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जिनभाषित
वीर निर्वाण सं. 2531
श्री दिगम्बरजैन सिद्धक्षेत्र
सोनागिरि (म.प्र.)
भाद्रपद, वि.सं. 2062
सितम्बर, 2005
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मोक्ष : संसार के पार
आचार्य श्री विद्यासागर जी
करता है और संसारी जीव अपने संसार का निर्माण स्वयं करता जाता है। आज इस संसाररूपी जेल को तोड़कर छूट जाने का दिन है। ध्यान रखना ये अपने आप नहीं टूटता, तोड़ा
जाता है। और जेल तोड़ने वाला, बंधन से छूटनेवाला, जेलर हे कुन्दकुन्द मुनि! भव्य सरोज बन्धु, नहीं, कैदी ही होता है। जेल को बनानेवाला भी कैदी ही है। मैं बार-बार तव पाद-सरोज बन्दूँ । जेलर तो मात्र देखता रहता है। इसी प्रकार संसारी प्राणी सम्यक्त्व के सदन हो समता सुधाम, अपना संसार स्वयं निर्मित करता है, मुक्तात्मायें तो उनके है धर्मचक्र शुभ धार लिया ललाम ।।
बंधन को देखने-जानने वाली हैं । देखना-जानना ही वास्तव आज एक संसारी प्राणी ने किस प्रकार बंधन से में आत्मा का स्वभाव है। संसारी प्राणी जब संसार के बंधन मुक्ति पाई और किस प्रकार पतन के गर्त से ऊपर उठकर को तोड़कर मुक्त हो जाता है, तब वह भी मुक्तात्माओं में सिद्धालय की ऊँचाईयों तक अपने को पहुँचाया-ये मिल जाता है और मात्र देखने-जाननेवाला हो जाता है। हम देखने/समझने का सौभाग्य हमें मिला। यह मुक्त दशा इसे भी यदि पुरुषार्थ करें, तो नियम से इस संसार से मुक्त हो आज तक प्राप्त नहीं हुई थी, आज ही प्राप्त हुई और बिना सकते हैं । यही आज हमें अपना ध्येय बनाना चाहिए। प्रयास के प्राप्त नहीं हुई बल्कि परम पुरुषार्थ के द्वारा प्राप्त प्रत्येक प्राणी सख चाहता है, स्वतंत्र होना चाहता है, हुई है। इससे यह भी ज्ञात हुआ कि संसारी जीव बंधन- किन्तु स्वतंत्रता के मार्ग को अपनाना नहीं चाहता। तब सोचो बद्ध है और उसे बन्धन से मुक्ति मिल सकती है, यदि वह क्या यों ही बैठे-बैठे उसे आजादी/स्वतंत्रता मिल जायेगी? परुषार्थ करे तो। वृषभनाथ का जीव अनादि-काल से ऐसा कभी संभव नहीं है । एक राष्ट्र जब दसरे राष्ट्र की सत्ता से संसार में भटक रहा था उसे स्व-पद की प्राप्ति नहीं हुई मत होना चाहता है तो उसे बहुत परुषार्थ करना होता है। थी। इसका कारण यही था कि इस भव्य जीव ने मोक्ष की आजादी की लड़ाई लड़नी होती है। उदाहरण के लिये प्राप्ति के लिये पुरुषार्थ नहीं किया था। लेकिन आज जो भारतवर्ष को ही ले लें। आज से 30-32 साल पहले भारत के शक्ति अभी तक अव्यक्त रूप से उसमें विद्यमान थी, वह लोग परतंत्रता का अनुभव कर रहे थे। परतंत्रता के दख को पुरुषार्थ के बल पर व्यक्त हुई है।
भोग रहे थे। तब धीरे-धीरे अहिंसा के बल पर अनेक नेताओं कोई भी कार्य अपने आप नहीं होता। सोचो, जब ने मिलकर देश को स्वतंत्रता दिलाई। लोक-मान्य तिलक ने बंधन अपने आप नहीं होता, तो मुक्ति कैसे अपने-आप नारा लगाया कि स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। हो जायेगी। चोर जब चोरी करता है तभी जेल जाता है लोगों के मन में यह बात बैठ गयी और परिणामस्वरूप भारत बंधन में पड़ता है। इसी प्रकार यह आत्मा जब राग-द्वेष, को स्वतंत्रता मिली। ठीक इसी प्रकार पराधीनता हमारा मोह करता है, पर पदार्थों को अपनाता है, उनसे संबंध जीवन नहीं है, स्वतंत्रता ही हमारा जीवन है-ऐसा विश्वास जोड़ता है और उनमें सुख-दुख का अनुभव करने लगता जाग्रत करके जब हम बंधन को तोड़ेंगे तभी मुक्ति मिलेगी। है, तभी उनसे बँध जाता है। सभी सांसारिक सुख-दुख जिस प्रकार दूध में घी अव्यक्त है, शक्ति-रूप में विद्यमान संयोगज हैं। पदार्थों के संयोग से उत्पन्न होते हैं। पदार्थों है। उसीप्रकार आत्मा में शुद्ध होने की शक्ति विद्यमान है। के संयोग से राग-द्वेष होता है, जो आत्मा को विकृत उस शक्ति को अपने पुरुषार्थ के बल पर व्यक्त करना
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कहलायेंगे, भव्य कहलायेंगे। जो | है। शरीर को फारसी भाषा में बदमाश कहा जाता है। शरीर अभी वर्तमान में पुरुषार्थ नहीं करते वे भव्य होते हुए भी | शरीफ नहीं है बदमाश है। यदि इस शरीर का मोह छूट जाये दूरानुदूर भव्य कहे जायेंगे या दूर-भव्य कहे जायेंगे, आसन्न तो जीव को संसार में कोई बाँध नहीं सकता । भव्य तो नहीं कहलायेंगे। एक अंधपाषाण होता है, जिसमें
- अतः बंधुओ! जितनी मात्रा में आप परिग्रह को कम स्वर्ण शक्ति-रूप में तो रहता है, लेकिन कभी भी उस
| करेंगे, शरीर के प्रति मोह को कम करेंगे, आपका जीवन पाषाण से स्वर्ण अलग नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार
उतना ही हल्का होता जायेगा, अपने स्वभाव को पाता जायेगा। दूरानुदूर भव्य हैं, जो भव्य होने पर भी अभव्य की कोटि में
जिस प्रकार नवनीत का गोला जब तक भारी था तभी तक ही आ जाते हैं अर्थात् शक्ति होते हए भी कभी उसे व्यक्त
अन्दर था, जैसे ही उसे तपा दिया तो वह हल्का हो गया। नहीं कर पाते।
सुगंधित घी बन गया। अब नीचे नहीं जायेगा। अभी आप उमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र के दशवें अध्याय | लोगों में से कुछ ऐसे भी हैं जो न घी के रूप में हैं और न ही में मोक्ष के स्वरूप का वर्णन किया है। उस मुक्त-अवस्था | नवनीत के रूप में, बल्कि दूध के रूप में ही है। संसारी का क्या स्वरूप है, यह बतलाया है। और उससे पूर्व नवमें | जीव कुछ ऐसे होते हैं, जो फटे हए दूध के समान हैं, जिसमें अध्याय में वह मुक्त-अवस्था कैसे प्राप्त होगी, यह बात कही | घी और नवनीत का निकलना ही मुश्किल होता है तो कछ है, जिस प्रकार तूंबी मिट्टी का संसर्ग पाकर अपना तैरने | ऐसे जीव भी हैं जो कि भव्य जीव हैं। वे सुरक्षित नवनीत की वाला स्वभाव छोड़कर, डूब जाती है। और मिट्टी का संसर्ग, | तरह हैं। जो समागमरूपी ताप के मिलने पर घी रूप में पानी में घुल जाने के बाद, फिर से हल्की होकर ऊपर तैरने | परिणत हो जावेंगे और संसार से पार हो जायेंगे। आप सभी लग जाती है। ऐसे ही यह आत्मा राग-द्वेष और पर-पदार्थों | को यदि अनन्त सुख को पाने की अभिलाषा हो, तो परिग्रह के संसर्ग से संसार-सागर में डूबी हुई है। जो जीव पर- | रूपी भार को कम करते जाओ। जो पदार्थ जितना भारी पदार्थों का त्याग कर देते हैं और राग-द्वेष हटाते हैं वे संसार | होता है वह उतना ही नीचे जाता है। तराजू में भारी पलड़ा सागर के ऊपर, सबसे ऊपर उठकर अपने स्वभाव में स्थित | नीचे बैठ जाता है और हल्का ऊपर उठ जाता है। इसी प्रकार • हो जाते हैं। दूध में जो घी शक्तिरूप में विद्यमान है उसे | परिग्रह का भार संसारी प्राणी को नीचे ले जाने में कारण बना निकालना हो, तो ऐसे ही मात्र हाथ डालकर उसे निकाला | हुआ है। लौकिक दृष्टि से भारी चीज की कीमत भले ही नहीं जा सकता। यथाविधि उस दूध का मंथन करना होता है | ज्यादा मानी जाती हो, लेकिन परमार्थ के क्षेत्र में तो हल्के
और मंथन करने के उपरांत भी नवनीत का गोला ही प्राप्त | होने का, पर-पदार्थों के भार से मुक्त होने का महत्त्व है। होता है, जो कि छाछ के नीचे-नीचे तैरता रहता है। अभी | | क्योंकि आत्मा का स्वभाव पर-पदार्थों से मुक्त होकर उस नवनीत में भी शुद्धता नहीं आयी, इसलिये वह पूरी | उर्ध्वगमन करने का है। तरह ऊपर नहीं आता। भीतर ही भीतर रहा आता है। और उमास्वामी आचार्य ने यह भी कहा है कि, 'बहुजैसे ही नवनीत को तपा करके घी बनाया जाता है। तब | आरंभ और बहु-परिग्रह रखने वाला नरकगति का पात्र होता कितना भी उसे दूध या पानी में डालो वह ऊपर ही तैरता | है।' बहुत पुरुषार्थ से यह जीव मनुष्य जीवन पाता है, लेकिन रहता है । ऐसी ही स्थिति कल तक आदिनाथ स्वामी की | मनुष्य जीवन में पुनः पदार्थों में मूर्छा, रागद्वेषादि करके थी। वे पूरी तरह मुक्त नहीं हुए थे। जिस प्रकार अंग्रेजों से | नरकगति की ओर चला जाता है। नारकी जीव से तत्काल पन्द्रह अगस्त 1947 को भारत वर्ष को आजादी/स्वतंत्रता तो
नारकी नहीं बन सकता। तिर्यंच भी पांचवें नरक तक ही जा मिल गई थी किन्तु वह स्वतंत्रता अधूरी ही थी। देश को | सकता है। लेकिन कर्मभूमि का मनुष्य और उसमें भी पुरुष सही/पूर्ण स्वतंत्रता तो 26 जनवरी 1950 को मिली थी, जब | सातवें नरक तक चला जाता है। यह सब बहुत आरंभ और ब्रिटिश सरकार और उनके नियम-कानून, लेन-देन आदि | बहत परिग्रह के कारण ही होता है। बडी विचित्र स्थिति है। क बधना स मुक्ति मिला आर दश अपन हा नियम-कानूना | पुरुष का पुरुषार्थ उसे नीचे की ओर भी ले जा सकता है
अन्तगत शासित हुआ। वस हा आदिनाथ प्रभु का स्वतत्रता | और यदि वह चाहे तो मोक्ष-पुरुषार्थ के माध्यम से लोक के अपूर्ण थी क्योंकि वे शरीर रूपी जेल में थे। आज पूरी तरह | अग्रभाग तक जाने की क्षमता रखता है। वह मुक्ति का मार्ग संसार और शरीर दोनों से मुक्त हुए हैं। शरीर भी जेल ही तो |
| भी अपना सकता है और संसार में भटक भी सकता है। यह
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सब जीव के पुरुषार्थ पर निर्भर है, केवल पढ़ लेने से या उनके जानने मात्र से नहीं ।
पतन की ओर तो हम अनादि काल से जा रहे हैं परन्तु उत्थान की ओर आज तक हमारी दृष्टि नहीं गयी। हम अपने स्वभाव से विपरीत परिणमन करते रहे हैं और अभी भी कर रहे हैं । इस विभाव या विपरीत परिणमन को दूर करने के लिये ही मोक्षमार्ग है । पाँच दिन तक आपने विभिन्न धार्मिक कार्यक्रम देखे, विद्वानों के प्रवचन सुने। ये सभी बातें विचार करें, विवेकपूर्वक क्रिया में लाने की हैं। अपने जीवन को साधना में लगाना अनिवार्य है। जितना आप साधना को अपनायेंगे उतना ही कर्म से मुक्त होते जायेंगे, पापों से मुक्त होते जायेंगे। जैसे तूंबी कीचड़ मिट्टी का संसर्ग छोड़ते ही पानी के ऊपर आकर तैरने लगती है और उस पंक- रहित तूंबी का आलंबन लेने वाला व्यक्ति भी पार हो जाता है वैसे ही हमारा जीवन यदि पापों से मुक्त हो जाता है, तो स्वयं के साथ-साथ औरों को भी पार करा देता है। राग के साथ तो डूबना ही डूबना है । पार होने के लिये एकमात्र वीतरागता का सहारा लेना ही आवश्यक है। वर्तमान में सच्चे देव - गुरु-शास्त्र, जो छिद्र रहित और पंक रहित तूंबी के समान हैं, उनका सहारा यदि हम ले लें तो एक दिन अवश्य पार हो जायेंगे ।
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स्वाधीनता, सरलता, समता स्वभाव, तो दीनता, कुटिलता, ममता विभाव । जो भी विभाव धरता, तजता स्वभाव, तो डूबती उपल-नाव, नहीं बचाव ॥
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स्वाधीनता, सरलता और समता ही आत्मा का स्वभाव है और राग-द्वेष-क्रोध आदि विभाव हैं। जो इस विभाव का सहारा लेता है, वह समझो पत्थर की नाव में बैठ रहा है, जो स्वयं तो डूबती ही है, साथ ही बैठने वाले को भी डुबा देती है। आपको वीतरागता की, स्वभाव की उपासना करनी चाहिए। यदि आप वीतरागता की उपासना कर रहे हैं तो ये निश्चित समझिये कि आपका भविष्य उज्ज्वल है। ये वीतरागता की उपासना कभी छूटनी नहीं चाहिए। भले ही आपके कदम आगे नहीं बढ़ पा रहे, पर पीछे भी नहीं हटना चाहिए। रागद्वेष के आँधी-तूफान आयेंगे, बढ़ते कदम रुक जायेंगे लेकिन जैसे ही रागद्वेष की आँधी जरा धीमी हो, एक-एक कदम आगे रखते जाइये, रास्ता धीरे-धीरे पार हो जायेगा ।
आज तो बड़े सौभाग्य का दिन है। भगवान को निर्वाण की प्राप्ति हुई । एक दृष्टि से देखा जाये तो उनका जन्म भी हुआ । शरीर की अपेक्षा मरण कहो तो कोई बात नहीं, लेकिन जिसका अनंतकाल तक नाश नहीं होगा ऐसा जन्म भी आज ही हुआ है । अजर-अमर पद की प्राप्ति उन्हें हुई है। संसार छूट गया वे मुक्त हो गये हैं। मैं भी ऐसी प्रार्थना / भावना करता हूँ कि मुझे भी अपनी ध्रुव - सत्ता की प्राप्ति हो । मैं भी पुरुषार्थ के बल पर अपने अजर-अमर आत्म-पद को प्राप्त करूँ ।
'समग्र' (चतुर्थ खण्ड ) से साभार
आतम बल उपजा ले
कुछ भागे तन-बल के पीछे, कुछ जन-बल को भाग रहे । कुछ भागे छल-बल के पीछे, धन-बल को सब भाग रहे । भागम-भाग में भाग गये सब, मानव मन के सुख और चैन ।
जड़ मानव अब तो खोलो, अपने अन्तर मन के नैन । क्षणभंगुरता दिख जायेगी, सब आकुलता मिट जायेगी। सच्चा बल तो आतमबल है, आतम बल उपजा ले ।
सुमेरचन्द जैन
सेवा निवृत्त लेखाधिकारी, हनुमान कालोनी, गुना
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रजि. नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC
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मासिक
सितम्बर 2005
वर्ष 4,
अङ्क
जिनभाषित
अन्तस्तत्त्व
सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन
पष्ठ
कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल-462 039 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666
सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, (मदनगंज किशनगढ़) पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर
शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कंवरलाल पाटनी
(आर.के. मार्बल) किशनगढ (राज.)
|. प्रवचन : मोक्ष : संसार के पार
आ.पृ. 2 : आचार्य श्री विद्यासागर जी सम्पादकीय : 'दिशाबोध' का हितकर प्रयोग . लेख • जैन धर्म में नागतर्पण
: स्व. पं. मिलापचन्द्र कटारिया • चातुर्मास को सार्थक कैसे बनायें
: ब्र. संदीप 'सरल' • पर्युषण : जैनत्व का अभिनव प्रयोग
: प्राचार्य निहालचंद जैन • बहोरीबंद के यक्ष : ब्र. कल्याणदासजी
: डॉ. भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु' • गर्भपात महापाप
: डॉ. सौ. उज्ज्व ला जैन • द्रव्यसंग्रह की एक अनुपलब्ध गाथा
: पं. रतनलाल बैनाड़ा . जिज्ञासा-समाधान
: पं. रतनलाल बैनाड़ा . बालवार्ता : अहं का विसर्जन
: डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' . कविताएँ मुनिश्री क्षमासागरजी की कविताएँ
आ.पृ. 3 आतम बल उपजा ले
: सुमेरचंद जैन 2 कविताओं के बादल बरसे : योगेन्द्र दिवाकर समाचार • जन्मभूमि हजारीबाग में जैनसंत श्री प्रमाणसागर जी महाराज 21
: प्राचार्य निहालचंद जैन अन्य समाचार
23, 24, आ.पृ. 4 औषधि और प्रसाधन सामग्री (संशोधन) विधेयक,
25 2005 के संबंध में पत्र आचार्य श्री विद्यासागर जी एवं उनके शिष्य-शिष्याओं की 27 चातुर्मास-भूमि-सूची
श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर
प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी,
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लेखक के विचारों से सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। जिनभाषित से सम्बन्धित समस्त विवादों के लिए न्याय क्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा।
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सम्पादकाय
"दिशाबोध' का हितकर प्रयोग "दिशाबोध' के जागरूक और उत्साही सम्पादक डॉ. चिरंजीलाल बगड़ा ने अपनी पत्रिका के मई 2005 के अंक में विद्वानों से यह आग्रह किया था कि वे वर्तमान स्थिति को देखते हुए आकलन करें कि आज से 10 वर्ष बाद (सन् 2015 में) श्रावकों, मुनियों और पंडितों के धर्माचरण का स्वरूप क्या होगा ? विद्वानों से प्राप्त आकलनों को सम्पादक जी ने अगस्त 2005 के 'दिशाबोध' में प्रकाशित किया है। यह समाज के मस्तिष्क माने जानेवाले विद्वानों और विदुषियों का एक महत्त्वपूर्ण आकलन है। भले ही उनके श्रावकधर्म का स्तर बहुत ऊँचा न हो, परन्तु उनके सच्चे देव-शास्त्रगुरु के स्वरूप-बोध, लोगों के स्वभाव और प्रवृत्तियों को परखने की पैनी दृष्टि, मनोवैज्ञानिक एवं तर्कसंगत चिन्तनशीलता तथा जिनशासन को पतन से बचाने की चिन्ता में कोई सन्देह नहीं है। इसलिए उनका आकलन बहुत महत्त्व रखता है। प्रायः सभी विद्वानों और विदुषियों की अनुभूतियाँ एक जैसी हैं। उन्होंने आज से दस वर्ष बाद के श्रावकों, मुनियों एवं पण्डितों के धार्मिक आचरण के स्वरूप का जो चित्र खींचा है, वह भयावह है, हमें झकझोरनेवाला, हमारी आँखें खोलनेवाला और दस वर्ष बाद के अनुमानित धार्मिक पतन से जिनशासन की रक्षा के लिए उत्प्रेरित करनेवाला है।
"दिशाबोध' के अगस्त 2005 के अंक में प्रकाशित उक्त विद्वानों की अनुभूतियाँ आद्योपान्त पढ़ने-योग्य हैं । उनकी कुछ बानगी यहाँ प्रस्तुत की जा रही है।
सुप्रसिद्ध विद्वान् एवं जैनगजट के भूतपूर्व सम्पादक पं. नरेन्द्रप्रकाश जी जैन का सन् 2015 का भविष्यदर्शन गौर करने लायक है। वे लिखते हैं
1. समाज में गुटबाजी बढ़ेगी। हर ग्रुप दूसरे ग्रुप या ग्रुपों को पीछे धकेलकर आगे बढ़ने की कोशिश करेगा। इस कार्य में ग्रुपों का मोहरा बनने में साधुओं को भी परहेज नहीं होगा।
2. पण्डितों/विद्वानों का दबदबा कम होगा। समाज पर उनकी पकड़ ढीली होगी। इसके पीछे कारण होंगेसेवा, समर्पण, त्याग और संयम में आयी कमी तथा बढ़ती धनलिप्सा।
3. धर्म क्रियाकाण्डों में सिमट कर रह जायेगा। उत्सव मँहगे होंगे। भीड़जुटाऊ मनोरंजन, हो-हल्ला और उछलकूद से ही उत्सवों की सफलता मापी जाया करेगी।
4. साधुओं में अनियत विहार की जिनाज्ञा के परिपालन में रुचि कम होगी। अपनी-अपनी प्रेरणा से स्थापित संस्थाओं (मठों) में ही लौट-फिर कर वे प्रायः प्रवास या निवास करते हुए देखे जायेंगे।
5. जिन साधुओं के दरबार में भौतिकसुख की प्राप्ति के लिए टोना-टोटका, झाड़फूंक, यंत्रमंत्र, वास्तु-चिकित्सा आदि से सम्बन्धित उपाय बताये जायेंगे, वहाँ भारी भीड़ दिखेगी।
6. साध हो या श्रावक. चरित्र पर दाग लगने पर भी कोई लज्जित नहीं होगा।
सुविख्यात साहित्यकार श्री सुरेश सरल की सन् 2015 विषयक भविष्यवाणी का यह अंश गंभीरता से विचारणीय है
"रद्दी पेपर की माँग बढ़ जावेगी। लोग दूध और दारू बेचना बन्द कर, रद्दी खरीदना चालू कर देंगे। अत: उनकी माँग पूरी करने पत्र-पत्रिका, पोथी-पुस्तकें अधिक संख्या में प्रकाशित होने लगेंगी। सम्पादकों, लेखकों का सरोकार पाठकों से कम, तराजू और बाँटवालों से अधिक बढ़ जावेगा। सन्तों की पुस्तकें भी वहाँ अपनी पहुँच बनाने में सफल रहेंगी।"
प्राचार्य (पं.) निहालचन्द्र जी ने अपने मन में झूलती सन् 2015 के जैन साधुओं की तसवीर खींचते हुए लिखा है- "प्रभावी प्रवचनकार सन्तों का बाहुल्य और वर्चस्व रहेगा। साधु के शिथिलाचार को रेखांकित करनेवाला सामाजिक परिताप और अपमान का मोदक चखेगा। आत्मश्लाघा युवा सन्तों की प्राणवायु होगी।
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पं. वसन्तकुमार जी जैन शास्त्री, शिवाड़ ने निम्नलिखित शब्दों के माध्यम से अपने हृदय की वेदना में सनी हई भविष्यवाणी प्रकट की है-"यदि हम आगत 10-15 वर्षों की होनेवाली छबि की कल्पना करें, तो आज जो है, वह इससे भी बदतर होगी। क्योंकि आज जो श्रमण और श्रावकों का मानस बन रहा है, वह पीछे की मर्यादाओं को तिलाञ्जलि देनावाला ही दिखाई देता है। आज भी कुछ सन्त हैं जो मर्यादा में हैं, ऐसे ही कुछ श्रावक भी हैं, जो मर्यादा में हैं, लेकिन बहुमत अमर्यादित श्रमण और श्रावकों का ही है।" _ 'जैन गजट' के सहसम्पादक श्री कपूरचन्द जैन पाटनी लिखते हैं-"आज के साधुसमाज में ज्ञानध्यान की पिपासा अब लुप्त होने लगी है। उसका स्थान ले लिया है लोकैषणा और मानैषणा ने। आज जैन साधु में शिथिलाचार बहुत ही व्यापक स्तर पर फैला हुआ है, इससे कोई भी इनकार नहीं कर सकता।"
___ श्री अजित जैन जलज ककरवाहा (टीकमगढ़) ने बड़ी ही मार्मिक और यथार्थ बात लिखी है-"आज अधिकांश जैन समाज वाग्विलासी विद्वानों, सन्तों के द्वारा दिखाये गये ऐसे धर्म को मानने पर मजबूर हो गया है, जिसमें फिल्मी धुनों पर नाच का आनन्द लेते हुए, धन-दौलत के जोर पर इन्द्रपद की प्राप्ति या सभी पापों के कटने का आश्वासन पा लिया जाता है। कुछ लोगों ने क्रियाकाण्डों, विधिविधानों का व्यवसाय शुरू कर दिया। ऐसे पण्डितों के घर धन और यश की वर्षा होने लगी।" ___डॉ. मालती जैन सेवानिवृत्त प्राचार्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय मैनपुरी (उ.प्र.) ने वर्तमान में दृश्यमान एक नयी प्रवृत्ति की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। वे आहार की प्रक्रिया में वैभव का प्रदर्शन शीर्षक देकर लिखती हैं - "षड्रस व्यंजन बनाने की होड़। अब तो इडली, डोसा, गरमागरम चपाती, सब कुछ चलता है। मेवा और फलों के रस की भरमार। आहार देते समय कुछ और लेने का दुराग्रह। संघस्थ ब्रह्मचारियों का चौके में जाकर विभिन्न मनपसन्द व्यंजन बनाने के निर्देश, धर्मसाधना के लिए शरीर को आवश्यक पोषण देने के स्थान पर रसना की सन्तुष्टि का प्रयास । सब कुछ बदला-बदला सा नजर आता है।"
डॉ. मालती जैन ने यह भी लिखा है कि आज कल कोरा आशीर्वाद नहीं चलता, साथ में मुनिश्री का चित्र बालपेन, डायरी, चाबी का गुच्छा, पुस्तकें, कैलेण्डर, चित्र न जाने कितने उपहार देते हैं। संग्रह करना ही होगा। जन्त्र, मन्त्र, तन्त्र की व्यवस्था भी करनी है। "मुनिश्री की दृष्टि में यह परिग्रह नहीं है, दान है परोपकार के लिए। मुनिश्री तो पदविहार करते हैं पर उनके पीछे आहार-सामग्री, प्रचार सामग्री को ढोती हुई अनेक गाड़ियों का काफिला उनके अपरिग्रह महाव्रत की खिल्ली उड़ाता प्रतीत होता है । नव-निर्माण एवं जीर्णोद्धार के जुनून ने अपरिग्रही साधुओं को निन्यानवे के फेर में डाल दिया है।"
किन्त डॉ. मालती जैन ने यह भी स्वीकार किया है कि "आज भी ऐसे निःस्पृही श्रमणों की कमी नहीं है, जो कब पीछी कमंडल उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर विहार कर जायें, किसी को कानों-कान खबर नहीं होती। नियति उन्हें जहाँ ले जाय, वहाँ के अतिथि हैं वे। सही अर्थ में तिथि की सूचना के बिना आये हैं, बिना बताये चले जायेंगे। रमता जोगी बहता पानी।"
डॉ. विमला जैन 'विमल', फिरोजाबाद ने एक नयी दशा पर प्रकाश डाला है, वह यह है कि "वर्तमान में आचार्य-उपाध्याय की बाढ़ आ गयी है। एक अकेला साधु भी आचार्यपद से विभूषित है। न उनके साथ में संघ है, न शिष्य। यही स्थिति उपाध्याय-पद की है, गुरु से खटक गयी, किसी अन्य आचार्य से उपाध्यायपद ले लिया, उन आचार्य को बना-बनाया शिष्य मिल गया और शिष्य को गुरु।" ।
डॉ. विमला जी ने एक दूसरी नयी दिशा को भी प्रकट किया है। वे लिखती हैं-"अनगिनत प्रकाशनों पर समाज का अर्थ-व्यय हो रहा है, परन्तु मौलिक चिन्तन बहुत ही कम दृष्टिगोचर होता है। प्रायः वही अत्यधिक व्ययशील चातुर्मासों की बड़ी-बड़ी पत्रिकाएँ, वही समाचार, वही द्वन्द्वात्मक विचार अथवा नित नयी योजनाओं हेतु अर्थयाचना।"
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विद्वानों और विदुषियों की ये अनुभूतियाँ और आकलन श्रावकों, मुनियों और पण्डितों के लिए आत्मदर्पण हैं और इस बात के सूचनापटल भी हैं कि उनके आचरण के विषय में समाज का मस्तिष्क क्या सोच रहा है, उनके बारे में समाज के प्रबुद्ध वर्ग की श्रद्धा क्या रूप धारण कर रही है?
