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ब्राह्मी का विकास
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सारांश यह है कि खरोडी दाई ओर से बाईं ओर लिखी जाने वाली एक अपूर्ण लिपि थी जिसमें संयुक्ताक्षरों की कमी और सात्राओं का अभाव था | अरमइक को काट-छाँट कर खरोष्टी की स्थापना करने का कार्य संभवतः खरोष्ठ ऋषि ने किया था। बाद में इसका इतना प्रचार हुआ कि लगभग ४२५ ई० पू० में उत्तरी-पच्छिमी भारत के हवामनी साम्राज्य से स्वतन्त्र हो जाने पर भी तीसरी शताब्दी ई० पू० में इसका वहाँ खूब प्रचार था, परंतु इससे किसी लिपि का निष्क्रमण न होने के कारण इसका वंश न चल सका और लगभग पाँचवीं शताब्दी तक इसका पूर्णतः अंत हो गया । ब्राह्मी का विकासम
लगभग ३५० ई० पू० तक ब्राह्मी का प्रचार अधिक और रूप अपरिवर्तित रहा, तत्पश्चात् शैली की दृष्टि से उसके उत्तरी तथा दक्षिणी दो भेद हो गए । दक्षिणी से दक्षिणी भारत की मध्य तथा आधुनिक कालीन लिपियों अर्थात् तामिल, तेलुगु, कनड़ी, कलिङ्ग, ग्रंथ, पश्चिमी तथा मध्य प्रदेशी आदि का निष्क्रमरण हुआ । चौथी शताब्दी में उत्तरी त्राची वणों के सिरों के चिन्ह कुछ तंत्रे, कुछ वर्षों की आकृतियाँ कुछ-कुछ नागरी सदृश तथा कुछ मात्राओं के चिन्ह परिवर्तित हो गए। गुप्त राज्य के प्रभाव से ब्राह्मी का यह रूप गुप्त-लिपि कहलाने लगा। चौथी, पाँचवीं शताब्दी में इसका प्रचार समस्त उत्तरी भारत में था । छठी शताब्दी में गुप्त लिपि के वर्णों की आकृति कुछ कुटिल हो गई, तदनुसार, ये वर्ण कुटिताक्षर और लिपि कुटिल कहलाने लगी । इसका छठी से नवीं शताब्दी तक उत्तरी भारत में खूब प्रचार था तत्कालीन शिलालेख तथा दानपत्र इसी में लिखे जाते थे । कुटिल लिपिसे, संभवतः दसवीं शताब्दी में, नागरी तथा शारदाका निष्क्रमण
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