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चातुर्मास को सार्थक कैसे बनायें
श्रमण संस्कृति में वर्षायोग / चातुर्मास का एक अतिमहत्त्वपूर्ण स्थान है। आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा से प्रारम्भ होकर कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा पर्यन्त चलने वाला यह पर्व श्रावक एवं साधु दोनों के लिए लाभप्रद हुआ करता है । साधुवर्ग अहिंसाधर्म एवं चतुर्विध आराधना की साधना करते हुए, श्रावक वर्ग के लिए धर्मामृत - ज्ञानामृत की वर्षा कर, उनके कल्याण में प्रेरक निमित्त बनते हैं। श्रावकवर्ग भी संतसमागम, धर्मश्रवण, वैयावृत्ति, आहारदानादि के माध्यम से अपने गृहस्थधर्म का पालन कर अपने को सौभाग्यशाली अनुभव करता है।
धन्य हैं, वे गौवरशाली नगर / शहर और पुण्यशाली श्रावकजन, जिन्हें इस चातुर्मास पर्व में गुरुओं का पावन सामीप्य प्राप्त हुआ है। हमें इस दुर्लभ मणिकांचन योग को किसी पवित्र तीर्थयात्रा/तीर्थधाम से कम नहीं समझना चाहिए। साधुसंघ के सान्निध्य की सफलता, नए-नए निर्माणकार्य हेतु धन-संग्रह का माध्यम न बनाकर । धर्मप्राप्ति का साधन बनाकर इस अनादि निधन पर्व की पवित्रता को कायम
रखें। साधु एवं श्रावक उभयवर्ग को चाहिए कि संस्कृति एवं संस्कारों के संरक्षण हेतु कुछ ठोस कदम उठायें। ताकि चातुर्मास की अमिट यादगार हमारे सदाचरण - सद्वाक्य द्वारा दूसरों के लिए अनुकरणीय-प्रशंसनीय बन सकें। श्रावकवर्ग एवं साधुवर्ग से सविनय निवेदन करना चाहते हैं कि निम्न बिन्दुओं पर अवश्य ध्यान दें ताकि चातुर्मास की उपलब्धियाँ इतिहास के पृष्ठों पर अंकित की जा सकें :
(1) दिशाविहीन युवाशक्ति, जो व्यसनों एवं भौतिकता में भटक चुकी है, उसे मार्गदर्शन देकर सन्मार्ग
पर लगाया जावे।
(2) जाति, पंथ, संघ एवं संत के नाम पर विभक्त समाज को प्रेम, वात्सल्य के माध्यम से अखण्डता एकता के सूत्र में समाहित किया जाना चाहिए।
(3) नवनिर्माण मंदिर भवन- धर्मशाला के स्थान पर समाज की नव पीढ़ी को नैतिकता की शिक्षा देकर जीवन निर्माण का कार्य करें।
(4) समाज में चल रहे मृत्युभोज, रात्रि - विवाहभोजन, अभक्ष्यभक्षण, बुफे सिस्टम आदि पर प्रतिबंध लगवाकर, दिवा-विवाह - भोजन की पुनीत प्रेरणा दें।
8 सितम्बर 2005 जिनभाषित
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ब्र. संदीप 'सरल'
(5) शास्त्र भण्डारों का व्यवस्थित सूचीकरण करवा दें। कोई दुर्लभ, महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित करवाकर अनूठा कार्य श्रुत प्रचार-प्रसार की दिशा में किया जा सकता है।
(6) बालवर्ग को संस्कारशालाओं के माध्यम से संस्कारित करने की महती आवश्यकता है। इस दिशा में गंभीरता से विचार करें।
(7) वर्षायोग के समय गृहस्थों के लिए संयमाचरण की ओर कदम बढ़ाना चाहिए। रात्रि - भोजन त्याग, अभक्ष्य भक्षण त्याग, अष्टमी - चतुर्दशी उपवास एकासन आदि के माध्यम से कषायों की मंदता हेतु पुरुषार्थ करना चाहिये ।
(8) भावी पीढ़ी की पुरोधा, नवोदित बालकबालिकाओं के लिए साधु संघों के दर्शनार्थ प्रतिदिन अथवा अवकाश के दिनों में अवश्य ही ले जावें और उन्हें जैन श्रावकाचार, श्रमणाचार की जानकारी से अवगत करावें ।
(9) समाज में 'मृतप्रायः स्वाध्याय की परम्परा को जीवित करें। समाज में आज जितने भी संघर्ष हो रहे हैं, उन स्वाध्यायशील टीम तैयार होती है तो शिथिलाचार-भ्रष्टाचार, सभी की मूल जड़ अज्ञानवृत्ति है । अत: इस दिशा में एक अनैतिक आचरण पर कुछ रोक लग सकती है ।
जिनवाणी जिनसारखी : जिनेन्द्र भगवान् की वाणी को जिनेन्द्र की ही संज्ञा दी गई है। आज के भौतिक वातावरण में विषय कषायों से संतप्त संसारी प्राणी को आत्मशांति के लिए जिनवाणी रूपी अमृत ही हमारे जीवन में सुख शांति की बहार ला सकता है। अतः हमें चाहिए कि वर्षायोग में साधु संघों के सान्निध्य में संचालित प्रशिक्षण कक्षाओं में सम्मलित होकर शास्त्रों का अभ्यास, पठन-पाठन में ही अपना अधिक समय निकालें।
शास्त्राभ्यास की महिमा की दुर्लभता को समझने के लिए निम्न पंक्तियाँ हमें सन्मार्ग प्रशस्त कर सकती हैं :
ज्ञानहीनो न जानाति, धर्मं पापं गुणागुणं । हेयाहेयं विवेकं च, जात्यंध इव हस्तिनम् ॥ (सुभाषित रत्ना.) अज्झयणमेव झाणं. पंचेदिय णिग्गहं कसायं पि । तत्तो पंचमकाले, पवयणसारब्भासमेव कुज्जाहो ॥ (रयणसार) शेष पृष्ठ 10 पर
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