__यह आकलन बड़ा खौफनाक है। सभी का यह अनुमान है कि मुनियों का अप्रशस्त आचरण भविष्य में और विकराल रूप धारण करेगा। यह हमें आगाह करता है कि जिनशासन के मूल स्वरूप को विकृत होने से बचाने के लिए संगठित होकर दृढ़ता से आगमोक्त कदम उठाना होगा, जिसका उपदेश आचार्य कुन्दकुन्द ने दिया है। वह है
असंजदंण वन्दे वत्थविहीणो वि सो ण वंदिज्ज।
दुण्णि वि होंति समाणा एगो विण संजदो होदि ॥26॥दसणपाहुड अर्थात् असंयमी की वन्दना नहीं करनी चाहिए और जो वस्त्ररहित (नग्न) होकर भी असंयमी है, वह भी वन्दना के योग्य नहीं है। दोनों ही समान हैं, उनमें से कोई भी संयमी नहीं है।
इस गाथा में आचार्य कुन्दकुन्द ने श्रावकों और मुनियों, दोनों को उपदेश दिया है कि जो दिगम्बरमुनि का वेश धारण करके भी अन्यथाचारी अर्थात् असंयमी है, उसकी वन्दना नहीं करनी चाहिए। वन्दना के निषेध से उसके लिये आहारदान आदि का भी निषेध हो जाता है, क्योंकि आहारदान में नवधाभक्ति आवश्यक होती है। असंयमी मुनियों को कुन्दकुन्द ने श्रमणाभास कहा है और संयमी मुनियों को आदेश दिया है कि वे उनका अभ्युत्थान, सत्कार, वन्दना आदि न करें। (देखिए, प्रवचनसार के तृतीय अधिकार की ६२-६३ वीं गाथाएँ )। एक संघ का मुनि दूसरे संघ के मुनि की जो वन्दना, सत्कार आदि करता है, उसे समाचार या सामाचारी कहते हैं। किन्तु यह समान आचारवाले मुनि के ही साथ करणीय है। अत: आचार्य कन्दकन्द ने समान आचार से रहित मनियों के साथ समाचार का निषेध किया है। श्री माइल्लधवल ने भी द्रव्यस्वभावप्रकाशकनयचक्र में कहा है कि समान आचार से रहित लौकिक (असंयमी एवं तंत्र मंत्रादि लौकिक कार्य करनेवाले) मुनियों के साथ समाचार नहीं करना चाहिए
लोगिगसद्धारहिओ चरणविहणो तहेव अववादी ।
विवरीओ खलु तच्चे बजेवा ते समायारे ॥ 338॥ आज भी कुछ संयमी मुनि आगम की आज्ञा का पालन करते हुए समान आचार से रहित मुनियों के साथ सामाचारी नहीं करते। इससे असंयम को आदर नहीं मिलता, जो संयम का सम्मान करने तथा संयम में असमर्थ पुरुषों को मुनिपद धारण करने की बजाय शक्त्यनुसार श्रावकधर्म के पालन की प्रेरणा देने हेतु आवश्यक है। विकृताचारी असंयमी मुनियों की बाढ़ को रोकने के लिए श्रावकों और विद्वज्जनों को भी इसी मार्ग का अनुसरण करना चाहिए, क्योकि उनके लिए भी असंयमी मुनियों की वन्दना का निषेध किया गया है ।
यह स्मरणीय है कि पूजनीय और सम्माननीय पद पर आसीन व्यक्तियों का ही विकृतचरित्र धर्म, समाज और राष्ट्र के लिए सर्वाधिक घातक होता है। और वे स्वयं अपने विकृतचरित्र को मिटाने के लिए तत्पर हो नहीं सकते, क्योंकि कोई अपने ही सुख-साम्राज्य को मिटाने की मूर्खता क्यों करेगा? जो उन पदों पर आसीन नहीं होते हैं, वे ही उनके विकृतचरित्र पर अंकुश लगाने का कार्य कर सकते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजपद पर आसीन होनेवाले पुरुष जब भ्रष्टाचार शुरू कर देते हैं, तब जनता ही उन्हें पदच्युत कर पाती है। भारत में आपात्काल लगानेवाले निरंकुश शासकों को जनता ने ही धूल चॅटाई थी। इसी प्रकार मध्ययुग में जब मुनि विकृताचारी होकर भट्टारक बनने लगे और श्रावकों पर जुल्म ढाने लगे, तब तेरापंथ का बिगुल बजानेवाले पण्डितों और श्रावकों ने ही सम्पूर्ण उत्तरभारत से उनकी गद्दियाँ उखाड़ फेंकने का पौरुष किया था। अत: वर्तमान के अन्यथाचारी मुनियों की परम्परा को खत्म करने का पौरुष पण्डित और श्रावक ही कर सकते हैं। किन्तु पहले उन्हें 'मेरी भावना के' "चाहे कोई बुरा कहे या अच्छा ...'' इस आदर्श को अपने में उतारना होगा।
रतनचन्द्र जैन
6 सितम्बर 2005 जिनभाषित
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जैनधर्म में नाग-तर्पण
नागतर्पण शब्द सुनकर शायद हमारे जैनीभाई चौकेंगे कि जैनधर्म में नागतर्पण कैसा? उन्हें जानना चाहिए कि हमारे जैनशास्त्र भण्डारों में जहाँ एक ओर अमूल्य शास्त्ररत्न भरे हैं, तो दूसरी ओर कांचखण्ड भी रक्खे हैं । आश्चर्य इस बात का है कि हमारे कुछ संस्कृत के धुरन्धर विद्वानों ने भी इन कांचखण्डों को अपनाया है ।
जयपुर से पहिले अभिषेकपाठसंग्रह नाम से एक ग्रंथ प्रकाशित हुआ था। उसमें जिन अभिषेकपाठों का संग्रह किया है, उनके कुछ मुख्य रचयिताओं के नाम इस प्रकार हैं
पूज्यपाद, गुणभद्र, सोमदेव, अभयनन्दि, गजांकुश, आशाधर, अय्यपार्य, नेमिचन्द्र और इन्द्रनन्दी । यहाँ यह ध्यान में रखना चाहिए कि पूज्यपाद, गुणभद्र, नेमिचन्द्र आदि नामवाले जो प्रसिद्ध आचार्य हमारे यहाँ हुए हैं, वे ये नहीं हैं। उन नाम के ये कोई दूसरे ही हैं। पूर्वोक्त रचयिताओं में से एक गजांकुश को छोड़कर बाकी सभी ने अपने-अपने अभिषेक पाठों में नागतर्पण लिखा है । पं. आशाधर जी ने अपने बनाये 'नित्य-महोद्योत' नाम के अभिषेक पाठ में नागतर्पण इस प्रकार लिखा है। उद्भात भोः षष्टिसहस्त्रनागाः क्ष्माकामचारस्फुटवीर्यदर्पाः । प्रतृप्यतानेन जिनाध्वरोर्वी सेकात् सुधागर्वमृजामृतेन ॥ 48 ॥
"
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अर्थ - पृथ्वी पर यथेष्ट विचरने से जिनका पराक्रम प्रकट है, ऐसे हे साठ हजार नागो! तुम प्रकट होओ। और जिन यज्ञ की भूमि में तुम्हारे लिए सिंचन किए इस जल से जो कि अमृत के गर्व को भी खर्व करने वाला है, तुम तृप्त होवो। ऐसा कहकर ईशान दिशा में जलांजलि देवे । इति नागतर्पणम् ।
यहाँ यह मालूम रहे कि भूमिशुद्धि के लिए जो अभिमन्त्रित जल के छींटे दिए जाते हैं, वह वर्णन तो आशाधर जी ने ऊपर श्लोक ४६ में अलग ही कर दिया है। यहाँ खासतौर से नागों के लिए ही जल देने का कथन किया है । यही श्लोक आशाधर जी ने प्रतिष्ठासारोद्धार में भी लिखा है।
इन आशाधर जी से पहिले सोमदेव हुए उन्होंने भी यशस्तिलक में नागतर्पण का कथन इन शब्दों में किया है
रत्नाम्बुभिः कुशकृशानुभिरात्तशुद्धौ, भूमौ भुजंगमपती नमृतैरूपास्य ॥ ५३३ ॥
अर्थ - पंचरत्न रखे हुए जलपात्र के जल से और डाभ की अग्नि से पवित्र की हुई भूमि पर जल से नागेन्द्रों को तृप्त
कर
स्व. पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया
इन्होंने साठ हजार की संख्या नहीं लिखी है। अन्य ग्रंथकारों में से किसी ने आशाधर का और किसी ने सोमदेव का अनुसरण किया है। यहाँ नागों का अर्थ सर्प नहीं है किन्तु नागकुमार देव है। नागकुमारों का वर्णन या तो भवनवासी निकाय के भेदों में आता है या लवण समुद्र की ऊँची उठी जलराशि को थामने वाले वेलन्धर नागकुमारों में आता है। इनमें से वेलन्धर नागकुमारों की संख्या तो लोकानुयोगी ग्रंथों में कहीं भी साठ हजार देखने में नहीं आई है। अलबत्ता भवनवासी नागकुमारों के सामानिक देवों की संख्या राजवार्तिक में अवश्य साठ हजार लिखी है। शायद इसीके आधार पर आशाधरजी ने नागों की संख्या साठ हजार लिखी हो ।
यहाँ के अमृत शब्द का अर्थ नित्यमहोद्योत की टीका में श्रुतसागर ने जल किया है। नेमिचन्द्रकृत अभिषेक पाठ में अमृत की जगह स्पष्ट ही जल शब्द लिखा है। अय्यपार्य ने अपने अभिषेकपाठ के श्लोक ७ में अमृत के स्थान में शक्कर- घृत लिखा है । यशस्तिलक की टीका में पं. कैलाशचन्दजी और पं. जिनदास जी ने अमृत का अर्थ दुग्ध किया है। अभयनन्दिकृत लघुस्नपन के श्लोक ६ की टीका में अमृत का अर्थ जल किया है ।
यहाँ विचारने की बात है कि जैनसिद्धांत के अनुसार देवलोक के देवों का मानसिक आहार होता है। वे जल, घृत, शक्कर, दूध का आहार लेते नहीं हैं । तब उनके लिये ऐसा कथन करना कैसे संगत हो सकता है? और यहाँ यह नागतर्पण का विधान किस प्रयोजन को लेकर किया गया है? क्या इसलिये कि वे जिनयज्ञ में विघ्न न करें? मगर जैनागम के अनुसार तो देवगति के सभी देव जिनधर्मी होते हैं, तब वे जिनयज्ञ में विघ्न करेंगे भी क्यों ? और जो चीज उन्हें दी जा रही है, वह उनके काम की न होने से वे विघ्न करते रुकेंगे भी क्यों? यदि कहो कि जैसे भगवान् जिनेन्द्र क्षुधारहित हैं, फिर भी हम उनकी पूजा नैवेद्य फलादि से करते हैं, वैसे ही यहाँ नागकुमार देवों के विषय में समझ लेना चाहिए। ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्योंकि भगवान् की पूजा में जो द्रव्य चढ़ाया जाता है, वह उनके भोग के लिये नहीं चढ़ाया जाता है। वह तो भक्ति से भेंटस्वरूप है । किन्तु यहाँ तो आशाधरजी ने नागकुमारों को तृप्त करने की बात लिखी है। इस प्रकार के विधिविधान एक तरह से बाल-क्रीड़ा
समान मालूम पड़ते हैं। इस पर मननशील विद्वानों को विचार करना चाहिए। ब्राह्मण ग्रंथों में देवपितरों को जल देकर तृप्त करने को तर्पण कहा है। उसी तरह का यहाँ यह नागतर्पण लिखा गया है।
'जैन निबन्ध रत्नावली' से साभार
सितम्बर 2005 जिनभाषित
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चातुर्मास को सार्थक कैसे बनायें
श्रमण संस्कृति में वर्षायोग / चातुर्मास का एक अतिमहत्त्वपूर्ण स्थान है। आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा से प्रारम्भ होकर कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा पर्यन्त चलने वाला यह पर्व श्रावक एवं साधु दोनों के लिए लाभप्रद हुआ करता है । साधुवर्ग अहिंसाधर्म एवं चतुर्विध आराधना की साधना करते हुए, श्रावक वर्ग के लिए धर्मामृत - ज्ञानामृत की वर्षा कर, उनके कल्याण में प्रेरक निमित्त बनते हैं। श्रावकवर्ग भी संतसमागम, धर्मश्रवण, वैयावृत्ति, आहारदानादि के माध्यम से अपने गृहस्थधर्म का पालन कर अपने को सौभाग्यशाली अनुभव करता है।
धन्य हैं, वे गौवरशाली नगर / शहर और पुण्यशाली श्रावकजन, जिन्हें इस चातुर्मास पर्व में गुरुओं का पावन सामीप्य प्राप्त हुआ है। हमें इस दुर्लभ मणिकांचन योग को किसी पवित्र तीर्थयात्रा/तीर्थधाम से कम नहीं समझना चाहिए। साधुसंघ के सान्निध्य की सफलता, नए-नए निर्माणकार्य हेतु धन-संग्रह का माध्यम न बनाकर । धर्मप्राप्ति का साधन बनाकर इस अनादि निधन पर्व की पवित्रता को कायम
रखें। साधु एवं श्रावक उभयवर्ग को चाहिए कि संस्कृति एवं संस्कारों के संरक्षण हेतु कुछ ठोस कदम उठायें। ताकि चातुर्मास की अमिट यादगार हमारे सदाचरण - सद्वाक्य द्वारा दूसरों के लिए अनुकरणीय-प्रशंसनीय बन सकें। श्रावकवर्ग एवं साधुवर्ग से सविनय निवेदन करना चाहते हैं कि निम्न बिन्दुओं पर अवश्य ध्यान दें ताकि चातुर्मास की उपलब्धियाँ इतिहास के पृष्ठों पर अंकित की जा सकें :
(1) दिशाविहीन युवाशक्ति, जो व्यसनों एवं भौतिकता में भटक चुकी है, उसे मार्गदर्शन देकर सन्मार्ग
पर लगाया जावे।
(2) जाति, पंथ, संघ एवं संत के नाम पर विभक्त समाज को प्रेम, वात्सल्य के माध्यम से अखण्डता एकता के सूत्र में समाहित किया जाना चाहिए।
(3) नवनिर्माण मंदिर भवन- धर्मशाला के स्थान पर समाज की नव पीढ़ी को नैतिकता की शिक्षा देकर जीवन निर्माण का कार्य करें।
(4) समाज में चल रहे मृत्युभोज, रात्रि - विवाहभोजन, अभक्ष्यभक्षण, बुफे सिस्टम आदि पर प्रतिबंध लगवाकर, दिवा-विवाह - भोजन की पुनीत प्रेरणा दें।
8 सितम्बर 2005 जिनभाषित
ब्र. संदीप 'सरल'
(5) शास्त्र भण्डारों का व्यवस्थित सूचीकरण करवा दें। कोई दुर्लभ, महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित करवाकर अनूठा कार्य श्रुत प्रचार-प्रसार की दिशा में किया जा सकता है।
(6) बालवर्ग को संस्कारशालाओं के माध्यम से संस्कारित करने की महती आवश्यकता है। इस दिशा में गंभीरता से विचार करें।
(7) वर्षायोग के समय गृहस्थों के लिए संयमाचरण की ओर कदम बढ़ाना चाहिए। रात्रि - भोजन त्याग, अभक्ष्य भक्षण त्याग, अष्टमी - चतुर्दशी उपवास एकासन आदि के माध्यम से कषायों की मंदता हेतु पुरुषार्थ करना चाहिये ।
(8) भावी पीढ़ी की पुरोधा, नवोदित बालकबालिकाओं के लिए साधु संघों के दर्शनार्थ प्रतिदिन अथवा अवकाश के दिनों में अवश्य ही ले जावें और उन्हें जैन श्रावकाचार, श्रमणाचार की जानकारी से अवगत करावें ।
(9) समाज में 'मृतप्रायः स्वाध्याय की परम्परा को जीवित करें। समाज में आज जितने भी संघर्ष हो रहे हैं, उन स्वाध्यायशील टीम तैयार होती है तो शिथिलाचार-भ्रष्टाचार, सभी की मूल जड़ अज्ञानवृत्ति है । अत: इस दिशा में एक अनैतिक आचरण पर कुछ रोक लग सकती है ।
जिनवाणी जिनसारखी : जिनेन्द्र भगवान् की वाणी को जिनेन्द्र की ही संज्ञा दी गई है। आज के भौतिक वातावरण में विषय कषायों से संतप्त संसारी प्राणी को आत्मशांति के लिए जिनवाणी रूपी अमृत ही हमारे जीवन में सुख शांति की बहार ला सकता है। अतः हमें चाहिए कि वर्षायोग में साधु संघों के सान्निध्य में संचालित प्रशिक्षण कक्षाओं में सम्मलित होकर शास्त्रों का अभ्यास, पठन-पाठन में ही अपना अधिक समय निकालें।
शास्त्राभ्यास की महिमा की दुर्लभता को समझने के लिए निम्न पंक्तियाँ हमें सन्मार्ग प्रशस्त कर सकती हैं :
ज्ञानहीनो न जानाति, धर्मं पापं गुणागुणं । हेयाहेयं विवेकं च, जात्यंध इव हस्तिनम् ॥ (सुभाषित रत्ना.) अज्झयणमेव झाणं. पंचेदिय णिग्गहं कसायं पि । तत्तो पंचमकाले, पवयणसारब्भासमेव कुज्जाहो ॥ (रयणसार) शेष पृष्ठ 10 पर
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पर्युषण : जैनत्व का अभिनव प्रयोग
प्राचार्य निहालचंद जैन एक समय था जब जैनों की पहचान के कुछ मानक | हम आध्यात्मिक प्रवचनों में भी मनोरंजन तलासने लगे हैं। थे। आज वे मानक कहीं खो गये हैं। जैनत्व की पहचान का संयम भी सरस होना चाहिए। सयंम में भी व्यजनों की सुगंध संकट बढ़ता जा रहा है। नई पीढ़ी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और | होना चाहिए। अन्यथा वह धर्म क्या जो जीवन में
वादी संस्कृति से सम्मोहित है। अर्थ तन्त्र- जीवन | उपेक्षा/अनुप्रेक्षा/वीतरागता अथवा उदासीनता भेंटता है ? ऐसी तंत्र पर हावी है। भ्रष्ट आचरण और घूसखोरी की फिसलन | हमारी सोच बन गयी है। भरी काई पर, व्यक्ति फिसल रहा है। मन की तृष्णा, लोभ- आज इस आत्म धर्म रूप पर्युषण पर्व का उत्सवीकरण लालच के आकाश को अपनी मुट्टियों में बांध लेना चाह रहा | किया जाने लगा है। इसका समापन 'क्षमा वाणी-दिवस' के है। टी.व्ही. चैनलों पर, दिखाये जा रहे विज्ञापनों में नारी को, ।
रूप में सभा-सम्मेलन करके मनाया जाने लगा और क्षमा काम (सेक्स) और भोग्या के रूप में वस्तु की भांति प्रस्तुत |
वाणी पत्रों / कार्डों में केन्द्रित होकर रह गया है। जिस क्षमा किया जा रहा है। जब व्यक्ति या वामिनी, वस्तु की तरह पेश | धर्म को अन्तस-बहारने और कषायों के काले धब्बे मेटने होने लगे, तो समझ लेना चाहिए कि धर्म-वेभाव-बिकने के
| के लिए डिटरजेण्ट की भांति उपयोग किया जाना चाहिए लिए चौराहे पर लाकर खडा कर दिया गया है।
था, वह प्रवचनों में व्याख्यायित होकर कैसटों में कैद हो जीवन के रोज-ब-रोज बदलते मूल्यों ने समाज की | | गया है। अस्मिता को नये शब्द और नयी परिभाषाएं देना शुरू कर
____ हम चारित्र की भाषा भूल गये हैं और प्रदर्शन, दिखावा, दिया है। ऐसे में, हमारे नैतिक जीवन मूल्य ही हमें धता बता | नेताई अभिनय गौरान्वित हो रहा है। स्व. डॉ. नेमीचंद रहे हैं। आशा की कोई किरण शेष बची है, तो वह है-'धर्म
| (सम्पादक तीर्थंकर) के शब्दों में कहें तो- हम 'लेंग्विज का पाला' । महान् वैज्ञानिक आइन्स्टाइन का वह कथन आज | ऑफ मॉरल्स' की वर्णमाला विसार कर. थोथी भाषा यानी रोमांचित करता है. जिसने कहा था 'जब संसार के सारे | 'लेंग्विज ऑफ सेल्फिशनेस' सीख गये हैं। दरवाजे किसी के लिए बंद हो जाते हैं, तब एक दरवाजा
आत्म-विश्लेषण करना पर्युषण पर्व में कि इतना फिर भा खला रहता है और वह है धर्म का । वह एक महान् | सारा बोला जा रहा है. उन्हें कैसिटों में भरा जाकर पस्तकें
मानिकही नहीं था. बल्कि एक महान् दार्शनिक और | रची जा रही हैं , या इतना सारा सुना जा आस्थाओं का जीवन्त प्रतीक था। जिसने जीवन के अंतिम
| बदलो में प्रभावी बन पा रहा है ? या केवल सुनकर उसे ही क्षणों में, अदृश्य सत्ता को समर्पित होकर यह प्रार्थना की थी
धर्म की इति मानकर जीने के अभ्यासी बन गये हैं । क्या कि मुझे अगले जन्म में कुछ भी बना देना, परन्तु एक
यह 'कुछ पाने' या 'कुछ होने' की दिशा में प्रकाश स्तम्भ वैज्ञानिक न बनाना। भौतिकता के प्रति उसकी यह चरम
बन पायेगा? अनासक्ति थी, जो चिन्मय के धरातल से उद्भूत हुई होगी।
आदमी कितना अधीर और असन्तुलित हो गया है पर्युषण महापर्व : आत्मशोधक और आत्म
| कि प्रतिकूलता की बात छोड़िये, वह अनुकूलताओं में क्रोध विश्लेषण का पावन प्रसंग है, जिसके प्रवेश द्वार पर चिन्मयता
| और आवेश के तीर छोड़ने में नहीं चूक रहा है। क्रोध के चिन्तन-प्रसून खिले हुए हैं। व्यक्ति कामना और काया के
उसका कृतित्त्व और अहंकार उसका व्यक्तित्त्व बन गया है। कारण खण्डित हो रहा है। आत्म विस्मरण के मूल्य पर | जो जितना बौद्धिक - उतना ही गमान/ साधु या संत, अपन उसकी काया की माया, सब कुछ भुना लेना चाह रही है।
अहंकार को स्वाभिमान कहकर श्रावकों के गले पड़ रहा है ऐसे में, हमारे स्वभाव-धर्म, अपनी मौलिकता में लौटने के
और श्रावक-अपने धन-बल के अहंकार से साधु को अपने *लिए प्रतीक्षारत हैं और हमें आव्हान कर रहे हैं।
पक्ष में करके, अपने विरोधी को साधु से ही मात दिलवा पर्युषण पर्व में : जीवन के उदात्त मूल्यों/गुणों की | रहा है। यह यथार्थ शायद गले न उतरे, परन्तु उससे घटनाएँ याद आने लगती है, परन्तु बस याद भर आती है, उसे हम | विलोपित नहीं हो सकतीं। जीवन में उचित स्थान देकर प्रतिष्ठित नहीं कर पाते। अब तो
सितम्बर 2005 जिनभाषित १
