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लिपि विकास
काश्मीर की, मुसलमान प्रजा अतिसंख्यक होने के कारण, लोकभाषा और पञ्जाब की अरबी-फारसी के प्रभाव से सर्वसाधारण की भाषा है। अतः उदूलिपि का प्रचार उत्तरी भारत, काश्मीर, पञ्जाब तथा हैदरावाद दकन में अधिक है। रोमन (अंग्रजी) भारत में अंग्रेजी राज्य होने के कारण, राज्य-लिपि है और समस्त भारत के दफ्तरों आदि में प्रयुक्त होती है। बँगला, गुरुमुखी, गुजराती आदि अन्य लिपियाँ प्रान्तिक हैं और इनका क्षेत्र बहुत संकुचित है। इस प्रकार हिन्दी, उर्दू तथा रोमन लिपियों का अन्य लिपियों की अपेक्षा क्षेत्र बड़ा और महत्व अधिक है। अतः हम प्रथम हिन्दी की उर्दू तथा रोमन लिपियों से विस्तृत तुलना और फिर बँगला, गुरुमुखी, गुजराती, मराठी आदि से संक्षिप तुलना करेंगे ।
(क) हिन्दी, उर्दू तथा रोमन लिपियाँ ---निश्चय तथा उपयोगिता का सम्बन्ध ध्वनि विचार से और सरलता, सौन्दर्य तथा त्वरालेखन का रूप विचार से है।
(अ) ध्वनिविचार (१) निश्चय-किसी लिपि के निश्चयात्मक होने के लिए यह आवश्यक है कि एक लिपि चिन्ह से एक ही ध्वनि का बोध हो और जो लिखा जाय वही पढ़ा जाय । उर्दू में एक एक चिन्ह कई-कई ध्वनियों का द्योतक है उदाहरणार्थ, य ई ए ऐ आदि का द्योतक है जैसे क्रमश: .L) (रियासत)
.:. ( बीस), (खेत), (बत , आदि में; इसी प्रकार' , ' ऊ ओ औ व आदि के लिए आता है जैसे Eai (ॐद), (तोप), (औरत), (वक्त) आदि में । रोमन को भी यही दशा है, अपितु उसमें तो केवल ५ स्वर तथा २१ व्यञ्जन होने के कारण अधिकतर लिपि संकेत ऐसे हैं जिनसे कई-कई ध्वनियों का बोध होता है उदाहरणार्थ से स
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