्त्रिक चिन्हों में जो 'देवनगर' कहलाते थे. बहुत कुछ सादृश्य था, अतः इस लिपि का नाम देवनागरी पड़ गया । (३) प्राचीन काल के नागर ब्राह्मणों की लिपि होने के कारण यह नागरी कहलाई । ( ४ ) नगरों में प्रचलित होने के कारण इसका नाम नागरी हो गया, यद्यपि निश्चित रूप से तो नहीं कहा जा सकता कि वह लिपि देवनागरी अथवा नागरी क्यों कहलाई, परन्तु चूंकि अनेक विद्वान प्राचीन शिलालेखों के लिपि चिन्हों को 'देवताओं के अक्षर' 'सिद्धदायक मंत्र' 'गढ़े धन के बीजक' आदि कह कर उनका अध्यन करने से बचते रहे हैं, अतः संभव हैं इसका ' देव नगर' अर्थात देव-संकेतों अथवा तांत्रिक चिन्हों से कुछ सम्बन्ध हो और नागरी देव-नागरी का संक्षिप्त रूप हो । नागरी लिपि के दो रूप हैं, उत्तरी नागरी तथा दक्षिणी नागरी । दक्षिणी नागरी 'नंदि नागरी' भी कहलाती थी। संभवतः इसकी उत्पत्ति उत्तरी नागरी के पूर्व हुई थी । दक्षिण भारतमें इसके प्राचीन लेख ही नहीं पाए जाते, प्रत्युत यह संस्कृत ग्रंथों में अभी तक लिखी भी जाती है । उत्तरी नागरी की तीन अवस्थाएँ हैं, प्राचीन, मध्यकालीन तथा आधुनिक अथवा वर्तमान । दसवीं शताब्दी में कुटिल लिपि परिवर्तित Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ब्राह्मी का विकास होकर प्राचीन नागरी हो गई, जिसमें 'अ, आ, घ, प, म, य, प, और स के सिर दो अंशों में विभक्त मिलते हैं।' १ इसके पूर्वी रूप से प्राचीन बँगला लिपि निकली जिससे आधुनिक बँगला, आसामी, मैथिली, उड़िया तथा नेपाली की उत्पत्ति हुई। मराठी. गोरखाली अथवा पर्वतिया, महाजनी ( मुड़िया) तथा कैथी भी प्राचीन नागरी के ही विकसित रूप हैं। गुजराती का निर्माण कैथी के आधार पर हुअा है। प्राचीन नागरी के ग्यारहवीं शताब्दी के रूप को मध्यकालीन नागरी कह सकते हैं। इसमें वर्णों के ऊपर की सिरवंदी के दोनों अंश मिलकर एक होगए। बारहवीं शताब्दी में वर्णों का वह रूप हो गया जो आजकल प्रचलित है। तब से लिपि में कोई विशेष परिवर्तन तो नहीं हुआ है, परन्तु कुछ साधारण परिवर्तन अवश्य हुए हैं । उदाहरणार्थ लगभग डेढ़ दो सौ वर्ष पहिले तक प्रत्येक वर्ण अथवा अक्षर पृथक्-पृथक् लिखा जाता था और शब्दों के बीच स्थान नहीं के बराबर छोड़ा जाता था, परन्तु इधर कुछ काल से दो वाँ अथवा अक्षरोंकं बोच स्थान नहीं छोड़ा जाता और दो शब्दों कबीच स्थान छोड़ा जाने लगा है अर्थान किसी शब्द के समस्त वर्गों पर एक सिरबंदी लगाई जाती है और दो शब्दों को सिरवंदियों के बीच स्थान छोड़ा जाता है । आजकल ड, स, अद्ध न, म तथा ण, तथा (चंद्रबिंदु) का प्रायः लोप सा होता जा रहा है और इनके स्थान में अनुस्वार () का प्रयोग बढ़ रहा है। अ, ण, ल, के स्थान मेंमराठी अथवा प्राचीन अ, ण, ल अधिक प्रचलित हो रहे हैं और सिरबंदी लगाने की प्रथा भी (प्रायः लिखने में ) उठो मी जा रही है। संभव है. किसी समय नागरी भी गुजरात की भाँति सिरमुण्डी हो जाय । यद्यपि भाषा तथा लिपि दोनों नितांत भिन्न हैं, परन्तु किसी भाषा के अधिक प्रचलित होने के कारण प्रायः उसमें तथा उसकी लिपि . ओझा, 'प्राचीन लिपिमाला', पृष्ठ ६० For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि-विकास में व्यवहारिक रूप से अभिन्नता हो जाती है और लिपि मी भाषा के नाम से पुकारी जाने लगती है। यही कारण है कि देवनागरी अथवा नागरी लिपि हिन्दी के नाम से अधिक प्रचलित है। सारांश यह है कि उत्तरी भारत की समस्त आधुनिक लिपियाँ उत्तरी ब्राह्मी के विकसित रूप प्राचीन नागरी से और दक्षिणी -भारत की लिपियाँ दक्षिणी ब्राह्मी से उत्पन्न हुई हैं। यहाँ नागरी वर्गों का संक्षिप्त इतिहास दे देना अनुचित न होगा । ( वर्णों तथा अंकों के विकास चित्र में ब्राह्मो वर्णों का विकास देखो)। इतिहास:-अशोक के पूर्व की लिपि अप्राप्य है, अतःसमस्त वर्गों के प्रथम रूप अशोक कालीन हैं। ___अः-का दूसरा रूप कुशन राजा प्रां के लेखों में ( दूसरी शता० ), उच्छकल्प के महाराज शनाथ के ताम्रपत्र में (४६३ ई०) तथा राजा अपराजित के लख में (६६१ ई.) प्राप्य है। तीसरा रूप निकटतः दूसरे माप के समान है । चौथे और पाँववे रूप ६ वी तथा १३ वीं श.के बीच के हैं और इनमें जो कुछ रूपान्तर हुए हैं, वे सुन्दरता के कारण हुए हैं। इ:-का दूसरा रूप समुद्रगुप्त के प्रयाग स्तंभ वाले लेख में (४ थी शता०) तथा स्कंदगुप्त कालीन कहा के लेख में (४६० ई० ) उपलब्ध है। तीसरे रूप में सिर बन्दी लगाने का यत्न किया गया है। चौथा रूप हैहय वंशी राजा जाजल्लदेव के लेख (१११४ ई०) तथा कुछ प्राचीन इस्न लिखित पुस्तकों में प्राप्य हैं । पाँचवाँ रूप १३ वीं शता० के शिलालेखों तथा पुस्तकों में उपलब्ध है। उ:-दूसरा रूप कुशन राजाओं के लेखों में प्राप्य है। शेष रूपान्तर सुन्दरता के कारण हुए हैं। * अंशतः ओझाजी की पुस्तक 'नासाअ तथा अक्षर' के आधार पर For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ब्राह्मी का विकास ___ए:-का दृसरा रूप समुद्रगुप्त के लेख तथा अन्य कई लेखों में प्राप्य है । तीसरे रूपान्तर का कारण सुन्दरता है । चौथा रूप यशोधर्मन के मंदसौर के लेख ( ५३२ ई.) तथा मारवाड़ के राजा ककक के समय के लेख में (८६१ ई०) उपलब्ध है। पाँचवा रूप राठौर राजा गोविन्दराज के लेख में (८०७ ई०), परमार राजा वाकपति के लेख में (६७४ ई.) और कलचुरी गजा कारीदेव के ताम्रपत्रों में ( १०४२ ई०) उपलब्ध है। क-का दूसरा रूप सिरबंदी लगाने की चेष्टा का फल है। तीसरा रूप उक्त राजा कर्णदेव के ताम्रपत्र में उपलब्ध है। चौथा म.प भी कई एक लेखों में प्राप्य हैं। ख:-का दूसरा म्प कुशन राजाओं के लेखों में तथा क्षत्रप मन्द्र दामन के गिरनार के लेख में ( २ री शता० ) उपलब्ध है। शेष रूपान्तर सुन्दरता के फल स्वरूप हुए हैं। गः-का दूसरा म्प सोडास तथा नहपान क्षत्रिय राजाओं के लेखों में पाया जाता है। शेप रूपान्तर सिरबंदी लगाने की चेष्टा के फल स्वरूप हुए हैं। घः-का दूसरा उक्त राजा यशोधर्मन के मंदसौर के लेख में उपलब्ध है। शेष रूपान्तर सिरबंदी लगाने तथा त्वरा लेखन के कारण हुए हैं। ड:-यह अशोक कालीन लेखों में नहीं मिलता। इसका पहिला रूप समुद्र गुप्त के लेख के एक संयुक्ताक्षर में पाया जाता है बाद में इसके नीचे की गोलाई बढ़ने के कारण इसका रूप 'डी के समान होने लगा । अतः भिन्नता लाने के लिए ८ वीं शता० में इसके अंत में एक बिंदी सी लगाई जाने लगी। चः--के पहिले के बाद के समस्त रूपान्तर सिर बंदी लगाने, सुन्दरता लाने तथा त्वरा लेखन के कारण हुए हैं । छः- का दूसरा म्प पहिले का रूपान्तर मात्र है। तीसरा For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि-विकास रूप कन्नौज के गहरवार राजा जयचंद के ताम्रपत्र ( ११७५ ई० । तथा मालवा के परमार वंशी महाकुमार उदय वर्मा के ताम्रपत्र (१२०० ई०) में उपलब्ध है। जः--के पहिले के बाद के समस्त रूपान्तर सुन्दरता लान, सिरबेंदी लगाने तथा त्वरा लेखन के कारण हुए हैं। --का दूसरा रूप ब्राह्मण राजा शिवगण के कसवाँ के लेख में ( ७३८ ई०) उपलब्ध है। तीसरा रूप राठौर राजा गोविंदराज तृतीय के ताम्रपत्र में ( ८०७ ई.) में प्राप्य है। चौथा रूप जैन पुस्तकों में प्राप्य है और राजपूताने में प्रयुक्त होता है . यह 'झ' से मिलता-जुलता है। अः-का दूसरा रूप उक्त राजा अपराजित कालीन एक लेख में ( ६६१ ई.) प्राप्य है। तीसरा रूप कुमारगुप्त कालीन मंदसौर के लेख में ४७२ ई०) उपलब्ध है। चौथा रूप तीसरे का रूपान्तर है। ट:-के पहिले के बाद के रूपान्तर सिरबंदी लगाने तथा सुन्दरता जाने की चेष्टा के फल स्वरूप हैं। ठः-के पहिले के बाद के रूपान्तर सिरबंदी लगाने के कारण हुए हैं। ड:-का दूसरा रूप त्वलेखन के कारण पहिले रूप से बना है और जैन राजा खारवेल के हाथी गुम्फा के लेख में (२री शता० पूर्व) उपलब्ध है। शेष रूपान्तर त्वरालेखन अथवा सुन्दरता लाने के कारण हुए हैं। ढः--का दूसरा रूप सिरबंदी लगाने के कारण बना है। यह आज तक अपने इसी रूप में है। रण-का दूसरा तथा तीसरा रूप कुशन लेखों में उपलब्ध है। चौथे रूप सिरबंदी लगा देने से 'ण' और छठे रूप में सिरबंदी लगा देने से 'ण' बना है। For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ब्राह्मी का विकास (२री शता० पूर्व) प्राप्य है। तीसरा रूप कुशन लेखों में और और चौथा और कई एक लेखों में उपलब्ध है। पाँचवाँ रूप चौथे का रूपान्तर है। धः--का दूसरा रूप कन्नौज के परिहार राजा भोजदेव के ग्वालियर के लेख में (८७६ ई०) तथा देवलगाँव की प्रशस्ति में (६६२ ई०) में उपलब्ध है। तीसरा रूप कन्नौज के उत्त राजा जयचन्द के ताम्रपत्र में प्राप्य है। चौथा रुप तीसरे रूप में सिरबंदी लगाने से बना है। नः-का दूसरा रूप रुद्रदामन के उक्त लेख में उपलब्ध है। तीसरा रूप राजानक लक्ष्याणचन्द कालीन बैद्यनाथ के लख में (८०४ ई०) में प्राप्य है। चौथा रूप तीसरे का रूपान्तर मात्र है जो कि सुन्दरता लाने के कारण बना है। पः-पहिले के बाद के समस्त रूपान्तर सुन्दरता लाने तथा त्वरालेखन के कारण हुए है। फः--का दूसरा रूप पहिले का रूपान्तर है। तीसरा रूप समुद्रगुप्त के लेख में उपलब्ध है। शेष रूपान्तर त्वरालेखन तथा सुन्दरता के कारण हुए हैं। बः--का दूसरा रूप राजा यशोधर्मन के युक्त मंदसौर लख में उपलब्ध है। तीसरा रूप दूसरे का रूपान्तर है और उस समय के 'प' अथवा 'व' के समान है। अतः भिन्नता लाने के लिए चौथे रूप में बीच में भीतर मध्य में एक बिन्दु' लगा दिया गया । पाँचवाँ रूप चौथे का ही रूपान्तर है जो सुन्दरता के कारण हुआ है और गुजरात के सोलंकी राजा भीमदेन के ताम्रपत्र में ( १०२६. ई०) पाया जाता है। भः-का दूसरा रूप कुशन लेखों में और तीसरा स्कन्दगप्त के इन्दौर के ताम्रपत्र में (४६५ ई०) प्राप्य है। चौथा