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माया का बाजार कहें या बाजार की माया कहें, अपने मुखौटे में, आदमी का असली चेहरा ढांके हुए है। मुखौटा चेहरे से इतना घुलमिल गया है कि वही असली चेहरा लगने लगा है।
लोभ : आकाश का वह क्षितिज बिन्दु है जहाँ वह धरती को छूता नजर आता है। उसे छूने के लिए आदमी की सारी दौड़ें व्यर्थ साबित हैं क्योंकि धरती पर ऐसा वास्तविक बिन्दु कहीं है ही नहीं । आशा का आकाश-लोभ की जमीन को छूता सा नजर आता है, उसे पाने आदमी दौड़ता है लेकिन सब व्यर्थ साबित होता है। पर्युषण पर्व-साधना और संयम के उस प्रशस्त पथ को दर्शाता है जहां उक्त क्रोध, मान, माया और लोभ की चारों दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है।
जैन दर्शन में ये काषायिक विभाव हैं, जिनसे आत्मा के स्वभाव धर्म प्रगट नहीं हो पा रहे। ये कषाएं राग और द्वेष जन्य । जब तक राग और द्वेष की उर्मियों से भीतर का सरोवर तरंगायित हो रहा है, उसकी निर्मल बनने की सारी सम्भावनाएँ प्रसुप्त हैं। अस्तु मेरी अपील है कि इस महापर्व को केवल परम्परा और उत्सव - अभिनय से न जोड़ें, बल्कि जैनत्व के जीने को एक अभिनव शैली की विकाश पृष्ठ 8 का शेषांश : चातुर्मास को सार्थक कैसे बनाएँ?
यह मानुष पर्याय सुकुल सुनिवो जिनवाणी । इह विधि गये न मिले सुमणि ज्यों उदधि समाानी ॥ (छहढाला) धन-कन कंचन राज सुख सबहि सुलभ कर जान । दुर्लभ है संसार में एक यथारथ ज्ञान ॥ (बारह भावना)
चातुर्मास का पुनीत उद्देश्य धर्म-ज्ञान-संयम की
10 सितम्बर 2005 जिनभाषित
यात्रा बनाएं।
क्षमा से हमारे विचार और हृदय में पवित्रता आती है। मार्दव और आर्जव धर्म मन की पवित्रता और सरलता को बढ़ाता । मन- विचारों का कोषालय है। विचारों की पवित्रता से मन निर्मल बनता है। तन की शुद्धि के लिए आहार का संयम चाहिए। रसों को आसक्ति भोजन में न हो । सात्विकता और पवित्रता भोजन से जुड़े। वचन की शुद्धि सत्य से होती है। इस प्रकार मन, वचन और तन की शुद्धि से आत्मा की शुद्धि होती है। संयम और तप-त्याग की ओर लक्ष्य करते हैं । निवृत्ति और त्याग से कर्म का आस्रव रुकता है और इसी से कर्मों की निर्जरा भी होती है । 'त्याग' से समर्पण की भाषा सीखी जाती है। आकिंचन्य धर्म-समर्पण की गोद में पलता है । यदि भीतर क्रोध है, अहंकार है, ठगनी माया के छद्म रूप हैं तथा लोभ की अनंत चाह है, तो समर्पण की भाषा समझ में नहीं आ सकती। यदि कामवासनाएं पीछे लगी हों तो क्या आकिंचन्य धर्म को धारण किया जा सकता है? नहीं। इसप्रकार धर्म के इन दश लक्षणों को धारण करके ही इस पर्व को आत्म-सात किया जा सकता है I
आराधना ही होना चाहिए। धनसंचय, मनोरंजन, प्रतिस्पर्धा के साथ अति आरम्भ - परिग्रह के कार्यों में साधुओं का उपयोग नहीं करना चाहिये। हमें पूर्ण विश्वास है कि इस दिशा में समाज का हर वर्ग सक्रिय होकर हमारी नवीन पीढ़ी को कुछ नया संदेश देकर भगवान् महावीर के शासन की शोभा बढ़ायेगा।
कविताओं के बादल बरसे
जवाहर वार्ड, बीना (म. प्र. )
कविताओं के बादल बरसे, बनकरके आध्यात्मिक बूँद । समकित सावन-भादों आया, जयवंतों की होती गूँज ॥ रत्नत्रय पुरुषोत्तम साधक, नग्न दिगम्बर रहते हैं । चातुर्मास जहाँ, जिनके हों, कालातीत सत्य कहते हैं ॥
अनेकान्त ज्ञान मंदिर शोध संस्थान, बीना (सागर) म.प्र.
योगेन्द्र दिवाकर
सतना, म.प्र.
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बहोरीबन्द के यक्ष : ब्र. कल्याणदासजी
डॉ. भागचन्द्र जैन भागेन्दु बात जून 1955 की है।। विद्यमान है। बहोरीबंद के निकटवर्ती स्थानों में भी इस हाईस्कूल बोर्ड परीक्षा का हमारा | प्रकार की प्रचुर सामग्री सहज ही प्राप्त होती है। परिणाम घोषित हो चुका था। |
बहोरीबंद में कायोत्सर्ग आसन में स्लेटी रंग के पत्थर ग्रीष्मावकाश में अपने गृहनगर रीठी | पर उत्कीर्णित सोलहवें जैन तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ की में आगामी अध्ययन-अनुशीलन | प्रतिमा का पाषाणफलक 13" x 9" ऊँचा और 10" चौडा है।
की योजनाओं का संधारण हो रहा | नख से शिर तक प्रतिमा की अवगाहना 12" x 2" तथा ब्र. कल्याणदास जा था। उन्हीं दिनों नगर के वरिष्ठ
| चौड़ाई 3" x 10" है। प्रतिमा की केश राशि धुंघराली, वर्तुलाकार गणमान्य हमारे पित-पुरुष पूज्य सवाई सिंघई पं. लम्पूलालजी | पाँच हिस्सों में ऊपर की ओर उठी हई (बंधी) दर्शायी गयी (अब स्वर्गस्थ) के आवास पर अधेड़ उम्र के एक सजन | है। वक्ष पर श्रीवत्स का चिह्न अंकित है। से भेंट हुई। उन्होंने बताया कि सिहोरा से 24 कि.मी. दर
प्रतिमा के परिकर का ऊपरी भाग उपलब्ध नहीं है। उत्तर-पश्चिम में बहोरीबंद में भगवान् शान्तिनाथ की एक
एक | शेष अंश में प्रतिमा के दोनों ओर एक-एक उड़ते हुए प्राचीन प्रतिमा खुले आकाश में खड़ी है। और अंधश्रद्धा के
मालाधारी देव और हाथों के नीचे चमरधारी देव सेवारत वशीभूत ग्रामीणजन अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु उस
खड़े अंकित किये गए हैं। इनके नीचे दोनों ओर एक-एक प्रतिमा का अनादर करते हैं। उसकी सुरक्षा-व्यवस्था हेतु
उपासक हाथ जोड़े दर्शाये गये हैं। इनके एक-एक पैर के वह भी यहाँ आये हैं। रात्रि में श्री पार्श्वनाथ जैन मंदिर जी में
घुटने भूमि पर टिके हुए हैं और दूसरे पैर कुछ मुड़े हुए हैं। ये शास्त्र सभा के उपरान्त बहोरीबंद की मूर्ति और उसकी
आभूषण धारण किये हैं। इनके नीचे आसन पर 07 पंक्तियों सुरक्षा-व्यवस्था के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा की गई। इन्हीं
का विक्रम की दशवीं शताब्दी का कल्चुरी कालीन एक सज्जन का नाम था-श्री कल्याणदास जी। प्रतिमा की सुरक्षा
अभिलेख देवनागरी लिपि में उत्कीर्ण है। अभिलेख की व्यवस्था हेतु रीठी की जैन समाज ने प्रारंभिक सहयोग राशि
भाषा प्राञ्जल संस्कृत है। अभिलेख के नीचे मध्य भाग में भी उन्हें सौंपी और यह तय हुआ कि एक प्रतिनिधि मंडल
प्रतिमा के चिह्न स्वरूप दो हरिण पास-पास ऐसे उत्कीर्ण हैं बहोरीबंद जाकर प्रतिमा के संबंध में समग्र स्थिति का
मानों वे परस्पर कुछ कह रहे हों। हरिणों के सामने की ओर आकलन करे। हमें याद है कि समाज के जो 8-10 लोग
एक-एक सिंह अलंकरण स्वरूप उत्कीर्ण किए गए हैं। पूज्य स.सि.पं. लम्पूलालजी के नेतृत्व में प्रस्थित हुए उनमें एक नाम इन पंक्तियों के लेखक का भी था। उन दिनों रीठी
उस समय काजी हाऊस के पास खुले मैदान में, ईंटों से बहोरीबंद आवागमन हेतु कोई सीधा साधन नहीं था।
से निर्मित एक तिकोने से टिकाई गई, इस प्रतिमा के विषय अतः हम लोग रेल से कटनी और वहाँ से सिहोरा पहुँचकर
में ग्रामीण जनता से विदित हुआ कि- यह 'खनुआ देव' हैं। श्री जयकुमार जी जैन एडव्होकेट (जो बहोरीबंद क्षेत्र के
पहले यह मूर्ति जमीन के गड्डे में लेटी हुई थी। इसे खोदकर
निकाला गया है। ग्रामीणजन इसके पास आकर मनोतियाँ विकास हेतु गठित तत्कालीन समिति के महामंत्री भी थे और आगे बहुत वर्षों तक इसी पद पर सेवारत रहे) के
मनाते और मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु वीतराग देव पर आवास पर रात्रि विश्राम किया और प्रात: बस से बहोरीबंद
जूता-चप्पल का प्रहार करते थे। भगवान् शांतिनाथ की मूर्ति
की संघटना, महत्ता और तत्कालीन परिवेश पर विचार कर, पहुँचे । यहाँ निकटस्थ एक शाला भवन में ठहरकर मूर्ति का
किसी भी सहृदय संचेता का हृदय द्रवीभूत हो उठेगा। अवलोकन किया। अत्यन्त भव्य आकर्षक और ऐतिहासिक महत्व की इस प्रतिमा का प्रथम दर्शन इतना प्रभावक रहा
बाबा कल्याणदास जी से पहली भेंट और उनसे कि तब से प्रायः प्रतिवर्ष इसके दर्शन-पूजन कर आत्म | अभिज्ञात सभी तथ्यों की परिपुष्टि बहोरीबंद की प्रथम यात्रा विभोर होते आये हैं।
ने तो कर ही दी। साथ ही वहाँ हमें स्मरण हो आया कि
प्रातः स्मरणीय गुरुणांगुरु परमपूज्य संत गणेशप्रसाद जी वर्णी यहाँ वैदिक, बौद्ध एवं जैन संस्कृति की पर्याप्त सम्पदा
| महाराज ने भी, अपनी 'जीवन गाथा' में, इस मनोज्ञ प्रतिमा
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की दुरवस्था का उल्लेखकर, समाज का ध्यान उसकी सुरक्षा | हॉल का संकल्प स्थिर किया। और संकल्प की पूर्ति-पर्यन्त व्यवस्था की ओर आकर्षित किया है। पूज्य वर्णी जी महाराज | | घी एवं शक्कर का आजीवन त्याग कर, रूक्ष भोजन को से प्रभावित बाबा कल्याणदास जी ने बहोरीबंद के शांतिनाथ | अंगीकार किया। छत्तीस वर्षों से भी अधिक समय तक वे भगवान् की अनवरत आराधना हेतु जो संकल्प-यात्रा 1951 | अपने संयम-साधना से स्व-हित साधन करते हुए श्रीक्षेत्र से प्रारंभ की। 1955 में स्वेच्छा से ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने | को श्री समृद्ध करते रहे। के साथ ही, सुदृढ़ इच्छाशक्ति, समर्पण, सहिष्णु, त्याग, संकल्प
बहोरीबन्द के भ. शान्तिनाथ के प्रति ब्र.जी का इतना और अभिनव परिकल्पनाओं के पाथेय को अपनी झोली में
अधिक समर्पण रहा है हम उन्हें 'बहोरीबन्द का यक्ष' कहना सहेजकर वे पूरे जीवन पूरे देश में घूमे। ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी
युक्तिसंगत मानते हैं। भारतीय वाङ्मय में 'यक्ष' संस्कृति यह श्रावक सफेद चादर धारणकर, आजीवन नमक का
और 'यक्ष' शब्द का विश्लेषण अनेकशः हुआ है। बहोरीबन्द परित्याग कर, अपने साध्य की संसिद्धि में जुटा रहा। उनका
की आधुनिक विकास यात्रा का शुभारम्भ साठ के दशक के एकमात्र साध्य था- बहोरीबंद में जन-जन के अधिनायक
मध्य में ही होता है। उसे प्रारम्भ करने, गति प्रदान करने, भगवान् शान्तिनाथ के भव्य-अतिभव्य मंदिर का वैसा ही
सुरक्षित और संरक्षित आयाम प्रदान करने, तथा निर्धारित निर्माण जैसा कि मूर्ति के पादपीठ में उत्कीर्ण अभिलेख की
लक्ष्य/गन्तव्य की ऊँचाईयों तक अग्रसर रखने का सर्वाधिक 4-5 वीं छठी पंक्ति में उत्कीर्ण है :
श्रेय यदि किसी को दिया जा सकता है तो वह हैं- श्रद्धेय ब्र. तेनेदं कारितं रम्यं सा (शा)न्तिनाथस्य मंदिरं (रम्)
कल्याणदास जी। वस्तुत: उन्हीं के अहर्निश संयम, साधना, वि(ता)नंच महास्वे(श्वे)तं निर्मितमति सुन्दरं ( रम्)
त्याग, विनय की पृष्ठभूमि पर बहोरीबन्द का सुदर्शन वर्तमान नमक त्याग और रूक्ष भोजन के साथ ज्यों-ज्यों साधन | अधिष्ठित है। एक प्रसिद्ध सक्ति है, 'योजकस्तत्र दर्लभः' - जुटे, भूमिक्रय की जाती रही। पहले भगवान् का खपरैल | योजनाओं के क्रियान्वयक/सत्रधार दुर्लभ हआ करते हैं। मंदिर बना। यात्रियों की आवास सुविधा हेतु रीठी निवासी | यदि समर्पित व्यक्तित्व योजनाओं के क्रियान्वयन हेतु प्राप्त स.सि. लम्पलाल जी ने धर्मशाला का श्री गणेश एक मकान | हो जायें तो उनमें सफलता सनिश्चित होती है। बहोरीबन्द क्षेत्र को प्रदान करके किया।
को बाबा कल्याणदास जी के रूप में एक योजक अबसे कच्चे मकानों को और क्रय करके भूमि का विस्तार, | लगभग 50 वर्ष पूर्व मिला। वे न केवल योजक रहे प्रत्युत क्षेत्र का प्रचार-प्रसार, उठते-बैठते, सोते-जागते, ब्रह्मचारी उन्होंने बहोरीबन्द के श्रीक्षेत्र और सोलहवें जैन तीर्थंकर जी की हर श्वास में बहोरीबंद के शान्तिनाथ बसे रहते हैं। भगवान् शान्तिनाथ को अतीत के अनुरूप गौरवशाली वर्तमान छोटा सा यात्री संघ आने की भी यदि सूचना मिली, तो | के अधिष्ठान के सृजन और संरक्षण हेतु ‘यक्ष' के दायित्वों ब्रह्मचारी कल्याणदास जी वहाँ पूर्वतः उपस्थिति होते । और | का सफलतापूर्वक निष्पादन किया है। श्रद्धेय ब्रह्मचारी जी क्षेत्र के प्रकल्प से सभी को परिचित कराते। प्रतिवर्ष पर्वराज | जैसे यक्ष-व्यक्तित्व और उनके सुयोग्य कर्मठ साथियोंपर्युषण में क्षेत्र की समृद्धि हेतु सुदूर प्रान्तों के प्रवास भी उन्हें | सहयोगियों के नि:स्पृह समर्पित योगदान से ही श्रीक्षेत्र की सकर थे। प्राप्त राशि के समीचीन विनिमय का ध्यान सदैव | प्रभावना एवं सांस्कृतिक गुणों का प्रख्यापन होता है। रखते। इस कार्य में वे सदैव क्षेत्र समिति को परामर्श प्रदान
यहाँ बाबाजी को सम्बोधित ‘यक्ष' शब्द की निष्पत्ति करते तथा उनसे परामर्श प्राप्त करते। इस दृष्टि से आ.ब्र.जी
और निहितार्थ ध्यातव्य है। संस्कृत की 'यक्ष धातु' से कर्म ने सर्वश्री जयकुमार जी वकील सा. सिहोरा, धन्यकुमार जी |
में द्या प्रत्यय करने पर भी यक्ष शब्द निष्पन्न होता है। (पूर्व विधायक) सिहोरा, सिंघई रूपचन्द्र जी नेताजी बाकल,
इसका विग्रह है - 'यक्ष्यते' इति यक्ष:। 'यक्ष' शब्द एक पं. मोहनलाल जी शास्त्री जबलपुर , पं. जगन्मोहनलाल जी
देव-योनि विशेष का वाचक है, जो धन-सम्पत्ति के देवता कटनी, स.सि. धन्यकुमार जी एवं सि. धन्यकुमार सांधेलीय
कुवेर के सेवक हैं तथा उसके कोष और उद्यानों की रक्षा कटनी आदि अनेकानेक गणमान्य महानुभावों से भी निरन्तर
करते हैं। सद्भावना पूर्ण मार्गदर्शन प्राप्त किया है।
बाबा कल्याणदास जी के लिए 'बहोरीबन्द का यक्ष' भगवान् शान्तिनाथ के भव्य मन्दिर की परिकल्पना साकार होते देख ब्र.जी ने क्षेत्र पर धर्मशाला और प्रवचन
सम्बोधन/विशेषण ध्वन्यर्थक है। यतः उन्होंने बहोरीबन्द के
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मूलनायक भगवान् शान्तिनाथ की आजीवन भरपूर सेवाविनय की है, उसे श्रीक्षेत्र के रूप में प्रख्यापित, विकसित, संरक्षित और समृद्ध बनाने हेतु समग्र समाज एवं प्रबन्धकारिणी के सहयोग से वही सब किया है जो एक यक्ष कुबेर के 'कोष और उद्यानों की रक्षा हेतु करता है I
ब्र. कल्याणदास जी का नश्वर शरीर यद्यपि अब नहीं है, किन्तु उनका यशः शरीर बहोरीबन्द के कण-कण में रमा प्रतीत होता है । बहोरीबन्द पहुँचकर भ. शान्तिनाथ के गुणानुवाद :
स्व-दोषशान्त्या विहितात्मशान्तिः शान्ते विधाता शरणं गतानाम | भूयाद्भवक्लेश भयोपशान्त्यै शान्तिर्जिनो में भगवान् शरण्यः ॥
जिन्होंने अपने अज्ञान तथा रागद्वेष-काम-क्रोध आदि विकारों की, शान्ति करके पूर्ण निवृत्ति करके, आत्मा में शान्ति स्थापित की है। पूर्ण सुखावस्था स्वाभाविक स्थिति प्राप्त की है, और इसलिए, जो शरणागतों के लिए शान्ति के विधाता हैं, वे भगवान् शान्तिजिन मेरे शरण्य हैं- शरणभूत हैं। अतः मेरे संसार परिभ्रमण की, क्लेशों की, भयों की उपशान्ति के लिए निमित्तभूत होवें ।
उपर्युक्त पाठ प्रारम्भ करते समय मन ही मन इस श्रीक्षेत्र के वर्तमान रूप के सृजन की परिकल्पना संकल्प और क्रियान्विति के आद्य सम्वाहक सूत्रधार ब्र. कल्याणदास जी को गौरव पूर्वक स्मरण करता हूँ । बहोरीबन्द की विकासयात्रा को देखकर हमारे अन्तर्मन से महाकवि भारवि (छठी शताब्दी) का यह पद्य सहज ही प्रस्फुटित हो रहा है
विषमोऽपि विगाह्यते नयः, कृततीर्थः पयसामिवाशयः । स तु तत्र विशेष - दुर्लभः सदुपन्यस्यति कृत्यवर्त्म यः ॥
(नीतिशास्त्र बड़ा गहन है। जिस तरह दुर्गम जलाशय में तैरने का अभ्यास कर लेने पर अथवा सीढ़ियों के बन जाने के बाद प्रवेश करना सुगम होता है, परन्तु उस गम्भीर जलाशय में खड्ड, पत्थर, मगरमच्छ, घड़ियाल आदि का निदर्शनकारी तथा सोपान निर्माण दक्ष पुरुष बहुत कम दिखलायी पड़ता है । उसी प्रकार इसमें ( नीति शास्त्र) में गुरुओं से शास्त्रों का अध्ययन करके भलीभांति प्रवेश हो
सकता है, परन्तु ऐसा पुरुष जो सन्धि, विग्रह, यान, द्वैधीभाव
*
आदि का पथ प्रदर्शक हो-विरल होता है । तात्पर्य यह है कि शास्त्र आदि का अध्ययन और अभ्यास करके नीतिशास्त्र का रहस्य सरलतापूर्वक उद्घाटित किया जा सकता है।)
महाकवि भारवि प्रणीत उक्त पद्य का लक्ष्यार्थ हमारे
। मन्तव्य की ओर ही संकेत करता है कि- जब बहोरीबन्द पूर्णत: उपेक्षित, अज्ञात 'अथ च अन्धकाराच्छादित' था, उस समय उसके उद्धार और विकास का संकल्प बहुत बड़ा साहस का कार्य था । और अपने संकल्प की प्रतिपूर्ति के लिए दर-दर की ठोकरें खाना । अपने भोजन में पहले नमक और कुछ समय पश्चात् आजीवन घी और शक्कर का परित्याग बहुत कठिन साधना तथा आत्म संयम के कार्य थे। इस तथ्य से सभी सुपरिचित हैं कि अप्रकाशित स्थान के लिए दान, सहयोग देने वाले विरले होते हैं और ऐसे स्थानों के लिए कार्य करने वालों की घोर उपेक्षा, अवहेलना और अवमानना भी होती है। हमें अच्छी तरह मालूम है कि श्रद्धेय ब्रह्मचारी जी ने यह सब गरलपान किया है। उनकी सहजसरल और नि:स्पृह जीवन शैली, धैर्यवृत्ति, सहिष्णुता तथा विवेक ने उन्हें सदैव कर्त्तव्य मार्ग पर आरूढ रखा । वस्तुत: वे महाकवि भारवि के शब्दों में 'कृततीर्थ: पयसाम् आशयः सरोवर पर घाट निर्माता हैं, हम सभी जानते हैं कि घाट निर्माण हो जाने पर स्नान करने वाले तो आगे निरन्तर बड़ी संख्या में सुलभ होते रहते हैं।
=
श्रीक्षेत्र बहोरीबन्द और वहाँ अवस्थित भगवान् शान्तिनाथ के दिव्य दर्शन को वर्तमान सुरम्य, मनमोहक सांस्कृतिक सुरभि के साथ जन-जन के लिए सुलभ बनाने में निमित्तभूत अधिष्ठान बनाने वाले श्रद्धेय ब्र. कल्याणदास जी की पावन स्मृति को कोटि-कोटि नमन्-वन्दन करता हूँ। और श्रीक्षेत्र बहोरीबन्द की प्रबन्धकारिणी समिति से आग्रह करता हूँ कि श्रद्धेय ब्रह्मचारी कल्याणदास जी के योगदान को स्थायी रूप निदर्शित करने तथा आगामी पीढ़ी को प्रेरणा प्रदान के लिए श्री क्षेत्र पर कोई स्थायी स्मारक बनाकर कृतज्ञता प्रकट करना चाहिए। इसी क्रम में तत्कालीन समिति के महामंत्री (अब स्वर्गीय) श्री जयकुमार जैन एडवोकेट सिहोरा के प्रति भी कृतज्ञता प्रकट करने हेतु किसी धर्मशाला या अन्य निर्मिति का नामकरण उनके नाम पर करना उचित होगा ।
सन्दर्भ
1.
