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लिपि-विकास
में व्यवहारिक रूप से अभिन्नता हो जाती है और लिपि मी भाषा के नाम से पुकारी जाने लगती है। यही कारण है कि देवनागरी अथवा नागरी लिपि हिन्दी के नाम से अधिक प्रचलित है।
सारांश यह है कि उत्तरी भारत की समस्त आधुनिक लिपियाँ उत्तरी ब्राह्मी के विकसित रूप प्राचीन नागरी से और दक्षिणी -भारत की लिपियाँ दक्षिणी ब्राह्मी से उत्पन्न हुई हैं।
यहाँ नागरी वर्गों का संक्षिप्त इतिहास दे देना अनुचित न होगा । ( वर्णों तथा अंकों के विकास चित्र में ब्राह्मो वर्णों का विकास देखो)।
इतिहास:-अशोक के पूर्व की लिपि अप्राप्य है, अतःसमस्त वर्गों के प्रथम रूप अशोक कालीन हैं। ___अः-का दूसरा रूप कुशन राजा प्रां के लेखों में ( दूसरी शता० ), उच्छकल्प के महाराज शनाथ के ताम्रपत्र में (४६३ ई०) तथा राजा अपराजित के लख में (६६१ ई.) प्राप्य है। तीसरा रूप निकटतः दूसरे माप के समान है । चौथे
और पाँववे रूप ६ वी तथा १३ वीं श.के बीच के हैं और इनमें जो कुछ रूपान्तर हुए हैं, वे सुन्दरता के कारण हुए हैं।
इ:-का दूसरा रूप समुद्रगुप्त के प्रयाग स्तंभ वाले लेख में (४ थी शता०) तथा स्कंदगुप्त कालीन कहा के लेख में (४६० ई० ) उपलब्ध है। तीसरे रूप में सिर बन्दी लगाने का यत्न किया गया है। चौथा रूप हैहय वंशी राजा जाजल्लदेव के लेख (१११४ ई०) तथा कुछ प्राचीन इस्न लिखित पुस्तकों में प्राप्य हैं । पाँचवाँ रूप १३ वीं शता० के शिलालेखों तथा पुस्तकों में उपलब्ध है।
उ:-दूसरा रूप कुशन राजाओं के लेखों में प्राप्य है। शेष रूपान्तर सुन्दरता के कारण हुए हैं।
* अंशतः ओझाजी की पुस्तक 'नासाअ तथा अक्षर' के आधार पर
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