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लिपि का आविष्कार
(ख ) अक्षर (Syllable) लिपि-तत्पश्चात् लेखनप्रणाली को सरल करने के लिए जिन शब्दों के आदि में समान अनर (एकाच पद अथवा पदांश) था उनको एकचित्र करके सव सम्मिलित अक्षर का पृथक ध्वनि-चिन्ह आने लगा अर्थात आद्याक्षर सिद्धान्तानुसार सांकेतिक ध्वनि-चिन्ह आक्षरिक संकेतों के लिए प्रयुक्त होने लगे। आक्षरिक चिन्हों का निर्माण होने पर उनको संयुक्त करके अनेकाक्षरों का बोध कराया जाने लगा।
इस प्रकार बहुत से अनेक ध्वनि बोधन ( Polyphonic ) प्रतीक बन गए जिनकं अर्थ का स्पष्टीकरण करने के लिए अनेकों विशेषणों का प्रयोग होने लगा। ये विशेषण विशेष तथा जातिबोधक दो प्रकार के होने थे। उदाहरणार्थ मिस्त्री-लिपि में चिन्ह नं०६१ में प्रथम दो ध्वनि-बोधक संकेत 'सेर' की ध्वनि के प्रतीक हैं । इनके बाद एक पशु का चित्र है। यह पशु-चित्र विशेषण विशेप है। जाति बोधक विशेषण केवल मुख्य-मुख्य स्थलों पर ही प्रयुक्त होते थे जैसे 'चक्षु' का प्रयोग दृष्टि सम्बन्धी शब्दों के लिए, 'दो टाँगो' का प्रयोग चलने से सम्बन्ध रखने वाले शब्दों के लिए और 'बत्तन' का प्रयोग पक्षीमात्र के लिए होता था। यही कारण है कि विशेष विशेषण तो बहुत से थे परन्तु जाति बोधक विशेषण बहुत थोड़े थे।
मौखिक लिपि से आक्षरिक लिपि के विकास का सर्वोत्तम उदाहरण चीनी लिपि में जापानी लिपि का उद्भव है। इस परिवर्तन में विजातीय संसर्ग अत्यन्त सहायक है। यद्यपि चीनी आज तक मौखिक लिपि से आगे न बढ़ सकी, परन्तु जापानियों ने, जिनकी भाषा अनेकाक्षरी थी, चीनी वर्गों को आक्षरिक चिन्हों के रूप में प्रयोग करना प्रारम्भ कर दिया, जैसे चीनी सांकेतिक चिन्हों 'सि', नं० २२, कासाकाना (जापानी) में नं० २३ के
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