रूप तीसरे का रूपान्तर मात्र है। For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३४ www.kobatirth.org लिपि - विकास -के पहिले के बाद के रूप सिरबंदी लगाने तथा सुन्दरता लाने की चेष्टा के फल स्वरूप बने हैं । मः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यः - कादूसरा रूप पहिले रूप से त्वरालेखन के कारण बना है । यह भी अशोक के लेखों में पाया जाता है । शेष रूप इसी से, सुन्दरता लाने तथा सिरबंदी लगाने के कारण बने हैं । रः —का दूसरा रूप सुन्दरता लाने के कारण बना है । यह बौद्ध श्रमण महानामन के लेख में ( ५८८ ई० ) में उपलब्ध है । शेष रूपान्तर त्वरालेखन अथवा सुन्दरता के कारण हुए हैं। लः--- - का दूसरा रूप हूए राजा तोरमाण के लेख में ( ५०० ई के निकट ) और तीसरा कई एक लेखों में उपलब्ध है । शेष रूप सिर बंदी लगाने सुन्दरता लाने तथा त्वरालेखन के कारण बने हैं । वः - का दूसरा रूप पहिले से त्वरालेखन तथा सिरबन्दी लगाने के कारण और दूसरे से तीसरा सुन्दरता लाने के कारण बना है ! शः - के पहिले के बाद के रूप त्वरालेखन, सुन्दरता तथा सिरबंदी लगाने के कारण बने हैं। I षः - अशोक के लेखों में इसका प्रभाव है । इसका पहिला रूप घोंडी के शिलालेख में ( २ शता० पूर्व ) में उपलब्ध है । शेष रूप त्वरालेखन तथा सिरबंदी लगाने से बने हैं । सः - - का दूसरा रूप पहिले में सिर बंदी लगाने से बना 1 तीसरा रूप गुप्त लेखों में और चौथा कई अन्य लेखों में प्राप्य है । पाँचवाँ रूप चौथे से सुन्दरता लाने अथवा वरालेखन के कारण बना है | ह: - का दूसरा रूप पहिले का रूपान्तर है । तीसरा रूप महाराज शर्वनाथ के उक्त ताम्रपत्र में उपलब्ध है । चौथा रूप भी For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वर्गा तथा अंको का विकास (क) वणी का निकास - कनी मला साल मुंडी अशोकीबाली का विकास MH म :::.रूगइ L1153 उ. Avaएए debi st 4 । 3उन रख AOMगग nuutuघव LE53 ड. ddबचच ककछ EEERT जज Phम मम ८८८ट ००ठठ 7१रदड ट ढ Ivrsion AM त त 6988चथ 5481122 ०४४ घ . न न Livपप ७८७. फ यसयब ब ततवताभ ४४ म JANय य लवल 5500RG0060956 GS 64G६ Dewer Risha braPDATE RAP 9 horo k rtax reHTTER NONJANE HEN Atal or chodai REGA .६ १२ १६१६६६६६६६६६६६७३ 6l oval 04 3 १६.६६LTERS ६ भRa8888888,4६५ HESI6586528798 ६००३388903६ उहत 8 sds ७७७ 0 37363005,505486036 3m 3800 7.3५॥ 3 १२BE6 OMAARशश tvधष adस t६क्ष ६हज नोट:- 8 अन्य भारतीय लिपियों के वों का विकास भी हिन्दी की भांति ही . भाली वर्षों से हुआ है। a) हिन्दी व्या मराठी फिला एकहीहै केवल अकुरा भलश For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (a) हिन्दी सना मराठी अफ्रिला एक ही है केवल अ क क मा मला के मराठी सम प्रश: अ ण मलवा है हिन्दी में भी दून ममें का प्रयोग होने लगा है। इट का अभाव है। दूधा इ3 केन्यान में भु से प्रयुक्त होने लगे हैं। (३) बंगमा तथा आसामी वर्गभाला एक ही है। केवल बंगला य तथा t) आमाभी में मश: ख मा ए की भांति मिले आते हैं। ५ अंडी वर्गानाला का निर्माण कधी के आधार पर हुआ है । कैथी वर्ण हिन्दी महश है केवल उनमें सिबन्दी नहीं अगाई आती और मश ख भय ? केप mms44531 की प्रति हैं और उ.मा का अभाव है। (a) अंको का विकास अशोको बासी अंकों का विकास auri - -1017 | orro , . " . " Mr. २w १ + ५५४४ ny५५५ PEER 97990 4935८८८ १२११९९८41 ६.० ६२०८ e~ To go to w au nw 1127 GDP wit - . 6 १ . or For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकों का विकास ३५ तीसरे से सुन्दरता के कारण बना है और कई एक लेखों में पाया जाता है । चः - यह 'क' तथा 'ष' के संयोग से बना है और संयुक्त वर्ण है । १० वीं शता० तक यह संयुक्ताक्षर के रूप में ही पाया जाता था। बाद में सुन्दरता के चक्कर में पड़ कर इसका वर्तमान रूप बन गया और यह एक स्वतन्त्र वर्ण ही समझा जाने लगा । इसका प्रथम रूप उक्त चत्रिय राजा सोडास के मथुरा के लेख में उपलब्ध है। शेष रूप इसी के रूपान्तर हैं जो वरालेखन, सिरबंदी लगाने तथा सुन्दरता लाने के कारण बने हैं । शः - यह भी 'क्ष' तथा 'त्र' की भाँति एक संयुक्ताक्षर है और 'ज' तथा 'न' के संयोग से निर्मित हुआ है । बाद में यह भी एक स्वतन्त्र वर्ण समझा जाने लगा । इसका प्रथम रूप उक्त रुद्रदामन के लेख में उपलब्ध है । शेष रूप इसी के रूपांतर है जो कि सुन्दरता, सिरबंदी तथा त्वरालेखन के कारण बने हैं । अंकों का विकास अंकों की उत्पत्ति तथा विकास का ओझा जी ने बहुत सुन्दर विवेचन किया है और उसकी उपस्थिति में कुछ कहना धृष्टता मात्र है, तदपि संक्षेप में यहाँ कुछ कह देना अनुचित न होगा । प्राचीन तथा चीन अंकों में बहुत भेद है । सब से बड़ा भेद तो यह है कि प्राचीन काल में शून्य का चिह्न नहीं था, केवल १ से ६ तक अंक चिह्न थे; दूसरे जिस प्रकार आजकल समस्त सख्याएँ १ से १० तक के अंकों के आधार पर लिखी जाती हैं उस प्रकार प्राचीन काल में संख्याओं का आधार १ से ६ तक के अंक न थे; नोट:- सरबंदी बहुधा वर्णों में उनके दूसरे अथवा तीसरे रूप में लगी हैं। For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि-विकास तीसरे आजकल जिस प्रकारशन्य (०) बढ़ा कर दहाई, सैकड़ा, हजार आदि बनाने का नियम है प्राचीन काल में वैसा न था: उस समय १०, २०, ३०,४०,५०,६०, ७०, ८०, ६०, १००, १००० के लिए पृथक्-पृथक चिह्न थे ( इसके ऊपर के संख्या-चिह्न अप्राप्य हैं ) जैसे ४० के लिए 'स' ६०, के लिए 'प्र', इत्यादि अर्थात दहाई सैकड़ा आदि का बोध उर्दू रकमों की भाँति अक्षरों जैसे चिह्नों से होता था। इसकी पुष्टि अोझा जी के इस कथन से होती है कि, 'इन अंकों में अनु गसिक, जिव्हामूलीय और उपध्मानीय का होना प्रकट करता है कि उनका ब्राह्मणों ने निमाण किया था न कि वाणिों ने और न बौद्धों ने।' १ वर्षों के अंक द्योतक होने के उदाहरण अन्य लिपियों में भी पाए जाते हैं जैसे रोमन अंक I. V. X. L. M श्रादि, ग्रीक अंक, A B आदि, उदू ,r श्रादि, हिन्दी ५ का प्राचीन रूपए , इत्यादि । अरबी में तो ८वीं शता० तक १ से १००० तक की सभी गिन्तियाँ वणों में थी यथा। ----------------क्रमशः १,२,३, ४ ५. ६, ७, ८, ६, के --------------" , क्रमशः १०, २०, ३०, ४०, ५. ६०, ७०, ८०, ६, के और -------- --- क्रमशः १००, २००, ३००, ४००, ५००, ६००, ७८०,८००, ६००. १०००, के द्योतक थे। इस प्रकार भारतवर्ष में १ से EEEEE तक की संख्या प्रदर्शित करने के लिए २० चिन्ह थे, ६ अंक और ११ अक्षरांक । अतः ११ से १६ तक की संख्या लिखने के लिए पहिले दहाई का चिह्न और उसके आगे इकाई का अंक लिखा जाता था, उदाहरणार्थ यदि ४७ लिखना है, तो ४०+७ अथात् पहिले ४० का चिन्ह और उसके आगे ७ का अंक लिख दिया जाता था। २८० के १ श्रोमा, 'प्राचीन लिपिमाला' पृष्ठ ११. For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकों का विकास के लिए १०० का चिन्ह लिख कर उसके ऊपर, नीचे, मध्य अथवा दाहिनी ओर एक आड़ी रेखा लगा दी जाती थी, ३०० के लिए वैसी ही दो रेखाएँ लगा दी जाती थीं, परन्तु ४०० से १०० तक के लिए ऐसा नहीं था, इसके लिए १०० का चिन्ह लिख कर उसके आगे एक छोटी सी आड़ी रेखा लगा दी जाती थी और उसके पश्चात् ४०० से ६०० तक के लिए क्रमशः ४ से ६ तक के अंक लिख दिए जाते थे । अतः १०१ से ६६६. तक की संख्या, सैकड़े के चिन्ह के आगे दहाई का चिन्ह और अन्त में इकाई का अंक लिख कर लिखी जाती थी, उदाहरणार्थ ३४५ के लिए ३००+ ४०+५ अर्थात् पहिले ३०० का चिन्ह, फिर दाहिनी ओर को २० का चिन्ह और अन्त में ५ इकाई लिख दी जाती थी। यदि संख्या में दहाई अथवा इकाई नहीं होती थी, तो उस का अंक नहीं लिखा जाता था, उदाहरणार्थ ५५०१ में ५०० और १ अर्थात् ५०० के वाद १ इकाई लिखी जाती थी और दहाई का अभाव रहता था, ५१० में ५०० और १० अर्थात ५०० के वाद १० ( १ दहाई ) का चिन्ह लगा दिया जाता था और इकाई का अभाव रहता था । २००० से ६००२ तक की संख्याएँ भी उसी प्रकार लिखी जाती थी जिस प्रकार कि २०० से १०० तक की संख्या के लिए १००० के चिन्ह के दाहिनी ओर ऊपर की तरफ एक छोटी सी आड़ी अथवा नीचे को मुड़ी हुई सी रेखा लगा दी जाती थी, ३००० के लिए वैसी ही दो रेखाएँ लगा दी जाती थीं, परन्तु ४००० से १००० तक के लिए १००० का चिन्ह लिख कर एक छोटी सी आड़ी रेखा से क्रमशः ४ से ६ तक के अंक जोड़ दिए जाते थे। इसी प्रकार १०००० से १००० तक के लिए सम्भवतः १००० के चिन्ह के बाद एक छोटी आड़ी सी रेखा से १० से १० तक के दहाई चिन्ह जोड़ दिए जाते थे। अतः For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८ लिपि - विकास ६६६६६ की संख्या ६०००० + १००० + ६००+६०+ ६ के चिन्ह लिख कर लिखी जाती थी । अक्षरांको के विषय में कुछ समय पूर्व प्रिन्सेप आर्यभट्ट आदि विद्वानों का यह मत था कि उनकी उत्पत्ति उनके सूचक शब्दों के प्रथम अक्षरों से हुई है जैसे फ़ा, ( सेह) से, हि० पंच से ५, अं० four से 4, इत्यादि परन्तु बाद में चूहलर, भगवानलाल, ओझा आदि विद्वानों ने अक्षरांकों में कोई नियम अथवा क्रम न पाकर उक्त मत को अस्वीकृत कर दिया; परंतु इसके यह मानी नहीं हैं कि अक्षरांक ही न थे । शब्दों के प्रथम अक्षर अंकों के सूचक भले ही न हों, परंतु अक्षरांकों का होना निर्विवाद है । इतना ही नहीं, प्रत्युत अंक-सूचक अक्षर लिपि के अनेक भेद-उपभेद तक थे । प्राचीन ग्रंथों से पता चलता है कि इसकी दी शैलियां थीं जो क्रमशः 'गीत-कल्प भाष्य' आदि प्राचीन जैन ग्रंथों तथा आर्यभट्ट के ज्योतिष ग्रंथों में पाई जाती हैं । अक्षरांक लिपि में एक एक अंक के लिए कई-कई वर्ण आते थे जैसे क प य तीनों १ के द्योतक थे । कुछ ऐसे उदाहरण भी पाए जाते हैं जिनमें ग्रंथांतर होने