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हिन्दी तथा अन्य लिपियाँ
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म य र व श ष स क्ष ज्ञ व्यंजनों में हिन्दी
तथा गुजराती में कोई भेद न रह जाय । भेद केवल इ ए स्वर तथा खचज ठ ब ल व्यजनों में है; ख फ गुजराती के सरल हैं परन्तु अ इ ए चठ हिन्दी के सरल हैं । अतः हिन्दी गुजराती से सरल है । गुजराती स तथा ल एक से होने के कारण भ्रामक हैं । शिरोभाग की रेखाओं के अभाव के कारण गुजराती हिन्दी से सुन्दर भले ही न हो, परन्तु तीव्रगामी अवश्य है । क्षेत्र संकुचित होने के कारण गुजराती ही नहीं अपितु बंगला, गुरुमुखी आदि सभी लिपियों की उपयोगिता हिन्दी से कम है । अतः हिन्दी गुजराती से कुछ उत्तम ही है ।
इस प्रकार यद्यपि हिन्दी में कुछ संशोधन की आवश्यकता है, तथापि वह बंगला गुरुमुखी, गुजराती आदि से श्रेष्ठतर है । यही कारण है कि हिन्दी का क्षेत्र इन सब से विस्तृत हैं और नित्य बढ़ता जा रहा है ।
निष्कर्षः - सारांश यह है कि यदि त्वरा - लेखनार्थ हिन्दी वर्णों की सिरबंदी हटा दी जाय और ख ध भ के रूप परिवर्तित कर लिए जायँ, निश्चयार्थ रूको रु की भाँति करके रुको रू मान लिया जाय तथा ब ( ब का पेट बंद हो जाने पर जैसा कि प्रायः पेट चीरने में हो जाता है) को ब माना जाय और उपयोगिता वृद्धि के लिए ऋ षङ नए अथवा प (अर्द्धग) जैसे अनावश्यक चिन्ह लुप्त करके अ अॅ ऑ ए ऍ ऍ झ व ह. आदि नवीन चिन्हों का आवश्यक, प्रयोग किया जाय, तो हिन्दी लिपि सर्व गुण सम्पन्न हो सकती है। ङ व्य स के स्थान में तो अनुस्वार का प्रयोग होने लगा है, परन्तु इतना ही पर्याप्त नहीं है । यदि हिन्दी को राष्ट्र लिपि बनाना है, तो अभी उसमें बहुत कुछ संशोधन करने की आवश्यकता है ।
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