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कहलायेंगे, भव्य कहलायेंगे। जो | है। शरीर को फारसी भाषा में बदमाश कहा जाता है। शरीर अभी वर्तमान में पुरुषार्थ नहीं करते वे भव्य होते हुए भी | शरीफ नहीं है बदमाश है। यदि इस शरीर का मोह छूट जाये दूरानुदूर भव्य कहे जायेंगे या दूर-भव्य कहे जायेंगे, आसन्न तो जीव को संसार में कोई बाँध नहीं सकता । भव्य तो नहीं कहलायेंगे। एक अंधपाषाण होता है, जिसमें
- अतः बंधुओ! जितनी मात्रा में आप परिग्रह को कम स्वर्ण शक्ति-रूप में तो रहता है, लेकिन कभी भी उस
| करेंगे, शरीर के प्रति मोह को कम करेंगे, आपका जीवन पाषाण से स्वर्ण अलग नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार
उतना ही हल्का होता जायेगा, अपने स्वभाव को पाता जायेगा। दूरानुदूर भव्य हैं, जो भव्य होने पर भी अभव्य की कोटि में
जिस प्रकार नवनीत का गोला जब तक भारी था तभी तक ही आ जाते हैं अर्थात् शक्ति होते हए भी कभी उसे व्यक्त
अन्दर था, जैसे ही उसे तपा दिया तो वह हल्का हो गया। नहीं कर पाते।
सुगंधित घी बन गया। अब नीचे नहीं जायेगा। अभी आप उमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र के दशवें अध्याय | लोगों में से कुछ ऐसे भी हैं जो न घी के रूप में हैं और न ही में मोक्ष के स्वरूप का वर्णन किया है। उस मुक्त-अवस्था | नवनीत के रूप में, बल्कि दूध के रूप में ही है। संसारी का क्या स्वरूप है, यह बतलाया है। और उससे पूर्व नवमें | जीव कुछ ऐसे होते हैं, जो फटे हए दूध के समान हैं, जिसमें अध्याय में वह मुक्त-अवस्था कैसे प्राप्त होगी, यह बात कही | घी और नवनीत का निकलना ही मुश्किल होता है तो कछ है, जिस प्रकार तूंबी मिट्टी का संसर्ग पाकर अपना तैरने | ऐसे जीव भी हैं जो कि भव्य जीव हैं। वे सुरक्षित नवनीत की वाला स्वभाव छोड़कर, डूब जाती है। और मिट्टी का संसर्ग, | तरह हैं। जो समागमरूपी ताप के मिलने पर घी रूप में पानी में घुल जाने के बाद, फिर से हल्की होकर ऊपर तैरने | परिणत हो जावेंगे और संसार से पार हो जायेंगे। आप सभी लग जाती है। ऐसे ही यह आत्मा राग-द्वेष और पर-पदार्थों | को यदि अनन्त सुख को पाने की अभिलाषा हो, तो परिग्रह के संसर्ग से संसार-सागर में डूबी हुई है। जो जीव पर- | रूपी भार को कम करते जाओ। जो पदार्थ जितना भारी पदार्थों का त्याग कर देते हैं और राग-द्वेष हटाते हैं वे संसार | होता है वह उतना ही नीचे जाता है। तराजू में भारी पलड़ा सागर के ऊपर, सबसे ऊपर उठकर अपने स्वभाव में स्थित | नीचे बैठ जाता है और हल्का ऊपर उठ जाता है। इसी प्रकार • हो जाते हैं। दूध में जो घी शक्तिरूप में विद्यमान है उसे | परिग्रह का भार संसारी प्राणी को नीचे ले जाने में कारण बना निकालना हो, तो ऐसे ही मात्र हाथ डालकर उसे निकाला | हुआ है। लौकिक दृष्टि से भारी चीज की कीमत भले ही नहीं जा सकता। यथाविधि उस दूध का मंथन करना होता है | ज्यादा मानी जाती हो, लेकिन परमार्थ के क्षेत्र में तो हल्के
और मंथन करने के उपरांत भी नवनीत का गोला ही प्राप्त | होने का, पर-पदार्थों के भार से मुक्त होने का महत्त्व है। होता है, जो कि छाछ के नीचे-नीचे तैरता रहता है। अभी | | क्योंकि आत्मा का स्वभाव पर-पदार्थों से मुक्त होकर उस नवनीत में भी शुद्धता नहीं आयी, इसलिये वह पूरी | उर्ध्वगमन करने का है। तरह ऊपर नहीं आता। भीतर ही भीतर रहा आता है। और उमास्वामी आचार्य ने यह भी कहा है कि, 'बहुजैसे ही नवनीत को तपा करके घी बनाया जाता है। तब | आरंभ और बहु-परिग्रह रखने वाला नरकगति का पात्र होता कितना भी उसे दूध या पानी में डालो वह ऊपर ही तैरता | है।' बहुत पुरुषार्थ से यह जीव मनुष्य जीवन पाता है, लेकिन रहता है । ऐसी ही स्थिति कल तक आदिनाथ स्वामी की | मनुष्य जीवन में पुनः पदार्थों में मूर्छा, रागद्वेषादि करके थी। वे पूरी तरह मुक्त नहीं हुए थे। जिस प्रकार अंग्रेजों से | नरकगति की ओर चला जाता है। नारकी जीव से तत्काल पन्द्रह अगस्त 1947 को भारत वर्ष को आजादी/स्वतंत्रता तो
नारकी नहीं बन सकता। तिर्यंच भी पांचवें नरक तक ही जा मिल गई थी किन्तु वह स्वतंत्रता अधूरी ही थी। देश को | सकता है। लेकिन कर्मभूमि का मनुष्य और उसमें भी पुरुष सही/पूर्ण स्वतंत्रता तो 26 जनवरी 1950 को मिली थी, जब | सातवें नरक तक चला जाता है। यह सब बहुत आरंभ और ब्रिटिश सरकार और उनके नियम-कानून, लेन-देन आदि | बहत परिग्रह के कारण ही होता है। बडी विचित्र स्थिति है। क बधना स मुक्ति मिला आर दश अपन हा नियम-कानूना | पुरुष का पुरुषार्थ उसे नीचे की ओर भी ले जा सकता है
अन्तगत शासित हुआ। वस हा आदिनाथ प्रभु का स्वतत्रता | और यदि वह चाहे तो मोक्ष-पुरुषार्थ के माध्यम से लोक के अपूर्ण थी क्योंकि वे शरीर रूपी जेल में थे। आज पूरी तरह | अग्रभाग तक जाने की क्षमता रखता है। वह मुक्ति का मार्ग संसार और शरीर दोनों से मुक्त हुए हैं। शरीर भी जेल ही तो |
| भी अपना सकता है और संसार में भटक भी सकता है। यह
-सितम्बर 2005 जिनभाषित 1
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