________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
लिपि-विकास
खरोष्ट्री । शहबाजगढ़ी और मानसेरा के शिलालेख खरोट्री में और शेष ब्राह्मी में हैं, परन्तु इसके यह मानी नहीं हैं कि भारत में लिपि का आविष्कार तीसरी चौथी शताब्दी पूर्व हुआ
और इसके पूर्व कोई लिपि थी ही नहीं। अनेक प्रमाण ऐसे हैं जिनसे सिद्ध होता है कि लिपि का आविष्कार अशोक से सैकड़ों वर्ष पूर्व हो चुका था, उदाहरणार्थ, बड़ली तथा पिपरा में दो लेख पाए गए हैं जो चौथी, पाँचवीं शताब्दी ई० पू० के हैं. हड़प्पा-मोहन जोदड़ो में कुछ मुद्राएँ पाई गई हैं जो १००० ई. पू. की हैं, मेगस्थनीजने अपनी 'इंडिका' में लिखा है कि जन्म-पत्रिकाएँ बनती थीं, 'शील' नामक ग्रन्थ में 'अक्खरिका' खेल का उल्लेख है जो उँगली अथवा सींक से लिख कर पहेली के रूपमें खेलाजाता था, बुद्ध-जीवनी-सम्बन्धी पुस्तक 'ललित-विस्तर' में बुद्धजी के चाँदी की तख्ती पर स्वर्णलेखनी से लिखने का वर्णन है, तथा चीनी यात्री सुएनच्चांग का बीस घोड़ों पर ६५७ पुस्तकें लाद कर ले जाना प्रसिद्ध ही है। इसके अतिरिक्त यास्क के निरूक्त तथा पाणिनि के अष्टाध्यायी जैसे व्याकरणिक ग्रन्थों की रचना लिखित माहित्यिक ग्रन्थों के अभाव में होना असम्भव है। वास्तव में बात यह है कि लेखन-कला तो थी, परन्तु उसका प्रयोग सम्भवतया केवल साहित्य-रचना में होता था, सर्वसाधारण में नहीं। यही कारण है कि प्राचीन काल में लिखित ग्रन्थों का बहुत महत्व था, पुराणों में लिखित ग्रन्थों का दान बड़ा भारी पुण्य माना गया है। यद्यपि लिपि का आविष्कार-काल ठीक ठीक बताना कठिन है, तदपि इस उद्धरण से कुछ अनुमान लगाया जा सकता है, बाभ्रव्य के विषय में यह अनुश्रति है कि उसने शिक्षा शास्त्र का प्रणयन किया ।........प्रणयन का अर्थ है प्रवर्तन, पहले-पहल स्थापित करना और चला देना । 'अतः बाभ्रव्य ने वर्णो की विवेचना के विषय को एक शास्त्र का रूप दे दिया। इससे सिद्ध है कि वह
For Private And Personal Use Only