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हिन्दी तथा अन्य लिपियाँ
भाषा का कठिन से कठिन छन्द भली भाँति लिखा जा सकता है। हिन्दी में प्रायः एक ध्वनि के लिए एक से अधिक चिन्ह नहीं आए हैं। अतः अनावश्यक चिन्हों का अभाव सा है। यों तो केवल 'अ' एक ऐसा स्वर है जो प्रधान स्वर कहा जा सकता है और वर्ण तथा मात्रा दोनों हैं, शेष सभी स्वर 'अ' के आधार पर बन मकते हैं। आ ओ ओ अं अः तो 'अ' के आधार पर बनते ही हैं, इ ई उ ऊ ए ऐ भी सिद्धान्तानुसार स्वाभाविक रूप से 'अ' पर मात्रा लगा कर क्रमशः श्रि श्री अश्रू अझै की भाँति लिखे जा सकते हैं और मराठी की उच्चकोटि की पत्र-पत्रिकाओं में तो कुछ समय से इ ई उ ऊ ए ऐ के स्थान में श्रि श्री अ अ अ औ प्रयुक्त भी होने लगे हैं। हिन्दी में ऐसा करने में लिपि सुबोध तथा वैज्ञानिक तो अवश्य हो जाती है, परन्तु त्वरा लेखन को कुछ धक्का लगता है और विशेषतः हिन्दी में, क्योंकि हिन्दी अ का रूप मराठी असे कुछ क्लिष्ट तथा भिन्न है। अतः हिन्दी ई उ ऊ ए ऐ भी अनावश्यक नहीं कहे जा सकते । केवल ऋ. एक ऐसा वर्ण अवश्य है कि जिसका काम 'रि' से भी चल सकता है। संभव है यह भी किसी समय अपने पूर्वज ऋ की भाँति लुप्त हो जाय । आज कल भी इसका प्रयोग प्रायः तत्सम् शब्दों में ही होता है। चन्द्र विन्दु (*), अनुस्वार (), ङ, ञ, अर्द्ध ण नं म में संस्कृत में कुछ सूक्ष्म भेद अवश्य है; और नियमानुसार अनुस्वार के पश्चात जिस वर्ग का वर्ण हो, उसी वर्ग का पाँचवाँ वर्ण अनुनासिक व्यं जन स्वरूप आना चाहिए अर्थात् यदि अनुस्वार के पश्चात् कवर्ग का कोई वर्ण हो, तो ङ जैसे लक्का, चवर्ग का कोई वर्ण हो तो आ जैसे पञ्जा, तवर्ग का कोई वर्ण हो, तो न जैसे क्रान्ति, टवर्ग का कोई वर्ण हो, तो ण जैसे दण्ड तथा पवर्ग का कोई वर्ण हो, तो म जैसे कुम्भ आयगा, परन्तु हिन्दी में यह सब अनावश्यक सा हो गया है, कारण कि आजकल हिन्दी में
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