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लिपि-विकास • (क) त्वरा लेखन:-शीघ्रता से लिखने में रेखाओं के रूपा में प्रायः परिवर्तन हो जाता है उदाहरणार्थ 'अ' 'र' आदि लिखने में नं० ५५,५६ जैसे होजाते हैं। शीघ्रता से लिखने में लेखनी कम उठाई जाती है और रेखाएँ प्रायः मिल जाती हैं। सिरबन्दी का लोप हो जाना तो साधारण सी बात है। सम्भव है किसी समय सिरबन्दी त्वरालेखन में बाधक होने के कारमा विल्कुल ही हटा दी जाय ।
(ख) सुन्दरता तथा निश्चय-प्राचीन काल में वर्णों के ऊपर सिरबन्दी न होने के कारण कुरूपता के अतिरिक्त बड़ी गड़बड़ भी होती होगी। अतः सौन्दर्य वृद्धि तथा निश्चय के लिए वर्णों के ऊपर एक छोटी पगड़ी-सी (-) रकरवी जाने लगी जो दो अंशों में विभक्त होती थी। कालान्तर में ये दोनों अंश त्वरालेखन के कारण मिल कर एक हो गए और सिरबन्दी में परिवर्तित हो गए । प्राचीन छः (नं०५७) तथा नौ (नं० ५८) में अधिक अन्तर न था, अतः अब ६ तथा ६ रूप हो गए । इसी प्रकार अकाड़ वर्णों में सुन्दरता के लिए एक तीर की नोंक सी लगा दी जाती थी जैसा कि नं० ५६ से प्रकट है। हिन्दीए का नवीन रूप नं० ६० अाधुनिक नया प्रचलित रूप 'ए' से कहीं अधिक सुन्दर है।
(ग) सरलता-किसी-किसी वर्ण का रूप क्लिष्ट होता है और उसके सरल करने में अनेकों रेवाएँ वक्र से सरल हो जाती है, उदाहरणार्थ त्त, का अथवा क्ल, दय के स्थान में त, क्त, द्य
आदि आने लगे हैं। इसी प्रकार वैदिक नं० ३८ का हो गया। पाश्चात्य लिपियों में पूर्वात्य लिपियों की अपेक्षा रेखाओं का विकास वक्रता से सरलता की ओर अधिक है ! कभी-कभी सरलता के कारण वर्गों के प्राचीन रूपों का लोप और नवीन रूपों
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