2.
3.
संस्कृत हिन्दी कोश, पृ. 822
आचार्य समन्तभद्र : स्वयम्भूस्तोत्र, पद्य संख्या 80
किरातार्जुनीयमहाकाव्यम्, सर्ग 2, पद्य सं. 3
संस्कृत प्राकृत तथा जैन विद्या अनुसन्धान कॉलोनी,
28, सरस्वती कॉलोनी, दमोह - 470661 (म. प्र. )
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गर्भपात महापाप
डॉ. सौ. उज्ज्वला जैन जैन धर्म में तीर्थंकरों के पाँच कल्याणक मनाने की । उसे पूर्ण रूप से रोकने के लिए भरसक प्रयत्न करना भी परंपरा है, मनाते भी हैं। उनका गर्भ कल्याणक मनाया जाता | हमारा प्रथम कर्तव्य है। है। जैन साहित्य में जहाँ विवाह संस्कारों की चर्चा की गयी आधुनिक विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि अंडाणु है वहीं गर्भाधान संस्कार को भी महत्व दिया गया है। भगवान् और शुक्राणु सजीव होते हैं। अतः उनके संयोग से बने महावीर की माता त्रिशला का यही सौभाग्य उसे सर्वश्रेष्ठ | झाइगोट में प्रथम क्षण से ही जीव का अस्तित्त्व होता है। नारी होने की गरिमापूर्ण स्थिति प्रदान करता है।
निर्जीव की वृद्धि नहीं हो सकती। जबतक माँ को यह पता आज भी हम पंचकल्याणक समारोह में समस्त क्रियायें | चलता है कि वह गर्भवती है, तबतक उसकी कोख के शिश देखते हैं। जब साक्षात् तीर्थंकरों का गर्भकल्याणक होता है | का दिल धड़क रहा होता है। एक दिन के भ्रूण की हत्या तब इन्द्र के नेतृत्व में स्वर्गों के देव भावी तीर्थंकर के गर्भस्थ | करना भी एक पूर्ण मनुष्य की हत्या के समान है। धार्मिक शिशु के रूप में रहने के दौरान उसके माता-पिता के यहाँ | ग्रंथों के आधार से तो गर्भाधान के प्रथम समय में ही जीव पहुँचकर महोत्सव मनाते हैं। हमारे परिवारों में भी कहीं पर | वहाँ आ जाता है, क्योंकि जीव के बिना गर्भ का विकास सातवें और कहीं पर नौवे महीने में अपने रीति-रिवाजों के | संभव नहीं है। मनुष्य की पूर्ण आयु के जोड़ में गर्भस्थ काल अनुसार गर्भवती नारी और उसके गर्भ के लिए मंगल कामना | को भी सम्मिलित किया जाता है। की जाती है।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक निर्णय सुनाते हुए "जियो और जीने दो" तथा "दूधो नहाओ पूतो फलो" | कहा कि किसी का जीवन लेना केवल अपराध ही नहीं जैसी भावना रखनेवाले हमारे देश, हमारे समाज में गर्भपात | अपितु पाप भी है। उन्होंने यह भी कहा कि- Foetus is जैसी घटनायें 21वीं सदी में प्रवेश करते हुए मानव की शून्य | regarded as a human life from the moment of fertiliसंवेदनाओं को ही व्यक्त कर रही हैं। वैसे तो विश्व का कोई | zation गर्भाधान के समय से ही भ्रूण को एक मानव जीवन धर्म भ्रूणहत्या का समर्थन नहीं करता। पर जैनधर्म तो एकेंद्रिय- | माना जाता है। प्राणीमात्र के जीवन की बात करता है। निरपराध भ्रूण को अनेक धर्मग्रन्थों में भी हमें यह ज्ञात होता है कि निर्दयतापूर्वक खत्म करना, कराना, आज सभ्य समाज के | तीर्थंकरों के गर्भस्थ होने पर उनके ज्ञान के प्रभाव से माता के लिए सबसे बड़ा कलंक है। यह अपराध इतना बड़ा है कि | ज्ञान में आशातीत असीम वृद्धि होती है। माता को कोई शायद ही किसी प्रायश्चित्त से इसका परिमार्जन किया जा | विकार या वेदना नहीं होती। रावण के गर्भस्थ होने पर सके।
उसकी माता दर्पण के स्थान पर तलवार से अपना चेहरा हर छोटे बड़े प्राणी को जीने का पूर्ण अधिकार है। निहार, श्रृंगार किया करती थी जो निश्चित ही शिशु का किसी का जीवन नष्ट करने का अधिकार किसी को भी नहीं | वीरगुण से संपन्न होना परिलक्षित करता है। अर्जुन पुत्र है और न ही किसी माँ-बाप को अपनी जीती-जागती सन्तान | अभिमन्यु द्वारा गर्भावस्था में ही चक्रव्यूह भेदन की कला की हत्या करवाने की छूट विश्व के किसी भी धर्म ने प्रदान | सीखने की कथा से भी कोई अनभिज्ञ नहीं। की है। वर्तमान में संसार का प्रत्येक प्राणी किसी न किसी अनेक वर्षों के अध्ययन के बाद चिकित्सक दःख से दु:खी है। लेकिन गर्भपातरूपी दु:ख तो हमारा | मनोवैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि प्रकृति बच्चे को अपना बनाया हुआ है। हमारा अपना ही खून, जो हमारे | छठे माह में ही सबकुछ समझने योग्य बना देती है। वह सब अपने ही प्यार का फूल है, हम सब स्वयं ही मिलकर उसे | कुछ सुनने व देखने लगता है, सूंघने व चखने का अनुभव मसल देते हैं। कोख में पल रहे शिशु को मारना सचमुच ही | प्राप्त कर लेता है। पाँचवे महीने के मध्य में माँ के उदर पर संसार का सबसे जघन्य और अमानवीय कार्य है। यह एक
| चमकदार प्रकाश पड़ने पर बालक अपने हाथों को हिलाकर ऐसा क्ररतम कार्य है जिसमें गर्भवती स्त्री मानसिक रूप से | आँखे ढकने के लिए यत्न करता है। तेज संगीत से वह
और गर्भस्थ शिशु शारीरिक रूप से खण्ड-खण्ड हो जाते | अपने हाथ कानों की ओर ले जाते हैं। आँखें के तेजी से हैं। पाप-पुण्य की जो परिभाषायें हमें संस्कारों से मिली है | घुमने से उसके सोने, जागने व स्वप्नावस्था का पता लगता वह भी धरी की धरी रह जाती हैं। अतः भ्रूणहत्या जैसे | है। बारह सप्ताह का भ्रूण भी संगीत नृशंस, अमानवीय व हिंसक कार्य को जो सम्पूर्ण मानव | सक्षम हो जाता है। नवजात शिशु अपनी परिचित धुन सुनकर जाति पर कलंक है, उसे न केवल स्वयं त्यागना, अपितु | रोते-रोते चुप हो जाता है, क्योंकि वह केवल उन्हीं धुनों को 14 सितम्बर 2005 जिनभाषित
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पहचानते हैं, जो उन्होंने अपनी माँ के गर्भ में सुनी थी।
यह प्रायः देखा जाता है कि एक डॉक्टर की संतान डॉक्टर, संगीतज्ञ की संतान संगीतज्ञ, क्रिकेटर की संतान क्रिकेटर ही बनते हैं। इसका कारण यही है कि सन्तान • गर्भावस्था में ही अपने माँ-बाप द्वारा उनके ज्ञान व रुचियों से शिक्षा प्राप्त करती रहती है और समय आनेपर उनका गर्भावस्था में प्राप्त किया हुआ वही ज्ञान उसे उस विषय में कुशलता प्राप्त करने में सहायक हो जाता है। शास्त्रों में इसीको माँबाप से प्राप्त संस्कार कहा गया है।
जैनधर्म की स्पष्ट मान्यता है कि मनुष्य, पशु, पक्षी की पर्याय माता के पेट में गर्भाधान के साथ ही प्रारम्भ हो जाती है। आप और हम जितने समय में एक बार श्वास लेते हैं, उससे भी कम समय में वह भ्रूण एक बार श्वास लेता है। वह भी हम लोगों के समान भूख, निद्रा, भय आदि का संवेदन करता है। आज के वैज्ञानिक भी शोध करके इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि गर्भपात के समय शिशु की चेष्टाओं में अनेक परिवर्तन दिखाई देने लगते हैं। उसके हृदय की धड़कन और श्वास की गति असामान्य रूप से बढ़ती है। वह एक असहाय प्राणी है । आज संसार में वात्सल्य और ममता की मूर्ति मानी जानेवाली माँ अपने बच्चों के प्राणों की प्यासी हो गई है। तब वह बालक किसकी शरण में जाकर रक्षा की कामना कर सकता है। अपनी विलासी वृत्ति पर अंकुश लगाने के बजाय आज नारी इतनी निर्दय, निर्मम और अविवेकी हो गयी है कि नारी जाति और मातृत्व को कलंकित करने में जरा भी नहीं हिचकती है। सुरक्षित गर्भपात जैसे विज्ञापनों से प्रेरित हुई महिलाओं के लिए गर्भपात कराना नाई की दुकान पर जाकर बाल काटने के समान सुगम और ब्युटी पार्लर में जाकर श्रृंगार कराने जैसा सस्ता शौक हो गया है। पशुओं को काटने वाले कत्लखानों के समान आज गर्भपात केन्द्र नगर-नगर, ग्राम-ग्राम, गली-गली में खुल चुके हैं। भारत में प्रतिवर्ष 80-90 लाख बच्चों की क्रूर हत्या इन कत्लखानों में की जाती है। बच्चों के शरीर के टुकड़ेटुकड़े कर गटरों में बहा दिया जाता है। 70-80 या 90 वर्ष तक जीने के योग्य जिस शरीर की रचना हुई है, उस शिशु की जीवनलीला दुनिया को देखने के पूर्व ही तीक्ष्ण औजारों के माध्यम से अथवा जहरीले क्षार के माध्यम से समाप्त कर दी जाती है । कसाई तो बकरे को एक झटके में मार डालता है । लेकिन इस गर्भपात प्रक्रिया में तो अनेक बार तीक्ष्ण * औजारों से उन कोमल अवयवों को काट-काट कर गिराया जाता है। वह कितना पैशाचिक कृत्य है ।
विदेश में " द साइलेंट स्क्रीम" ( गूंगी चीख का शान्त कोलाहल) नाम से एक फिल्म तैयार की गई है।
उसमें बारह आदि सप्ताह का गर्भ गर्भपात के समय किस ढंग से रहता है, इसकी जानकारी करायी गई है। अमेरिका और यूरोप में इस फिल्म के दर्शकों ने एबोर्शन के कानूनों को बदलने के लिए जबरदस्त आंदोलन छेड़ा है। इस फिल्म में दिखाया है कि जब सक्शन पम्प भ्रूण के नजदीक आता है, तब बालक में प्रतिमिनट 140 बार होनेवाली हृदय की धड़कन बढ़कर 200 बार प्रति मिनिट हो जाती है। अपने जीवन रूपी दीपक के बुझाने के लिए आ रहे औजारों से बचने के लिए वह कुछ पीछे हट जाता है। परन्तु तत्काल ही उसका आवरण शस्त्रों से छिद्र बनाकर उसके बाहर निकलवाने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। बालक के मस्तक और धड़ को झटके से अलग कर दिया जाता है। तब वह वेदना से चीख उठता है, यह है गूँगी चीख । फिर फोरसेप मे दबाकर कठिन खोपड़ी को तोड़कर चूर-चूर कर दिया जाता है । अत: अब मानवों को जानना चाहिए और अपने में से इन दानवीय वृत्तियों का त्याग करना चाहिए। भारत की नारी के लिए अपनी सन्तान को गर्भाशय से दूध की मक्खी के समान निकाल फेंकना निन्दनीय और अमानवीय कार्य है। अपने हाथ से अपनी सन्तान का गला घोटनेवाली वह माँ नहीं वह राक्षसी है। यदि हमें राक्षसी माँ नहीं बनना है तो इस निन्दनीय कार्य को शीघ्र से शीघ्र संकल्प लेकर त्याग कर देना चाहिए। तथा अपने सम्पर्क में आनेवाली अन्य महिलाओं को भी उस कुकृत्य से बचने का मार्ग दिखाना चाहिए ।
हम कभी विचार नहीं करते कि गर्भस्थ शिशु के भी मन होता है। हम जैसे विकसित प्राणी हमारे भोगों के लिए हमारे ही बच्चे को मारने जैसा क्रूर कर्म करके नरक-निगोद की यात्रा करते हुए सुअर, कुतिया, बिल्ली आदि जैसी नीच योनि को प्राप्त करते हैं । परन्तु वह गर्भस्थ शिशु जो अभी कुछ घण्टों का है, सानत्कुमार, माहेन्द्र स्वर्ग की आयु को बांध सकता है। जो कुछ दिनों का है, वह मरकर पाँचवे, छठे, सातवे, आठवे स्वर्ग में जा सकता है। जो तीन मास से लेकर सात आठ मास का है। वह नववें, दसवें, ग्यारहवें व बारहवें स्वर्ग में जा सकता है। अर्थात् बारह स्वर्ग तक के देवों की आयु बंध के परिणाम उसमें हो सकते हैं और मरकर आयुबंध के अनुसार उन स्वर्गों में भी जा सकता है। उसे निर्जीव मानना कहाँ तक सत्य है? जब अविकसित अवस्था में भी वह देवायु के बंध योग्य परिणाम कर सकता है, विकसित अवस्था में (जन्म के बाद) क्या धर्मादि पुरुषार्थ करने में समर्थ नहीं होगा ?