पर एक ही स्वरांक अथवा व्यंजनांक भिन्न-भिन्न संख्याओं का द्योतक हैं जैसे आर्यभट्ट के ज्योतिष ग्रन्थों में क तथा न क्रमशः १ तथा ० के द्योतक हैं, परन्तु अक्षर चिंतामणि में ४ तथा ५ के द्योतक हैं। इसके अतिरिक्त अंक सूचक शब्द - लिपि भी प्रचलित थी। इसमें भी दो प्रकार के अक थे, शब्दांक तथा नामांक शब्दांक लिपि में कोई पदार्थ अथवा व्यक्ति अपनी संख्या का ही सूचक हो जाता था जैसे मुनि संख्या में ७ हैं, अत: 'मुनि' ७ का द्योतक था जैसे 'तव प्रभु मुनि शर मारि गिरावा'; इसी प्रकार हस्त, कर्ण, चक्षु, बाहु, इत्यादि मानव शरीरावयव संख्या में २ -२ होने के कारण २ के, नख संख्या में २० तथा दशन ३२ होने के कारण क्रमशः २० तथा ३२ के, भुवन विधु, सूर्य, मह, For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्कों का विकास ३६ नक्षत्र आदि अपनी संख्याओं के अनुसार क्रमशः १४, १, १२,६ तथा २७ के. ज्योतिष संबंधी पक्ष, राशि, चरण आदि क्रमशः २, १२, ४ आदि के और साहित्य-शास्त्र सम्बन्धी व्याकरण, वेद, पुराण, महाकाव्य आदि क्रमशः ८, ४. १८, ५ आदि के, वाचक थे। सारांश यह है कि पदार्थों के भेद-प्रभेदों की संख्या शब्दांकों का आधार थी । कभी-कभी एक ही शब्द कई-कई संख्याओं का द्योतक भी होता था जैसे लोक ३ तथा १४ का सूचक था, क्योंकि लोक ३ और भुवन १४ हैं और लोक तथा भुवन पयायवाची है। इसी प्रकार रद तथा ३२ का, नरक ७ तथा ४० का सूचक था। इसके अतिरिक्त कभी-कभी एक ही शब्द अपने विभिन्न अर्थों के अनुसार विभिन्न संख्याओं का सूचक भी होता था जैसे 'रस' जिव्हा संबंधी तथा साहित्य संबंधी दो प्रकार के होते थे अतः 'रस' ६ तथा ६ दोनों संख्याओं का सूचक भी होता था, श्रलि का अर्थ 'कान' तथा वेद' दोनों है अतः यह २ तथा ४ दोनों का वाचक था, तथा 'युग' जोड़े के अर्थ में २ का और 'काल संबंधी युग' के अर्थ में ४ का सूचक था। इसी प्रकार कभी कभी शब्दों से उन वस्तुओं के अनुसार जिनसे वे संबद्ध होते थे अलग अलग संख्याओं का बोध भी होता था जैसे प्रङ्ग', यदि वेद के हैं, तो ६ का यदि राज्य के हैं तो ७ का और यदि योग के हैं तो ८. वाचक होगा। ___ इस प्रकार एक ही शब्द विविध संख्याओं का सूचक था। अतः शब्दांक लिपि में बड़ी अनिश्चितता थी और कभी-कभी निर्णय में बड़ी गड़बड़ हो जाती होगी। एक उदाहरण से यह विषय स्पष्ट हो जायगा । 'अष्ट लक्ष्मी' ग्रन्थ का रचना काल उसके कवि स य सुन्दर ने इस प्रकार दिया है । 'रस जलधि राग सोम' अथात् (१६४६), परंतु 'जलधि' के ४ तथा ७ का और 'रस' के ६ तथा का सूचक होने के कारण विद्वानों ने ठीक For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अंग आदित्य ४० लिपि - विकास निर्णय करने में भूल की है। मोहनलालजी देशाई ने 'जलधि' का ७ का और 'रस' को ६ का बाचक समझ कर सं १६७६ निकाला है और पं० लालचन्दजी तथा प्रो० हीरालालजी ने 'जलधि' को ४ का सूचक मानकर सं० १६४६ निकाला है । यहाँ कुछ ऐसे शब्दों की जिनसे एक से अधिक सख्या का बोध होता था, सूची दे देना अनुचित न होगा । सूचित संख्याएँ शब्द शब्द इन्द्र ईश्वर काल कम करांगुल व खर गज गिरि गुण गुति गो गोव चन्द्रकला विद्र और उसके (पर्याय रंध्र) जगती www.kobatirth.org ५,६,७,८,११ १, १२ १, २४ ४, ११ ३, ६ ८, १२ ४, ५, २० ०, ६ ६, ७ ३. ८ ५, ७ ३. ६.६ ३, ६ १, १, ७ १५, १६ ० ह १२, ४८ जीव तत्त्व दंड दिशा (और उसके पर्याय दिक दिशित आदि ) द्वीप दुर्ग नरक Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाग पक्ष ( और उसका पर्याय घस्र ) पंक्ति पर्वत पवन ( तथा उसके पर्याय For Private And Personal Use Only सूचित संख्याए १, ६ ५,७,६,२५,२८ १, ३ ४, ८, १० ७, ८, १८ ६, १०, ७, ४० ७, ८ २, १५ ०, १० Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रत्न * Hai or विद्या अटों का विकास शब्द सुचित संख्याएँ शब्द सूचित संख्याएँ वायु अनिल ३,५,६,१३,१४ आदि) ५.४६ १, ३२ पयोधि (तथा १, १२ उसके पर्याय जलधि आदि) ४,७ वलि ३.५ प्रकृति १४ २१, २५ वाजी ब्रह्म १,३,८ विधु १,४ भुवन (और विश्व १३, १४ उसका पर्याय ३, ११. १८ लोक) भूखंड ५, ७, ३३ मही १,७ स्वर मुनि ३.७ ३, १०, ११ मेरु १,५ शिलीमुख ५,७ यति ६,७ श्रुति २, ४, ८, २० युग २,४ हरनेत्र १, ३ रस ६ ६. नामांक लिपि में किसी वस्तु अथवा व्यक्तिका नाम अपने वर्ग में जिस क्रम संख्या पर होता था उसी का वाचक हो जाता था जैसे अमरनाथ तीर्थकर अपने वर्ग का अठारहवाँ तीर्थ है, अतः यह १८ का सूचक था; इसी प्रकार सामवेद वेद-वर्ग में तीसरा है, अतः ३ का सूचक हो गया। शब्दांक लिपि की उत्पत्ति संभवतः इस प्रकार हुई कि प्राचीन काल में लेखा बंद mur ora 9 ० १ १ ४१ G.' शिव For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२ लिपि - विकास प्रणाली का अभाव होने के कारण ज्योतिष, गणित, व्याकरण आदि के नियम शीघ्र स्मरण करने के लिए बंदोबद्ध कर लिए जाते थे और चूंकि बड़ी-बड़ी संख्याओं को छंदोबद्ध करने में कठिनता होती है, अतः वे शब्दों द्वारा सूचित की जाती होंगी। इनके सूचित करने का नियमः 'अंकानां वामतो गतिः' अर्थात् उल्टा पढ़ना, पहिले शब्द से इकाई, दूसरे से दहाई, तीसरे से सैकड़ा, इत्यादि था । एक उदाहरण से यह विषय स्पष्ट हो जायगा, सूर ने 'साहित्यलहरी' का रचना काल इस प्रकार दिया है, 'मुनि पुनि रसन के रम लेखु । दसन गौरीनंद को लिखि सुबल संबत पेखि ।' इसमें 'मुनि', 'रसन', 'रस' तथा 'दसनगौरीनंद को क्रमशः ५०,६,१ के द्योतक हैं, अतः 'अंकानां वामतो गतिः' के अनुसार रचना काल संवत् १६०७ हुआ । इसी प्रकार 'नयन वेद ४-मुनि ७- चंद्रमा १- १०४२ का सूचक है, २४७१ का नहीं । कहीं-कहीं इस नियम कान वामतो गतिः' के अपवाद भी उपलब्ध है । यथा, 'शि१ उदधि ७ काय ६ शशि ०' (जिवनुषं कुल जंबूकुमार रास ), १७६० का सूचक है । यहाँ क्रम सीधा है। 'अचल ७ लोचन २ संयमभेद' १७ (दान विजय कृत वीर सावन जै० गु० क० भाग २, पृ० ४४६ ), १७७२ का सूचक है । यहाँ पहिले के दो शब्दों का क्रम सीधा और अन्तिम एक शब्द क्रम 'वामतो गति' के अनुसार अर्थात् नियमानुसार है । इन अपवादों का कोई नियम न था, अतः इस कारण भी बहुत कुछ अनिश्चितता थी । यहाँ प्राचीन शब्दांकों की एक संक्षिप्त सूची दे देना उचित होगा । शब्दांक सूची ( ० ):-----अम्बर तथा उसके पर्याय ( आकाश, गगन, रख For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शब्दांक सूची श्रादि), खग, पंक्ति, बिंदु, रंध्र तथा उसका पर्याय (छिद्र),शून्य । (१):---अंगुष्ठ, अज तथा उसके पर्याय (ब्रहा विधाता आदि ), अतीत, अद्वैतवाद, अलख, अवांने तथा उसके पर्याय (उर्वरा, उर्वी, कु, क्षमा, गो, धरणी, धरती, धरा, पृथ्वी भू, भूमि, मही, मेदनी, वसुंधरा, घसुधा आदि) अश्व, आत्मा, आदित्य तथा उसके पर्याय (दिनेश, सूर्य आदि ), इन्द्र तथा उसका पर्याय (शक), इन्दु तथा उसके पर्याय ( उडपति, कलाधर, कलानिधि, क्षपाकर, चन्द्रमा, द्विजराज, निशाकर, निशानाथ, निशापति, निशेश, मृगांक, रजनीकर, रजनीश, विधु, शशांक, सोग, हिम. कर आदि), एक, कलश, कुमुद, खड्ग, गोत्र, जीव, त्रिनयन, दंड, दीप, नायक, पताका, मेरु, रमा, रद, राशि, शंख, शारद, शुक्रनेत्र, हरनेत्र, हस्तिकर । (२):-~-अक्षि तथा उसके पर्याय ( अंबक, आँख, चक्षु, हग नयन, नेत्र, लोचन, आदि), असिधारा तथा उसका पर्याय (खड्ग धारा), प्राकृति, उमय, कुटुम्ब, कृति. राजदन्त, जानु, जंघा, दल, दो.. दो, द्वद्व, द्वि, द्वे, नदी-तट, नाम-जिह्वा पक्ष तथा उसका पयाय (घ), भरत-शत्रुन्न, यम तथा उसके पर्याय कृतांत, यमराज आदि), राम-लक्ष्मण, श्रवण तथा उसके पर्याय (कण, श्रुति आदि), श्रृंग, स्रोत, हस्त तथा उसके पर्याय (कर तथा पाणि) (३):-अनल तथा उसके पर्याय ( अग्नि, कृशानु, तपन पावक, वह्नि, शिखी, आदि) काल, गज गुण, ज्वर, तत्व, ताप, त्रय, त्रि, त्रिकाल, त्रिकूट, त्रिगुण, त्रिनेत्र निफला त्रिरत्न, त्रिशिरा, त्रिशूल, दशा, पुष्कर, पूर्ण, भवन, तथा उसके पर्याय (लोक, विश्व आदि ), मुनि, यज्ञोपवीत-सूत्र, रत्न, राम. वचन, वर्ण, वाजी, विक्रम, विद्यावेद, शक्ति, शिर, शूल, संध्या, हरनेत्र, तथा उसके पर्याय ( शिवनेत्र, हरनयन ) आदि । For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि विकास (४):-अंग अनुयोग, अभिनय, अवस्था, आश्रम, ईश्वर, उपाय, कथा, कास्य, फॅट, केन्द्र, कोष्ट, खानि, गज-जाति, गति, गोचरण, गो स्तन, चरण, चतुर, चतुष्टय, चार, जल, जलधि तथा उसके पर्याय । अंबुधि, अबुनिधि, अर्णव, जलनिधि, जलाशय, दधि, नीरधि, नीरनिधि, पयोधि, पयोनिधि, पारावार, वारिधि, वारिनिधि, समुद्र, सागर, सिंधु ), दशरथ-पुत्र, दिशि, तथा उसके पर्याय (दिशा आदि ), नीति, फल तथा उसका पर्याय (पदार्थ), बन्धु, बुद्धि, माला, भुक्ति, याम, युग, रीति रोहिणी, लोक-पाल, वर्ण, वाणिज, विधि, विधि, मुख तथा उसके पर्याय ( ब्रह्म-मुख आदि), वेद तथा उसका पर्याय (श्रुति ), सनकादि, संघात, संज्ञा, सेनांग, स्वतक, सम्प्रदाय, हरिभुज तथा उसके पर्याय (विष्णु-भुजा, हरि-वमु आदि)। (५):-अंग, अक्ष, अर्थ, असु तथा उसका पर्याय (प्राण) आचार, करांगुलि, गव्य, गति, गिरि, ज्ञान, तत्त्व तथा उसका पर्याय (भूत), पर्व, पवन तथा उसके पर्याय ( अनिल, मरुत, बात, वायु, समीर, आदि), पंच, पंचक, पंचकूल. पांडव, पाप, प्रणाम, प्रजापति महाकाव्य, महायज्ञ, माता, मृगशिर, मरु, यज्ञ. रत्न, वर्ग वर्ण, वलि, विषय, व्रत, शर तथा उसके पर्याय (नागच, पत्री, वाण, विशिख, शर, शिलीमुख, सायक), शरीर, शस्त्र, श्रम, समिति, सुर, सुमति, स्थानक, स्वर । (६):-अंग, अंगिरस, ऋतु, करम, कार्तिकेय, कारक, करल, क्षमाखंड, खर, गुण, चक्रवत्ती, जीव, तर्क, तृण, देह, द्रव्य, पद, भाषा, सू-खण्ड, भृगपद तथा उसका पर्याय अलिपद, यति, रति, रस, राग, रामा, रिपु,तथा