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लिपि - विकास
प्रणाली का अभाव होने के कारण ज्योतिष, गणित, व्याकरण आदि के नियम शीघ्र स्मरण करने के लिए बंदोबद्ध कर लिए जाते थे और चूंकि बड़ी-बड़ी संख्याओं को छंदोबद्ध करने में कठिनता होती है, अतः वे शब्दों द्वारा सूचित की जाती होंगी। इनके सूचित करने का नियमः 'अंकानां वामतो गतिः' अर्थात् उल्टा पढ़ना, पहिले शब्द से इकाई, दूसरे से दहाई, तीसरे से सैकड़ा, इत्यादि था । एक उदाहरण से यह विषय स्पष्ट हो जायगा, सूर ने 'साहित्यलहरी' का रचना काल इस प्रकार दिया है, 'मुनि पुनि रसन के रम लेखु । दसन गौरीनंद को लिखि सुबल संबत पेखि ।' इसमें 'मुनि', 'रसन', 'रस' तथा 'दसनगौरीनंद को क्रमशः ५०,६,१ के द्योतक हैं, अतः 'अंकानां वामतो गतिः' के अनुसार रचना काल संवत् १६०७ हुआ ।
इसी प्रकार 'नयन वेद ४-मुनि ७- चंद्रमा १- १०४२ का सूचक है, २४७१ का नहीं । कहीं-कहीं इस नियम कान वामतो गतिः' के अपवाद भी उपलब्ध है । यथा, 'शि१ उदधि ७ काय ६ शशि ०' (जिवनुषं कुल जंबूकुमार रास ), १७६० का सूचक है । यहाँ क्रम सीधा है। 'अचल ७ लोचन २ संयमभेद' १७ (दान विजय कृत वीर सावन जै० गु० क० भाग २, पृ० ४४६ ), १७७२ का सूचक है । यहाँ पहिले के दो शब्दों का क्रम सीधा और अन्तिम एक शब्द क्रम 'वामतो गति' के अनुसार अर्थात् नियमानुसार है । इन अपवादों का कोई नियम न था, अतः इस कारण भी बहुत कुछ अनिश्चितता थी ।
यहाँ प्राचीन शब्दांकों की एक संक्षिप्त सूची दे देना उचित होगा ।
शब्दांक सूची
( ० ):-----अम्बर तथा उसके पर्याय ( आकाश, गगन, रख
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