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________________ विद्वानों और विदुषियों की ये अनुभूतियाँ और आकलन श्रावकों, मुनियों और पण्डितों के लिए आत्मदर्पण हैं और इस बात के सूचनापटल भी हैं कि उनके आचरण के विषय में समाज का मस्तिष्क क्या सोच रहा है, उनके बारे में समाज के प्रबुद्ध वर्ग की श्रद्धा क्या रूप धारण कर रही है? __यह आकलन बड़ा खौफनाक है। सभी का यह अनुमान है कि मुनियों का अप्रशस्त आचरण भविष्य में और विकराल रूप धारण करेगा। यह हमें आगाह करता है कि जिनशासन के मूल स्वरूप को विकृत होने से बचाने के लिए संगठित होकर दृढ़ता से आगमोक्त कदम उठाना होगा, जिसका उपदेश आचार्य कुन्दकुन्द ने दिया है। वह है असंजदंण वन्दे वत्थविहीणो वि सो ण वंदिज्ज। दुण्णि वि होंति समाणा एगो विण संजदो होदि ॥26॥दसणपाहुड अर्थात् असंयमी की वन्दना नहीं करनी चाहिए और जो वस्त्ररहित (नग्न) होकर भी असंयमी है, वह भी वन्दना के योग्य नहीं है। दोनों ही समान हैं, उनमें से कोई भी संयमी नहीं है। इस गाथा में आचार्य कुन्दकुन्द ने श्रावकों और मुनियों, दोनों को उपदेश दिया है कि जो दिगम्बरमुनि का वेश धारण करके भी अन्यथाचारी अर्थात् असंयमी है, उसकी वन्दना नहीं करनी चाहिए। वन्दना के निषेध से उसके लिये आहारदान आदि का भी निषेध हो जाता है, क्योंकि आहारदान में नवधाभक्ति आवश्यक होती है। असंयमी मुनियों को कुन्दकुन्द ने श्रमणाभास कहा है और संयमी मुनियों को आदेश दिया है कि वे उनका अभ्युत्थान, सत्कार, वन्दना आदि न करें। (देखिए, प्रवचनसार के तृतीय अधिकार की ६२-६३ वीं गाथाएँ )। एक संघ का मुनि दूसरे संघ के मुनि की जो वन्दना, सत्कार आदि करता है, उसे समाचार या सामाचारी कहते हैं। किन्तु यह समान आचारवाले मुनि के ही साथ करणीय है। अत: आचार्य कन्दकन्द ने समान आचार से रहित मनियों के साथ समाचार का निषेध किया है। श्री माइल्लधवल ने भी द्रव्यस्वभावप्रकाशकनयचक्र में कहा है कि समान आचार से रहित लौकिक (असंयमी एवं तंत्र मंत्रादि लौकिक कार्य करनेवाले) मुनियों के साथ समाचार नहीं करना चाहिए लोगिगसद्धारहिओ चरणविहणो तहेव अववादी । विवरीओ खलु तच्चे बजेवा ते समायारे ॥ 338॥ आज भी कुछ संयमी मुनि आगम की आज्ञा का पालन करते हुए समान आचार से रहित मुनियों के साथ सामाचारी नहीं करते। इससे असंयम को आदर नहीं मिलता, जो संयम का सम्मान करने तथा संयम में असमर्थ पुरुषों को मुनिपद धारण करने की बजाय शक्त्यनुसार श्रावकधर्म के पालन की प्रेरणा देने हेतु आवश्यक है। विकृताचारी असंयमी मुनियों की बाढ़ को रोकने के लिए श्रावकों और विद्वज्जनों को भी इसी मार्ग का अनुसरण करना चाहिए, क्योकि उनके लिए भी असंयमी मुनियों की वन्दना का निषेध किया गया है । यह स्मरणीय है कि पूजनीय और सम्माननीय पद पर आसीन व्यक्तियों का ही विकृतचरित्र धर्म, समाज और राष्ट्र के लिए सर्वाधिक घातक होता है। और वे स्वयं अपने विकृतचरित्र को मिटाने के लिए तत्पर हो नहीं सकते, क्योंकि कोई अपने ही सुख-साम्राज्य को मिटाने की मूर्खता क्यों करेगा? जो उन पदों पर आसीन नहीं होते हैं, वे ही उनके विकृतचरित्र पर अंकुश लगाने का कार्य कर सकते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजपद पर आसीन होनेवाले पुरुष जब भ्रष्टाचार शुरू कर देते हैं, तब जनता ही उन्हें पदच्युत कर पाती है। भारत में आपात्काल लगानेवाले निरंकुश शासकों को जनता ने ही धूल चॅटाई थी। इसी प्रकार मध्ययुग में जब मुनि विकृताचारी होकर भट्टारक बनने लगे और श्रावकों पर जुल्म ढाने लगे, तब तेरापंथ का बिगुल बजानेवाले पण्डितों और श्रावकों ने ही सम्पूर्ण उत्तरभारत से उनकी गद्दियाँ उखाड़ फेंकने का पौरुष किया था। अत: वर्तमान के अन्यथाचारी मुनियों की परम्परा को खत्म करने का पौरुष पण्डित और श्रावक ही कर सकते हैं। किन्तु पहले उन्हें 'मेरी भावना के' "चाहे कोई बुरा कहे या अच्छा ...'' इस आदर्श को अपने में उतारना होगा। रतनचन्द्र जैन 6 सितम्बर 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524300
Book TitleJinabhashita 2005 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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