________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६६
लिपि-विकाश
पारसी राज्यकाल में सम्पूर्ण हखामनी साम्राज्य की राज्यलिपि थी और जिसका मिन से हिन्दूकुश तक प्रचार था ! डा. जॉन मार्शल का मत है कि खरोष्ठी का प्रचार सवप्रथम गांधार में हुना। इसकी पुष्टि तक्षशिला के शिलालेख से भी होती है। जब भारत के पश्चिमोत्तर आँचल अर्थात् कम्बोज, गांधार तथा सिंध प्रदेश पर लगभग ५१६ ई० पूर्व के पश्चात् ईरानियों का अधिकार हो गया तो उन्होंने भारतवासियों को भी अरमइक सिखाई।
कि इसमें केवल २२ लिपिचिन्ह १८ उचारण-ध्वनियों के द्योतक थे और काम नहीं चलता था, अतः खरोष्ट अथवा खरोष्ट्र
आदि किसी प्राचार्य ने भारतीय भाषाओं की उन उच्चारण ध्वनियों के लिपिचिन्ह भी इसमें निर्मित कर दिए जिनका इसमें अभाव था । यही हमारी खरोष्ठी लिपि थी। इसकी पुष्टि स्वरूप श्रोझा का एक उद्धरणा देना अधिक अच्छा होगा, 'जव ईरानियों का अधिकार पंजाब के कुछ अंश पर हुआ तब उनकी राजकीय लिपि अरमइक का वहाँ प्रवेश हुअा, परन्तु उसमें केवल २२ अक्षर, जो आर्यभापायों के केवल १८ उच्चारगगों को व्यक्त कर सकते थे, होने तथा स्वरों में हस्व दीर्घ भेद का और स्वरों की मात्राओं के न होने के कारण यहाँ के विद्वानों में से खरोष्ठी या किसी और ने ना अक्षरों तथा ह्रस्व स्वरों की मात्राओं की योजना कर मामूली पढ़े हुए लोगों के लिए, जिनको शुद्धाशुद्ध की विशेष आवश्यकता नहीं रहती थी, काम चलाऊ लिपि बना दी। प्राचीनतम खरोष्ठी शिलालेख तीसरी शताब्दी ई० पू० का है । इससे प्रकट है कि उस समय इसमें २२ मूल वर्गों के अतिरिक्त अन्य भारतीय ध्वनियों के द्योतक लिपि-चिन्ह भी थे अतः उस समय इसका भारत के पश्चिमोत्तर आँचल पर खूब प्रचार था । इसके चीनी तुर्किस्तान तक प्रचार तथा उन्नति का कारण संभवतया कुषाण राज्य था।
ओझा, 'प्राचीन लिपिमाला', पृष्ठ १७
For Private And Personal Use Only