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________________ जैनधर्म में नाग-तर्पण नागतर्पण शब्द सुनकर शायद हमारे जैनीभाई चौकेंगे कि जैनधर्म में नागतर्पण कैसा? उन्हें जानना चाहिए कि हमारे जैनशास्त्र भण्डारों में जहाँ एक ओर अमूल्य शास्त्ररत्न भरे हैं, तो दूसरी ओर कांचखण्ड भी रक्खे हैं । आश्चर्य इस बात का है कि हमारे कुछ संस्कृत के धुरन्धर विद्वानों ने भी इन कांचखण्डों को अपनाया है । जयपुर से पहिले अभिषेकपाठसंग्रह नाम से एक ग्रंथ प्रकाशित हुआ था। उसमें जिन अभिषेकपाठों का संग्रह किया है, उनके कुछ मुख्य रचयिताओं के नाम इस प्रकार हैं पूज्यपाद, गुणभद्र, सोमदेव, अभयनन्दि, गजांकुश, आशाधर, अय्यपार्य, नेमिचन्द्र और इन्द्रनन्दी । यहाँ यह ध्यान में रखना चाहिए कि पूज्यपाद, गुणभद्र, नेमिचन्द्र आदि नामवाले जो प्रसिद्ध आचार्य हमारे यहाँ हुए हैं, वे ये नहीं हैं। उन नाम के ये कोई दूसरे ही हैं। पूर्वोक्त रचयिताओं में से एक गजांकुश को छोड़कर बाकी सभी ने अपने-अपने अभिषेक पाठों में नागतर्पण लिखा है । पं. आशाधर जी ने अपने बनाये 'नित्य-महोद्योत' नाम के अभिषेक पाठ में नागतर्पण इस प्रकार लिखा है। उद्भात भोः षष्टिसहस्त्रनागाः क्ष्माकामचारस्फुटवीर्यदर्पाः । प्रतृप्यतानेन जिनाध्वरोर्वी सेकात् सुधागर्वमृजामृतेन ॥ 48 ॥ " 7 अर्थ - पृथ्वी पर यथेष्ट विचरने से जिनका पराक्रम प्रकट है, ऐसे हे साठ हजार नागो! तुम प्रकट होओ। और जिन यज्ञ की भूमि में तुम्हारे लिए सिंचन किए इस जल से जो कि अमृत के गर्व को भी खर्व करने वाला है, तुम तृप्त होवो। ऐसा कहकर ईशान दिशा में जलांजलि देवे । इति नागतर्पणम् । यहाँ यह मालूम रहे कि भूमिशुद्धि के लिए जो अभिमन्त्रित जल के छींटे दिए जाते हैं, वह वर्णन तो आशाधर जी ने ऊपर श्लोक ४६ में अलग ही कर दिया है। यहाँ खासतौर से नागों के लिए ही जल देने का कथन किया है । यही श्लोक आशाधर जी ने प्रतिष्ठासारोद्धार में भी लिखा है। इन आशाधर जी से पहिले सोमदेव हुए उन्होंने भी यशस्तिलक में नागतर्पण का कथन इन शब्दों में किया है रत्नाम्बुभिः कुशकृशानुभिरात्तशुद्धौ, भूमौ भुजंगमपती नमृतैरूपास्य ॥ ५३३ ॥ अर्थ - पंचरत्न रखे हुए जलपात्र के जल से और डाभ की अग्नि से पवित्र की हुई भूमि पर जल से नागेन्द्रों को तृप्त कर Jain Education International स्व. पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया इन्होंने साठ हजार की संख्या नहीं लिखी है। अन्य ग्रंथकारों में से किसी ने आशाधर का और किसी ने सोमदेव का अनुसरण किया है। यहाँ नागों का अर्थ सर्प नहीं है किन्तु नागकुमार देव है। नागकुमारों का वर्णन या तो भवनवासी निकाय के भेदों में आता है या लवण समुद्र की ऊँची उठी जलराशि को थामने वाले वेलन्धर नागकुमारों में आता है। इनमें से वेलन्धर नागकुमारों की संख्या तो लोकानुयोगी ग्रंथों में कहीं भी साठ हजार देखने में नहीं आई है। अलबत्ता भवनवासी नागकुमारों के सामानिक देवों की संख्या राजवार्तिक में अवश्य साठ हजार लिखी है। शायद इसीके आधार पर आशाधरजी ने नागों की संख्या साठ हजार लिखी हो । यहाँ के अमृत शब्द का अर्थ नित्यमहोद्योत की टीका में श्रुतसागर ने जल किया है। नेमिचन्द्रकृत अभिषेक पाठ में अमृत की जगह स्पष्ट ही जल शब्द लिखा है। अय्यपार्य ने अपने अभिषेकपाठ के श्लोक ७ में अमृत के स्थान में शक्कर- घृत लिखा है । यशस्तिलक की टीका में पं. कैलाशचन्दजी और पं. जिनदास जी ने अमृत का अर्थ दुग्ध किया है। अभयनन्दिकृत लघुस्नपन के श्लोक ६ की टीका में अमृत का अर्थ जल किया है । यहाँ विचारने की बात है कि जैनसिद्धांत के अनुसार देवलोक के देवों का मानसिक आहार होता है। वे जल, घृत, शक्कर, दूध का आहार लेते नहीं हैं । तब उनके लिये ऐसा कथन करना कैसे संगत हो सकता है? और यहाँ यह नागतर्पण का विधान किस प्रयोजन को लेकर किया गया है? क्या इसलिये कि वे जिनयज्ञ में विघ्न न करें? मगर जैनागम के अनुसार तो देवगति के सभी देव जिनधर्मी होते हैं, तब वे जिनयज्ञ में विघ्न करेंगे भी क्यों ? और जो चीज उन्हें दी जा रही है, वह उनके काम की न होने से वे विघ्न करते रुकेंगे भी क्यों? यदि कहो कि जैसे भगवान् जिनेन्द्र क्षुधारहित हैं, फिर भी हम उनकी पूजा नैवेद्य फलादि से करते हैं, वैसे ही यहाँ नागकुमार देवों के विषय में समझ लेना चाहिए। ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्योंकि भगवान् की पूजा में जो द्रव्य चढ़ाया जाता है, वह उनके भोग के लिये नहीं चढ़ाया जाता है। वह तो भक्ति से भेंटस्वरूप है । किन्तु यहाँ तो आशाधरजी ने नागकुमारों को तृप्त करने की बात लिखी है। इस प्रकार के विधिविधान एक तरह से बाल-क्रीड़ा समान मालूम पड़ते हैं। इस पर मननशील विद्वानों को विचार करना चाहिए। ब्राह्मण ग्रंथों में देवपितरों को जल देकर तृप्त करने को तर्पण कहा है। उसी तरह का यहाँ यह नागतर्पण लिखा गया है। For Private & Personal Use Only 'जैन निबन्ध रत्नावली' से साभार सितम्बर 2005 जिनभाषित 7 www.jainelibrary.org
SR No.524300
Book TitleJinabhashita 2005 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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