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लिपि-विकास रूप में 'त्सी' अक्षर के लिए आता है। यूक्रेटिक उपत्यका की सैमेटिक कीलाक्षर ( Cuneiform ) लिपि भी इसका सुन्दर उदाहरण है। मेक्सिको के आदि निवासी एजटिक लोगों में भी इसका प्रचार था।
उक्त प्रकार के परिवर्तनों अर्थात् मूलभाव-बोधक चित्र लिपि से आक्षरिक लिपि तक के विकास को समझने के लिए एक दो उदाहरण दे देना अधिक युक्तिसङ्गत होगा। क्यूनीफार्म तथा मिस्री लिपि में यह सभी परिवर्तन पाए जाते हैं। क्यूनीफार्म लिपि में तारे का मूल चित्र नं० २४ था, इसका सरलीकृत रूप नं. २४ आकाश का वाचक हुआ। 'प्रोटो-वैबीलोनियन धर्म में नक्षत्रों की उपासना मुख्य थी। इसलिए यह मांकेतिक चिह्न 'भगवान' के लिए प्रतीकात्मक भाववोधक चित्र बना। भगवान के लिए ऐकेडियन भाषा में 'ऐना' है। इसका सरलीकृत रूप हुआ ऐन' । इस प्रकार हमने देखा कि पहले तो सांकेतिक चिह्न
आकाश का बोध कराने वाला भाव-बोधक चिह्न बना और भगवान के लिए प्रयुक्त हुआ और अन्तिम अवस्था में वह केवल 'ऐन' के उच्चारण- बोधक ध्वनि-बोधक चिह्न के रूप में प्रयुक्त हुआ। जब एक बार मूलध्वनि-बोधक संकेतों से अक्षरों का निर्माण होगया तो इन अक्षरों को मिला कर अनेकाक्षरी शब्दों का बोध कराया जाने लगा।' इसी प्रकार मित्री में ५ 'वंशी' का चित्र 'उत्तमता' का प्रतीक समझा जाता था। लन्पश्चात् वह 'अच्छे का बोध कराने के लिव ध्वनि-बोधक संकत बना। मिस्त्री भाषा में इसके लिए 'नेफर' शब्द है । परन्तु यह ध्वनि-संकेत दो शब्दों के अर्थ में प्रयुक्त होता है-एक का अर्थ 'अच्छे' का है और दूसरे का 'यथासम्भव' । अतएव हम देखते हैं कि वही
विश्व भारती खण्ड १ पृष्ठ ३५४ ॐ विश्व भारती खण्ड १ पृष्ठ ३५५
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