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सब जीव के पुरुषार्थ पर निर्भर है, केवल पढ़ लेने से या उनके जानने मात्र से नहीं ।
पतन की ओर तो हम अनादि काल से जा रहे हैं परन्तु उत्थान की ओर आज तक हमारी दृष्टि नहीं गयी। हम अपने स्वभाव से विपरीत परिणमन करते रहे हैं और अभी भी कर रहे हैं । इस विभाव या विपरीत परिणमन को दूर करने के लिये ही मोक्षमार्ग है । पाँच दिन तक आपने विभिन्न धार्मिक कार्यक्रम देखे, विद्वानों के प्रवचन सुने। ये सभी बातें विचार करें, विवेकपूर्वक क्रिया में लाने की हैं। अपने जीवन को साधना में लगाना अनिवार्य है। जितना आप साधना को अपनायेंगे उतना ही कर्म से मुक्त होते जायेंगे, पापों से मुक्त होते जायेंगे। जैसे तूंबी कीचड़ मिट्टी का संसर्ग छोड़ते ही पानी के ऊपर आकर तैरने लगती है और उस पंक- रहित तूंबी का आलंबन लेने वाला व्यक्ति भी पार हो जाता है वैसे ही हमारा जीवन यदि पापों से मुक्त हो जाता है, तो स्वयं के साथ-साथ औरों को भी पार करा देता है। राग के साथ तो डूबना ही डूबना है । पार होने के लिये एकमात्र वीतरागता का सहारा लेना ही आवश्यक है। वर्तमान में सच्चे देव - गुरु-शास्त्र, जो छिद्र रहित और पंक रहित तूंबी के समान हैं, उनका सहारा यदि हम ले लें तो एक दिन अवश्य पार हो जायेंगे ।
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स्वाधीनता, सरलता, समता स्वभाव, तो दीनता, कुटिलता, ममता विभाव । जो भी विभाव धरता, तजता स्वभाव, तो डूबती उपल-नाव, नहीं बचाव ॥
सितम्बर 2005 जिनभाषित
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स्वाधीनता, सरलता और समता ही आत्मा का स्वभाव है और राग-द्वेष-क्रोध आदि विभाव हैं। जो इस विभाव का सहारा लेता है, वह समझो पत्थर की नाव में बैठ रहा है, जो स्वयं तो डूबती ही है, साथ ही बैठने वाले को भी डुबा देती है। आपको वीतरागता की, स्वभाव की उपासना करनी चाहिए। यदि आप वीतरागता की उपासना कर रहे हैं तो ये निश्चित समझिये कि आपका भविष्य उज्ज्वल है। ये वीतरागता की उपासना कभी छूटनी नहीं चाहिए। भले ही आपके कदम आगे नहीं बढ़ पा रहे, पर पीछे भी नहीं हटना चाहिए। रागद्वेष के आँधी-तूफान आयेंगे, बढ़ते कदम रुक जायेंगे लेकिन जैसे ही रागद्वेष की आँधी जरा धीमी हो, एक-एक कदम आगे रखते जाइये, रास्ता धीरे-धीरे पार हो जायेगा ।
आज तो बड़े सौभाग्य का दिन है। भगवान को निर्वाण की प्राप्ति हुई । एक दृष्टि से देखा जाये तो उनका जन्म भी हुआ । शरीर की अपेक्षा मरण कहो तो कोई बात नहीं, लेकिन जिसका अनंतकाल तक नाश नहीं होगा ऐसा जन्म भी आज ही हुआ है । अजर-अमर पद की प्राप्ति उन्हें हुई है। संसार छूट गया वे मुक्त हो गये हैं। मैं भी ऐसी प्रार्थना / भावना करता हूँ कि मुझे भी अपनी ध्रुव - सत्ता की प्राप्ति हो । मैं भी पुरुषार्थ के बल पर अपने अजर-अमर आत्म-पद को प्राप्त करूँ ।
'समग्र' (चतुर्थ खण्ड ) से साभार
आतम बल उपजा ले
कुछ भागे तन-बल के पीछे, कुछ जन-बल को भाग रहे । कुछ भागे छल-बल के पीछे, धन-बल को सब भाग रहे । भागम-भाग में भाग गये सब, मानव मन के सुख और चैन ।
जड़ मानव अब तो खोलो, अपने अन्तर मन के नैन । क्षणभंगुरता दिख जायेगी, सब आकुलता मिट जायेगी। सच्चा बल तो आतमबल है, आतम बल उपजा ले ।
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सुमेरचन्द जैन
सेवा निवृत्त लेखाधिकारी, हनुमान कालोनी, गुना
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