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हिन्दी तथा अन्य लिपियाँ कारण कि रोमन लिपि का व्यवहार करने वालों को ज्यों-ज्यों नवीन ध्वनियों का पता लगता जाता है, त्यों-त्यों भेदक चिह्नों की संख्या बढ़ती जाती है ।
रोमन में एक और भी असुविधा है कि उसमें लेखन-शैली छापे की शैली से नितान्त भिन्न है। किसी-किसी वर्ण में तो जैसे तथा a, / तथा f, g तथा g इत्यादि में इतना अन्तर है कि यदि किसी को छापे की शैली का ज्ञान न हो तो वह पढ़ ही नहीं सकता । छापे तथा लिखने की शैलियों के अतिरिक्त बड़े ( Capital ) और छोटे ( Small ) वर्णों का भेद जानना भी अावश्यक है। इसके अतिरिक्त शीघ्रता से अंग्रेजी लिखने में प्रायः ie, w m, h bl, ga, p f आदि एक से बन जाते हैं
और पढ़ने में बड़ी गड़बड़ होती है। अब हिन्दी को लीजिये, इसमें अनिश्चितता अथवा अवैज्ञानिकता अपेक्षाकृत कम है। इसमें प्रत्येक शब्द कवल शुद्ध रूप से लिखा ही नहीं जा सकता, अपितु भ्रान्ति रहित पढ़ा भी जा सकता है। केवल दो वर्ण ख तथा अर्द्ध ण ( ए ) ऐसे हैं जिनमें कभी-कभी गड़बड़ हो जाती है
ओर ख को रव और ए को रा पढ़ लिया जाता है। उदाहरणार्थ लिखने में तनिक सी असावधानी होने पर खाना खाना और पाण्डव पाराव हो सकते हैं। कभी-कभी व तथा व और रु तथा रू में भी गड़बड़ हो जाती है। और इनके सूक्ष्म भेद की
ओर ध्यान न देकर प्रायः ब के स्थान व और रू के स्थान में रु लिख दिया जाता है। __ हिन्दी में एक और भी विशेषता है कि जो वर्ण जिस प्रकार उच्चरित होता है उसी प्रकार लिखा जाता है उदाहरणार्थ 'म' 'ल' 'स' आदि के उच्चारण में म ल स की ध्वनि निकलती है
और 'म' 'ल' 'स' ही लिखे जाते हैं, परन्तु उर्दू तथा रोमन के एक वर्ण के बोलने में कई ध्वनियों अथवा वर्णों का एक शब्द
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