उसका पर्याय अरि), लेश्या, वर्ण, वदन, वर्षधर, वेदांग, शर, शिलीमुख, पद, पटाद, समास, स्वर, संपत्ति। For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शब्दांक सूची ():--अचल तथा उसके पर्याय ( पर्वत, गिरि, नग, भूधर, महीधर, शैल आदि ) अत्रि, अर्क, अश्व तथा उसके पर्याय (घोटक, तुरंग, वाजि, हय आदि ) उदधि तथा उसके पर्याय (जलधि, जलनिधि, तोयधि, वारिधि, समुद्र, सागर, आदि) अंग, ऋद्धि, कलत्र, क्षेत्र, खर, गंधर्व, गोत्र, छंद, त्रिकूट, तत्त्व, तोल, तुला, द्वीप, दुःख, धातु, धान्य, नरक, नाग, पाताल, फणि, मणि, मही, मुलि तथा उसके पर्याय ( ऋषि, यति ) मातृक, राज्यांग, लोक तथा उसका पर्याय ( भुवन ), वार, सप्त, सुख, सुर, स्मर, स्वर । (८):---अंग तथा उसका पर्याय ( योगास), अनीक, अलि, अष्ट, अहि नया उसके पर्याय ( नाग, पन्नग, फणि, व्याल, सर्प आदि ) ईश-मूर्ति, पश्वर्य, कर्म, कलम, कुलपति, गिरि, दंत. दिक्पाल तथा उसके पर्याय कुञ्जर, गज, दिग्गज, नाग, यूथप, लोकपाल, व्याल, वारण, सिंधुर, हस्ति, हया), देश, पुष्कर, ब्रह्म, याम, योग, वसु, विधि, व्याकरण, श्रुति, लिद्धि, सुर। (e):--अंक, अंग, खंड, खग गुण, गौ, द्वार, दुर्ग, नंद, नव, नाडी, नाम, नारद, नारायण, पवन, भक्ति, नत्न, रस, राशि, संख्या। (१०):-अंगद्वार, अंगुलि, अवतार, अवस्था, आशा, कर्म, दश, दशा, दुर्ग, दोष, पद्म, प्राण, मुद्रा, रावण-सुख, हरि । (११):-अंग, अक्षौहिणी,ईश तथा उसके पर्याय (चंद्रशेखर, भव, भूतेश, महादेव, महेश, शंकर, शिव आदि), एकादश, भीम ! (१२):-आदित्य तथा उसके पर्याय (तरणि दिनकर, दिनमणि, दिवाकर, पतंग, भानु, भास्कर, रवि, सूर्य आदि) उपांग कर्म, कामदेव, कार्तिकेयनेत्र, जगती, द्वादश, भक्त, भावना, मास यम, नाशि, हस्ता, संक्रांति, सभासद, हृदयकमल । For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि-विकास (१३):--काम, घोषा, ताल, त्रयोदश, यक्ष, रत्न, रवि, विश्व, विश्वेदेवा, सरोवर। (१४):-अश्विनी, कुलाकर, चतुर्दश, जिष्णु तथा उसके पर्याय (इन्द्र, पुरन्दर, शक्र, सुरपति, सुरेश, विडोजा), देव, ध्रुवतारा, यम, रज्जु, रन्न, लोक तथा उसके पर्याय (भुवन, विश्व यादि ), विद्या, स्रोत, स्वप्न । (१५):-चन्द्रकला, तिथि, पक्ष, तथा उसका पर्याय (घस्र), पंचदश, वृष । (१६):-अंबिका, अष्टि, इन्दुकला तथा उसके पर्याय (शशिकला आदि) उपचार, चित्रभानु, पार्षद, भूप तथा उसके पर्याय ( भूपति, भूपाल, राजा आदि), शृंगार, पोडश, सुर, संस्कार । (१७):--अत्यष्टि, कुन्थु, भोजन, मित्र, वारि, वारिद तथा उसके पर्याय ( अंबुद, घन, जीमूत, मेघ, जलद, पयोद आदि) संयम ( अथवा संयम भेद ), सप्तदश । (१८):-अध्याय, अष्टादश, तारण, द्वीप, धृति, पुराण,भार, विद्या, स्मृति । (१६):-अनिधृति, एकोनविशंति, धन्या पार्थिव, पिंडस्थान, विशेष, संज्ञा। (२०):-करांगुलि, धृति, रावण-चक्षु अथवा दशकंधर-चक्षु, रावण-भुजा अथवा दशकंधर भुजा, नख, नर, व्यय, विशंति, विंशोपक विश्व, श्रुति ।। (२१:-उत्कृति, एकविशति, प्रकृति, सर्वजित, स्वर्ग तथा उसके पर्याय ( अमरलोक, अमरालय, देवालय, विधालय सुरलोक, सुरालय)। (२२):-कृति, जाति, द्वाविंशति, परीषह ।। (२३,:-अक्षौहिणी, जरासंध, त्रयोविंशति, विकृति । For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शब्दांक सूची ___ (२४):-अवतार, अर्हत, गायत्री, चतुर्विंशति, जिन, तत्त्व, सिद्ध, सुकृति । (२५):--तत्त्व, पंचविशति, प्रकृति । (२६):--उत्कृति । ६६७):--नक्षत्र तथा उसके पयाय ( उडु. ऋक्ष, तारक, तारा आदि)। (२८):--लब्धि । (३०):-दल, सदन। (३२):--द्वात्रिंशत, नर-लक्षण, रद तथा उसके पर्याय (दंत, दशन, द्विज, रदन)। (३३):-त्रयास्त्रिशत्, त्रिविष्टप, बुध, सुर तथा उसके पर्याय (अमर, देव, देवता, विवुध )। (३६):---रागिनी, वगमूल । (४०):-तरको (४८):--जगती। (४६):---पवन तथा उसके पर्याय (अनिल, प्रभञ्जन, पवमान, मरुत, वात, वायु, समीरण), तान । (६४):-स्त्री-कला। (६८):-तीर्थ । (७२):-पुरुष-कला। (८४):-- जाति। (१००):--अजुन-सुत, कमल-दल तथा उसके पर्याय (अदल, अज-दल आदि) कीचक, जयमाला, 'वृतराष्ट्र-पुत्र अथवा धृतराष्ट्र-सुत, मणिहार, रावणांगुलि, शक्रयता, शतभिषा, सज् । (१०००):-~-इद्र, इन्द्र नेत्र तथा उसका पर्याय ( इन्द्र-चलु), अजुन बाण, अजुन-भुज, गंगा-मुख, पंकज-दल तथा उसके पर्याय (अंबुजच्छद. कमल-दल आदि), रविकर, विश्वामित्र For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि विकास आश्रम, शेष-शीर्ष तथा उसका पर्याय (अहिपति-मुख), सामवेद-शाखा। (१०,०००):-अयुत। (१,००,०००):-प्रयुत। (१०,००,००,०००):-अर्बुद । अब प्रश्न यह है कि अंकों की उत्पत्ति किस प्रकार हुई। यद्यपि यह बताना तो असम्भव है कि अंकों का आविष्कार कब और किसने किया, परन्तु इतना निश्चित है कि इनकी उत्पत्ति रेखालिपि से हुई है, उदाहरणार्थ १, २, ३, ४ क्रमशः -, =. =, + के विकसित रूप हैं। यहाँ अङ्कों के विकास कासंक्षिप्त इतिहास दे देना अनुचित न होगा। __ अंको का संक्षिप्त इतिहास ५:-इसका प्रथम चिह्न (-) ४ थी शताब्दी तक प्रयुक्त होता था और व्यापारी लोग तो अब भी - रकमें लिखने में 'एक आने के स्थान पर यही चिह्न काम में लाते हैं। यह रूप नानाघाट, नासिक आदि की गुफ़ाओं, आंध्र तथा अन्य क्षत्रिय राजाओं के शिला लेखों, मथुरा तथा उसके निकटवती प्रदेश से प्राप्त क्षत्रिय तथा कुशन राजाओं के शिलालेखों और मालवा. गुजरात, राजपूताना आदि में राज्य करने वाले क्षत्रिय राजाओं के सिक्कों, में उपलब्ध है। दूसरा रूपान्तर सुन्दरता लाने के कारण हुआ है। यह गुप्त वंशी राजाओं के शिलालेखों में, नेपाल से प्राप्त ८ वीं शता० तक के शिलालेखों में और काठियावाड़ के वल्लभी राजाओं के ६ठी से८वीं शता० तक के ताम्रपत्रों में प्राप्त है। यह रूप दूसरे रूप का ही रूपान्तर है। यह Bower __ * अंशत भोमाजी की पुस्तक 'नागरी अङ्क तथा अचर' के आधार पर For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क अकों का संक्षिप्त इतिहास ४६ Manuscript (बाबर साहब द्वारा खोज की हुई एक प्राचीन हस्तलिखित पुस्तक ) में उपलब्ध है। चौथा रूप तीसरे रूप से त्वरालेखन के कारण बना है । यह ११ वीं शता० की कई एक हस्तलिखित पुस्तकों में उपलब्ध है। शेष रूप चौथे रूप के ही रूपान्तर हैं। २ तथा ३:--इन दोनों अङ्कों के चारों रूपांतरों का इतिहास क्रमशः '१' के पहिले, दूसरे, तीसरे तथा चौथे रूपान्तरों के अनुसार ही है। ४:-यह रूप अशोक के कालसी के तेरहवें शिलालेख में उप. लब्ध है। दूसरा रूप नाना घाट आदि कई स्थानों में प्राचीन शिलालेखों में उपलब्ध है। तीसरा रूप क्षत्रिय राजाओं के सिक्कों में उपलब्ध है। चौथा रूप तीसरे का ही रूपान्तर है और त्वरालेखन के कारण बना है। यह १० वीं शता० के निकट की हस्तलिखित पुस्तकों में प्राप्त है। ५:- का पहिला रूप आंध्र तथा क्षत्रिय राजाओं के लेखों में और दूसरा गुप्त राजाओं के शिलालेखों में उपलब्ध है। तीसरा रूप नेपाल के शिलालेखों तथा प्राचीन पुस्तकों में उपलब्ध है। चौथा तथा पांचवा 5प वीं तथा १० वीं शता० के लेखों में प्राप्त हैं। ६:- का पहला रूप अशोक के सहस्राम तथा रूपनाथ के लघु शिलालेखों में उपलब्ध है। दूसरा रूप पहले का रूपान्तर मात्र है और मथुरा तथा उसके निकटवर्ती प्रदेश से प्राप्त कुशन राजाओं के शिला लेखों में उपलब्ध है। तीसरा रूप दूसरे से त्वरा लेखन द्वारा निष्क्रमित हुआ है और कन्नौज के परिहार राजा महिपाल के हड्डाला के ताम्रपत्र में ( ६१४ ई०) उपलब्ध है। * इन शिला लेखों तथा सिद्धपुर के शिलालेख में ६ अतिरिक्त ५० ओर १०० के अङ्क भी प्राप्त हैं, For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि-विकास ७:-का पहिला रूप आंध्र राजाओं के शिलालेखों में उपलब्ध है । दूसरा रूप पहिले का रूपान्तर है और त्वरालेखन द्वारा बना है । यह क्षत्रिय राजाओं के सिक्कों में उपलब्ध है। तीसरा और चौथा रूप इसी के रूपांतर हैं । ये क्षत्रिय राजाओं के सिक्कों और बल्लभी राजाओं के ताम्रपत्रों में उपलब्ध हैं। ८:-का पहिला रूप आंध्र राजाओं के शिलालेखों में और दूसरा और तीसरा गुप्त राजाओं के लेखों में उपलब्ध है। ___:-का पहिला और दूसरा रूप आंध्र राजाओं के सिक्कों में उपलब्ध है। चौथा रूप गुप्त राजाओं के लेखों में उपलब्ध है और त्वरा लेखन के कारण तीसरे रूप से निष्क्रमित हुआ है। पांचवे रूप का प्रादुर्भाव त्वरा लेखन द्वारा चौथे रूप से हश्रा है और यह १० वीं शता० के लेखों में प्राप्त है। छठा रूप इसी का रूपान्तर मात्र है सब से प्रथम कुछ अंक-चिह्न अशोक के शिलालेखों में मिलते हैं। इसके पूर्व के अंक-चिन्ह अप्राप्य हैं; परन्तु इसके यह मानी नहीं हैं कि भारत में मौर्य-काल के पूर्व अंक-चिन्ह थे ही नही और इस समय वे किसी विदेशी अंक-लिपि के आधार पर निर्मित कर लिये गए, जैसा कि कुछ विद्वानों का मिथ्या भ्रम है। - यहाँ कुछ विदेशी अङ्क लिपियों की व्याख्या कर देना उचित है। मिश्र का सबसे प्राचीन अङ्क हाइरोग्लाइफिक चित्र लिपि था। हाइरोग्लाइफिक अङ्क लिपि में १, ५० तथा १०० केवल तीन अक चिन्ह थे। इन्हीं तीन अकों से ६६६ तक के अङ्क अनते थे। १ का अङ्क चिन्ह एक खड़ी लकीर था, १ से ६ तक के अङ्क १ के अङ्क चिन्ह को दाई ओर क्रमशः १ से ६ बार लिखने से बनते थे। ११ से १६ तक के लिए १० के अङ्क विन्ह के बाई ओर क्रमशः १ से तक खड़ी लकीरें अर्थात् १ का अङ्क चिन्ह लगाने से बनते थे । १० से ६० तक के अङ्क चिन्ह १० के अङ्क For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir hi का संक्षिप्त इतिहास ५१ चिन्ह को क्रमशः १ से ६ बार लिखने से बनते थे । इसी प्रकार १०० से ६०० तक लिखने के लिए १०० का अक चिन्ह क्रमशः १ से ६ बार लिखा जाता था । अतः मिस्री अ प्रारम्भिक अवस्था में था और भारतीय अ अधिक जटिल था । फिनीशियन अङ्क मिस्त्री अङ्कों से ही निकले हैं। इसमें २० का एक नवीन अङ्क चिन्ह बना लिया गया है और ३० से ६० तक लिखने के लिए २० तथा १० के अङ्क चिन्ह आवश्यकता - नुसार लिखे जाते थे । उदाहरणार्थ ६० के लिए २० का अङ्क ४ चार और उसके बाद १० का अङ्क लिखा जाता था । For Private And Personal Use Only क्रम बिलकुल क्रम से कहीं ग्रीक अङ्क लिपि में केवल १०००० तक की संख्या थी । रोमन अक्क लिपि में १००० तक संख्या थी । रोमन अक अब भी घड़ियों तथा अन्य स्थानों में प्रचलित हैं । उसमें १, ५, १०, ५०, १०० और १००० के अक चिन्ह हैं, शेष अङ्क तथा संख्यायें इन्हीं से बन जाती हैं । उक्त विदेशी अङ्क क्रमों में एक भी ऐसा न था जिससे गणित ज्योतिष तथा विज्ञान की कोई विशेष उन्नति हो सके । यह सब उन्नति भारतीय अङ्क क्रम द्वारा हुई । भारतीय अंकों में वैदिक कालीन जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय अक्षरों का होना इस बात का प्रमाण है कि उनकी उत्पत्ति वैदिक काल में हो चुकी थी और उनका निर्माण ब्राह्मणों द्वारा हुआ न कि विदेशियों द्वारा । अरब, ग्रीस, रोम आदि अन्य देशों मैं तो कार तो इसके बहुत बाद में हुआ है । भारतीय अंकों की दो शैलियाँ हैं, प्राचीन तथा नवीन । अशोककालीन अंक चिन्ह प्राचीन शैली के उदाहरण हैं । जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है प्राचीन शैली में १ से १ तक अंक थे और दहाई से गणना करने का नियम न था । यह शैली १५० ई० श्री नन्दिर AA Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि विकास पू० तक पूर्ण हो चुकी थी। नवीन शैली में शून्य की योजना हो गई थी और दहाई से गिनने की प्रथा भी चल पड़ी थी। इसी समय भारतवासीय न 'दश गुणोत्तर संख्या क्रम भी निकाला, जिसके अनुसार किसी अङ्क के दाहिनी ओर से बाई हटने पर उसका मूल्य दस गुनाहो जाता है, उदाहरणार्थ १५५११ में पाँचों अङ्क ? के ही हैं, परन्तु दाहिनी ओर से लेने से पहिला इकाई, दूसरा दहाई, तीसरा सैकड़ा, चौथा हजार तथा पांचवाँ दस हजार है अर्थात् पहिले से १ का, दूसरे १ से १० का, तीसरे १ से १०० का, चौथे १ से १००० का और पाँचवें १ से १०००० का बोध होता है ! संसार की गणित, ज्योतिष विज्ञान आदि की समस्त उन्नति भारतवासियों के इसी अङ्क क्रम के कारण हुई है। अब प्रश्न यह है कि भारतवासियों ने यह अङ्क क्रम कब निकाला और इसका प्रचार अन्य देशों में कब और किस प्रकार हुआ! अराहमिहिर की ‘पंच सिद्धान्तिका' में जो कि ५ वीं शताकी है, नवीन शैली के अत सर्वत्र पाए जाते हैं। योग सूत्र के भाष्य में जो ३०० ई० के निकट का है, व्यास ने 'दशगुणोत्तर अङ्कु क्रम' का उदाहरण स्पष्ट रूप से दिया है। इसके अतिरिक्त बख्शाली, (जि० युसुफजई, पंजाब) में भोजपत्र पर एक हस्त लिखित पुस्तक पाई गई है जिसमें नवीन शैली के अङ्क उपलब्ध हैं। हार्नलीके मत से इसका रचना काल रीअथवा ४थी शता है। वातः यह निश्चित है कि नवीन शैली पाँचवीं शताब्दी में प्रचलित की और इसका आविष्कार इसके कुछ पूर्व सम्भवतः ४थी शता में हो गया था। इसके विदेशों में प्रसरण के विपय में प्रोमा का मत है कि नवीन शैली के अंकों की मृष्टि भारतवर्ष में हुई फिर यहाँ से अरबों ने यह क्रम सीखा और अरबों से उसका प्रवेश यूरोप में हुआ है। * अोझा, 'शचान लिपिमा ना', पृष्ठ ११७-११८... For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अक्कों का संक्षिप्त इतिहास इसके पूर्व एशिया और यूरोप की चाल्डिअन, हिब्र, ग्रीक, अल्ब आदि जातियाँ वर्ण माला के अक्षरों से अंकों का काम लेती थीं । अरबों में खलीफावलीद के समय (ई० स० ७.५-५१५) रक अङ्कों का प्रचार नहीं था, जिसके बाद उन्होंने भारतवासियों से अङ्क लिए इसकी पुष्टि अल नरुती ने भी अपनी पुस्तक 'इंडिया', भाग १, में इस कथन द्वारा की है, हिन्दू लोग अपनी वर्णमाला के अक्षरों से अङ्गों का काम नहीं लेते थे जैसा कि हम हित्र व गाला के क्रम के अनुमार अरबी अक्षरी को काम में ताते हैं। भारत में जिस प्रकार की प्राकृतियाँ भिन्न हैं, वैसे ही या सूचक चिमों की प्राकृतियाँ भी भिन्न है। जिन ग्रहों को हम प्रयोग में लाने सुन्दर अङ्की से लिए गए हैं। प्रोमाजी को मना रहीं द्वारा भी होती है यथा प्रकरजी विश्वको: (Encyclopedia Brita. miica) में दिया है, "इसमें कोई सन्देह नहीं कि हमारा (अङ्ग रंजी) वर्तमान अङ्कक्रम ( दशगुणोत्तर) भारतीय उपज है। इन अङ्गों का अरब में प्रवेश संभवतः ७७३ ई. में हुआ, जब कि एक भारतीय राजदूत रखगोल लंबंधी सारगियाँ अगदाद में नाया था। फिर ६ वीं शना के प्रारंभिक काल में अबुजफर महम्मद लखाउमी ने अरबी में उक्त क्रम की व्याख्या की और उसी समय से अरबों में उसका प्रचार अधिक होने लगा। _ यूरोप में अन्य सहित यह सम्पूर्ण अल क्रम' १२ वीं शता में प्रअरबों से लिया गया और इस क्रम द्वारा बना हुश्या अङ्क गणित अता गोरिदमल ( अल्गोरिथम अहलाया : जो कि विवेशी शब्द अलस्वादिमी' का अक्षतामान है अतः मारतीय अङ्कम का प्रवेश अरन से वी शता में और अरब से यूरोप में १२ वी सामः- में हुआ। 1. Alican'Mindis', म.यह १, पृ. १४४ ! 2.intopedia aritannica, म:३३ : पृष्ठ ३२६ । For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५४ लिपि विकास अब केवल एक प्रश्न रह जाता है कि दहाई तथा शून्य की योजना किस प्रकार हुई । हम देखते हैं कि बच्चे प्रारंभ में इमली के चीयों, मट्टी की गुल्जियों अथवा छोटी-छोटी कंकड़ियों द्वारा गिनती सीखते हैं, तत्पश्चात् वे उँगलियों पर गिनना सीख जाते हैं। ठीक यही क्रम प्राचीन काल में भी था, सर्वप्रथम पत्थरों के टुकड़ों द्वारा गणना होती थी तत्स्यात् उँगलियों का प्रयोग होने लगा । उँगलियों का उस समय बड़ा महत्त्व था । हाथ की उँगलियों की संख्या १० है, अतः दहाई से गणना होने लगी और अनेक प्रकार के दहाई सूचक गणना-यन्त्र बन गए, आधु निक बाल- फ्रम इन्हीं का अवशेष चिन्ह है । तत्पश्चात गणनायन्त्रों की आकृति के अनुकरण पर अंक चौपटे खानों के भीतर लिखे जाने लगे और स्थानानुसार उनसे इकाई, दहाई, सैकड़े आदि का बोध होने लगा ! व्दाहरणार्थ वे शश की भाँति लिखे जाते थे । जब कभी इकाई बहाई आदि के स्थान में कोई अंक नहीं होता था तो खाली खाना [[" | बनाया जाता था। बाद में जब खाने त्वरालेखन में बाधक हुए, तो उनका लोप हो गया और अंक दूर-दूर ६२ ५ की भाँति लिखे जाने लगे और खाली खाने के लिए एक बिन्दु लगा दिया जाता था जो कि अरबी तथा उससे प्रभावित फारसी उर्दू आदि में शून्य के लिए अब भी श्राता है । बाद में जब अंक आजकल की भाँति पास-पास ६२१ की तरह लिखे जाने लगे, तो बिन्दु बहुत छोटा होने के कारण गड़बड़ करता था, अतः उसे एक चक्र से घेर कर o की भाँति लिखा जाने लगा । कालान्तर में बिन्दु लुप्त हो गया और केवल चक्र ही शून्य का द्योतक रह गया । • सारांश यह है कि अंकों की उत्पत्ति सर्वप्रथम भारतवर्ष में हुई और यहाँ से उनका प्रवेश अरब में और अरब से यूरोप के ग्रीस, रोम आदि देशों में हुआ । चूँकि अशोक काल से पूर्व के Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिन्दी तथा अन्य लिपियां अंक-चिन्ह अप्राप्य हैं, अतः उनकी उत्पत्ति का ठीक-ठीक समय बताना तो कठिन है, परन्तु उनमें जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय वर्णों का होना यह प्रकट करता है कि संभवतः उनका आवि कार वैदिक काल में हुआ था । १ से ६ तक के अंक तो १५० ई० पू० तक पूर्ण हो चुके थे, परन्तु शून्य की योजना तथा दहाई से गणना करने का नियम पाँचवीं शताब्दी तक पूर्ण हुआ। तब से अंक लगभग उसी रूप में चले आ रहे हैं, केवल एक दो अंकों में सौन्दर्यार्थ एक-आध रेखा घट-बढ़ गई है जैसे तथा के स्थान में क्रमशः ८ तथा : लिखे जाने लगे हैं । छापे में ४, ५, ८, ६ क्रमशः ४, ५, ८, ६ की भाँति भी लिखे जाते हैं। हिन्दी तथा अन्य लिपियाँ किसी लिपि का श्रेष्ट अथवा निकृष्ट होना, निश्चय, उपयोगिता, सरलता, सौन्दर्य तथा स्वरालेखन आदि पाँच गुणों पर निर्भर हैं। लिपियों के तुलनात्मक अध्ययन में इन्हीं पाँच बातोंकी तुलना करनी चाहिए । हिन्दी लिपि का तुलनात्मक गौरव ज्ञात करने के लिए उसको उदू, रोमन, बँगला, गुरुमुखी, गुजराती, मराठी आदि मुख्य मुख्य लिपियों के साथ उक्त कसौटी पर कसना चाहिए। अाजकल भारतवर्ष की सर्वप्रमुख लिपियाँ तीन हैं हिन्दी, उद् तथा रोमन । हिन्दी विशेषतया उत्तरी भारत के हिन्दुओं तथा जमुना पार के कुछ हिन्दी भाषी मुसलमानों की लिपि है, परन्तु इधर स्वराज्य आन्दोलन के कारण इसका प्रचार दकन में मद्रास तर होगया है, सम्भव है किसी समय यह समस्त भारत में व्यवहत होने लगे। उर्दू, उत्तरी भारत के मुसलमानों तथा मुगल-काल के प्रभाव से कायस्थों की घरू तथा लिखने-पढ़ने की भाषा, हैदराबाद दकन की मुसलिम राज्य होने के कारण राज्यभाषा तथा उसके प्रभावसे बम्बई. मद्रास की व्यवहारिक भाषा, For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि विकास काश्मीर की, मुसलमान प्रजा अतिसंख्यक होने के कारण, लोकभाषा और पञ्जाब की अरबी-फारसी के प्रभाव से सर्वसाधारण की भाषा है। अतः उदूलिपि का प्रचार उत्तरी भारत, काश्मीर, पञ्जाब तथा हैदरावाद दकन में अधिक है। रोमन (अंग्रजी) भारत में अंग्रेजी राज्य होने के कारण, राज्य-लिपि है और समस्त भारत के दफ्तरों आदि में प्रयुक्त होती है। बँगला, गुरुमुखी, गुजराती आदि अन्य लिपियाँ प्रान्तिक हैं और इनका क्षेत्र बहुत संकुचित है। इस प्रकार हिन्दी, उर्दू तथा रोमन लिपियों का अन्य लिपियों की अपेक्षा क्षेत्र बड़ा और महत्व अधिक है। अतः हम प्रथम हिन्दी