(क्रमश:) एच. आय.जी. म्हाडा आर 28-10 छत्रपति नगर, एन-7, सिडको, औरंगाबाद
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द्रव्यसंग्रह की एक अनुपलब्ध गाथा
पं. रतनलाल बैनाड़ा
श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर,जयपुर द्वारा गुना में
ऊर्ध्वगमनत्व अधिकार 12 जून 2005 से 22 जून 2005 तक आध्यात्मिक शिक्षण
पयडिट्ठिदि अणुभागप्पदेस बंधे हिं सव्वदो मुक्को। शिविर का आयोजन किया गया था। उसमें गुना निवासी उर्दू गच्छदि सेसा, विदिसावजं गदिं जंति ॥15॥ सौ० उज्ज्वला जैन ने मुझे सन् 1925 का छपा हुआ एक अन्वयार्थ : (पयडिट्ठिदि अणुभागप्पदेस बंधे 'द्रव्यसंग्रह'ग्रंथ दिखाया जो अत्यन्त जीर्ण अवस्था में था। | हिं) प्रकतिबंध. स्थितिबंध. अनभागबंध और प्रदेशबंध करके इस 'द्रव्यसंग्रह' ग्रन्थ की यह विशेषता थी कि इसमें जीवत्व | (सव्वदो )सब प्रकार से (मुक्को)छूटा हुआ सिद्ध जीव अधिकार में 15 गाथायें दी गईं थीं। मैंने भी द्रव्यसंग्रह का | स्वभाव से (उड्टुं गच्छदि) उर्ध्वगमन करता है (सेसा) शेष स्वाध्याय बहुत बार किया है। आचार्य नेमिचन्द्र जी ने इस | जो कर्म बंध सहित जीव हैं, वे (विदिसावजं गदि) विदिशाओं ग्रंथ की गाथा नं. 2 में जीव द्रव्य का 9 अधिकारों में वर्णन | को छोड़कर दिशाओं को (जंति) जाते हैं। करने की प्रतिज्ञा की है।
___ भावार्थ : जो जीव उपर्युक्त चार प्रकार के बंधन से जीवो उवओगमओ -----
छूट जाता है, वह सीधा मुक्ति स्थान अर्थात् सिद्धलोक की अर्थ : जो जीता है, उपयोगमय है, अमूर्तिक है, | ओर ऊर्ध्वगमन ही करता है और जो कर्म सहित जीव हैं वे कर्ता है, स्वदेह प्रमाण है, भोक्ता है, संसारस्थ है, सिद्ध है | अन्य दिशाओं को भी जाते हैं। परन्तु वे शरीर छूटने के और स्वभाव से उर्ध्वगमन करने वाला है। उपरोक्त 9 | अनंतर और नवीन शरीर धारण करने के पहिले अर्थात् अधिकारों में से गाथा नं. 13 तक 7 अधिकारों का वर्णन | विग्रह गति में अनुश्रेणि गमन ही करते हैं। अतएव वे जहाँ किया गया है। गाथा नं. 14 की पूर्व पीठिका में ब्रह्मदेवसूरि | जन्म लेते हैं वहाँ दिशा रूप ही गमनकर एक,दो,तीन मोड़ा ने लिखा है,' अथेदानीं गाथापूर्वार्द्धन सिद्धस्वरूपमुत्तरार्धेन | खाकर, एक-दो या तीन समय के भीतर चले जाते हैं। पुनरुर्ध्वगतिस्वभावं च कथयति' :
| अथवा सीधे उसी समय में जाकर जन्म धारण कर लेते णिक्कम्मा----- || 14॥
हैं। 15 ॥ अर्थ : सिद्ध भगवान कर्मों से रहित हैं, आठ गुणों के
___ उपरोक्त गाथा की फोटोकापी लेकर आगरा आकर धारक हैं, अंतिम शरीर से कुछ कम आकार वाले हैं,लोक ।
'जैन शोध संस्थान' आगरा में से द्रव्यसंग्रह की प्राचीन के अग्रभाग में स्थित हैं,नित्य हैं और उत्पाद-व्यय से युक्त | पांडुलिपियाँ दिखवाई । यहाँ तीन हस्तलिखित पांडुलिपियाँ हैं॥14॥
प्राप्त हुईं जो इसप्रकार हैं : ___ इस गाथा की पीठिका में यद्यपि ब्रह्मदेवसूरि ने सिद्ध |
| 1. पहली पांडुलिपि 12" x 6" के पत्रों पर लिखी है। स्वरूप के वर्णन तथा ऊर्ध्वगमन स्वभाव के वर्णन की | कुल 18 पत्र हैं। यह पांडुलिपि माघ सुदी 10 सं. 1731 को सूचना दी है। परन्तु वास्तव में केवल सिद्ध स्वरूप का ही | पूर्ण हुई है। लिपि सुवाच्य है । कुल गाथा 59 हैं । वर्णन किया गया है, ऊर्ध्वगमन स्वभाव का वर्णन नहीं हुआ 2. यह 10" x 6" के कागजों पर काली स्याही से है। हमेशा स्वाध्याय करते समय ऐसा भाव आता था कि | लिखी गई है। कुल 32 पत्र हैं। लिपि सुवाच्य है। यह ज्येष्ठ ऊर्ध्वगमन स्वभाव की गाथा और होनी चाहिये। वदी 13 चन्द्रवासरे संवत् 1821 को संपूर्ण हुई है। कुल सौ. उज्ज्वला जैन ने प्राचीन मुद्रित द्रव्यसंग्रह में एक
गाथा 59 हैं। गाथा नं. 15 और दिखाई तो मन में अत्यन्त आनंद हुआ। 3. यह 8" x 5" के सफेद कागजों पर काली स्याही वह गाथा एवं पूर्व पीठिका इसप्रकार है :
से लिखी गई है। कुल 37 पत्र हैं। लिपि सुवाच्य है। यह माघ | वदी 14 सं0 1879 को संपूर्ण हुई है। कुल गाथा 59 हैं।
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4. जैन विद्या संस्थान श्री महावीर जी (राज.) से एक । संस्कृति संस्थान सांगानेर के सभी पदाधिकारियों ने विचार द्रव्यसंग्रह प्रकाशित हुआ है, जिसके ढूंढारी वचनिकाकार | किया है कि संस्थान के परीक्षा बोर्ड से छपे हुये 'द्रव्यसंग्रह' पं. जयचन्द जी छाबड़ा (जयपुर) रहे हैं। और हिन्दी | में यह गाथा और बढ़ा देनी चाहिये। हम सभी अन्य प्रकाशकों रूपान्तरकार श्री धनकुमार जैन एम.एस.सी. जयपुर हैं। इस | से भी निवेदन करते हैं कि वे भी उपरोक्त गाथा को, भविष्य पुस्तक में भी गाथा 14 के बाद उपरोक्त गाथा 'उक्तं च | के सभी प्रकाशनों में शामिल करने का कष्ट करें। करके दी गई है।
विद्वानों के लिए यह शोध का विषय है कि ब्रह्मदेव इन तीनों पांडुलिपियों में, उपरोक्त गाथा नं. 15 | सूरि ने टीका करते समय उपरोक्त गाथा की टीका क्यों नहीं यथास्थान दी गई है। तीनों पांडुलिपियों में गाथा का हिन्दी | की? या तो उनके सामने जो ग्रंथ उपलब्ध थे, उसमें यह अर्थ भी ठीक प्रकार दिया गया है।
गाथा नहीं थी। या अन्य कोई कारण था। उपरोक्त तीनों पांडुलिपियां इस बात को प्रमाणित कर
सभी विद्वानों से निवेदन है कि उपरोक्त निर्णय रहीं हैं कि यह गाथा नं. 15 वास्तव में ग्रंथ की ही गाथा है। के संबंध में यदि कोई आपत्ति या विचार हों तो अवश्य
और इसप्रकार ग्रंथ में 58 की बजाय 59 गाथा हो जाती हैं। | सूचित करने का कष्ट करें। सभी आगत पत्रों पर विचार साथ ही एक छूटा हुआ विषय भी पूर्ण हो जाता है। करने के उपरांत ही नवीन प्रकाशन में उपरोक्त गाथा शामिल
इन समस्त प्रमाणों के उपलब्ध हो जाने पर श्रमण | की जायेगी।
मानी द्वीपायन द्वीपायन नामक एक मुनि थे। वे रत्नत्रय धारण किये हुए थे। महान तपस्वी थे। वे चाहते तो उनकी तपस्या का फल मीठा भी हो सकता था, किन्तु वे द्वारिका को जलाने में निमित्त बन गये।
दिव्यध्वनि के माध्यम से जब इन्हें ज्ञात हुआ कि मेरे निमित्त से बारह वर्ष के बाद द्वारिका जल जायेगी, तो यह सोचकर वे द्वारिका से दूर चले गये कि बारह वर्ष के पूर्व नहीं लौटेगे। समय बीतता गया और बारह वर्ष बीत गये होंगे, ऐसा सोचकर वे विहार करते हुए द्वारिका के समीप आकर एक बगीचे में पहुँचे, जहाँ वे ध्यानमग्न हो गये। ____ यादव वहाँ आये। द्वारिका के बाहर फेंकी गयी शराब को उन्होंने पानी समझा और पी गये। मदिरापान का परिणाम यह हआ कि यादव नशे में होश खो बैठे। पागलों की तरह वे वहाँ पहँचे. जहाँ दीपायन मनि ध्यानस्थ थे। मुनि को देखकर यादव उन्हें गालियाँ देने लगे। इतना होने पर भी मुनि ध्यानस्थ रहे, किन्तु जब यादव नशे में चूर होकर मुनि को पत्थर मारने की क्रिया बहुत देर तक करते रहे, तब द्वीपायन का मन अपमान सहन नहीं कर सका। मन को ठेस पहुंची और मान जागृत हुआ, इसके लिए क्रोध जागा और उसके फलस्वरूप तैजसऋद्धि का उदय हुआ जिसके प्रभाव से द्वारिका जलकर राख हो गयी।
आशय यह है कि मान-सम्मान की आकांक्षा पूरी न होने पर क्रोध उत्पन्न हो जाता है, जिस क्रोधाग्नि के भड़कने से बड़ी-बड़ी हानियाँ हो जाती हैं। अत: मार्दव धर्म धारण करें। द्वीपायन मुनि को भीतर तो यही श्रद्धान था कि मैं मुनि हूँ, मेरा वैभव समयसार है, समता परिणाम ही मेरा निधि है, मार्दव मेरा धर्म है, मैं मानी नहीं हूँ, लोभी नहीं हूँ, मेरा यह स्वभाव नहीं है । रत्नत्रय धर्म उनके पास था, उसी के फलस्वरूप उन्हें ऋद्धि प्राप्त हुई थी, लेकिन मन में यह पर्याय बुद्धि जाग्रत हो गयी कि ये मुझे गाली दे रहे हैं, मुझ पर पत्थर बरसा रहे हैं। यह पर्यायबुद्धि मान को पैदा करनेवाली है। अत: ज्ञानी बनो और पर्यायबुद्धि उत्पन्न न होने दो। उपयोग में स्थिर रहो।
"विद्याकथाकुंज' से साभार
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जिज्ञासा-समाधान
पं. रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता : सौ. संगीता जैन, नंदुरवार अर्थ : सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान इन दोनों में से एक का जिज्ञासा : अविरत सम्यग्दृष्टि मोक्षमार्गी है या नहीं?
आत्मलाभ होते, उत्तर जो चारित्र है. वह भजनीय है । यदि है तो उसके चारित्र कौन-सा प्रकट हुआ कहलायेगा? |
अर्थात सम्यग्दर्शन होने पर सम्यकचारित्र का होना अवश्यंभावी मिथ्याचारित्र भी उसके नहीं है । उसके सम्यकुचारित्र होता | न है या नहीं?
आचार्य गुणभद्र ने उत्तरपुराण में भी कहा है : समाधान : तत्त्वार्थसूत्र के प्रारम्भ में आचार्य उमास्वामी समेतमेव सम्यक्त्वं, ज्ञानाभ्यां चारितं मतम् । महाराज ने यह सूत्र लिखा है-'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि स्यातां विनापि तेनेन, गुणस्थाने चतुर्थके ।। 74/543 मोक्षमार्गः।' अर्थ : सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र सम्यक्चारित्र तो सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान सहित होता की एकता ही मोक्षमार्ग है । इसकी टीका में आचार्य पूज्यपाद है, किन्तु चतुर्थ गुणस्थान में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान, स्वामी ने लिखा है कि, 'सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्र- सम्यकचारित्र के बिना भी होते हैं। मित्येतत् त्रितयं समुदितं मोक्षस्य साक्षान्मार्गो वेदितव्यः।'
उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि अविरत सम्यग्दृष्टि के अर्थ- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों
सम्यक्चारित्र नहीं होता और जब तक सम्यक्चारित्र नहीं है, मिलकर साक्षात् मोक्ष का मार्ग हैं, ऐसा जानना चाहिये । इस
| तब तक मोक्षमार्गी भी नहीं है । जैसा कि प्रवचनसार गाथा आगम-प्रमाण के अनुसार अविरत सम्यग्दृष्टि मोक्षमार्गी नहीं
236 की टीका में अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है, 'अत आगमज्ञान है । उसके कौन-सा चारित्र हुआ इस संबंध में गोम्मटसार
तत्त्वार्थश्रद्धान संयतत्वानाम यौग पद्यस्य मोक्ष मार्गत्व जीवकाण्ड गाथा 12 में स्पष्ट कहा है कि 'चारित्तं णत्थि जदो
विघटेतैव । अर्थ : इससे आगमज्ञान, तत्त्वार्थ श्रद्धान तथा अविरद अंतेसु ठाणेसु।' अर्थ : अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान | संयतत्त्व के अयुगपतत्त्व वाले के मोक्षमार्ग घटित नहीं तक चारित्र नहीं होता है। मोक्षमार्ग प्रकाशक में पं. टोडरमल |
होता । जी ने नवें अधिकार में स्पष्ट लिखा है कि, 'तारौं अनन्तानुबंधी
मोक्षमार्ग प्रकाशक में पं. टोडरमलजी ने भी कहा के गये किछु कषायन की मन्दता तो हो है, परन्तु ऐसी मन्दता न हो है, जाकरि कोऊ चारित्र नाम पावै.............
है : 'यहाँ प्रश्न-जो असंयत सम्यग्दृष्टि के तो चारित्र नाहीं
वाकै मोक्षमार्ग भया है कि न भया है, ताका समाधानजहाँ ऐसा कषायनि का घटना होय, जाकरि श्रावक धर्म व
मोक्षमार्ग याकै हो सी, यहु तो नियम भया । तारौं उपचार तें मुनिधर्म का अंगीकार होय तहाँ ही चारित्र नाम पावै है....
याकै मोक्षमार्ग भया भी कहिये। परमार्थ तैं सम्यकचारित्र मिथ्यात्वादि असंयत पर्यन्त गुणस्थाननि विषै असंयम नाम
भये ही मोक्षमार्ग हो है...... तैसे असंयत सम्यग्दृष्टि के वीतराग पावै है।'
भाव रूप मोक्षमार्ग का श्रद्धान भया, तातै बाको उपचारतें यदि चतुर्थगुणस्थान में चारित्र का अंश माना जाये, तो | मोक्षमार्गी कहिए, परमार्थ तें वीतराग भावरूप परिणमे ही वहाँ चारित्र की अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव होना चाहिए । |
मोक्षमार्ग हो सी।' परन्तु श्री षट्खंडागम में स्पष्ट कहा है-'असंजद सम्माइट्ठित्ति
उपरोक्त प्रमाणों के अनुसार अविरत सम्यग्दृष्टि को को भावो उवसमिओ वा खइयो वा खओवसमिओ वा भावो॥
सम्यक्चारित्र हुआ नहीं कहा जा सकता । अत: वह मोक्षमार्गी 5॥ओदइएण भावेण पुणो असंजदो॥6॥'
भी नहीं है। ___ अर्थ : असंयत सम्यग्दृष्टि के कौन-सा भाव है ?
प्रश्नकर्ता : डॉ. ए. के. जैन सागर औपशमिक भाव भी है, क्षायिक भाव भी है और क्षायोपशमिक भाव भी है ॥ 5 ॥ असंयत सम्यग्दृष्टि का असंयत भाव
जिज्ञासा : अलोकाकाश में काल द्रव्य नहीं होता, औदयिक है। 6॥
फिर वहाँ परिणमन होता है या नहीं? यह भी बतायें कि
कालद्रव्य में, स्वयं में परिणमन कैसे होता है ? राजवार्तिक 1/1 में इस प्रकार कहा है,-'सम्यग्दर्शनस्य सम्यग्ज्ञानस्य वा अन्यतरस्यात्मलाभे चारित्रमुत्तरं। भजनीयं
समाधान : उपरोक्त विषय पर वृहदद्रव्य संग्रह गाथा18 सितम्बर 2005 जिनभाषित
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22 की टीका में इसतरह कहा है, लोकबहिर्भागेकालाणु- | कारण स्वयं काल ही है। द्रव्याभावात्कथमाकाशद्रव्यस्य परिणतिरिति चेत् ? अखण्ड
वृहद द्रव्यसंग्रह गाथा-22 की टीका में इसप्रकार द्रव्यत्वादेकदेशदण्डाहत कुम्भकारचक्रभ्रमणवत्, तथैवेकेदेश
कहा है, 'जिसप्रकार आकाशद्रव्य अन्य सब द्रव्यों का आधार मनोहरस्पर्शनेन्द्रियविषयानुभवसर्वाङ्गसुखवत, लोकमध्यस्थित | है और अपना भी आधार है, इसीप्रकार कालद्रव्य भी अन्य * कालाणुद्रव्यधारणैक देशेनापि सर्वत्र परिणमनं भवतीति।'
द्रव्यों के परिणमन में सहकारी कारण है और अपने परिणमन अर्थ : लोकाकाश के बाह्य भाग में कालाणुद्रव्य | में भी सहकारी कारण है। का अभाव होने से आकाश-द्रव्य का परिणमन (अलोकाकाश
जिज्ञासा : अशुभ तैजस का पुतला लौटकर आने में) किस प्रकार होता है ?
पर उस मुनि को भी भस्म करता है या नहीं? आकाश अखंड द्रव्य होने से, जिस प्रकार कुम्हार
समाधान : उपरोक्त विषय पर आचार्यों के दो मत के चाक के एक भाग में लकड़ी से प्रेरणा करने पर पूरा |
| उपलब्ध होते हैं। चाक भ्रमण करता है, तथा स्पर्शेन्द्रिय के विषय का एक
1. स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा 176 की टीका भाग में मनोहर अनुभव करने से समस्त शरीर में सुख का
में इसप्रकार कहा है, स्वस्य मनोऽनिष्टजनकं किंचित्कारणान्तर अनुभव होता है, उसीप्रकार लोकाकाश में रहे हुए
मवलोक्य समुत्पन्न क्रोधस्य संयमनिधानस्य........विरूद्धं वस्तु कालाणुद्रव्य के, एक भाग में स्थित होने पर भी, सम्पूर्ण
भस्मसात्कृत्य तेनैव संयमिना सह च भस्मं व्रजति, द्वीपायनवत्। आकाश में परिणमन होता है।
अर्थ : अपने मन को अनिष्ट उत्पन्न करने वाले किसी अन्य पंचास्तिकाय गाथा-24 की टीका में भी इसप्रकार
कारण को देखकर जिनको क्रोध उत्पन्न हुआ है ऐसे संयम कहा गया है :
के निधान मुनि के शरीर से निकला हुआ अशुभ तैजस का प्रश्न : लोक के बाहरी भाग में कालाणु द्रव्य के | पुतला, विरुद्ध वस्तु को भस्मसात करके उन्ही मुनि के साथ अभाव में आलोकाकाश में परिणमन कैसे होता है ? भस्म हो जाता है अर्थात् उन मुनि को भी भस्म कर देता है उत्तर - जिसप्रकार बहुत बड़े बाँस का एक भाग
और स्वयं भी समाप्त हो जाता है । द्वीपायन मुनि की तरह । स्पर्श करने पर सारा बाँस हिल जाता है......अथवा जैसे 2. द्रव्यसंग्रह गाथा 10 की टीका में भी बिल्कुल स्पर्शन इन्द्रिय के विषय का या रसना इन्द्रिय के विषय का इसी प्रकार कहा गया है । प्रिय अनुभव एक अंग में करने से समस्त शरीर में सुख का
परन्तु आचार्य अकलंक स्वामी ने इस संबंध में अपना अनुभव होता है, उसीप्रकार लोकाकाश में स्थित जो
अलग अभिप्राय बताया है जो इसप्रकार है : कालद्रव्य है वह आकाश के एक देश में स्थित है, तो भी
यते रूग्रचारित्रस्यातिकुद्धस्य जीवप्रदेश संयुक्तं सर्व अलोकाकाश में परिणमन होता है, क्योंकि आकाश
बहिर्निष्क्रम्य दाह्यं परिवृत्यावतिष्ठमानं निष्पावहरितफल एक अखण्ड द्रव्य है ।
परिपूर्णास्थालीमिव पचति, पक्त्वा च निवर्तते, अथ आपकी जिज्ञासा के दूसरे प्रश्न का उत्तर यह है कि चिरमवतिष्ठतेअग्निसाद्दाह्योऽर्थो भवति, तदेतन्निःसरणात्मकम्। काल द्रव्य अन्य द्रव्यों के परिणमन के साथ-साथ, अपने | अर्थ : नि:सरणात्मक तैजस उग्रचारित्रवाले अतिक्रोधी परिणमन में भी सहकारी कारण है, जैसा कि पंचास्तिकाय
यति के शरीर से निकलकर जिस पर क्रोध है उसे घेरकर गाथा-24 की टीका में कहा है, 'कालस्य किं ठहरता है और उसे शाक की तरह पका देता है। फिर परिणतिसहकारिकारणमिति । आकाशस्याकाशाधारवत् वापिस होकर यति के शरीर में समा जाता है । यदि अधिक ज्ञानादित्यरत्नप्रदीपानां स्वपरप्रकाशवच्च कालद्रव्यस्य
| देर ठहर जाये तो उसे भस्मसात कर देता है । (हिन्दी टीका परिणते : काल एव सहकारिकारणं भवति। अर्थ : काल
| पं. महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य) इस प्रमाण के अनुसार कदाचित् द्रव्य की परिणति में सहकारी कारण कौन है ?
मनि को भी भस्म कर देता है अथवा नहीं भी करता है) उत्तर : जिस प्रकार आकाश स्वयं अपना आधार है,
1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, हरीपर्वत, तथा जिसप्रकार ज्ञान, सूर्य, रत्न वा दीपक आदि स्वपर
आगरा-282 002 प्रकाशक हैं, उसीप्रकार कालद्रव्य की परिणति में सहकारी
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बालवार्ता
अहं का विसर्जन
डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती'
एक बार एक व्यक्ति ने पर्वत के समीप पहुँचकर | पर्वत के इस कथन को सुनकर वह व्यक्ति बोलादेखा कि वह छोटा दिखाई दे रहा है और पर्वत ऊँचा। आज | 'संसार में जिसे भी ऊँचाई मिलती है, वह इसी तरह किसीतक वह यही समझता था कि ऊँचाई में, उससे बड़ा और | न-किसी के सहारे से ही तो मिलती है। तुम भी तो इसी कोई नहीं है। उसका कद भी औसत आदमियों से कुछ | तरह ऊँचे बने हो।' अधिक ही था, लगभग सात फुट। अतः अभिमान कुछ | यह सुन पर्वत बोला- 'नहीं, ऐसा नहीं है। मैंने अपनी अधिक ही था। लोकोक्ति है कि, जब ऊँट पहाड़ के नीचे | ऊँचाई पाने के लिए किसी की छाती को रौंदा नहीं है, किसी आता है, तभी उसे अपनी निम्नता का भान होता है। इस | को पद-दलित नहीं किया है, बल्कि कण-कण मिट्टी व्यक्ति के साथ भी यही हुआ।
जोड़कर हवा, पानी की मार सहते हुए यह ऊँचाई पायी है। उस व्यक्ति ने निश्चय किया कि वह पर्वत से ऊँचा | लाखों वर्षों की साधना और तपस्या का परिणाम है, मेरी यह होकर दिखायेगा। उसने कमर कस ली और पर्वत को | ऊँचाई । तम्हें भी यह ऊँचाई अपने सत्कर्मों एवं स्वावलम्बन पददलित करते हुए अभिमान सहित चढ़ना प्रारम्भ किया। से पाना चाहिए।' मन में उत्साह और विजेता बनने की चाह लिए, वह पर्वत उस व्यक्ति को पर्वत की बातों से लगा कि जैसे पर चढ़ता ही गया और उसने देखा कि वह क्षण आ गया है, | किसी ने उसे उच्चता के रहस्यों से परिचित करा दिया हो। जब वह पर्वत को अपने पैरों के नीचे दबाये, उसके उच्चतम | उसे पर्वत की ऊँचाई के कारणों का ही भान नहीं हआ, शिखर पर खड़ा है। उसे लगा कि अब वह किसी से छोटा | अपितु अपनी उच्चता के लिए मार्ग भी सूझ गया। वह अपने नहीं है। सबसे बड़ा हो गया है। वह गर्व से फुला नहीं | स्थान पर झका और हाथ जोडकर पर्वत को नमस्कार कर समाया। विजेता का भाव उसके मन में ही नहीं, चेहरे पर भी | बोला- 'मुझे क्षमा करना भाई, मैंने तुम्हारा अपमान किया। स्पष्ट झलक रहा था।
वास्तविक ऊँचाई किसी को पद-दलित करके नहीं अपित् उसने पर्वत से कहा - 'देखो पर्वत! तुम पददलित | साधना की सफलता और सत्कर्मों से मिलती है। आज मैं हो गये हो। मैं तुमसे भी ऊँचा हो गया हूँ।'
यह अच्छी तरह जान गया हूँ।' उस व्यक्ति के इसप्रकार दंभपूर्ण वचन सुनकर पर्वत | पर्वत ने यह सुनकर कहा- 'हे मानव! अब तुम छोटे जोर से हँसा और बोला कि- 'तुम मुझसे ऊँचे कहाँ हुए हो? | नहीं हो, बल्कि तुमने वास्तविक रूप से मुझसे भी अधिक जिस ऊँचाई पर तुम इतना घमण्ड कर रहे हो, यह ऊँचाई तो ऊँचाई को पा लिया है, क्योंकि तुमने अपने अहंकार का तुमने मेरे कन्धों पर खड़े होकर प्राप्त की है। यदि मैं अपने | विसर्जन कर झुकना सीख लिया है। वास्तव में अहं का कन्धे हटा लूँ तो तुम एक क्षण भी इस ऊँचाई पर ठहर नहीं | विसर्जन ही सबसे बड़ी उच्चता है।' सकोगे।'
एल-६५, न्यू इन्दिरा नगर, बुरहानपुर (म.प्र.)
