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ब्राह्मी का विकास (२री शता० पूर्व) प्राप्य है। तीसरा रूप कुशन लेखों में और
और चौथा और कई एक लेखों में उपलब्ध है। पाँचवाँ रूप चौथे का रूपान्तर है।
धः--का दूसरा रूप कन्नौज के परिहार राजा भोजदेव के ग्वालियर के लेख में (८७६ ई०) तथा देवलगाँव की प्रशस्ति में (६६२ ई०) में उपलब्ध है। तीसरा रूप कन्नौज के उत्त राजा जयचन्द के ताम्रपत्र में प्राप्य है। चौथा रुप तीसरे रूप में सिरबंदी लगाने से बना है।
नः-का दूसरा रूप रुद्रदामन के उक्त लेख में उपलब्ध है। तीसरा रूप राजानक लक्ष्याणचन्द कालीन बैद्यनाथ के लख में (८०४ ई०) में प्राप्य है। चौथा रूप तीसरे का रूपान्तर मात्र है जो कि सुन्दरता लाने के कारण बना है।
पः-पहिले के बाद के समस्त रूपान्तर सुन्दरता लाने तथा त्वरालेखन के कारण हुए है।
फः--का दूसरा रूप पहिले का रूपान्तर है। तीसरा रूप समुद्रगुप्त के लेख में उपलब्ध है। शेष रूपान्तर त्वरालेखन तथा सुन्दरता के कारण हुए हैं।
बः--का दूसरा रूप राजा यशोधर्मन के युक्त मंदसौर लख में उपलब्ध है। तीसरा रूप दूसरे का रूपान्तर है और उस समय के 'प' अथवा 'व' के समान है। अतः भिन्नता लाने के लिए चौथे रूप में बीच में भीतर मध्य में एक बिन्दु' लगा दिया गया । पाँचवाँ रूप चौथे का ही रूपान्तर है जो सुन्दरता के कारण हुआ है और गुजरात के सोलंकी राजा भीमदेन के ताम्रपत्र में ( १०२६. ई०) पाया जाता है।
भः-का दूसरा रूप कुशन लेखों में और तीसरा स्कन्दगप्त के इन्दौर के ताम्रपत्र में (४६५ ई०) प्राप्य है। चौथा रूप तीसरे का रूपान्तर मात्र है।
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