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लिपि विकास
अब केवल एक प्रश्न रह जाता है कि दहाई तथा शून्य की योजना किस प्रकार हुई । हम देखते हैं कि बच्चे प्रारंभ में इमली के चीयों, मट्टी की गुल्जियों अथवा छोटी-छोटी कंकड़ियों द्वारा गिनती सीखते हैं, तत्पश्चात् वे उँगलियों पर गिनना सीख जाते हैं। ठीक यही क्रम प्राचीन काल में भी था, सर्वप्रथम पत्थरों के टुकड़ों द्वारा गणना होती थी तत्स्यात् उँगलियों का प्रयोग होने लगा । उँगलियों का उस समय बड़ा महत्त्व था । हाथ की उँगलियों की संख्या १० है, अतः दहाई से गणना होने लगी और अनेक प्रकार के दहाई सूचक गणना-यन्त्र बन गए, आधु निक बाल- फ्रम इन्हीं का अवशेष चिन्ह है । तत्पश्चात गणनायन्त्रों की आकृति के अनुकरण पर अंक चौपटे खानों के भीतर लिखे जाने लगे और स्थानानुसार उनसे इकाई, दहाई, सैकड़े आदि का बोध होने लगा ! व्दाहरणार्थ वे शश की भाँति लिखे जाते थे । जब कभी इकाई बहाई आदि के स्थान में कोई अंक नहीं होता था तो खाली खाना [[" | बनाया जाता था। बाद में जब खाने त्वरालेखन में बाधक हुए, तो उनका लोप हो गया और अंक दूर-दूर ६२ ५ की भाँति लिखे जाने लगे और खाली खाने के लिए एक बिन्दु लगा दिया जाता था जो कि अरबी तथा उससे प्रभावित फारसी उर्दू आदि में शून्य के लिए अब भी श्राता है । बाद में जब अंक आजकल की भाँति पास-पास ६२१ की तरह लिखे जाने लगे, तो बिन्दु बहुत छोटा होने के कारण गड़बड़ करता था, अतः उसे एक चक्र से घेर कर o की भाँति लिखा जाने लगा । कालान्तर में बिन्दु लुप्त हो गया और केवल चक्र ही शून्य का द्योतक रह गया ।
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सारांश यह है कि अंकों की उत्पत्ति सर्वप्रथम भारतवर्ष में हुई और यहाँ से उनका प्रवेश अरब में और अरब से यूरोप के ग्रीस, रोम आदि देशों में हुआ । चूँकि अशोक काल से पूर्व के
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