वीर देशना जिनका चित्त केवल धर्म में ही आसक्त रहता है, ऐसे योगीजन को भी भव्य जीवों से अनुराग हुआ करता है। Even yogis, whose mind is always intent upon dharma, have affection for the souls capable of attaining liberation (bhavya souls). धर्म दुःखरूपी लकड़ियों को भस्म करने के लिए अग्नि के समान है। Dharma is the fire that reduces the firewood of misery into cinders. विद्वान् जन स्वयं ही धर्म कार्य में प्रवृत्त हुआ करते हैं। The wise, on their own volition, take to the auspicious activity.
मुनिश्री अजितसागर जी
20 सितम्बर 2005 जिनभाषित
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समाचार
जन्मभूमि हजारीबाग में जैनसंत श्री प्रमाणसागर जी महाराज
प्राचार्य पं. निहालचन्द जैन
संत लाड़ले लाल को कहीं पथ के कंकड़ न चुभ जायें । शहर भर में लगे लाउडस्पीकरों से वंदन/ अभिनन्दन गीतों के स्वरों से पूरा आकाश क्षितिज गुंजायमान हो रहा था । हजारीबाग में रामनवमी का महोत्सव पूरे बिहार और झारखण्ड में अपने ढंग का एक विशिष्ट उत्सव होता है। लोगों को यह रोमांचित कर गया कि रामनवमी जैसा यह जलूस १२ फरवरी को सादृश्य हो रहा है। सारा शहर दुल्हन की भाँति सजा हुआ था। डेढ़ सौ स्वागत द्वार और उन पर झूमते तोरण
वंदनवार सभी समुदायों के अभूतपूर्व उमंग और उत्साह की झांकी प्रस्तुत कर रहे थे ।
चातुर्मास स्थापन पृष्ठभूमि :
'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी' इस सूत्र को साकार कर दिया हजारीबाग की माटी ने, जहाँ आज से ३७ वर्ष पूर्व एक बालक नवीन को जन्म दिया था, जननी सोहनीदेवी ने। आज जननी और जन्मभूमि दोनों बाग-बाग हैं, उस सपूत को संत के रूप में अपने गृहनगर में प्रवेश करते हुए। साधु-यानी जिसने अपने जीवन को साध लिया है। जिसने इन्द्रिय-विषय भोग के पथ से परे होकर योग और आत्म-साधना के पथ को स्वीकार कर, काम
की कामना और रसना के स्वाद को जीतकर
निर्ग्रन्थ साधु का स्वरूप आत्मसात कर लिया है। वह जैन संत हैं मुनि श्री १०८ प्रमाणसागर जी,
जो मध्यप्रदेश के सतना
से सिद्ध क्षेत्र श्री
सम्मेदशिखर मधुवन
की ओर अपनी अविराम पद यात्रा करते हुए १२ फरवरी २००५ को पदार्पण किया। वैराग्य पथ पर निकलने के ठीक २२ वर्ष पश्चात् यह सुयोग हजारीबाग को प्राप्त हुआ। माँ की ममता और जन्मभूमि के वात्सल्य ने तृषित नेत्रों से इस लाड़ले सपूत युवा तपस्वी का ऐसा अभिनन्दन किया कि झारखण्ड के लिए एक इतिहास बन गया।
स्वागत में पलक पावड़े बिछाये नगरवासी ४ कि.मी. लम्बे पथ पर कतारबद्ध खड़े जय जय घोष कर रहे थे। जैसे महात्मा बुद्ध पुनः शुद्धोधन के राजमहल की ओर प्रत्यावर्त्तन कर रहे हों। लगभग २० हजार के जनमानस ने नाच-नाच * कर इस नगर में उत्सव और उमंग का जो माहौल निर्मित कर दिया था, वह नजारा बस देखने लायक था । रातभर नगर के राजपथ को अग्रवाल युवा मंच के नवयुवकों ने स्वयं झाडू लगाकर इसे घर आंगन की तरह साफ कर दिया ताकि
पूज्य मुनिश्री ने अपना प्रथम उद्बोधन और प्रवचन उसी शिक्षा संस्थाहिन्दू उच्च विद्यालय के प्रांगण में किया, जहाँ आपने लौकिक शिक्षा ग्रहण की थी। वह शिक्षा संस्थान भी
| आज अपने ऐसे सृजित संत सपूत को देखकर कितनी आत्म विव्हल हो रही है। दसहजार प्रबुद्ध श्रोताओं, शिक्षकों, सहपाठियों और बचपन के सैकड़ों मित्रों ने न केवल आपके मंगल प्रवचन का रसास्वादन लिया बल्कि यह गुहार भी की कि २००५ का अगला चातुर्मास गृहनगर हजारीबाग में ही हो। क्योंकि चार दिन के प्रवास से अन्तर्मन की प्यास कैसे तृप्त हो सकती थी । मुनिश्री यहाँ कम से कम चार माह का वर्षायोग स्थापन करें, बस यही नारा चारों ओर से उद्घोषित हो रहा था ।
श्रद्धा और आस्था की ताकत बहुत बड़ी होती है । चार दिन बाद तो मुनिश्री पावन सिद्धभूमि श्री सम्मेदाचल की ओर बढ़ गये। लेकिन हजारीबाग की जैन समाज और नगरवासियों की प्यास को वे द्विगुणित कर गये । मुनिश्री मधुवन- सम्मेदशिखर और राँची के प्रवास में निरन्तर लोगों
• सितम्बर 2005 जिनभाषित 21
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के समूह के समूह सम्पर्क में आते रहे और वर्षायोग स्थापना | . अगस्त २००५ के प्रथम पखवाड़े में पूज्य मुनिश्री की की प्रार्थना को बड़े आत्मविश्वास के साथ करते रहे। आखिर | विशेष प्रवचन माला सुनने का सौभाग्य इन पंक्तियों के मुनिश्री के मौन ने, इस प्रार्थना को इनके पारस-गुरु | लेखक को मिला और हजारीबाग में पाँच दिन रहकर, पूज्य संतशिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज तक पहुंचाई। मुनिश्री के गृहस्थावस्था की माता श्रीमति सोहनीदेवी पिता हजारीबाग की भावनाओं का समुन्दर हिलोरे लेता हुआ जब | श्री सुरेन्द्रकुमार सेठी और अन्य परिवारजनों से भेंट कर आचार्यश्री तक पहुँचा तो उनकी मस्कान और आशीर्वाद ने | उसी पावन गहरज को मस्तक पर लगाने का सौ लोगों की अभिलाषा को एक बड़ा सम्बल प्रदान किया। | हुआ, जिसमें पूज्य मुनिश्री जन्मे और बड़े हुए थे। आपके राँची की महावीर जयन्ती और श्रीमद् जिनेन्द्रपंचकल्याणक | चचेरे भाई श्री सुनीलजैन एवं ताईजी श्रीमति विमला जैन महोत्सव की धार्मिक धूमधाम के बाद जब आचार्यश्री का | जिन्हें आप माई कहकर पुकारते थे, लगभग एक घंटे तक हजारीबाग में वर्षायोग करने की अनुमति और आशीर्वाद | साक्षात्कार करके उनकी मनोगत भावनाओं से रूबरू हुए। मिला तो लोगों के हर्षातिरेक का ठिकाना नहीं रहा और मुनि | उस साक्षात्कार से यह बात सामने आई कि बालक नवीन श्री प्रमाणसागर जी का मौन मुखरित हो गया जब उन्होंने | के जीवन में एक अप्रत्याशित परिवर्तन घटित हआ। अध्यात्म हजारीबाग में चातुर्मास करने की उद्घोषणा कर दी। फिर | और धर्म का क,ख,ग' न जानने वाला नवीन, परमपूज्य के क्या था, आनन-फानन में शहर के वरिष्ठ गणमान्य नागरिकों | पारस प्रभाव से उनकी सुषुप्त आत्मा ऐसे जाग गई जैसे कोई ने एक 'चातुर्मास धर्म-प्रभावना' समिति का गठन किया। नींद से जाग जाता है। यह क्रांतिकारी परिवर्तन उनके नानाजी जिसमें हिन्दू समाज के २१ सम्माननीय सदस्यों ने अपनी | के नगर दुर्ग में हुआ। जहाँ आचार्यश्री विराजमान थे। और धर्म-सहिष्णता और मनिश्री के ज्ञान और चारित्र की तेजस्विता | उनकी कपा और आशीर्वाद का ऐसा प्रसाद मिला कि आज को पूर्ण गरिमा के साथ नगर में यशोविजय बनाने के लिए | एक विश्रुत दिगम्बर संत के रूप में उनकी तेजस्विता प्रगट संकल्प लिया। इस सम्पूर्ण चातुर्मास को यादगार बनाने के | हो रही है। मुनिश्री के बहुत सारे बालमित्रों, सहपाठियों और लिए संयोजक श्री बृजमोहन केशरी और सह-संयोजक श्री | शिक्षकों से भी साक्षात्कार किया। और उनकी गहरी भक्ति बनवारीलाल अग्रवाल ने अपने संकल्प को दुहराया। दिगम्बर और भावनाओं से अवगत होकर। यह सोचने के लिए बाध्य जैन समाज के तत्त्वावधान में भी एक 'मुनि श्री प्रमाणसागर | कर दिया कि मुनिश्री में ऐसा क्या सम्मोहन है, जो प्रात: ५ जी चातुर्मास समिति' का गठन पृथक से हुआ। जिसके | बजे से रात्रि १० बजे तक, श्रद्धालुओं और भक्तों का जमाव संयोजक श्री राजकुमार अजमेरा, अध्यक्ष श्री प्रताप छाबड़ा, कम होता दिखाई नहीं देता। आत्मीय स्पर्श की एक महक मंत्री श्री भागचन्द लोहाड़िया और समन्वयक श्री सी.एम. | सम्पूर्ण वातावरण में विखरती हुई दिखाई दी। रात्रि को वैयावृत्ति पाटनी और स्वरूपचन्द सोगानी आदि ने सर्वसम्मति से | में ३ वर्ष के बालक से लेकर ७५ वर्ष के वृद्धजन चरणस्पर्श चातुर्मास की अवधि में मुनिश्री के सानिध्य में विविध धार्मिक | करते हुए देखे गये। प्रतिदिन की प्रात:कालीन प्रवचन में आयोजनों को सम्पन्न करने का निश्चय किया।
और रविवारीय दोपहर के प्रवचन में जैन समाज के विगत चार वर्ष से नगर का प्राचीन श्री दिगम्बर जैन
आवालवृद्ध और जैनेतर समाज के गणमान्य व्यक्तियों का पार्श्वनाथ मंदिरजी का शताब्दी समारोह इसी आशा से टाला
अपार जनसमूह, मुनिश्री की लोकप्रियता का एक मीठा जा रहा था कि जैनसमाज हजारीबाग इस महोत्सव को पूज्य
संस्मरण बन गया है। जीवन के नैतिक गुणों और मानवीय मुनिश्री के सान्निध्य में ही आयोजित करना चाहते थे, जो
मूल्यों पर केन्द्रित आपके प्रवचन की वाग्धारा से कौन भींग आगामी अक्टूबर माह में सम्पन्न होने जा रहा है। इसी के नही जाता? संत का यही आकर्षण नगर में चर्चा का विषय साथ अन्य धार्मिक आयोजन- जैन युवा सम्मेलन, श्रावक
बना हुआ है। अभी तो चातुर्मास का मंगलाचरण है। देखिए, संस्कार शिविर, श्री भक्तामर स्तोत्र अनुशीलन राष्ट्रीय
आगे क्या-क्या होता है। और हजारीबाग को यहीं का लाड़ला " विद्वत्संगोष्ठी आदि आगामी माहों में सम्पन्न होने जा रहे हैं। सपूत र
सपूत क्या-क्या सौगातें दे जाता है। जो चातुर्मास के आध्यात्मिक और धार्मिक तानेबाने को एक
जवाहर बार्ड, बीना (म.प्र.) मूर्तरूप देंगे। 22 सितम्बर 2005 जिनभाषित -
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श्री अजितप्रसादजी जैन का निधन | आचार्यश्री विद्यासागर जी का दीक्षा दिवस सम्पन्न जैन समाज के एक मूर्धन्य विद्वान, निर्भीक पत्रकार | प.पू. निर्ग्रन्थाचार्यवर्य जिनशासन युगप्रणेता, अध्यात्म और वयोवृद्ध समाजसेवी श्री अजितप्रसाद जैन का दिनांक | सरोवर के राजहंस, आचार्य विद्यासागरजी महाराज का 38वाँ 25 जून 2005 ई. को लखनऊ में देहावसान हो गया । वह | दीक्षा दिवस समारोह उनकी परम शिष्या प.पू. आर्यिकारत्न विगत डेढ वर्ष से गम्भीर रूप से अस्वस्थ चल रहे थे और | मृदुमति माताजी, आर्यिकाश्री निर्णयमति माताजी एवं पिछले छह मास से तो उनका स्वास्थ्य उत्तरोत्तर शिथिल | आर्यिकाश्री प्रसन्नमति माताजी, बा. ब्र. पुष्पा दीदी एवं बा.ब्र. होता जा रहा था । तथापि वह अपने दृढ़ मनोबल से अपना | सुनीता दीदी के सान्निध्य में भोपाल की हृदयस्थली चौक चिन्तन लेखन अन्त तक करते रहे और आसन्न मृत्यु से तीन | जैन धर्मशाला में हजारों लोगों की उपस्थिति में हर्षोल्लास से दिन पूर्व उन्होंने अपना अन्तिम लेख लिखाया । 26 जून को | मनाया गया । उनका पार्थिव शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया ।
इस अवसर पर प.पू. आर्यिकारत्न मृदुमति माताजी रमाकांत जैन, चारबाग, लखनऊ-226004 | ने आचार्यश्री जी के जीवन पर प्रकाश डालते हुए कहा कि,
'जिसने आचार्यश्री को देख लिया, समझ लिया, उसने द्वादशांग
का सार समझ लिया । आज तक ऐसे दुर्लभ व्यक्तित्त्व के पूरे भारत वर्ष से यांत्रिक कत्लखानों को बन्द करवाने
| दर्शन नहीं हुये । आचार्यश्री एक ऐसे गुरु हैं जिनने आगम हेतु व्यापक योजना
| को सामने रखकर अपनी जीवन चर्या बनायी । आज के कृपया नए खुलने वाले यांत्रिक कत्लखानों की सम्पूर्ण
विषम समय में जब लोग श्रमण परम्परा नकारने लगे थे, तब जानकारी हमें उपलब्ध करावें या हमसे सम्पर्क करें।
| आचार्यश्री ने एक ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया। __ अमरावती (महाराष्ट्र) में नगर पालिका द्वारा नव- |
आचार्यश्री की जीवनचर्या को देखकर लोग कल्याण निर्मित यांत्रिक कत्लखाने को प्रबल जन सहयोग एवं जन
के मार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं, लोगों का जीवन धन्य हो रहा आन्दोलन के माध्यम से ऐतिहासिक विजय के साथ बंद
है। चतुर्थकाल-सा वातावरण निर्मित हो रहा है।' करवाने में सफलता हासिल करने के पश्चात, महात्मा गाँधी
आर्यिकाश्री निर्णयमति माताजी ने कहा कि 'आचार्यश्री ..आश्रम, सेवाग्राम वर्धा में विगत दिनों सम्पन्न तीन दिवसीय
का वर्णन तो पूरे विश्व के लोग करें तो भी संभव नहीं है। प्रथम अखिल भारतीय अहिंसा अमृतमंथन सम्मेलन में
इतने महान् व्यक्तित्व के धनी हैं आचार्यश्री जी।' यांत्रिक कत्लखानों को सम्पूर्ण देश में पूर्ण रूप से बंद
आर्यिकाश्री प्रसन्नमति माताजी ने कहा कि 'आचार्यश्री करवाने तथा माँस-निर्यात व्यापार को बंद करवाने का संकल्प
जी की जीवनचर्या देखकर सारी जिनवाणी पढी जा सकती लिया गया है। वर्तमान में सरकार द्वारा प्रायः हर प्रांत अथवा जिले
नरेन्द्र कुमार जैन वन्दना' में पूर्ण गोपनीय तरीके से यांत्रिक कत्लखानों को खोलने की योजनाएँ निर्माणाधीन हैं । ऐसी योजना की जानकारी जनसाधारण को प्रायः काफी विलम्ब से लगपाती है। "श्रमण ज्ञान भारती" में योग शिविर सानन्द सम्पन्न सम्पूर्ण देश के अहिंसाप्रेमी संगठन/व्यक्तियों से हमारा
श्री 1008 जम्बू स्वामी दि. जैन सिद्धक्षेत्र चौरासी विनम्र अनुरोध है कि यदि कहीं भी आसपास यांत्रिक | मथरा में स्थापित श्रमण ज्ञान भारती संस्थान में दि. 18 जलाई कत्लखाना खुलने की आपको जानकारी है, तो कृपया अधिक | से 22 जुलाई तक छतरपुर से पधारे पं. श्री फुलचन्द जी से अधिक तथ्य इकट्ठे करने का प्रयास करें तथा यथासंभव | योगाचार्य के सान्निध्य में योग शिविर का आयोजन किया प्रमाण एवं पेपर कटिंग्स के साथ एवं अपने पूरे नाम, पता, | गया. जिसमें 55 विद्यार्थियों को योगासन, प्राणायाम और फोन, मोबाईल नम्बर के साथ हमें शीघ्र सचित करें शीघ्र
| शुद्धि-क्रियाओं का अभ्यास कराया गया। जिससे विद्यार्थियों सम्पर्क करें ।
को अनेक लाभ हुए एवं योग से जीवन को संयमित करने डॉ. चिरंजीलाल बगड़ा,
का मार्ग-दर्शन प्राप्त हुआ। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में योग की ४६ स्ट्राण्ड रोड, तीसरा तल्ला, कोलकाता-७००००७
महत्वता पर योगाचार्य जी द्वारा प्रकाश डाला गया ।
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गणिनी आर्यिका १०५ श्री स्याद्वादमती माताजी का | अखण्ड भक्तामर पाठ रखा गया। चातुर्मास कर रहे परमपूज्य मदनगंज-किशनगढ़ में चातुर्मास
आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के शिष्य ऐलक श्री दयासागर गणिनी आर्यिका 105 श्री स्याद्वादमती माताजी का | महाराज के परम सान्निध्य में भक्तामर व्रत का उद्यापन चातुर्मास, मदनगंज-किशनगढ़ जैन समाज के लिए अति | सम्पन्न हुआ। प्रसन्नता एवं उल्लास भरा था । जब गणिनी आर्यिका 105
श्रीमति विधि जैन स्यादवाद्मती माताजी संघ सहित पाटनी फार्म से प्रातः 7.00
श्री दिगम्बर जैन बडा मंदिर करेली ( नरसिंहपुर) बजे रवाना होकर आदिनाथ कॉलोनी स्थित आदिनाथ शोधकर्ताओं का भावभीना सम्मान जिनालय, श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनालय, श्री चन्द्रप्रभ जिनालय ___ श्री दिगम्बर जैन समाज बबीना द्वारा 'मैत्री समूह' के के दर्शन करते हुए भव्य समारोह पूर्वक श्री आदिनाथ मंदिर | सहयोग से आचार्यश्री विद्यासागरजी के शिष्य मुनि श्री दर्शनार्थ पहुंची। दर्शन पश्चात् श्री आदिनाथ भवन में धर्मसभा | क्षमासागर जी एवं मुनिश्री भव्यसागर जी के सान्निध्य में का आयोजन किया गया । किशनगढ़ आगमन पर माताजी 'श्रुत पंचमी पर्व' 11 एवं 12 जून 2005 को विद्वानों के व संघ का गणमान्य नागरिकों सहित हजारों नर नारियों ने | गरिमामयी सम्मान के साथ मनाया गया । इस प्रसंग पर . भावभीना स्वागत किया ।
मुनिद्वय के मंगल प्रवचनों का लाभ सभी ने लिया । माताजी के प्रवचन प्रतिदिन प्रात: 8:00 बजे से श्री श्रुत पंचमी पर 12 जून को विद्वत् सम्मान समारोह में आदिनाथ भवन में हो रहे हैं और सभी नर-नारी धर्म लाभ | पधारे विद्वानों ने समन्वित रूप से आचार्य श्री विद्यासागर ले रहे हैं ।
जी के चित्र के समक्ष दीप प्रज्ज्वलित कर आयोजन प्रारम्भ पारसमल बाकलीवाल किया। सुश्री सृष्टि व अनुजा ने मधुर मंगलाचरण प्रस्तुत महामंत्री, पूज्य गणिनी 105 आर्यिका किया । कार्यक्रम में प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जैन फिरोजाबाद स्याद्वादमती चार्तुमास समिति,
द्वारा रचित 'सामाजिक एकता के चार सूत्र' का विमोचन श्री मदनगंज-किशनगढ़
एन.एल. बैनाड़ा ने किया। पं. शीतलचंद्र जैन जयपुर द्वारा हजारीबाग में धर्म प्रभावना एवं
रचित आचार्य श्री ज्ञानसागर एवं आचार्य श्री विद्यासागर जी श्री दिगम्बर जैन मन्दिर का शताब्दी समारोह के व्यक्तित्व एवं कृतित्व विषयक शोध संदर्शिका का विमोचन
संत शिरोमणी आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज | पं. नरेन्द्रप्रकाश जैन ने किया । सम्मान का सिलसिला पं. के परम प्रभावक शिष्य हजारीबाग नगरी के गौरव राष्ट्रसंत | नरेन्द्रप्रकाश जैन तथा पं. शीतलचंद जैन के आत्मीय व मुनि 108 श्री प्रमाणसागर जी महाराज का ससंघ हजारीबाग | भावभीने सम्मान से हुआ। इसी क्रम में पूज्य आचार्यद्वय के में विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों के साथ चातुर्मास हो रहा है । व्यक्तित्व तथा कृतित्व पर शोध करने एवं करानेवाले विद्वानों इस अवधि में स्थान-स्थान पर प्रवचन श्रृंखलाएँ आयोजित | श्रीमती डॉ. लक्ष्मी शर्मा जयपुर, डॉ. मालती जैन मैनपुरी, की जा रही हैं, जिससे जन-जन में धर्म प्रभावना हो रही है । | डॉ. मोनिका वार्ष्णेय बरेली, डॉ. रामअवतार शर्मा व डॉ.
चातुर्मास की अवधि में दि. 6 अक्टूबर से 14 अक्टूबर | कैलाशचंद शर्मा जयपुर एवं डॉ. श्रीमती मीना जैन छतरपुर तक श्री दिगम्बर जैन मन्दिर, बड़ा बाजार, का शताब्दी समारोह | का आत्मीय सम्मान श्री पी.एल. बैनाडा आगरा सहित मैत्री विभिन्न धार्मिक आयोजनों के साथ मनाया जाएगा । इस | समह, बबीना की दिगम्बर जैन समाज, दिगम्बर जैन महिला अवधि में कल्पद्रम महामण्डल विधान एवं विश्व शान्ति | मंडल व जिनवाणी दिगम्बर जैन पाठशाला के बच्चों ने महायज्ञ, युवा सम्मेलन, अहिंसा शाकाहार रैली, गजरथ | तिलक, शाल, श्रीफल, प्रतीकचिन्ह एवं अनेक आकर्षक महोत्सव भी आयोजित होंगे।
उपहार आदि भेंट कर सम्मानित किया । इस अवसर पर समस्त साधर्मी जन सविनय आमन्त्रित हैं। पूज्य मुनिद्वय ने अपने आशीर्वचन में. जीवन में धर्म को
राजकुमार जैन अजमेरा, | धारण कर सच्चा मनुष्य बनने का आव्हान किया । जैन मुख्य संयोजक, चातुर्मास समिति | | मंदिर स्थित आचार्य ज्ञानसागर ग्रंथालय का उद्घाटन पं.
