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लिपि का आविष्कार समय ग्रन्थि लिपि का प्रचार अवश्य था। सम्भवतः प्राचीन साहित्य रज्जु अथवा सूत के डोरे आदि में छोटी-बड़ी अनेक प्रकार तथा रङ्ग की गाँठे लगा कर ही सुरक्षित रक्खा जाता था और पुस्तकों का स्वरूप वही था। सम्भव है संस्कृत 'सूत्र ग्रन्थों' का भी इससे कोई सम्बन्ध हो । इतिहास से इस बात का पता चलता है कि दक्षिण भारत में इस प्रकार की लिपि प्रचलित थी। उत्तरी अमरीका तथा चीन का शिक्षा-विकास इस बात का साक्षी है कि वहां की सर्व प्रथम लिपि रज्जु-लिपि ही थी। वहाँ साधारण बोलचाल के अतिरिक्त राजनैतिक तथा ऐतिहासिक घटनाएँ आदि भी इसी में लिपि-बद्ध होती थीं । एक रस्सी में बँधी हुई सूक्ष्म, स्थूल तथा अन्य अनेक प्रकार की ग्रन्थियाँ विभिन्न भावों की प्रकाशक थीं, उदाहरणार्थ रंगीन तागे वस्तुवाचक भावों के प्रकाशक थे, जैसे श्वेत तागा चाँदी अथवाशान्ति का, लाल युद्ध अथवा स्वर्ण का द्योतक होता था। सम्भव है लिपि चिन्हों का नाम 'वर्ण' रस्सियों के विभिन्न वर्णों ( रंगों) के कारण ही पड़ा हो । पीरु में रज्जु लिपि को किषु (Quipu) कहते थे। पीरु की सर्व प्रथम पुस्तक इसी लिपि में है। इसमें प्रवियन सेना का वर्णन है। यह पुस्तक प्राप्य तो अब भी है, परन्तु आजकल अबोव्य है। अतः सर्व प्रथम लिपि, रज्ज-लिपि थी । यहाँ यह न भूलना चाहिये कि भाषा का प्रारम्भ वाक्यों से हुआ है, अतः तागों के विभिन्न वर्ण अथवा ग्रन्थियों के विविध प्रकार पूर्ण भाव अथवा विचार के द्योतक थे, मनोभाव के नहीं अर्थान वाक्यों के द्योतक थे, शब्दों के नहीं।
(२) रेखा लिपि-प्रायः अनपढ़ वयोवृद्ध दूकानदार तथा स्त्रियाँ रुपये पैसे का हिसाब कागज अथवा दीवालों पर खड़ी पड़ी, टेढ़ी-सीधी रेखाएँ खींच कर करते हैं। हिन्दी ० १ २ ३,उर्दू • 1 Pro इत्यादि का विकास क्रमशः - = =
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