की उर्दू तथा रोमन लिपियों से विस्तृत तुलना और फिर बँगला, गुरुमुखी, गुजराती, मराठी आदि से संक्षिप तुलना करेंगे । (क) हिन्दी, उर्दू तथा रोमन लिपियाँ ---निश्चय तथा उपयोगिता का सम्बन्ध ध्वनि विचार से और सरलता, सौन्दर्य तथा त्वरालेखन का रूप विचार से है। (अ) ध्वनिविचार (१) निश्चय-किसी लिपि के निश्चयात्मक होने के लिए यह आवश्यक है कि एक लिपि चिन्ह से एक ही ध्वनि का बोध हो और जो लिखा जाय वही पढ़ा जाय । उर्दू में एक एक चिन्ह कई-कई ध्वनियों का द्योतक है उदाहरणार्थ, य ई ए ऐ आदि का द्योतक है जैसे क्रमश: .L) (रियासत) .:. ( बीस), (खेत), (बत , आदि में; इसी प्रकार' , ' ऊ ओ औ व आदि के लिए आता है जैसे Eai (ॐद), (तोप), (औरत), (वक्त) आदि में । रोमन को भी यही दशा है, अपितु उसमें तो केवल ५ स्वर तथा २१ व्यञ्जन होने के कारण अधिकतर लिपि संकेत ऐसे हैं जिनसे कई-कई ध्वनियों का बोध होता है उदाहरणार्थ से स For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिन्दी तथा अन्य लिपियाँ तथा क का जैसे pice तथा cat में, ch से च क तथा श का जैसे chain, monarch तथा machine में, d से ड द तथा ज का जैसे duty, Mahmud तथा education में, 3 से ग तथा ज का जैसे get तथा page में, 5 से स ज तथा (झ) जैसे Sat, is तथा measure में, 1 से दल तथा च का जैसे teacher, Bharat' तथा Portugese में, सेठ थ तथा द का जैसे Thakur', through तथा that में, 2 से अश्रा ए तथा ऐ का जैसे Americal, custi table तथा man में, 11 से अ ॐ का जैसे cuti put तथा tune में, 0 से श्रा तथा ओ का जस pot तथा nose में, Ougt: से फ तथा ओ का जैसे rough तथा though में, इत्यादि । हिन्दी में यह दोष नहीं है, उसमें १६ स्वर तथा ३३ व्यञ्जन होने के कारण एक लिपि चिन्ह से एक ही ध्वनि का बोध होता है और जो लिखा जाता है वही पढ़ा जाला है, उर्दू अथवा रोमन की भाँति लिखो कुछ और पढ़ो कुछ वाला हिसाब नहीं है । दो एक उदाहरणों से यह विषय स्पष्ट हो जायगा। हिन्दी में ऊधो ऊधो ही रहता है, परन्तु उर्दू में, बहुरूपिया है और अोधक, औधव, ऊधव, ऊधू, गोधू , औनू, गोधो, औधो श्रौधौ आदि जो चाहे तो हो सकता है । अनेकों हिन्दी शब्द ऐसे हैं जो उर्दू में भ्रान्तिरहित नहीं लिखे जा सकते ! इसके अतिरिक्त उर्दू में :'- - ---.) आदि कमशः लिखे तो लहजा हती उलामकान बाल्कूल, अल्लह जाते हैं परन्तु पढ़े लिहाजा, हत्तत्तइमकान, चिल्कुल, अल्ला जाते हैं । लिखने में तो उर्दू में और भी गड़बड़ है। उलिखने वाले प्रायः जेर, जबर, पेश, नुक्ता (बिन्दु आदि को उपेक्षा कर देते हैं। फल यह होता है कि लिखो आलू बुखारा(ii) और पढ़ो उल्लू विचारा। तनिक सी अमावधानी में 'खुदा' से 'जुदा हो जाता है For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि विकास रोमन की भी यही दशा है। हिन्दी में हरे, धवन, ठेकोर आदि जो लिखे जायेंगे वही पढ़े जायेंगे, रोमन में Hare को हरे अथवा हेअर, Dhawan को धवन, धवान अथवा धावन, Thacore को ठेकोर, ठेकौर, टाकोर, ठकार, थैकौर, दैकौर आदि जो चाहे सो पढ़ सकते हैं। ____ कहाँ तक कहा जाय रोमन में हिन्दुओं के 'राम' और 'कृष्ण' और मुसलमानों के 'खुदा' तक बदल जाते हैं। रोमन में नजो 'अकार' है और न 'आकार,' अतः 'Narma' को 'राम' के अतिरिक्त 'आर-ए-एम-3' 'रैमे'. रेमे', 'रेमैं', 'रमा', 'रामा' आदि जो चाहे पढ़ सकते हैं। यही दुर् दशा 'कृष्ण' और 'खुदा' की भी है । 'राम' और 'कृष्ण' को रोमन में 'रामा' और 'कृष्णा पढ़ना तो एक साधारण सी बात है। 'भगवान तक को पुल्लिगा में स्त्रीलिंग बना देना", यह रोमन लिपि ही कर सकती है. अन्य नहीं। इसके अतिरिक्त की आँति तनिक से नुक्ते अथवा लकीर में कुछ का कुछ हो जाने का दोष मन में भी पाया जाता है, उदाहरणार्थ 'S' (स ) के कप तानक-मी वक्र रेखा लगा देने से वह 'श' (15) और नोच बिन्दु लगाने से 'प' (s), n न) में नीचे बिन्दु लगाने से 'रण' (), और । (र) में नीचे बिन्दु लगाने से ऋ (!) हो जाता है। अब यदि रेखा अथवा बिन्द लिखने से रह गया, तो 'श' अथवा 'प' केवल 'स', 'ण' केवल 'न' और ऋ केवल 'र' रह जाता है। इतना ही नहीं, अपितु वर्णों का कप तक निश्चित नहीं है। कोई-कोई वर्ण तो रोमन में विभिन्न विहान भिन्न-भिन्न प्रकार से लिखते हैं, उदाहरणार्थ 'श' की कोध महाशय '' इस प्रकार, वर साहब (6) इस प्रकार थोर विन्टरनिटस '' इस प्रकार लिखते हैं। अतः जब तक पाठक को सब विद्वानों के रूपों का पता न हो, वह पढ़ तक नहीं सकता। यह गड़बड़ी नित्य प्रति बढ़ती ही जा रही है, For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिन्दी तथा अन्य लिपियाँ कारण कि रोमन लिपि का व्यवहार करने वालों को ज्यों-ज्यों नवीन ध्वनियों का पता लगता जाता है, त्यों-त्यों भेदक चिह्नों की संख्या बढ़ती जाती है । रोमन में एक और भी असुविधा है कि उसमें लेखन-शैली छापे की शैली से नितान्त भिन्न है। किसी-किसी वर्ण में तो जैसे तथा a, / तथा f, g तथा g इत्यादि में इतना अन्तर है कि यदि किसी को छापे की शैली का ज्ञान न हो तो वह पढ़ ही नहीं सकता । छापे तथा लिखने की शैलियों के अतिरिक्त बड़े ( Capital ) और छोटे ( Small ) वर्णों का भेद जानना भी अावश्यक है। इसके अतिरिक्त शीघ्रता से अंग्रेजी लिखने में प्रायः ie, w m, h bl, ga, p f आदि एक से बन जाते हैं और पढ़ने में बड़ी गड़बड़ होती है। अब हिन्दी को लीजिये, इसमें अनिश्चितता अथवा अवैज्ञानिकता अपेक्षाकृत कम है। इसमें प्रत्येक शब्द कवल शुद्ध रूप से लिखा ही नहीं जा सकता, अपितु भ्रान्ति रहित पढ़ा भी जा सकता है। केवल दो वर्ण ख तथा अर्द्ध ण ( ए ) ऐसे हैं जिनमें कभी-कभी गड़बड़ हो जाती है ओर ख को रव और ए को रा पढ़ लिया जाता है। उदाहरणार्थ लिखने में तनिक सी असावधानी होने पर खाना खाना और पाण्डव पाराव हो सकते हैं। कभी-कभी व तथा व और रु तथा रू में भी गड़बड़ हो जाती है। और इनके सूक्ष्म भेद की ओर ध्यान न देकर प्रायः ब के स्थान व और रू के स्थान में रु लिख दिया जाता है। __ हिन्दी में एक और भी विशेषता है कि जो वर्ण जिस प्रकार उच्चरित होता है उसी प्रकार लिखा जाता है उदाहरणार्थ 'म' 'ल' 'स' आदि के उच्चारण में म ल स की ध्वनि निकलती है और 'म' 'ल' 'स' ही लिखे जाते हैं, परन्तु उर्दू तथा रोमन के एक वर्ण के बोलने में कई ध्वनियों अथवा वर्णों का एक शब्द For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि विकास बोलना पड़ता है और लिखा केवल एक ध्वनि का द्योतक वर्ण ही जाता है जैसे म ल स के लिये उर्दू में मीम, लाम, सीन और गेमन में एम, एल, एस बोले जाते हैं और लिखे केवल ._ . अथवा m ] 8 जाते हैं । उर्दू वर्ण : 35 और अं.fhing r w x yr की भी यही इशा है। शेष वर्णEE आदि तथा a tho Tjk आदि भी सीधी ध्वनियों के बोतक नहीं है। अतः उद तथा रोमम वर्णमाला वैज्ञानिक नहीं है। अँगरेजी में तो एक और भी दोष है कि प्रायः वर्ण अथवा अक्षर अनुचरित हो जाते है जैसे write right, pneumonia, condemn आदि का उचारमा क्रमशः राइट, राइट, न्यूमोनिया, कन्डम आदि की भाँति होता है। इसके अतिरिक्त अँगरेजी में कुछ मे संक्षिप्त प भी हैं जिनका उनके द्योतक शब्दों में कोई सम्बन्ध नहीं हैं जैसे cwt= Hundred weight, £ अथवा ]}) = Pound, इत्यादि। सारांश यह है कि हिन्दी में ओ कुछ लिखा जाता है वही संशय रहित निश्चय पूर्वक पढ़ा जाता है। अतः हिन्दी वर्णमाला र तथा रोमन से अधिक वैज्ञानिक तथा श्रेष्ठ है। २) उपयोगिता-किसी लिपि की उपयोगिता देखने के नये यह जानना आवश्यक है कि उसमें अध्याति अथवा अति च्यामि दोप तो नहीं है अर्थात जममें आवश्यक ननियों के योतक तिमि चिल्ला का अभाव नया एक वनि के योनक कई अनावश्यक चिन्हों की उपस्थिति तो नहीं है। अनेक ध्वनियों के लिये कही लिशि चिल्ल अथवा एक वनि के लिए अनेक तिमि चिन्ह नहीं होने चाहिये। उर्दू में यई व्यनियों के लग कंवा चिन्ह और व ऊ ओ औ के लिए , आते हैं। कु जण के लिए कोई लिपि चिह्न है ही नहीं; इनका काम , से For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - हिन्दा तथा अन्य लिपियों चलाया जाता है, जो कि किसी प्रकार भी इनका पूर्ण तथा शुद्ध द्योतक नहीं है, जैसा कि इससे स्पष्ट है कि गङ्गा, प्रणाम आदि को 15 ( गनगा) परनाम ) आदि की भाँति लिखना पड़ता है। अर्द्धवर्ण कोई लिखा ही नहीं जाता जैसे धर्म, भक्ति आदि उर्दू में (.- (धरम ), 3 ( भगत ) अदि हो जाते हैं जबर जेर पंश क्रमशः अ इ उ की मात्राओं का काम देते हैं, परन्तु व अपूर्ण हैं उदाहरणार्थ मुक्ति के स्थान में . ( मुक्ती ), कि के स्थान में ( कह अथवा के ), प्रकाशचन्द्र के स्थान में in : (परकाश चन्दर ), इत्यादि लिखे जाते हैं। अतः उर्दू वर्णमाला नितान्त अपूर्ण है, उसमें संस्कृत का कोई भी श्लोक शुद्धता पूर्वक नहीं लिखा जा सकता है। अति व्याप्ति की तो यह दशा है कि बड़े-बड़े मौलवी तक के चक्कर में पड़ जाते हैं। 'स' ध्वनि के लिए - ह के लिए ...