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लिपि का आविष्कार में यों तो चीथड़े गूदड़ों को कूटकर चौथी शताब्दी में कागज बनने लगा था, परन्तु इसका ठीक प्रकार प्रारम्भ मोहम्मद गौरी के आक्रमण से और प्रचार अकबर के समय से हुआ । इङ्गलैंड में १४६० ई०प० में कागज बना । अतः ११ वीं शताब्दी से पूर्व भारत में कागज का प्रचार न था। इससे पूर्व का काम शिला ( हनुमानजी का वाल्मीकि रामायण की स्पर्धा में शिलाओं पर रामायण की रचना करना प्रसिद्ध ही है), ताम्र पत्र, ताड़पत्र, चर्म पत्र, लकड़ी के तख्ते (बाद में भोज पत्र) आदि से लिया जाता था,अतः मृदुल लेखनी से काम नहीं चल सकता था और लोहे के पुष्ट सूजे आदि से काम लिया जाता था, उदाहरणार्थ रोम तथा मिस्र में हड्डी से, युफ्रटिस उपत्यका में कीलों से लेखनी का काम लिया जाता था । मृदुल कागज पर लिखने की अपेक्षा शिला, ताड़पत्र आदि कठोर पदार्थों पर लिखने में वर्षों का रूप टेढ़ा-मेढ़ा हो जाता है। ज्यों-ज्यों मृदुल लेखनी तथा पत्र का प्रचार होता गया त्यों त्यों वणों के रूप में भी हेर-फेर होता गया और रेखाएँ सीधी तथा मुन्दर होती गई।
(२) वैज्ञानिक आधार का लोपः-कालान्तर में लिपि चिन्ह तथा उच्चारण कालीन मुखाकृति का सम्बन्ध विस्मृत हो गया और रेखाएँ मुखाकृति की दद्योतक न रह कर केवल रेखा मात्र समझी जाने लगी ! फलतः उनकी स्थिति तथा रूप में बहुत भेद हो गया। अनेकों रेखाएँDसे अथवा -से नं० ५४ न० ४५ से नं० १, ) से ७, इत्यादि हो गई। सम्भवतः अ का प्रारम्भिक रूप नं०५१ भी इसी प्रकार विकृत होकर न० ५३ जैसा हो गया होगा।
(३) लिखने की राति:-निश्चय, सरलता, त्वरा-लेखन. सुन्दरता आदि लिपि गुणों के कारण भी अनेक विकार होते रहते हैं।
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