नरेन्द्रप्रकाश जी ने किया एवं रात्रि में उन्होंने मंगल प्रवचन अखण्ड भक्तामर पाठ
दिए । करेली में दिनांक 27/5/2005 से 28/05/2005 तक
डॉ. सुमति प्रकाश जैन, छतरपुर 24 सितम्बर 2005 जिनभाषित
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'औषधि और प्रसाधन सामग्री (संशोधन) विधेयक, २००५ ' के संबंध में पत्र
साधर्मी भाइयों से निवेदन है कि अपने-अपने क्षेत्र के सांसदों से मिलकर, सांसदों के द्वारा स्थायी समिति, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के अध्यक्ष को निम्न पत्र भिजवाएँ, ताकि 'औषधि और प्रसाधन सामग्री (संशोधन) विधेयक, २००५' के संबंध में पत्र में लिखे सुझावों को क्रियान्वित करवाया जा सके।
प्रति,
माननीय श्री अमरसिंह जी, सांसद
राज्य सभा सदस्य, उत्तरप्रदेश
अध्यक्ष- स्थायी समिति, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय
द्वारा श्री मोमराज सिंह, अवर सचिव, राज्यसभा सचिवालय,
कमरा नं. ५३९, संसदीय सौध, नई दिल्ली- ११०००१,
फोन : ०११-२३०३४०९३, फैक्स : २३०१८७०८/२३७९३६३३
विषय : ' औषधि और प्रसाधन सामग्री (संशोधन) विधेयक, २००५ ' के संबंध में सुझावों के क्रियान्वयन हेतु । महोदय,
सम्पादक
१. भारत के राजपत्र, असाधारण, भाग सेकेन्ड, खण्ड-२, दिनांक १० मई २००५ में प्रकाशित एवं केन्द्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय से संबंधित सांसद श्री अमरसिंह जी की अध्यक्षता वाली स्थायी समिति के समक्ष जाँच एवं प्रतिवेदन हेतु विल नं. LIV of 2005 'औषधि और प्रसाधन सामग्री ' (संशोधन) विधेयक, २००५' भेजा गया है। भारतीय संसद के राज्य सभा सचिवालय, नई दिल्ली में १० मई, २००५ को पुनः स्थापित और लंबित इस विधेयक में 'औषधि और प्रसाधन सामग्री अधिनियम, १९४० ' के विभिन्न उपबंधों में और संशोधन किया जाना प्रस्तावित किया गया है ।
२. देश में अपमिश्रित और नकली औषधियों के सहज प्रवाह और उनके हानिकारक परिणामों को दृष्टि में रखकर उक्त विधेयक में कुछ संशोधनों का प्रारूप तैयार किया गया है। समिति ने इस विधेयक के उपबंधों पर व्यापक परामर्श करने के उद्देश्य से उस पर सुझाव / विचार / टिप्पणियों को आमंत्रित करने हेतु राज्य सभा सचिवालय द्वारा विगत २१ जून, २००५ को दैनिक भास्कर, भोपाल, मध्यप्रदेश में विज्ञापन प्रकाशित/प्रसारित कराया था।
३. इस संबंध में उक्त विधेयक की विषय-वस्तु से संबंधित एक अन्य महत्वपूर्ण विषय को सचिवालय, संबंधित मंत्रालय एवं उसकी स्थायी समिति के समक्ष विचारार्थ प्रस्तुत किया जा रहा है, ताकि उक्त अधिनियम के उपयुक्त उपबंध/उपबंधों में भी आवश्यक संशोधन किए जाकर इसी विधेयक में इस विषय को सम्मलित किया जा सके।
४. विगत कुछ वर्षों पहले केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, नईदिल्ली के द्वारा 'खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम, १९५४' के कुछ उपबंधों में आवश्यक संशोधन / परिवर्धन किया गया था । इस विषय में विभाग द्वारा अधिसूचना जी. एस. आर. २४५ (ई), दिनांक ०४.०४.२००१ को जारी की है, जो ०४.१०.२००१ को प्रभावशील भी हो चुकी है। इस अधिसूचना में परिभाषित मांसाहार युक्त खाद्य पदार्थ के पैकेज पर मांसाहारी खाद्य पदार्थ होने की सूचना देने वाले प्रतीक चिन्ह को "भूरे रंग" से बनाया जाना अनिवार्य किया जा चुका है।
५. इसी प्रकार, जी. एस. आर. ९०८ (ई), दिनांक २०.१२.२००१ को अधिसूचना जारी की गई थी, जो २० जून, २००१ से प्रभावशील हो चुकी है। इसमें परिभाषित 'शाकाहार सामग्री युक्त' खाद्य पदार्थ के पैकेज पर 'शाकाहारी खाद्य 'पदार्थ' होने की सूचना देने वाले प्रतीक चिन्ह को "हरे रंग" से बनाया जाना अनिवार्य किया जा चुका है। उक्त दोनों अधिसूचनाओं से संबंधित विस्तृत विवरण को भारत के राजपत्र में अवलोकित किया जा सकता है।
६. भारत के संविधान की धाराओं - १९ (१) (a), २१ तथा २५ में भारत के नागरिकों को यह मौलिक अधिकार
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देकर सुरक्षा प्रदान की गई है कि वे जिन खाद्य पदार्थ, औषधि अथवा प्रसाधन सामग्रियों आदि प्रयोग कर रहे हैं, वे किन पदार्थों से निर्मित की गई हैं, यह जानने का उन्हें संविधान प्रदत्त पूर्ण अधिकार प्राप्त है।
७. संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदत्त मौलिक अधिकारों की सुरक्षा हेतु हमारा यह अनुरोध है कि "खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम, १९५४" में किए गए उपर्युक्त संशोधनों के अनुरूप ही " औषधि और प्रसाधन सामग्री अधिनियम १९४० " के उचित / संबंधित उपबंधों को भी संशोधित किया जाए।
इस हेतु जो औषधियाँ एवं प्रसाधन सामग्रियाँ मांसाहार युक्त सामग्री से निर्मित की गई हो, उन पर प्रतीक चिन्ह [C] को "भूरे रंग " से बनाया जाना अनिवार्य किया जाए। जो औषधियाँ एवं प्रसाधन सामग्रियाँ शाकाहार युक्त सामग्री से निर्मित की गई हों, उन पर प्रतीक चिन्ह "हरे रंग " से बनाया जाना अनिवार्य किया जाए। एतद् विषयक प्रावधान वर्तमान में संसद में विचाराधीन बिल नं. LIV of २००५ ' औषधि एवं प्रसाधन सामग्री' (संशोधन) विधेयक २००५ में ही और उचित / संबंधित संशोधन करके उसे विस्तारित किया जाए।
८. स्मरण रखने योग्य तथ्य यह भी है, कि दिल्ली उच्च न्यायालय, नई दिल्ली के विद्वान न्यायमूर्तिद्वय श्री अनिल देव सिंह तथा श्री मुकुल मुद्गल की पीठ ने "उजैर हुसैर / भारत सरकार एवं अन्य" संबंधी सिविल रिट पिटीशन नं. ८३७ / २००१, दिनांक १३.११.२००२ में यह निर्णीत कर दिया है कि सभी प्रकार की प्रसाधन सामग्रियों अथवा औषधियों (जीवन रक्षक औषधियों को छोड़कर) में "मांसाहार युक्त सामग्री" होने पर उसके पैकेज केऊपर
"हरे रंग " से प्रतीक चिन्ह
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'लाल रंग" से प्रतीक चिन्ह को तथा शाकाहार युक्त सामग्री होने पर उसके पैकेज पर को बनाया जाना चाहिये। यह निर्णय ए. आई. आर. २००३, दिल्ली १०३ पर मुद्रित है।
९. दिल्ली उच्च न्यायालय के उपर्युक्त निर्णय में मांसाहार युक्त सामग्री पर प्रतीक चिन्ह को "लाल रंग " से बनाया जाना निर्देशित किया है। वस्तुतः यहाँ पर भी " भूरा रंग" ही होना चाहिये था, जैसा कि जी. एस. आर. २४५ (ई) दिनांक ४.४.२००१ के मूल में " 'भूरा रंग" ही निर्दिष्ट है। इस अधिसूचना के अंतर्गत S (zzz) (१६) में इनवर्टेड कामा के भीतर स्थित प्रतीक चिन्ह तक ही मूल अंश है। किन्तु नियम ४२ के उपनियम S (zzz) क्लाज १६ के (a) में स्पष्टत: " भूरे रंग" का उल्लेख होने को भूलकर तथा प्रतीक चिन्ह के आगे कुछ भी नहीं लिखा होने पर किसी लिपिकीय असावधानी वश " लाल रंग" (Red Colour) अंग्रेजी में अतिरिक्त लिख दिया गया है। और उसी के कारण दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी मांसाहार युक्त प्रसाधान सामग्रियों अथवा औषधियों के पैकेज पर "लाल रंग " से प्रतीक चिन्ह बनाने का आदेश जारी कर दिया है। अतः इस अधिनियम को संशोधित करते समय मांसाहारी खाद्य पदार्थ के अनुरूप " भूरा रंग" ही रखा जाए ।
१०. मांसाहार युक्त या शाकाहार युक्त औषधियों अथवा प्रसाधन सामग्रियों के पैकेज पर प्रतीक चिन्ह बनाये जाने के साथ ही साथ उन चिन्हों के नीचे हिन्दी / अंग्रेजी अथवा दोनों ही भाषाओं में मांसाहार युक्त पदार्थों के नीचे मांसाहार/ Non-vegetarian-veg./अथवा शाकाहारी युक्त पदार्थों के नीचे हिन्दी या अंग्रेजी अथवा दोनों ही भाषाओं में शाकाहार Vgetarian/veg. लिखा जाना भी प्रस्तावित किया जाये। क्योंकि ब्लेक एण्ड व्हाइट काले रंग में छपे पैकेज या | विज्ञापन आदि प्रचार सामग्रियों पर दोनों ही प्रतीक चिन्ह एक जैसे दिखाई पड़ने से पाठक या उपभोक्ता भ्रमित हो जाते हैं । अतएव प्रतीक चिन्ह के नीचे हिन्दी / अंग्रेजी / दोनों ही भाषाओं आदि में (जिसे भी उपयुक्त समझा जाये) लिखा जाना भी प्रस्तावित किया जावे।
११. शाकाहार, जीवदया, पर्यावरण संरक्षण, प्राणी मैत्री, करुणा एवं परोपकार में आस्था रखने वाले देशवासियों की भावनाओं को साकार करने, दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा प्रदत्त निर्णय के परिप्रेक्ष्य में तथा भारतीय संविधान में नागरिकों को प्रदत्त मौलिक अधिकारों के संरक्षण हेतु आपसे अनुरोध है कि स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की स्थायी समिति के समक्ष लंबित बिल नं. LIV of 2005 " औषधि और प्रसाधन सामग्री (संशोधन) विधेयक, २००५ ' के वर्तमान प्रारूप में ही योग्य उपबंध संबंधी उचित संशोधन प्रस्ताव जोड़कर संसद के आगामी सत्र में ही पारित कराने हेतु त्वरित पहल करें / कराएँ ।
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इस विषय में आपके द्वारा की गई आवश्यक कार्यवाही की एक प्रति आप हमें भी उपलब्ध कराएँगे, ऐसी महती अपेक्षा है।
भवदीय
26 सितम्बर 2005 जिनभाषित
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आचार्यश्री विद्यासागरजी एवं उनके शिष्य-शिष्याओं की चातुर्मासभूमि २००५
संत शिरोमणि आचार्य १०८ श्री विद्यासागर जी | महाराज : मुनि श्री समयसागरजी महाराज, मुनिश्री योगसागर जी महाराज, मुनिश्री निर्णयसागर जी महाराज, मुनिश्री प्रसादसागर जी महाराज, मुनिश्री अभयसागर जी महाराज, मुनिश्री प्रशस्तसागर जी महाराज, मुनिश्री पुराणसागर जी महाराज, मुनिश्री प्रबोधसागर जी महाराज, मुनिश्री प्रणम्यसागर जी महाराज. मनिश्री प्रभातसागर जी महाराज, मुनि श्री चन्द्रसागर जी महाराज, मुनिश्री संभवसागर जी महाराज, मुनिश्री अभिनंदनसागर जी महाराज,मुनिश्री सुमतिसागर जी महाराज, मुनिश्री पद्मसागर जी महाराज, मुनिश्री पुष्पदंतसागर जी महाराज, मुनिश्री श्रेयांससागर जी महाराज, मुनिश्री पूज्यसागर जी महाराज, मुनिश्री विमलसागर जी महाराज, मुनिश्री अनंतसागर जी महाराज, मुनिश्री धर्मसागर जी महाराज, मुनिश्री शांतिसागर जी महाराज, मुनिश्री कुन्थुसागर जी महाराज, मुनिश्री अरहसागर जी महाराज, मुनिश्री मल्लिसागर जी महाराज, मुनिश्री सुव्रतसागर जी महाराज, मुनिश्री वीरसागर जी महाराज, मुनिश्री क्षीरसागर जी महाराज, मुनिश्री धीरसागर जी महाराज, मुनिश्री उपशमसागर जी महाराज, मुनिश्री प्रशमसागर जी महाराज, मुनिश्री आगमसागर जी महाराज, मुनिश्री महासागर जी महाराज, मुनिश्री विराटसागर जी महाराज, मुनिश्री विशालसागर जी महाराज, मुनि श्री शैलसागर जी महाराज, मुनिश्री अचलसागर जी महाराज, मुनिश्री पुनीतसागर जी महाराज, मुनिश्री अविचलसागर जी महाराज, मुनिश्री विशद्सागर जी महाराज, मुनिश्री धवलसागर जी महाराज, मुनिश्री सौम्यसागर जी महाराज, मुनिश्री अनुभवसागर जी महाराज, मुनिश्री | दुर्लभसागर जी महाराज, मुनिश्री विनम्रसागर जी महाराज, मुनिश्री अतुलसागर जी महाराज, मुनिश्री भावसागर जी महाराज, मुनिश्री आनंदसागर जी महाराज, मुनिश्री अगम्यसागर जी महाराज और मुनिश्री सहजसागर जी महाराज।
कुल : ५१ (१ आचार्यश्री जी, ५० मुनिराज तथा ब्रह्मचारीगण)। चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र बीनाबारहा, तह. देवरीकला, जि. सागर(म.प्र.) (फोन : ०७५८६-२८०००७ मो. ९४१५४५११५३) संपर्कसूत्र : संजय मैक्स (फोन : ९४२५०-५३५२१), ऋषभ मोदी (९४२५४-५११९५), महेन्द्र बजाज (९४२५४-५११५३), भाग्योदय तीर्थ सागर ०७५८२२६६२७१, २६६६७१, २६६०७१, वाहन हेतु सागर में सम्पर्क करें : डॉ. सुधीर जैन (०७५८२-२२५२०४), दिनेश जैन (९४२५१-७१५२३) बीना-बारहा क्षेत्र पटनागंज से ३८ कि.मी.। पटेरिया से ५६ कि.मी. । कुंडलपुर से १२२ कि.मी. दूर है। मुंबई से करेली अथवा नरसिंहपुर स्टेशन पर उतरकर करेली से ६३ कि.मी. तथा नरसिंहपुर से ८० कि.मी. पड़ता है। सागर स्टेशन से ६५ कि.मी. देवरी और देवरी से ८ कि.मी. बीना बारहा पड़ता है। सागर में मोराजी, वर्णी वाचनालय एवं भाग्योदय तीर्थ में आवास की व्यवस्था है। मुनिश्री नियमसागर जी महाराज : मुनिश्री उत्तमसागर जी महाराज, मुनिश्री वृषभसागर जी महाराज, मुनिश्री सुपावसागर जी महाराज ।। कुल : ४ (४ मुनिराज,ब्रह्मचारीगण) चातुर्मास स्थली : श्री शांतिनाथ दिगंबर जैन मंदिर सदलगा, जि. बेलगाँव (कर्नाटक) (फोन : ०८३३८२५१००६)
संपर्क सूत्र : भाई महावीर(फोन : २६२२४४) ___ मुनिश्री क्षमासागर जी महाराज : मुनिश्री भव्यसागर
जी महाराज(दीक्षागुरु ऐ. नेमिसागरजी) कुल : २ (२ मुनिराज, ब्रह्मचारीगण) चातर्मास स्थली: श्री पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर, दत्तपुरा, मोरेना(म.प्र.) संपर्क सूत्र : ब्र. संजय भैया (फोन : ९४२५१
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२८८१७), अध्यक्ष (फोन : २५०८०६, २२७९२३, | चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, २२३५८८)
क्षेत्रपालजी, सिविल लाइन्स, स्टेशन रोड, मोरेना नगर ग्वालियर - आगरा के मध्य रेलवे एवं ललितपुर(उ.प्र.)(फोन : ०५१६७-२७६५०८) राष्ट्रीय मार्ग से जुड़ा हुआ है। आगरा से ८० एवं संपर्क सूत्र : आनंदकुमार जैन सिमरावाले ग्वालियर से ४० कि.मी. की दूरी पर स्थित है।
(०५१७६-२७२५८७, २७५२६१, २७५२६२)' मुनिश्री गुप्तिसागरजी महाराज (उपाध्याय पद
अनिलजैन प्रेसवाले (२७३९४५) अनुराग जैन अन्नू आचार्यश्री विद्यानंदजी महाराज)
(२७३३४८) मनोजकुमार घी वाले (२७४८८५) कुल : १ मुनिराज(ब्रह्मचारीगण)
मुनिश्री प्रमाणसागर जी : क्षु. सम्यक्त्वसागर जी(गुरु चातुर्मास स्थली : श्री दिगंबर जैन मंदिर, एफ-ब्लॉक,
उपाध्याय ज्ञानसागरजी महाराज) प्रीत विहार, नई दिल्ली
कुल : २ (१ मुनि, १ क्षुल्लक) मुनिश्री सुधासागर जी महाराज : क्षुल्लक श्री चातुर्मास स्थली : श्री दिगंबर जैन मंदिर, बाडम बाजार, गंभीरसागर जी महाराज, क्षल्लक श्री धैर्यसागर जी हजारीबाग(झारखण्ड) महाराज
सम्पर्क सूत्र : प्रताप जैन छाबड़ा (०९४३११४०७३९) कुल : ३ (१ मुनिराज, २ क्षुल्लक, ब्रह्मचारीगण) राजकुमार जैन अजमेरा(०९४३११४०४४३) भागचन्द चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर, ध्यान डूंगरी,
जैन लुहाड़िया (०९८३५१३३६००) भिण्डर (राज.)(फोन : ०२९५७-२५०४२२)
१०.
मुनिश्री आर्जवसागरजी महाराज : क्षु. अर्पणसागरजी संपर्कसूत्र : शंकरलालजी (२२०२५७), भंवरलाल
(गुरु आर्जवसागर जी महाराज) पंचोली(२२००६१)
कुल : २ ( १ मुनिराज, १ क्षुल्लक, ब्रह्मचारीगण) मुनिश्री समतासागरजी महाराज : ऐ. श्री चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर, सुभाष चौक, निश्चयसागरजी महाराज
अशोकनगर(म.प्र.) ४७३३३१ कुल : २ (1 मुनिराज, १ ऐलक,ब्रह्मचारीगण) संपर्क सूत्र : रमेश चौधरी ०७५४३-२२२४१४-१५ . चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर, गोलगंज,
किरणकुमार(२२५१७४) छिंदवाड़ा (म.प्र.) ४८०००१
११. मुनिश्री पवित्रसागरजी : मुनिश्री प्रयोगसागर जी संपर्कसूत्र : प्रभातकुमार जैन (२४४८९८),अशोक कुल : २ (२ मुनि,ब्रह्मचारीगण) बाकलीवाल(२४२७२६)
चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर, बाजार मुनिश्री स्वभावसागरजी महाराज : क्षु. श्री प्रशांतसागर चौक, लखनादौन, जि. सिवनी (म.प्र.) जी (गुरु स्वभावसागर जी)
सम्पर्क सूत्र : प्रेम जैन (फोन ०७६९०-२४००५३) कुल : २ (१ मुनिराज, १ क्षुल्लक, ब्रह्मचारीगण) | १२. मुनिश्री चिन्मयसागर जी महाराज : क्षुल्लक श्री चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर, भानपुरा, सुपार्श्वसागर जी महाराज जि. मंदसौर (म.प्र.)
कुल : २ (१ मुनिराज, १ क्षुल्लक, ब्रह्मचारीगण) संपर्क सूत्र : मुकेशजी जैन (०७४२७-२३२०३६, चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर, पिपलानी, २३६५९७)
भोपाल (म.प्र.) फोन ०७५५-२७५१७७७ मुनिश्री सरलसागर जी महाराज : मुनि श्री संपर्क सूत्र : आर.सी. चौधरी (फोन : ९८२६०२४२८२ अनंतानंतसागर जी, मुनिश्री मंगलानंतसागर जी, मुनिश्री श्री नंदन जैन (२७५८४४७) समाधिसागर जी महाराज, क्षुल्लक दिव्यानंदसागर १३. मुनिश्री पावनसागर जी महाराज : जी महाराज
कुल : १ (१ मुनिराज, ब्रह्मचारीगण) कुल : ५ मुनिराज (४ मुनि, १ क्षुल्लक, ब्रह्मचारीगण) |
चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मांझ का मंदिर, 28 सितम्बर 2005 जिनभाषित -
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टीकमगढ़ (म.प्र.) बारीघाट निर्जन वन में संपर्क सूत्र : मंत्री ज्ञानचंद जैन नायक (२४२३८५), ब्र. जयकुमारजी निशांत (०७६८३-२४३१३८), (९४२५१-४१६९७), राजेन्द्र चौधरी (९४२५४७४४३१)
१४. मुनिश्री सुखसागर जी महाराज
कुल : १ (१ मुनिराज, ब्रह्मचारीगण )
चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर हलगी, ता. हलयाड़, जि. कारवाड़ (कर्नाटक)
संपर्क सूत्र: पद्मावती हगड़ी (फोन : ९८४५२ - ९५७४६ )
15. मुनिश्री मार्दवसागर जी महाराज
x
कुल : १ (१ मुनिराज, ब्रह्मचारीगण )
चातुर्मास स्थली : श्री दि. जैन मंदिर, पगारा रोड, सागर (म.प्र.)
16. मुनिश्री अपूर्वसागर जी महाराज
कुल : १ ( १ मुनिराज, ब्रह्मचारीगण ) चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर, निर्मल तीर्थ सार्वजनिक न्यास, जूनी धामनी, जिला - सांगली (महाराष्ट्र) (फोन ४१६४१६)
सम्पर्क सूत्र : सुभाष पाटिल ( ०२३३-२४२२१९३, २४२२०५२)
१७. मुनिश्री प्रशांतसागर जी महाराज : मुनिश्री निर्वेगसागर जी महाराज
कुल : २ (२मुनिराज, ब्रह्मचारीगण )
चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर, तालबेहट, जिला - ललितपुर (उ.प्र.)
संपर्क सूत्र : (फोन ०५१७५ - २३२५४७)
१८. मुनिश्री विनीतसागर जी मुनिश्री चंद्रप्रभसागरजी
कुल : २ (२ मुनिराज, ब्रह्मचारीगण )
चातुर्मास स्थली : श्री कलिकुंड पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर, सिडको, औरंगाबाद (महा.)
