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________________ मोक्ष : संसार के पार आचार्य श्री विद्यासागर जी करता है और संसारी जीव अपने संसार का निर्माण स्वयं करता जाता है। आज इस संसाररूपी जेल को तोड़कर छूट जाने का दिन है। ध्यान रखना ये अपने आप नहीं टूटता, तोड़ा जाता है। और जेल तोड़ने वाला, बंधन से छूटनेवाला, जेलर हे कुन्दकुन्द मुनि! भव्य सरोज बन्धु, नहीं, कैदी ही होता है। जेल को बनानेवाला भी कैदी ही है। मैं बार-बार तव पाद-सरोज बन्दूँ । जेलर तो मात्र देखता रहता है। इसी प्रकार संसारी प्राणी सम्यक्त्व के सदन हो समता सुधाम, अपना संसार स्वयं निर्मित करता है, मुक्तात्मायें तो उनके है धर्मचक्र शुभ धार लिया ललाम ।। बंधन को देखने-जानने वाली हैं । देखना-जानना ही वास्तव आज एक संसारी प्राणी ने किस प्रकार बंधन से में आत्मा का स्वभाव है। संसारी प्राणी जब संसार के बंधन मुक्ति पाई और किस प्रकार पतन के गर्त से ऊपर उठकर को तोड़कर मुक्त हो जाता है, तब वह भी मुक्तात्माओं में सिद्धालय की ऊँचाईयों तक अपने को पहुँचाया-ये मिल जाता है और मात्र देखने-जाननेवाला हो जाता है। हम देखने/समझने का सौभाग्य हमें मिला। यह मुक्त दशा इसे भी यदि पुरुषार्थ करें, तो नियम से इस संसार से मुक्त हो आज तक प्राप्त नहीं हुई थी, आज ही प्राप्त हुई और बिना सकते हैं । यही आज हमें अपना ध्येय बनाना चाहिए। प्रयास के प्राप्त नहीं हुई बल्कि परम पुरुषार्थ के द्वारा प्राप्त प्रत्येक प्राणी सख चाहता है, स्वतंत्र होना चाहता है, हुई है। इससे यह भी ज्ञात हुआ कि संसारी जीव बंधन- किन्तु स्वतंत्रता के मार्ग को अपनाना नहीं चाहता। तब सोचो बद्ध है और उसे बन्धन से मुक्ति मिल सकती है, यदि वह क्या यों ही बैठे-बैठे उसे आजादी/स्वतंत्रता मिल जायेगी? परुषार्थ करे तो। वृषभनाथ का जीव अनादि-काल से ऐसा कभी संभव नहीं है । एक राष्ट्र जब दसरे राष्ट्र की सत्ता से संसार में भटक रहा था उसे स्व-पद की प्राप्ति नहीं हुई मत होना चाहता है तो उसे बहुत परुषार्थ करना होता है। थी। इसका कारण यही था कि इस भव्य जीव ने मोक्ष की आजादी की लड़ाई लड़नी होती है। उदाहरण के लिये प्राप्ति के लिये पुरुषार्थ नहीं किया था। लेकिन आज जो भारतवर्ष को ही ले लें। आज से 30-32 साल पहले भारत के शक्ति अभी तक अव्यक्त रूप से उसमें विद्यमान थी, वह लोग परतंत्रता का अनुभव कर रहे थे। परतंत्रता के दख को पुरुषार्थ के बल पर व्यक्त हुई है। भोग रहे थे। तब धीरे-धीरे अहिंसा के बल पर अनेक नेताओं कोई भी कार्य अपने आप नहीं होता। सोचो, जब ने मिलकर देश को स्वतंत्रता दिलाई। लोक-मान्य तिलक ने बंधन अपने आप नहीं होता, तो मुक्ति कैसे अपने-आप नारा लगाया कि स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। हो जायेगी। चोर जब चोरी करता है तभी जेल जाता है लोगों के मन में यह बात बैठ गयी और परिणामस्वरूप भारत बंधन में पड़ता है। इसी प्रकार यह आत्मा जब राग-द्वेष, को स्वतंत्रता मिली। ठीक इसी प्रकार पराधीनता हमारा मोह करता है, पर पदार्थों को अपनाता है, उनसे संबंध जीवन नहीं है, स्वतंत्रता ही हमारा जीवन है-ऐसा विश्वास जोड़ता है और उनमें सुख-दुख का अनुभव करने लगता जाग्रत करके जब हम बंधन को तोड़ेंगे तभी मुक्ति मिलेगी। है, तभी उनसे बँध जाता है। सभी सांसारिक सुख-दुख जिस प्रकार दूध में घी अव्यक्त है, शक्ति-रूप में विद्यमान संयोगज हैं। पदार्थों के संयोग से उत्पन्न होते हैं। पदार्थों है। उसीप्रकार आत्मा में शुद्ध होने की शक्ति विद्यमान है। के संयोग से राग-द्वेष होता है, जो आत्मा को विकृत उस शक्ति को अपने पुरुषार्थ के बल पर व्यक्त करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524300
Book TitleJinabhashita 2005 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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