त के लिए • . अ के लिए 18, ज़ के लिए न के लिए! इत्यादि आते हैं अर्थात उन ध्वनियों के लिए, जिनका एक-एक चिह्न पर्याप्त था वृथा भ्रम में डालने के लिए अनावश्यक रूप से कई कई चिह्न आते हैं। यद्यपि बड़े-बड़े मौलवियों के अनुसार इनमें सूक्ष्म ध्वन्यात्मक भद अवश्य है, परन्तु सर्व साधारण उसे नहीं समझते । अतः व शुद्धतया प्रयुक्त होने के स्थान में उल्टी भ्रान्ति उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार उदू के ३८ वर्षों में है अनावश्यक है। रोमन लिपि तो उक्त दोनों दोषों में उर्दू से भी गई-बीती है। इसमें ङ सण ढ़ ड त द ख ज्ञ अ के लिए कोई लिपि संकेत नहीं है । ङ अ ण के लिए n आता है जो इतना अपूर्व है कि Danka ( डंका) को डाँका, डानका, डनका जो चाहो सो पढ़लो; इसी प्रकार पंडित Pandit (पंडिट), प्रसाद को Prasad (प्रसाड), गड़बड़ को Garbar ( गरबर ), पढ़ो को For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि विकास Parho (परहो), 2 खरगोश ) को Khargosh (खरगोश), आज्ञा को ajna (आना) इत्यादि लिखना पड़ता है। वास्तव में रोमन में विदेशी ध्वनियों के व्यक्त करने की की क्षमता ही नहीं है, संस्कृत फारसी आदि का साधारण से साधारण श्लोक अथवा नज्म भी रोमन में शुद्धता पूर्वक नहीं लिखा जा सकता । अति व्याप्ति के विषय में यह है कि अनेकों ध्वनियाँ ऐसी हैं जिनके लिए अनावश्यक रूप से कई-कई लिपिचिन्ह आते हैं जैसे फ के लिए i, ough, ph, द के लिए th, d, क के लिए , k, g, ch, ck, ज के लिए g, j, ज़ के लिये z, s, स के लिए 6, 8, व के लिए w, v, u (जैसे oudh में), इत्यादि । इनका काम कंवल एक-एक चिन्ह से भली भाँति चल सकता था। अतः उर्दू तथा रोमन दोनों में से एक भी अव्याप्ति तथा अतिव्यप्ति दोषों के कारण पूर्णतया उपयोगी नहीं कहीं जा सकती। हिन्दी में अपनी हो नहीं अपितु संस्कृत, अरबी, फारसी, अंगरेजी आदि प्रत्येक भाषा की ध्वनियों को व्यक्त करने की क्षमता है । पहिले फारसी, अरबी 5 अगरेजी a, 0, e, आदि के लिए कोई लिपि-चिन्ह न थे, परन्तु अब इनके लिए क्रमशः झ, अ, ग फ क ख ज, अं अँ आँ ए ए आदि आते हैं। इनके अतिरिक्त ड ढ व (उ) य () ओ ओ ह द आदि और भी अनेक नवीन चिन्ह प्रयुक्त होते हैं । वास्तव में हिन्दी लिपि इतनी पूर्ण तथा स्थिति स्थापक है कि किसी भी भाषा की ध्वनि क्यों न हो, वह हिन्दी के किसी न किसी वर्ण द्वारा उसमें कुछ रूपान्तर कर के भली भांति व्यक्त की जा सकती है । केवल बंगला अ और एक आध मराठी तथा मद्रासी ध्वनियों के सूचक चिन्हों का हिन्दी में अभाव है। अतः हिन्दी में व्याप्ति दोष नहीं के बराबर है और संस्कृत, फारसी, अगरेजी, आदि किसी भी For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिन्दी तथा अन्य लिपियाँ भाषा का कठिन से कठिन छन्द भली भाँति लिखा जा सकता है। हिन्दी में प्रायः एक ध्वनि के लिए एक से अधिक चिन्ह नहीं आए हैं। अतः अनावश्यक चिन्हों का अभाव सा है। यों तो केवल 'अ' एक ऐसा स्वर है जो प्रधान स्वर कहा जा सकता है और वर्ण तथा मात्रा दोनों हैं, शेष सभी स्वर 'अ' के आधार पर बन मकते हैं। आ ओ ओ अं अः तो 'अ' के आधार पर बनते ही हैं, इ ई उ ऊ ए ऐ भी सिद्धान्तानुसार स्वाभाविक रूप से 'अ' पर मात्रा लगा कर क्रमशः श्रि श्री अश्रू अझै की भाँति लिखे जा सकते हैं और मराठी की उच्चकोटि की पत्र-पत्रिकाओं में तो कुछ समय से इ ई उ ऊ ए ऐ के स्थान में श्रि श्री अ अ अ औ प्रयुक्त भी होने लगे हैं। हिन्दी में ऐसा करने में लिपि सुबोध तथा वैज्ञानिक तो अवश्य हो जाती है, परन्तु त्वरा लेखन को कुछ धक्का लगता है और विशेषतः हिन्दी में, क्योंकि हिन्दी अ का रूप मराठी असे कुछ क्लिष्ट तथा भिन्न है। अतः हिन्दी ई उ ऊ ए ऐ भी अनावश्यक नहीं कहे जा सकते । केवल ऋ. एक ऐसा वर्ण अवश्य है कि जिसका काम 'रि' से भी चल सकता है। संभव है यह भी किसी समय अपने पूर्वज ऋ की भाँति लुप्त हो जाय । आज कल भी इसका प्रयोग प्रायः तत्सम् शब्दों में ही होता है। चन्द्र विन्दु (*), अनुस्वार (), ङ, ञ, अर्द्ध ण नं म में संस्कृत में कुछ सूक्ष्म भेद अवश्य है; और नियमानुसार अनुस्वार के पश्चात जिस वर्ग का वर्ण हो, उसी वर्ग का पाँचवाँ वर्ण अनुनासिक व्यं जन स्वरूप आना चाहिए अर्थात् यदि अनुस्वार के पश्चात् कवर्ग का कोई वर्ण हो, तो ङ जैसे लक्का, चवर्ग का कोई वर्ण हो तो आ जैसे पञ्जा, तवर्ग का कोई वर्ण हो, तो न जैसे क्रान्ति, टवर्ग का कोई वर्ण हो, तो ण जैसे दण्ड तथा पवर्ग का कोई वर्ण हो, तो म जैसे कुम्भ आयगा, परन्तु हिन्दी में यह सब अनावश्यक सा हो गया है, कारण कि आजकल हिन्दी में For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि विकास अनुनासिक व्यजनों के स्थान में अनुस्वार () लगाने की प्रवृत्ति चल पड़ी है ओर उसका उच्चारण प्रायः 'न' की भाँति होने लगा है यथा---गङ्गा, पञ्च, पण्डित, शम्भु आदि शब्द क्रमशः गंगा, पंच, पंडित, शंभु आदि की भाँति लिखे जाते हैं। अं अः तो केवल मात्रा मात्र हैं ही। अब रह गया केवल एक वर्ण 'ब' जो निरर्थक सा है । पहिले यह ख ध्वनि का द्योतक था, परन्तु आज कल 'श' ध्वनि का द्योतक है और इसके स्थान में श प्रयुक्त भी होने लगा है जैसे कोप, वेष, शीर्ष आशीष कृष्ण आदि के स्थान में कोरा वेश, शीश, किशन, आशीश आदि भी प्रयुक्त होते हैं । अतः जब इसका काम 'श' से चल सकता है, तो यह अनावश्यक है। ज्ञ का काम भी ग्य से चल सकता है। 'दर,' 'क्त' संयुक्ताक्षरों के प्रारम्भिक रूप दय क्त अथवा क्त आदि भी अनावश्यक रूप से प्रयुक्त होते हैं, परन्तु इनका प्रचार धीरे-धीरे कम हो रहा है। अतः ङः ब ऋप ज्ञ के अतिरिक्त शेष कोई वर्ण अनावश्यक नहीं है। इसके अतिरिक्त स्वरों का मात्रा स्वरूप प्रयुक्त होना हिन्दी की एक उपयोगिता ही नहीं, अपितु ऐसी विशेषता है जो अन्य किसी लिपि में नहीं पाई जाती । अतएव हिन्दी उर्दू तथा रोमन की अपेक्षा अधिक उपयोगी है। इतना ही नहीं, हिन्दी वर्ण क्रम भी उ तथा रोमन की अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक है । लिपि चिन्ह ध्वनियों के सूचक हैं. अतः सब से वैज्ञानिक वर्ण क्रम वह होगा जोध्वनियों के उच्चारण के अनुसार किया जायगा । अंगरेजी वर्णों में तो कोई क्रम है ही नहीं, उदु में ध्वनियों के अनुसार तो नहीं, हाँ वणों के रूपों के अनुसार कुछ क्रम 'अवश्य है, परन्तु वह भी अपूर्व है। रूप क्रमानुसार - को आदि के पास तथा -- 3-3 को इनके पश्चात, JI को हर For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिन्दी तथा अन्य लिपियाँ ६५ आदि के पास और ४ , को 5 के पास तथा ० को इनके पश्चात होना चाहिए था, परन्तु ऐसा नहीं है। अतः इनमें न तो ध्वनि क्रम ही है और न रूप क्रम ही। इसके अतिरिक्त रोमन तथा उद में स्वर तथा व्यंजन तक हिले मिल हैं, पृथक-पृथक नहीं है। इसके विरुद्ध हिन्दी में स्वर तथा व्यंजन अलग-अलग हैं। स्वर उसी क्रम से रक्खे गए हैं जिससे कि बच्चे उनको बोलना प्रारम्भ करते हैं । व्यञ्जनों का सप्त वर्गीय वर्गीकरण भी उच्चारण स्थान के अनुसार है। एक स्थान से उच्चरित होने वाले व्यञ्जन एक वर्ग में रक्खे गए हैं। अतः हिन्दी वर्ण क्रम प्राकृतिक तथा वैज्ञानिक है। __ इस प्रकार ध्वनि विचार की दृष्टि से हिन्दी वर्णमाला सर्वश्रेष्ठ है। (आ) रूप विचार (३) सरलताः-हिन्दी लिपि की सरलता तो सर्वमान्य है। इसके विषय में अधिक कहना अनावश्यक सा है। इसको बच्चा, बूढ़ा, हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी, देशी, विदेशी सब बड़ी सरलता से सीख लेते हैं। किसी लिपि की सरलता अथवा क्लिष्टता का अनुभव बच्चों द्वारा होता है । अध्यापक नित्य प्रति इसका अनुभव करते हैं कि बच्चे उर्दू तथा अगरेजी की अपेक्षा हिन्दी अति शीघ्र सीख लेते हैं। उर्दू में पृथकतया तो पूर्ण वर्ण लिखे जाते हैं, परन्तु मिलावट में वे शोशे (संक्षिप्त संकेत) हो जाते हैं। शोशों के मिलाने में अधिक कठिनाई होती है, विशेषतः 11 के पूर्व मिलाने में, बच्चे प्रायः ४ को ४ की भाँति लिखते हैं, के पूर्व मिलाने में भी प्रायः शोशे कम अधिक हो जाते हैं जैसे5 को 5 ~ को , आदि लिख देते हैं। फिर उर्दू की खते शिकस्त (घसीट) अर्थात् अदालती उर्दू लिखना-पढ़ना तो उर्दू के अच्छे ज्ञाताओं तक के लिये For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि-विकास कठिन है। यद्यपि रोमन वर्णभाला देखने में सरल प्रतीत होती है, परन्तु वर्गों के मिलाने में बच्चों को कुछ कठिनाई अवश्य होती है, विशेषतः m तथा u के किसी वर्ण में मिलाने में । रोमन में छोटी-बड़ी और लिखने की तथा किताबी चार प्रकार को वर्णमाला होती है । यद्यपि छापे की (किताबी) वर्णमाला में ag आदि दो एक वर्ण, कठिन अवश्य हैं, परन्तु शेष लिखने के वर्षों से सरल प्रतीत होते हैं जैसा कि इससे प्रकट है कि प्रायः मनुष्य छापे के f kp r sx y तथा A B D E H I K L P Q R S TZ का लिखने में प्रयोग करते हैं। हिन्दी में ऋ झक्ष आदि वर्गों के लिखने तथा ड़ ण का भेद समझाने में : बच्चों को कुछ कठिनाई अवश्य होती है, तथापि उसमें उर्दू तथा रोमन की भाँति शोशों के घटाने बढ़ाने का डर नहीं है। इसके अतिरिक्त अद्ध र तथा ऋ को मात्रा स्वरूप किसी वर्ण के नीचे लगाने में, कुछ संयुक्ताक्षरों के लिखने में तथा र पर उ तथा ऊ की मात्रा लगाने में भी कठिनाई होती है। र तथा ऋ के प्रयोग में प्रायः बच्चे ही नहीं, बड़े भी यह सोचने लगते हैं कि 'ग्रह' 'प्रथा' आदि में 'र' लिखे अथवा 'ऋ' अर्थात् 'र' को नीचे लगाएँ अथवा वृक्ष, सृष्टि आदि की भाँति नीचे लटकाएँ। अन्य संयुक्ताक्षरों की भाँति द्+य तथा क्+त के वैज्ञानिक रूप दय तथा क्त अथवा क्त होने चाहिए और कुछ समय पूर्व यही प्रयुक्त भी होते थे, परन्तु इधर कुछ काल से इनके विकसित तथा संक्षिप्त रूप द्य तथा क्त का, जिनके लिखने में नए सीखतरों को कुछ कठिनाई अवश्य होती है, प्रचार अधिक हो गया है। उ तथा ऊ की मात्रा जिस प्रकार अन्य वर्गों में लगती है उस प्रकार र में नहीं लगती। अन्य वर्गों में मात्रा नीचे लगती है जैसे मुक्त, पूर्व, आदि में, परन्तु र में वह संश्लिष्ट हो जाती है जैसे रु रू में। रु तथा रू के वैज्ञानिक रूप र तथा र होने For Private And Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिन्दी तथा अन्य लिपियाँ चाहिए । यही कारण है कि बच्चे प्रायः इस प्रकार लिखा करते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ शब्द ऐसे भी हैं जिनके दो-दो रूप हैं जैसे हुवा, हुआ, जावेगा जायगा, लिये लिए, गई गयी इत्यादि । मेरी ममझमें तो जैसा बोला जाय वैसा लिखा जाय । इसमें गड़बड़ का कोई काम ही नहीं। हम प्रायः हुआ, जायगा, लिए, गई आदि बोलते हैं. अतः यही रूप अपनाने चाहिए । उक्त दोएक साधारण कठिनाइयों के होने पर भी हिन्दी उर्दू तथा रोमन की अपेक्षा अधिक सरल है। (४)सौन्दर्यः-अशोक कालीन वणों में सिर-बन्दी नहीं लगाई जाती थी, परन्तु बाद में सौन्दर्य वर्द्धनार्थ वर्णों के ऊपर उठी हुई रेखाओं के सिरों पर पगड़ी की भाँति कुछ छोटी रेखाएँ लगाई जाने लगी जो कालान्तर में आड़ी रेखाओं में परिवर्तित हो गई। इससे अशोक कालीन वर्गों की अपेक्षा आधुनिक वर्ण अधिक सुन्दर हो गये । इस सिरबन्दी के कारण ही हिन्दी लिपि उर्दू तथा रोमन से कहीं अधिक सुन्दर प्रतीत होती है। इस सुन्दरता के परिमाण में इतना अन्तर है कि प्रायः लोग हिन्दी के सम्मुख उर्दू को चींटे की टाँगें और रोमन को चीत मकोड़े कहा करते हैं। (५) त्वरा लेखन-किसी लिपि में निश्चय तथा उपयोगिता के पश्चात मुख्य गुण त्वरालेखन है। सब से शीघ्र वह लिपि लिखी जायगी जिसमें कम से कम लेखनी उठानी पड़े जैसे उर्दू तथा अंगरेजी; परन्तु इसके यह मानी नहीं हैं कि उर्दू अथवा रोमन हिन्दी से शीघ्र लिखी जा सकती है या हिन्दी की अपेक्षा अच्छी है। त्वरा-लेखन के साथ ही साथ निश्चितता तथा स्थान भी किसी लिपि के आवश्यक अंग हैं। यद्यपि उर्दू में हिन्दी की अपेक्षा कम स्थान घिरता है, परन्तु अनिश्चितता अधिक है। रोमन में यद्यपि लेखनी कम उठानी पड़ती है और लेखक क For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८ लिपि-विकास श्रम तथा समय कुछ बच जाता है, परन्तु साथ ही साथ इतनी अस्पश्ता आ जाती है कि पाठक के समय तथा शक्ति की अधिक हानि होती है। इसके अतिरिक्त रोमन में हिन्दी की अपेक्षा स्थान भी अधिक घिरता है, कारण कि हिन्दी वर्गों में अकार सम्मिलित है और अंग्रेजी में अलग से लिखा जाता है यथा 'कलम' में हिन्दी में क + ल + म केवल तीन वर्ण लिखने पड़ते हैं, परन्तु रीमन में k+a+l+ a + m + छः वर्ण लिखने पड़ते हैं। इसके अतिरिक्त रोमन में कभी कभी एक-एक हिन्दी वरम के लिए कई कई वर्ण लिखने पड़ते हैं उदाहरणार्थ हिन्दी 'छ' के लिए + h+b, ज्ञ के लिए j+n,ष्ट्र के लिये 8 + h+t + r+a, इत्यादि । एक उदाहरण से यह विषय स्पष्ट हो जायगा: आ प से न ही MAIN A PSE NAHI बो ल ता हूँ BOLA TAH U N अतः स्थान विस्तार की दृष्टि से रोमन की अपेक्षा हिन्दी में कम स्थान घिरता है, तदनुसार छापे में भी कम टाइप लगते हैं और पढ़ने में कम समय लगता है और दृष्टि को कम श्रम करना पड़ता है। हिन्दी में सिरबन्दी त्वरालेखन में बाधक है, क्योंकि उसके कारण कई बार लेखनी उठानी पड़ती है,। परन्तु इसकी पूर्ति मात्राओं तथा कुछ चिन्हों द्वारा हो जाती यद्यपि ऊपर नीचे लगने वाली मात्राओं तथा चिह्नों में लेखनो उठाने के कारण कुछ देर अवश्य लगती है, तदपि वर्गों को अपेक्षा कम समय लगता है। यदि इन मात्राओं तथा चिन्हों में कुछ सुधार कर लिए जाय, तो और भी कम समय लगे। यथा इन ऊपर नीचे की मात्राओं तथा चिह्नों के For Private And Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिन्दी तथा अन्य लिपियाँ है । यदि शिरो भाग की रेखाएँ निकल जाएँ तो हिन्दी की लेखन गति उदू तथा रोमन से कहीं अधिक हो जाय, परन्तु ऐसा करने में उसकी निश्चयता को धक्का लगेगा और अनेकों वर्गों में गड़बड़ी हो जायगी उदाहरणार्थ ध घ, भ म, र व ख, में कोई भेद न रहेगा । निश्चय त्वरा लेखन की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण गुण है, उसका हास ठीक नहीं । अतः हमको सिरबन्दी हटाने के पूर्व घ ध म भ आदि वर्गों के रूपों में परिवर्तन करना पड़ेगा। (ख) हिन्दी तथा बङ्गला, गुरुमुखी, गुजराती, मराठी आदि लिपियाँ:--हिन्दी तथा मराठी वर्णमाला तो एक सी हैं ही। केवल अछ म ण भ ल श के रूपों में थोड़ा सा भेद है और ड ढ ध्वनि संकेतों का मराठी में अभाव है। (देखो वर्णों का कारण लिपि में वर्णो की तीन श्रेणियाँ ( stories ) हो जाती है अर्थात् एक पंक्ति में तीन पक्तियाँ ऊपर की मात्रा वाली, मध्य की वर्ण वाली तथा नीचे की मात्रा तथा संयुक्ताक्षर वाली हो जाती हैं, जिससे लिखने के अति. रिक्त पढ़ने में भी अधिक देर लगती है । यदि ये मात्राएँ तथा चिन्ह वर्णो के सामने लगाए जाय जैसे ग, रु. पूजा, कटषि, इत्यादि, तो उक्त दोष दूर हो सकता है। गुजराती तथा मराठी में तो इस प्रकार के कुछ चिह्न हैं भी जैसे रेफ (') का चिह्न (") इस प्रकार है यथा कर्म, दुर्दशा आदि क्रमशः कम्म, दुग्दशा की भाँति लिखे जाते हैं। हिन्दी में भी कुछ विद्वान् अनुस्वार ( ) चन्द्र बिन्दु () हल चिह्न (.) को सशोधित रूप में वर्णन के सामने लगाने के पक्ष में हैं यथा पंच, काँटा, चड्ढा, उद्गम श्रादि क्रमशः ५०च का० टा चड ढा, उद-गम आदि की भाँति लिखे जाने चाहिये, तदनुसार मेरो समझ से तो संयुक्ताक्षर भी ऊपर नीचे लिखने के स्थान में उक्त हलन्त अथा संयोजक चिन्ह (-) लगाकर बराबर बराबर ही लिखने गहिए जैसे बुड्डा, विट्ठल आदि के स्थान में क्रमश बुड ढा, विट-ठल आदि; परन्तु इतना ही पर्याप्त नहीं है। For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिपि विकास तुलनात्मक चित्र)। अतः अब रह जाती हैं तीन लिपियां बंगला, गुरुमुखी तथा गुजराती। बङ्गलो:--अ उ स्वर और क घट ड ढ न फ व य ल व ष व्यञ्जन तो हिन्दी तथा बङ्गला दोनों में एक हैं, परन्तु ख ग ङ ज बटतथदधप रश ऋ हिन्दी के बङ्गलासेसरलतर हैं,हाँछ अवश्य बंगलाका हिन्दीसे सरल है। अतः हिन्दी बंगला से कहीं सरल है। बङ्गला में वर्गों के रूप क्लिष्ट होने के कारण, सौन्दर्य तथा त्वरा लेखनभी अपेक्षाकृत कम है । हिन्दी में बंगला की समस्त ध्वनियों के द्योतक चिन्ह हैं, परन्तु बंगलामें हिन्दी ण व आदि ध्वनियां के लिपि चिन्ह हैं ही नहीं । अतः बंगला की उपयोगिता हिन्दी की अपेक्षा कम है । ब तथा र में रूप-सादृश्य होने के कारण बंगला में अनिश्चितता का दोष भी आजाता है। बंगला में केवल २४ वों पर सिरबंदी है, अतः सुन्दरता भी अपेक्षाकृत कम है। इस प्रकार हिन्दी बंगला से सर्व प्रकार उत्तम है। गुरुमुखी:-अ उ स्वर और क ग च छ ज ट ठ ड ढ म र तो हिन्दी तथा गुरुमुखी दोनों में समान हैं, परन्तु घ ब ब य ल ष हिन्दी के और ख ध ण भ गुरुमुखी के सरल हैं। अतः हिन्दी गुरुमुखी से सरलता में ही नहीं अपितु त्वरा लेखन में भी श्रेष्ठतर है । यद्यपि सौन्दर्य तथा निश्चय गुण दोनों में समान हैं, तदपि अ ध ठप आदि गुरुमुखी वर्गों पर सिरबंदी नहीं है और थ तथा ब और श तथा स में बहुत कम भेद है। क्ष त्र ज्ञ ऋ ध्वनियों के लिपि चिन्ह हैं ही नहीं, अतः अव्याप्ति दोष भी पाया जाता है । इस प्रकार हिन्दी गुरुमुखी से भी श्रेष्ठ ठरहती है। गुजराती:--हिन्दी तथा गुजराती वर्णमाला में बहुत कुछ सादृश्य है, केवल सिरबंदी का भेद है। यदि हिन्दी वणों की सिरबंदी उड़ा दी जाय, तो उ ऋ स्वर और क ग घ छ न ट ड For Private And Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra {# H;z སྐ;r བྷཱུཏྟཾ ཉ་མོ मराठी ཝོ; 不用减 FFUFF 6* 6uw 9b#ཥུ➢v**ཎྜཎྜ***N+bhhkklu&ikl6fo•b9* b my oo wu ➢ཥ➢v96Ekktiv®bhERP it;。 1: བཞིརྣམ ཟསྐ འ ལུ ལོ ༨༠༨་ོཏིང་; T 9b% 69 $6% པ་ www.kobatirth.org वर्गों का तुलनात्मक चित्रण wan»ym DA«P • 9 رہے کی مروارین ཁ༽ 12:2 ཀཿ ཡཔཔར ཨེཡནྟཱིཊྛི +89445N,2l:d£Gམ#2LརྞཊR2ed+c&¢glo{% E! I as Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3 For Private And Personal Use Only गुजराती गुरुमुरखी 7;2m ༢;༢ Ge/ »° वि ཚད . đi đ མ་ 석 བས་ ས་ས༠ ༥ ه ها به یک 19 ivorwh°3bblos69Pb#5bEuཆtཙxhpel. 。 B 3 ེÊ༼༣༣ รีรี่ ; ° ;6, ༢༧ ;༢་ ༢༠, ;༧༢༧) ་ ཏེ༧༡༦༩རེགྷ༧ ༠༡༠ཚོཎི༧ དྷ7#8##ཊྛོ⌘#*⌘ཝཾ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिन्दी तथा अन्य लिपियाँ ७१ न म य र व श ष स क्ष ज्ञ व्यंजनों में हिन्दी तथा गुजराती में कोई भेद न रह जाय । भेद केवल इ ए स्वर तथा खचज ठ ब ल व्यजनों में है; ख फ गुजराती के सरल हैं परन्तु अ इ ए चठ हिन्दी के सरल हैं । अतः हिन्दी गुजराती से सरल है । गुजराती स तथा ल एक से होने के कारण भ्रामक हैं । शिरोभाग की रेखाओं के अभाव के कारण गुजराती हिन्दी से सुन्दर भले ही न हो, परन्तु तीव्रगामी अवश्य है । क्षेत्र संकुचित होने के कारण गुजराती ही नहीं अपितु बंगला, गुरुमुखी आदि सभी लिपियों की उपयोगिता हिन्दी से कम है । अतः हिन्दी गुजराती से कुछ उत्तम ही है । इस प्रकार यद्यपि हिन्दी में कुछ संशोधन की आवश्यकता है, तथापि वह बंगला गुरुमुखी, गुजराती आदि से श्रेष्ठतर है । यही कारण है कि हिन्दी का क्षेत्र इन सब से विस्तृत हैं और नित्य बढ़ता जा रहा है । निष्कर्षः - सारांश यह है कि यदि त्वरा - लेखनार्थ हिन्दी वर्णों की सिरबंदी हटा दी जाय और ख ध भ के रूप परिवर्तित कर लिए जायँ, निश्चयार्थ रूको रु की भाँति करके रुको रू मान लिया जाय तथा ब ( ब का पेट बंद हो जाने पर जैसा कि प्रायः पेट चीरने में हो जाता है) को ब माना जाय और उपयोगिता वृद्धि के लिए ऋ षङ नए अथवा प (अर्द्धग) जैसे अनावश्यक चिन्ह लुप्त करके अ अॅ ऑ ए ऍ ऍ झ व ह. आदि नवीन चिन्हों का आवश्यक, प्रयोग किया जाय, तो हिन्दी लिपि सर्व गुण सम्पन्न हो सकती है। ङ व्य स के स्थान में तो अनुस्वार का प्रयोग होने लगा है, परन्तु इतना ही पर्याप्त नहीं है । यदि हिन्दी को राष्ट्र लिपि बनाना है, तो अभी उसमें बहुत कुछ संशोधन करने की आवश्यकता है । For Private And Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Personal use only