संपर्क सूत्र: सनतकुमार (०२४०-५६१२३४०), मीना सुधाकरराव काले (५६४४६७१)
+
१९. मुनिश्री प्रबुद्धसागर जी महाराज
कुल : १ (१ मुनिराज, ब्रह्मचारीगण )
चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर, लाड़गंज, जबलपुर (म. प्र. )
२०.
२१. मुनिश्री अक्षयसागरजी : मुनिश्री नेमीसागरजी कुल : २ (२ मुनिराज, ब्रह्मचारीगण ) चातुर्मास स्थली : श्री दिगंबर जैन मंदिर शिरगुप्पी, जिला : बेलगाँव (कर्नाटक)
मुनिश्री पायसागर जी महाराज
कुल : १ (१ मुनिराज, ब्रह्मचारीगण )
चातुर्मास स्थली : श्री दिगंबर जैन मंदिर हल्लीसी, ता. सागर, जि. चिकमंगलूर (कर्नाटक)
२२. मुनिश्री पुण्यसागरजी महाराज : मुनिश्री नमिसागर जी
महाराज
२४.
संपर्कसूत्र : धन्यकुमार लगाटे (०८३३८-२५१६२९) २३. मुनिश्री अजितसागर जी : ऐलक श्री निर्भयसागरजी कुल : २ (१ मुनिराज, १ ऐलक)
२५.
कुल : २ (२मुनि, ब्रह्मचारीगण )
चातुर्मास स्थल : श्री दिगम्बर जैन मंदिर, बोरगाँव, जि. बेलगाँव (कर्नाटक)
चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर, रेलवे स्टेशन के पास, विदिशा (म.प्र.) ४६४००१
संपर्कसूत्र : अध्यक्ष हृदयमोहन (९४२५१-४८५९६) ए.एल. फणीश (९८२७३ - २५१९० )
आर्यिका श्री गुरुमति माताजी : आर्यिका श्री उज्वलमतिजी, आर्यिका श्री चिन्तनमतिजी, आर्यिका श्री सूत्रमतिजी, आर्यिका श्री शीतलमतिजी, आर्यिका श्री सारमतिजी, आर्यिका श्री साकारमतिजी, आर्यिका श्री सौम्यमतिजी, आर्यिका श्री सूक्ष्ममतिजी, आर्यिका श्री शांतमतिजी, आर्यिका श्री सुशांतमतजी
कुल : ११ (११ आर्यिकाएं एवं बाल ब्रह्मचारिणी बहनें)
चातुर्मास स्थली : श्री दिगंबर जैन प्राचीन मंदिर, बिहारीजी वार्ड, खुरई, जि. सागर (म.प्र.) ४१७११७
सम्पर्क सूत्र : ब्र. नितिनजी (९४२५४-५२६७०, २४०९०६), जिनेन्द्र गुरहा (०७५८१ - २४०४८० ) आलोक ट्रेडर्स (२४११८०)
आर्यिका श्री दृढमतिजी : आर्यिका श्री पावनमतिजी, आर्यिका श्री साधनामतिजी, आर्यिका श्री विलक्षणामतिजी, आर्यिका श्री वैराग्यमति जी,
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आर्यिकाश्री अकलंक मतिजी, आर्यिकाश्री । दमोह (म.प्र.) निकलंकमतिजी, आर्यिकाश्री आगममतिजी,
संपर्कसूत्र : श्री सुभाष जैन (०७६०६-२५८३१२) आर्यिकाश्री स्वाध्यायमतिजी, आर्यिकाश्री
३०. आर्यिकाश्री गुणमतिजी : आर्यिकाश्री कुशलमतिजी, प्रशममतिजी, आर्यिकाश्री मुदितमतीजी, आर्यिकाश्री
आर्यिकाश्री धारणामतिजी, आर्यिकाश्री उन्नतमतिजी सहजमतिजी, आर्यिकाश्री सुनयमतिजी,आर्यिकाश्री संयममतिजी, आर्यिकाश्री सत्यार्थमतिजी, आर्यिकाश्री
कुल : ४ (४ आर्यिकाएं, बाल ब्रह्म, बहनें) सिद्धमतिजी, आर्यिकारी समुन्नतमतिजी,आर्यिकाश्री
चातुर्मास स्थल : श्री दिगंबर जैन पंचायती मंदिर, शास्त्रमतिजी
शहपुरा भिटौनी, जि. जबलपुर (म.प्र.)४८३११९ कुल : १८(१८ आर्यिकाएं एवं बाल ब्रह्मचारिणी बहनें)
संपर्क सूत्र : श्री कैलाशचन्द जी गुमास्ता(०७६२१
२३०२०७), सुशीलजी (२३०३०७) श्री नरेन्द्रजी चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर, मुंगावली, जि. गुना (म.प्र.)
(२३०५४३)
३१. सम्पर्क सूत्र : देवेन्द्र सिंघई (०७५४८-२७२०४६),
आर्यिकाश्री प्रशांतमति जी : आर्यिकाश्री विनतमतिजी,
आर्यिकाश्री शैलमतिजी, आर्यिकाश्री विशद्धमतिजी सुनील सर्राफ एडवोकेट(२७२१३०), अरविन्द सिंघई मक्कू (२७२१६५)
कुल : ४ (४ आर्यिकाएं, बाल ब्रह्म. बहनें) २६. आर्यिका श्री मृदुमतिजी : आर्यिकाश्री निर्णयमतिजी,
चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर, बरेली(उ.प्र.) आर्यिकाश्री प्रसन्नमतिजी
संपर्क सूत्र : चंदा जैन (०७४८६ - कुल : ३ (३ आर्यिकाएं, बाल ब्रह्मचारिणी बहनें)
२३०७८९,२३०५६७), डॉ. सुरेशजी(२३०२६१) चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर, बेगमगंज. | ३२. आर्यिकाश्री पूर्णमतिजी : आर्यिका श्री शुभ्रमतिजी, जिला- रायसेन (म.प्र.)
आर्यिकाश्री साधुमतिजी, आर्यिकाश्री विशदमतिजी,
आर्यिकाश्री विपुलमतिजी, आर्यिकाश्री मधुरमतिजी, संपर्कसूत्र : शिखरचंदजी (०७४८७-२७२२३९)
आर्यिकाश्री कैवल्यमतिजी, आर्यिकाश्री सतर्कमतिजी । सतीशजी (२७२३३४)
कुल : ८ (८ आर्यिकाएं,बाल ब्रह्म. बहनें) २७. आर्यिकाश्री ऋजुमतिजी : आर्यिकाश्री सरलमतिजी, आर्यिकाश्री शीलमतिजी
चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन बन्जी ठोलिया की
धर्मशाला, घी वालों का रास्ता, जौहरी बाजार, कुल : ३ (३ आर्यिकाएं, बाल ब्रह्मचारिणी बहनें)
जयपुर (राजस्थान) ३०२००३, फोन : ०१४१चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर, संगम
३८१५८६, २१८५५४ कॉलोनी, जबलपुर(म.प्र.)
संपर्क सूत्र : डॉ. शीला (फोन २५६५०७०,५६०५०६, आर्यिकाश्री तपोमति जी: आर्यिकाश्री सिद्धांतमतिजी.
५७०१७८, मो. ९८२९०-६४५०६), पारस जैन आर्यिकाश्री नम्रमतिजी, आर्यिकाश्री पुराणमतिजी,
(०१४१-२७२३३५०) आर्यिकाश्री उचितमति जी
आर्यिकाश्री अनंतमति माताजी : आर्यिकाश्री कुल : ५ (५ आर्यिकाएं, बाल ब्रह्मचारिणी बहनें)
विमलमतिजी. आर्यिकाश्री निर्मलमतिजी. आर्यिकाश्री चातुर्मास स्थली: श्री दिगम्बर जैन मंदिर, सिलवानी
शुक्लमतिजी, आर्यिकाश्री अतुलमतिजी, आर्यिकाश्री जिला-रायसेन (म.प्र.)
निर्वेगमतिजी, आर्यिकाश्री सविनयमतिजी, आर्यिकाश्री सम्पर्क सूत्र : श्री देवेन्द्र सिंघई(०७४८४-२४०६५९, समयमतिजी, आर्यिकाश्री शोधमतिजी, आर्यिकाश्री २४०३३८), मंत्री देवेन्द्र जैन (२४०५६२)
शाश्वतमतिजी, आर्यिकाश्री सुशीलमतिजी, २९. आर्यिका श्री सत्यमति जी : आर्यिकाश्री सकलमतिजी आर्यिकाश्री सुसिद्धमतिजी, आर्यिकाश्री सुधारमतिजी कुल : २(२ आर्यिकाएं, बाल ब्रह्म. बहनें)
कुल : १३(१३ आर्यिका, ब्रह्मचारिणी बहनें) चातुर्मास स्थली : श्री दिगंबर जैन मंदिर बनवार, जिला- |
चातुर्मास स्थली : श्री दिगंबर जैन मंदिर, करेली, 30 सितम्बर 2005 जिनभाषित
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जिला- नरसिंहपुर(म.प्र.)
सिंघई ०७६०१-२४२३७५ (४) ताराचंद जैन संपर्कसूत्र : डॉ. सुधीरजी(०७७९२-२३०७१५),
२४२२८६ रंगमहल ( 230201)
३७. आर्यिकाश्री उपशांतमति जी : अर्यिकाश्री ऊँकारमतिजी आर्यिकाश्री प्रभावनामति जी : आर्यिकाश्री कुल : २ (२ आर्यिकाएँ, बाल ब्रह्म. बहनें) भावनामतिजी, आर्यिकाश्री आलोकमति जी,
चातुर्मास स्थली : श्री दिगंबर जैन मंदिर बकस्वाहा आर्यिकाश्री सदयमतिजी
जिला छतरपुर (म.प्र.) कुल : ४ (४ आर्यिकाएँ, बाल ब्रह्म. बहनें)
सम्पर्क सूत्र : दिलीप मलैया (०७६०९-२५४३२३) चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर राहतगढ
आर्यिकाश्री अकंपमति जी : आर्यिकाश्री अमूल्यमति जिला- सागर (म.प्र.)
जी, आर्यिकाश्री आराध्यमति जी, आर्यिकाश्री संपर्क सूत्र : अध्यक्ष -संतोष सेठ (०७५८४- अचिन्त्यमति जी, आर्यिकाश्री अलोल्यमति जी , २५४५१७) ब्र. धीरज ( ९३००६-१४८१०) कमल आर्यिकाश्री अनमोलमति जी , आर्यिकाश्री आज्ञामति चौधरी (२५४२१७)
जी,, आर्यिकाश्री अचलमति जी, आर्यिकाश्री आर्यिकाश्री आदर्शमति जी : आर्यिकाश्री दुर्लभमति अवगमति जी जी, आर्यिकाश्री अंतर मति जी, आर्यिकाश्री कुल : ९ (९ आर्यिकाएँ, ब्रह्मचारिणी बहनें) अनुनयमतिजी, आर्यिकाश्री अनुग्रहमति जी, चातुर्मास स्थली : श्री पार्श्वनाथ दिगंबर जैन बड़ा आर्यिकाश्री अक्षयमतिजी, आर्यिकाश्री अमूर्तमतिजी, मंदिर, चौधरी मुहल्ला , गुना (म.प्र.) ४७३ ००१ आर्यिकाश्री अखंडमति जी, आर्यिकाश्री अनुपममति फोन : ०७५४२-२३००८६ जी, आर्यिकाश्री अनर्घमति जी , आर्यिकाश्री
संपर्क सूत्र : अध्यक्ष - पवनकुमार जी (०७५४२अतिशयमति जी , आर्यिकाश्री अनुभवमति जी ,
२२४९३६) मंत्री - अनिल जैन २५४०१४, अशोक आर्यिकाश्री आनंदमति जी , आर्यिकाश्री विनम्रमति
जैन ९४२५१-३१४९९, प्रदीप चौधरी ९८२७२जी , आर्यिकाश्री अधिगममति जी , आर्यिकाश्री
७७०७२ अनुगममति जी , आर्यिकाश्री अमंदमति जी ,
ऐलक दयासागर जी महाराज : आर्यिकाश्री अभेदमति जी , आर्यिकाश्री संवेगमतिजी, आर्यिकाश्री श्वेतमति जी , आर्यिकाश्री उद्योतमति
कुल : १ (१ ऐलक , ब्रह्मचारीगण)
चातुर्मास स्थली : श्री दिगंबर जैन मंदिर, करेली कुल : २१ ( २१ आर्यिकाएँ, बाल ब्रह्म. बहनें) एवं
जिला- नरसिंहपुर (मध्यप्रदेश) ८० प्रतिभामंडल की ब्रह्मचारिणी बहनें
संपर्क सूत्र : विधि जैन प्रतिनिधि (०७७९३
२७०५५५) चातुर्मास स्थली : श्री गुरु मंगलधाम, बड़े जैन मंदिर के पास, बंडा, जिला सागर (म.प्र.)
४०. ऐलक निशंकसागर जी संपर्क सूत्र : ब्र. विनय (९४२५४-५३६६७), कमल |
कुल : १ (१ ऐलक, ब्रह्मचारीगण) कुमार बिलानी (०७५८३-२५२२५०, २५२३५४)
चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर, खातीवाला ३६. आर्यिकाश्री अपूर्वमति जी : आर्यिकाश्री अनुत्तरमतिजी टैंक, इंदौर (म.प्र.) कुल : २ ( २ आर्यिकाएँ, बाल ब्रह्म. बहनें)
संपर्कसूत्र : गोटूलालजी (०७३१-२४७०२३९), चातुर्मास स्थली : श्री दिगंबर जैन धर्मशाला,शारदा
कमल अग्रवाल (९४२५०-५३५९७) विद्यापीठ के पास, संजय चौक, पथरिया जिला- | ४१. ऐलक उदारसागरजी : दमोह (म.प्र.) ४७०६६६
कुल : १ (१ ऐलक, ब्रह्मचारीगण) संपर्क सूत्र : (१) अध्यक्ष : पदमचंद फट्टा २४२२६२, चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन चौधरी मंदिर, (२) नरेन्द्र जैन करवना वाले २४२२७९ (३) ऋषभ गढ़ाकोटा, जि. सागर (म.प्र.)
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संपर्क सूत्र : उदयचंदजी (०७५८५ - २५८२३५, ९३००६-८८०८२, २५८७७५)
४२. ऐलक सिद्धांतसागरजी महाराज :
कुल : १ (१ ऐलक, ब्रह्मचारीगण )
चातुर्मास स्थली : श्री आदिनाथ दिगंबर जैन मंदिर, ब्रह्मानंद सोसायटी, मेघानी नगर, अहमदाबाद (गुजरात)
संपर्क सूत्र : कार्यालय (०७९-५५२५८३४९), छगनलालजी मंत्री (९८२५९-८६३४१)
४३. ऐलक संपूर्ण सागर जी महाराज :
कुल : १ (१ ऐलक, ब्रह्मचारीगण )
चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर, पानीपत (हरियाणा)
संपर्कसूत्र : चंद्रशेखरजी (०१८४-२२५२०२४), वीरेन्द्र जैन (९४१६२ - ७२८४१)
४४. ऐलक नम्रसागरजी महाराज :
कुल : १ (१ ऐलक, ब्रह्मचारीगण )
चातुर्मास स्थली : श्री दिगंबर जैन मंदिर, मालथौन, जि. सागर (म. प्र. )
संपर्क सूत्र: सुभाष जैन (०७५८१ - २७१२०६ ) ४५. क्षु. ध्यानसागरजी महाराज :
कुल : १ (१क्षुल्लक, ब्रह्मचारीगण )
चातुर्मास स्थली : श्री शांतिनाथ दिगंबर जैन मंदिर, महावीरनगर एरिया, हिम्मतनगर,
जि.
सांवरकांठा (गुजरात)
संपर्कसूत्र : जतिन दोशी (०२७७२-२३३५६७)
४६. क्षु. पूर्णसागर जी महाराज :
कुल : १ (१क्षुल्लक, ब्रह्मचारीगण )
चातुर्मास स्थली : श्री पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर, शिवनगर कॉलोनी, दमोह नाका,
32 सितम्बर 2005 जिनभाषित
जबलपुर (म.प्र.)४८२००२
संपर्क सूत्र : प्रवीण जैन अध्यक्ष (९८२६११५०३६), चौधरी विक्रम जैन (०७६१५०४२७४८, ५०४२७५१ )
४७. क्षु. नयसागरजी महाराज :
कुल : १ (१क्षुल्लक, ब्रह्मचारीगण )
चातुर्मास स्थली : श्री दिगंबर जैन मंदिर, महरौनी, तह. मड़ावरा, जि. ललितपुर (उ. प्र. )
संपर्क सूत्र : जिनेन्द्र जैन (०५१७२-२३०२७८, २३०२७९)
वर्तमान में आचार्य श्री विद्यासागरजी से दीक्षित शिष्य
८० मुनि महाराजजी, १०९ आर्यिका माताजी, ८ ऐलक:महाराजजी, ५ क्षुल्लक महाराजजी ।
कुल : २०२
अन्य : ४ मुनि एवं ५ क्षुल्लक
वीरदेशना
सज्जन मनुष्य पाप से उत्पन्न हुए दुःख को देखकर उस पाप का परित्याग करते हैं ।
The noble ones, having realised that evil actions breed misery, give up the latter forever. धर्म और अधर्म के फल को प्रत्यक्ष में जानकर विवेकी जीव सब प्रकार से अधर्म का परित्याग करते हुए निरन्तर धर्म किया करते हैं ।
कुल : २१२ (१ आचार्य, ८४मुनि, १०९ आर्यिका, ८ ऐलक, १०क्षुल्लक)
Having directly realised the consequence of dharma and adharma, the discerning ones renounce adharma and practise dharma.
जो जीव क्षमा के आश्रय से क्रोध को मृदुता के आश्रय से मान को, ऋजुता के आश्रय से माया को तथा संतोष के आश्रय से लोभ को नष्ट कर देता है, उसके ही धर्म रहता है ।
Dharma abides with the person who conquers anger by forbearance, conceit by mellowness, illusion by simplicity and acquisitiveness by contentment.
मुनिश्री अजितसागर जी
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मुनिश्री क्षमासागर जी
की कविताएँ
ChH
एक पेड़ तुम उगाओ एक मैं, जब दोनों बड़े हो जाएँगे, संसृति के क्रम को वे ही दुहराएँगे।
लिखना-पढ़ना लिख लेता हूँ पढ़ लेता हूँ जो कहा जा सकता है उसे कह भी लेता हूँ। यदि लिखना-पढ़ना और कुछ कह लेना ही जीना है, तो इतना मैं भी जी लेता हूँ।
दूसरा दिन रोज लगता है जैसे कुछ छूट गया हो, करने को कहने को रह गया हो, शायद दो दिन की जिंदगी में इसीलिए दूसरा दिन होता हो।
आघात आँधी आकर चली गई है, वृक्ष शोकाकुल शान्त खड़े हैं, उनके बावजूद भी चिड़ियों के घोंसले टूटकर गिर पड़े हैं। क्या अब कोई चिड़िया विश्वास से भरकर नया घोंसला बना पाएगी?
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________________ रजि नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2003-05 दशलक्षण पर्व पर विद्वान् बुलावें आगामी पर्युषण पर्व (दशलक्षण पर्व) हेतु श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर (जयपुर) से अपने शहर, गाँव आदि में प्रवचनार्थ योग्य अनुभवी विद्वान् हेतु शीघ्र सम्पर्क करें, ताकि समय पर उचित व्यवस्था की जा सके। अधिष्ठाता-श्री दिगम्बर जैन श्र.स.सं., सांगानेर जिला-जयपुर (राज.) पि. 303902 फोन न. 0141-3941222, 2730552 मो. 9829546658, 9414337374 राष्ट्रीय जैन प्रतिभा सम्मान समारोह मोरेना में 5 व 6 नवम्बर को प्रख्यात जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी के विद्वान् शिष्य मुनि श्री क्षमासागर जी एवं मुनि श्री भव्यसागर जी की प्रेरणा तथा सान्निध्य में इस वर्ष का राष्ट्रीय जैन प्रतिभा सम्मान समारोह म.प्र. के मोरेना नगर में 5 और 6 नवम्बर 05 को आयोजित होगा। इस पाँचवे सम्मानसमारोह में सम्मान हेतु पात्र प्रतिभाओं से निर्धारित फार्म पर 30 अगस्त 05 तक प्रविष्टियाँ आमंत्रित की गई हैं। इस वर्ष भी राज्य बोर्ड या सी.बी.एस.ई. की कक्षा १०वीं में 85 प्रतिशत एवं १२वीं में 75 प्रतिशत या इससे अधिक अंक पानेवाले तथा खेलों में राष्ट्रीय व प्रांतीय पुरस्कार प्राप्तकर्ता छात्र-छात्रायें इस सम्मान की पात्र होंगी। राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्तकर्ता तथा विकलांग विद्यार्थियों को निर्धारित न्यूनतम अंक की बाध्यता नहीं होगी / पात्र प्रतिभायें आवेदनपत्र हेतु श्री देवराज जैन, छतरपुर (फोन 241741), डॉ. सुमति प्रकाश जैन, छतरपुर (फोन२४१३८६) या श्री पी.एल. बैनाड़ा, मैत्री समूह, 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, हरीपर्वत, आगरा (फोन नं.९८३७०२५०८७) पर संपर्क कर सकते हैं। आवेदन फार्म पूर्णरूप से भरकर आगरा के उपर्युक्त पते पर भेजे जाने हैं, जो 30 अगस्त 05 तक आमंत्रित हैं / प्रतिभाओं के सम्मान के साथ-साथ जरूरतमंद प्रतिभाओं को उच्चशिक्षा हेतु छात्रवृत्ति भी प्रदान की जाती है। इस सम्मानसमारोह का शुभारंभ वर्ष 2001 में शिवपुरी में हुआ था ।वर्ष 2002 में यह आयोजन जयपुर में, वर्ष 2003 कोटा में तथा वर्ष 2004 अशोकनगर में ऐतिहासिक सफलता के साथ सम्पन्न हुआ था / इन चारों सम्मान समारोहों में देशभर की लगभग 3000 प्रतिभायें दिग्गज हस्तियों द्वारा अत्यंत गरिमापूर्वक सम्मानित हो चुकी पर्युषण एवं अष्टाह्निका आदि पर्ती में विद्वान् हेतु सम्पर्क करें जैसा कि आप सभी को विदित है कि श्री 1008जम्बू स्वामी सिद्धक्षेत्र, जैन चौरासी, मथुरा में 11 जुलाई 2001 में स्थापित 'श्रमण ज्ञान भारती संस्थान' जैन धर्म की शिक्षा देकर विद्वानों को तैयार कर रही है / इस संस्थान द्वारा कुशल विद्वान् आपके नगर एवं गाँव में पर्युषणपर्व एवं अष्टाह्निकापर्व आदि अवसरों पर, प्रवचन, विधि-विधान हेतु उपलब्ध हैं / यदि आप विद्वान् बुलाना चाहते हैं, तो निम्न पते पर सम्पर्क करें। निरंजन लाल बैनाड़ा अधिष्ठाता श्रमण ज्ञान भारती, कृष्णा नगर, मथुरा मो. 09319134191, 09412626524 फोन नं. 0562-2651452 हैं। डॉ. सुमति प्रकाश जैन, छतरपुर (म.प्र.) स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-1, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित।